दिल्ली के उद्योग नगर में मज़दूरों के हत्याकाण्ड का ज़िम्मेदार कौन?

– भारत

एक बार फिर ये साबित हो गया कि पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूरों की अहमियत कीड़े-मकोड़ों से ज़्यादा नहीं है। बीते 21 जून को दिल्ली के पीरागढ़ी स्थित उद्योग नगर औद्योगिक क्षेत्र में जूता कारख़ाने में भीषण आग लग गयी, जिसमें 6 मज़दूरों की जानें चली गयीं। सरकार और मालिक की लापरवाही का आलम यह है कि उन मज़दूरों की लाशों को सात-आठ दिन बीतने के बाद धीरे-धीरे निकाला गया। जब आग लगी तब फ़ैक्टरी में 12 मज़दूर मौजूद थे। मालिक ने जेल की तरह सारे दरवाज़ों पर ताला लगा रखा था, जिस कारण मज़दूर आग लगने के वक़्त भाग भी न सके और वहीं आग में जलकर मर गये। यहाँ कार्यरत ये मज़दूर महज़ 7000-8000 रुपये के वेतन पर कारख़ानों में खटते थे। इससे पहले भी इस कारख़ाने में दो बार आग लग चुकी है, उसके बावजूद न तो मालिक और न ही सरकार ने सुरक्षा का इन्तज़ाम करना ज़रूरी समझा। ये महज़ एक दुर्घटना नहीं बल्कि मालिकों द्वारा की गयी हत्या है।
इस हत्याकाण्ड का ज़िम्मेदार कौन है? सबसे पहले ये फ़ैक्टरी मालिक जो मज़दूरों के हाड़-माँस को काट-काटकर मुनाफ़ा कमाना चाहते हैं! उद्योग नगर से लेकर दिल्ली और पूरे देश के कारख़ाने असल में कसाईख़ाने हैं, जहाँ मज़दूर अपना माँस मालिक को 200 रुपये दिहाड़ी पर बेचने को मजबूर हैं। इन्हीं जोंकों के पैसे से तमाम पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियाँ चुनाव लड़ती हैं। इन्हीं के नेता-मंत्री केन्द्र सरकार, राज्य सरकार और नगर निगम में बैठते हैं। वे ही इस हत्या, लूट और शोषण को क़ानूनी जामा पहनाते हैं! उद्योग नगर में जो हुआ वह हादसा नहीं, इन्हीं कफ़नखसोटों और मुर्दाख़ोरों द्वारा अंजाम दिया गया हत्याकाण्ड है।
अभी कुछ दिन पहले ही पुणे के कारख़ाने में आग लगने से कई मज़दूरों की मौत हुई थी। इसी तरह की आग इससे पहले साल 2018 की जनवरी में बवाना के सेक्टर-5 में लगी थी, और ये सिलसिला अब तक जारी है, नरेला से लेकर झिलमिल, पीरागढ़ी, अनाजमण्डी तक में और पूरे देश भर के कारख़ानों में आग लगती रहती है। परन्तु ऐसे हादसों को बार-बार होने से रोकने के लिए अवैध कारख़ानों पर कोई कार्रवाई नहीं होती। कहने के लिए श्रम विभाग, लेबर इंस्पेक्टर, फ़ैक्टरी इंस्पेक्टर होते हैं, लेकिन कारख़ानों की जाँच करने के बजाय वे नियम से आते हैं और मालिकों के फेंके टुकड़े उठाकर चलते बनते हैं, कारख़ानों के भीतर तक नहीं जाते।
कारख़ानों में सुरक्षा के इन्तज़ामों पर ग़ौर करें तो स्पष्ट होगा कि ये कारख़ाने रोज़-रोज़ मज़दूरों की जान ले रहे हैं। कारख़ानों में बुनियादी दस्तानों से लेकर जूते तक नहीं दिये जाते और केमिकल वाले काम भी मज़दूर नंगे हाथों से ही करते हैं। फ़ैक्टरियों में हवा की निकासी तक के लिए कोई उपकरण नहीं लगाये जाते, जिस वजह से हमेशा धूल-मिट्टी और उत्पादों की गन्ध के बीच मज़दूर काम करते हैं। इस कारण जवानी में ही मज़दूरों को बूढ़ा बना दिया जाता है और दस-बीस साल काम करने के बाद ज़्यादातर मज़दूर ऐसे मिलेंगे जिन्हें कारख़ानों में बदतर हालात होने के कारण फेफड़ों से लेकर चमड़ी की या कोई न कोई अन्य बीमारी होती है।
दिल्ली में बसे 29 औद्योगिक क्षेत्रों के हालात यह हैं कि किसी भी कारख़ाने में सुरक्षा के नियम-क़ानून लागू नहीं होते। ऊपर से केजरीवाल नौटंकी करता है कि उसने मज़दूरों की ज़िन्दगी बदल दी और उनका वेतन बढ़ा दिया। काग़ज़ों में वेतन बढ़ोत्तरी की घोषणा के बाद अब 8 घण्टे के कार्य दिवस के हिसाब से अकुशल मज़दूरों का वेतन 15,492 से बढ़कर 15,908 रुपये, अर्धकुशल मज़दूरों का वेतन 17,069 से बढ़कर 17,537 रुपये और कुशल मज़दूरों का वेतन 18,797 से बढ़कर 19,291 रुपये हो गया है। पर असलियत तो हम सब जानते हैं कि दिल्ली में काम कर रहे करोड़ों मज़दूरों पर इससे रत्ती भर भी फ़र्क़ नहीं पड़ेगा क्योंकि पूरी दिल्ली के औद्योगिक क्षेत्रों में श्रम क़ानून लागू ही नहीं होते। दिल्ली के अन्दर एक बड़ी आबादी घरेलू कामगारों की है, जिनके लिए न्यूनतम वेतन एक खोखले शब्द के अलावा कुछ है ही नहीं। एक तरफ़ मज़दूरों से लेकर कामगारों की बड़ी आबादी रोज़ 200 रुपये में अपना हाड़-माँस गलाती है और बदतर हालात में जीने को मजबूर है, वहीं दूसरी तरफ़ केजरीवाल मज़दूरों का ‘मसीहा’ बनने की नौटंकी कर रहा है।
यह है नौटंकीबाज़ केजरीवाल, जिसकी पार्टी असल में दिल्ली के बड़े व्यापारियों, पूँजीपतियों की सेवा करती है, पर वोट लेने के लिए मज़दूरों से झूठे वादे करती है। आजकल जब भी जनता केजरीवाल को उसके वादे याद दिलाती है, तो वह यह कहकर बच निकलने की कोशिश करता है कि केन्द्र में बैठी मोदी सरकार इसे कुछ करने नहीं दे रही है। लेकिन यहाँ ग़ौरतलब बात यह है कि श्रम विभाग केजरीवाल सरकार के पास है और न्यूनतम वेतन लागू करने और सुरक्षा के इन्तज़ाम कारख़ानों में लागू करने के लिए इसे मोदी सरकार से मंज़ूरी लेने की कोई आवश्यकता नहीं है, फिर भी इतने लम्बे कार्यकाल में इन्होंने कहीं भी कोई श्रम क़ानून लागू क्यों नहीं कराया? ज़ाहिर सी बात है कि श्रम क़ानून लागू करने की इस सरकार की कोई मंशा नहीं है, इन्होंने सिर्फ़ नौटंकी की है और मज़दूरों को धोखा देने के अलावा और कोई काम नहीं किया है।
केजरीवाल के कई ऐसे विधायक हैं जो ख़ुद ही फ़ैक्टरी मालिक हैं और उनकी फ़ैक्टरियों में कोई श्रम क़ानून लागू नहीं होता है।
ऊपर से मोदी सरकार मज़दूरों के श्रम क़ानूनों को ख़त्म करने की योजना बना रही है, जिससे आने वाले समय में क़ानूनी तौर पर मालिक मज़दूर को ग़ुलाम बना लेंगे। केन्द्र में बैठी मोदी सरकार जो मज़दूरों की घोषित तौर पर दुश्मन है, जो कि सिर्फ़ जुमलेबाज़ी कर पूँजीपतियों की सेवा करती है और इस सब से जनता का ध्यान हटाने के लिए जाति-धर्म के नाम पर बाँटकर आपस में लड़ाने में लगी हुई है। इसलिए इन मौतों के लिए यह समूची मुनाफ़ाख़ोर व्यवस्था ज़िम्मेदार है, जो कारख़ानेदारों के मुनाफ़े को बचाने के लिए प्रतिबद्ध है।
जब इस कोरोना संकट के समय सरकार को मज़दूरों को आर्थिक व स्वास्थ्य सम्बन्धी सुरक्षा देनी चाहिए, सवैतनिक अवकाश देना चाहिए, तब मज़दूरों को काम पर भेजा जा रहा है। ऊपर से मालिकों ने लॉकडाउन का वेतन तक नहीं दिया और जब काम पर भी जाते हैं तो कारख़ानों में सुरक्षा के कोई इन्तज़ाम नहीं हैं। इन मुनाफ़ाख़ोरों ने मज़दूरों को भूख और बीमारी से मरने के लिए छोड़ दिया है।
इसी के ख़िलाफ़ भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी के नेतृत्व में मज़दूरों को संगठित कर पहले इलाक़े के विधायक का घेराव किया गया और इसके बाद मुख्यमंत्री केजरीवाल को भी ज्ञापन दिया गया और चेताया गया कि अगर तत्काल माँगें नहीं मानी जाती तो आने वाले समय में इसके ख़िलाफ़ बड़ा आन्दोलन किया जायेगा। माँगें इस प्रकार थीं:
– कारख़ानों में सुरक्षा के पुख़्ता इन्तज़ाम किये जायें व श्रम क़ानून तत्काल लागू किये जायें।
– दोषी मालिकों को कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाये।
– मारे गये मज़दूरों के परिवार को 50 लाख रुपये मुआवज़ा दिया जाये।

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2021


 

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