ओबीसी आरक्षण बिल, जाति आधारित जनगणना और आरक्षण पर अस्मितावादी राजनीति के निहितार्थ

– अरविन्द

जातीय जनगणना के मुद्दे पर एक बार फिर से सियासत तेज़ होती दिखायी दे रही है। विभिन्न अस्मितावादी जातिवादी पार्टियाँ अपना जातीय समर्थन और जनाधार क़ायम रखने के लिए रस्साकशी हेतु आ जुटी हैं। राजग की सहयोगी पार्टी जद(यू) के नीतीश कुमार भाजपा की तरफ़ आँखें निकाल रहे हैं तो दूसरी ओर अपने राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वी राजद के लालूप्रसाद यादव के लाल तेजस्वी यादव तथा अन्य दलों को साथ लेकर इस मसले पर प्रधानमंत्री मोदी से मुलाक़ात भी कर रहे हैं। जाति आधारित जनगणना की माँग को लेकर उक्त सर्वदलीय प्रतिनिधिमण्डल की प्रधानमंत्री से मुलाक़ात विगत 23 अगस्त को हुई थी। प्रतिनिधिमण्डल और बैठक में शामिल जनक राम नामक भाजपा नेता का कहना था कि मोदी ने एक परिवार के संरक्षक की तरह से सभी की राय सुनी है! हालाँकि गोपीनाथ मुण्डे जैसे भाजपा के विभिन्न नेता विपक्ष में रहते हुए ख़ुद जाति आधारित जनगणना की माँग को ज़ोर-शोर से उठाते रहे हैं लेकिन फ़िलहाल भाजपा इस मुद्दे पर पसोपेश की स्थिति में पड़ी दिखायी दे रही है।
सच्चाई यह है कि जाति आधारित जनगणना के होने या न होने से व्यापक मेहनतकश आबादी के जीवन में कोई भी वास्तविक बदलाव नहीं आने वाला है। आज जब सवाल उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के चलते रोज़गार और शिक्षा के घटते अवसरों पर उठाया जाना चाहिए तब बची-खुची चन्द नौकरियों के लिए जातिवादी-अस्मितावादी राजनीति में लोगों को झोंक देना किसी षड्यंत्र से कम नहीं है। जाति आधारित जनगणना के मुद्दे पर होने वाली नूराँकुश्ती में सार्विक शिक्षा, सबको रोज़गार और सार्विक स्वास्थ्य सेवाएँ हासिल करने के संघर्षों को कहीं पीछे धकेल दिया जायेगा और व्यवस्था की नाकामी से लोगों का ध्यान भटकाकर उन्हें एक-दूसरी जाति का होने के चलते ही एक-दूसरे का दुश्मन बना दिया जायेगा। जो लोग मौजूदा आरक्षण को समाप्‍त करने की माँग करते हैं, कोई दो राय नहीं कि वे ऐसी माँग अपने दिमाग़ के ब्राह्मणवादी व जातिवादी कीड़े के कारण करते हैं, क्‍योंकि ये ही लोग कभी शिक्षण संस्‍थानों में मैनेजमेण्‍ट कोटा या एनआरआई कोटा को समाप्‍त करने की माँग नहीं करते। लेकिन साथ ही वे लोग भी एक विभ्रम में जी रहे हैं कि आरक्षण के ज़रिए शिक्षा और रोज़गार के सवाल का हल हो सकता है या नयी-नयी श्रेणियाँ पैदा कर नये-नये आरक्षण बनाने से इस समस्‍या का समाधान हो सकता है। यह एक ऐसे काल्‍पनिक केक में हिस्‍से के लिए लड़ना है जो कि कहीं मौजूद ही नहीं है। शासक वर्ग के अलग-अलग हिस्‍से अलग-अलग तरीक़े से आरक्षण की राजनीति का इस्‍तेमाल करते हैं, ताकि जनता शिक्षा और रोज़गार को अपना मूलभूत अधिकार बनाने की लड़ाई न लड़े और समूची व्‍यवस्‍था और सरकार को कठघरे में न खड़ा करे बल्कि आपस में ही सिर-फुटौव्‍वल करती रहे।
जाति आधारित जनगणना की पूरी माँग के पीछे भी असल निहितार्थ यह है कि कैसे न कैसे जातियों के नये आँकड़ों के आधार पर आरक्षण की बन्दर बाँट को पुनर्परिभाषित किया जाये और अपनी-अपनी जातियों के वोट बैंक को सुदृढ़ किया जाये जिसे भाजपा की हिन्दुत्ववादी फ़ासीवादी और साम्प्रदायिक अस्मितावादी राजनीति ने “छिन्न-भिन्न” कर दिया है। पिछड़े वर्ग की जातियों की अस्मितावादी राजनीति करने वाली चुनावबाज़ पार्टियों की असल मंशा समझने के लिए हमें आरक्षण के इतिहास पर थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा। भारत में जनगणना की सीमित स्तर पर शुरुआत तो 1872 में ब्रिटिश वायसराय लार्ड मेयो के कार्यकाल में हो गयी थी, लेकिन व्यवस्थित ढंग से जनगणना की शुरुआत 1881 में ही हो पायी थी। उस समय की जनगणना में जाति एक महत्वपूर्ण तत्त्व था। अंग्रेज़ों का भारत में जनगणना करने का प्रमुख कारण भारत के समाज की आन्तरिक संरचना और नृजातीय समीकरणों को समझना था ताकि औपनिवेशिक लूट और शोषण को ओर भी पुख़्ता किया जा सके। 1881 के बाद से भारत में हर 10 साल के अन्तराल के बाद जनगणना होती रही है किन्तु हर जनगणना में जाति के तत्त्व को शामिल नहीं किया गया। भारत में सम्पूर्ण जाति आधारित अन्तिम जनगणना साल 1931 में हुई थी। इसके बाद 1941 में भी जाति आधारित जनगणना हुई थी किन्तु द्वितीय विश्वयुद्ध के हालात के चलते आँकड़ों को एकत्रित एवं सम्पादित नहीं किया जा सका था। 1951 की जनगणना में केवल अनुसूचित जातियों और जनजातियों की ही गिनती की गयी थी। धर्म के आधार पर तो आबादी की गणना की ही जाती रही है।
देश की आज़ादी के बाद 1951 में संविधान लागू होने के बाद से ही अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था शुरू कर दी गयी थी। आगे चलकर अन्य जातियों से जुड़े लोगों की ओर से भी पिछड़े वर्ग में शामिल करके आरक्षण की माँग उठायी जाने लगी थी। पिछड़ेपन के आधार और पिछड़े वर्ग की परिभाषा को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू के द्वारा काका कालेलकर आयोग का गठन किया गया था। इस आयोग ने विभिन्न जातियों को पिछड़े जाति वर्ग में शामिल करने के लिए 1931 के ही आँकड़ों का इस्तेमाल किया था। लेकिन काका कालेलकर समिति के विभिन्न सदस्यों के बीच ही पिछड़ेपन के पैमाने को लेकर वैचारिक साम्य स्थापित नहीं हो पाया। कुछ लोग इसका पैमाना आर्थिक मान रहे थे तो कुछ इसका पैमाना जाति आधार पर मान रहे थे। कुल-मिलाकर काका कालेलकर आयोग कोई नीतिगत बदलाव नहीं ला सका। इसके बाद 1978 में मोरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार (जोकि पार्टी नहीं बल्कि असल में भानमती का कुनबा था) के कार्यकाल में बिन्देश्वरी प्रसाद मण्डल (बीपी मण्डल) की अध्यक्षता में पिछड़ा आयोग का गठन किया गया था। आगे चलकर इन्हीं बिन्देश्वरी प्रसाद मण्डल की अध्यक्षता में बने मण्डल आयोग की सिफ़ारिशों के अनुसार जाति को आधार बनाकर सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर विभिन्न धर्मावलम्बी 3,743 जातियों में 1 लाख की आय सीमा वालों के लिए सर्वोच्च न्यायलय ने 1992 में 27 फ़ीसदी आरक्षण लागू कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के द्वारा आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत तक ही रखने का निर्देश भी दे दिया गया। 2006 में संप्रग सरकार के कार्यकाल में कांग्रेस के केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह ने पिछड़े वर्ग के आरक्षण को शिक्षण संस्थानों के दाख़िलों और नौकरियों में भी लागू कर दिया गया। कुल-मिलाकर आरक्षण अब 50 फ़ीसदी तक पहुँच चुका था। उसके बाद सरकारों ने आर्थिक आधार पर और विशेष पिछड़ी जाति का नाम देकर आरक्षण देने की क़वायदें तेज़ कीं। उदाहरण के तौर पर 25 जनवरी 2013 को हरियाणा की भूपेन्द्र हुड्डा की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने 5 जातियों (जाट, जटसिख, रोड़, बिश्नोई, त्यागी) को विशेष पिछड़ी जाति का दर्जा देकर 10 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा की तथा आर्थिक तौर पर पिछड़ों को जिनमें ब्राह्मण, राजपूत, खत्री, पंजाबी और महाजन जातियों को रखकर इन्हें भी 11 सितम्बर 2013 को 10 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। हालाँकि आगे चलकर पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने इन दोनों ही प्रकार के आरक्षणों को ख़ारिज कर दिया था। अभी फडणवीस की महाराष्ट्र सरकार ने मराठा जाति को 16 फ़ीसदी आरक्षण देने की बात कही है। तमिलनाडु में आरक्षण 69 फ़ीसदी तक पहुँच चुका है जिसका मामला उच्चतम न्यायालय में लम्बित है। जनवरी 2019 में केन्द्र सरकार ने सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमज़ोर हिस्से को 10 प्रतिशत आरक्षण दे ही दिया है। कुल-मिलाकर हम यहाँ पर शासक वर्ग की मंशा को आसानी से समझ सकते हैं। देश की आज़ादी के 75 साल बाद तक भी सबके लिए शिक्षा और रोज़गार का प्रबन्ध तो किया नहीं उल्टा जनता को बाँट देने की क़वायदें तेज़ होती जा रही हैं। शासक वर्ग अपनी चाल में पूरी तरह कामयाब है कि लोग सार्विक शिक्षा और सार्विक रोज़गार के मुद्दों को छोड़कर उस चीज़ के लिए लड़ रहे हैं जो कि असल में है ही नहीं!
आज़ादी के बाद से जैसे-जैसे जनता के स्वतंत्र भारत के आदर्श और सपने धूल-धूसरित होने लगे वैसे-वैसे ही शासक वर्ग के द्वारा उसका ध्यान व्यवस्था की नाकामी से हटाकर ग़ैर-ज़रूरी मुद्दों पर केन्द्रित किया जाता रहा है। आरक्षण के नाम पर की जाने वाली बन्दरबाँट भी शासक वर्ग के हाथ में जनता की एकता को तोड़ने और उसे आपस में ही लड़ाने का एक सशक्त हथियार रहा है। निश्चित तौर पर आरक्षण के प्रति शासक वर्ग की मंशा वह नहीं थी जिसे आमतौर पर प्रचारित किया जाता है। आरक्षण भले ही एक अल्पकालिक राहत के तौर पर था किन्तु यह अल्पकालिक राहत भी ढंग से कभी लागू नहीं हो पायी। इसी का परिणाम है कि आज ऊँची सरकारी नौकरियों में, शिक्षकों में, सेना व पुलिस में, नौकरशाही में दलितों की भागीदारी आबादी में उनके हिस्से की तुलना में बेहद कम हैं। बेशक संवैधानिक और जनवादी अधिकारों  के लिए संघर्ष के फ़लक पर पहले से मौजूद आरक्षण को पारदर्शिता के साथ लागू करवाने का भी एक एजेण्डा बनता है। तमाम जनवादी ताक़तों को इसके लिए प्रयास भी करना चाहिए। किन्तु यह सोचना भी किसी मृग मरीचिका के पीछे भागने से कम नहीं है कि यदि आरक्षण पूरी तरह से लागू हो गया तो सभी को नौकरी मिल जायेगी। दलितों और तथाकथित पिछड़ों की हर समस्‍या का इलाज आरक्षण को ही बताना और तमाम संघर्षों को आरक्षण तक ही सीमित रखना शासक वर्ग के झाँसे में आना ही है। 
आरक्षण ‘अफ़रमेटिव एक्शन’ (सत्ता द्वारा की गयी सकारात्मक कार्रवाई) के तौर पर उठाया गया एक क़दम था। सामाजिक रूप से पिछड़ों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करना ही आरक्षण लागू करने का प्रमुख तर्क था। आज़ादी के 75 साल बाद हम आरक्षण की नीति का विश्लेषण करके कुछ सामान्य नतीजों तक पहुँच सकते हैं। आरक्षण के फ़ायदे से रोज़गार हासिल करना तो दूर की बात है दलित जतियों की बहुसंख्यक आबादी इसके लागू होने के सात दशक बाद तक भी उच्च शिक्षा तक भी नहीं पहुँच पायी है। आज सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक तौर पर दलित आबादी का कितना हिस्सा सामाजिक बराबरी की हैसियत तक पहुँचा है? तथा यही गति रही तो बाक़ी बचे हिस्से के स्तरोन्नयन में कितना और वक़्त लग सकता है? इन्हीं नुक़्तों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि शिक्षा और रोज़गार प्राप्ति के अपने संघर्ष को केवल आरक्षण तक ही महदूद कर देना क़तई पर्याप्त नहीं है बल्कि ऐसा करना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना है। पिछड़ी जातियों में भी आरक्षण का फ़ायदा बेहद सीमित आबादी को ही हुआ है। क्योंकि बड़ी आबादी आरक्षण का फ़ायदा लेने की स्थिति तक ही कभी नहीं पहुँच पायी और यदि कोई पहुँच भी जाये तो फिर अवसर बेहद सीमित होते हैं।
बेशक मनुवादी सवर्ण मानसिकता के आधार पर आरक्षण को देखने और इसकी व्याख्या करने को हम ग़लत मानते हैं। किन्तु क्या अपने संघर्षों को केवल आरक्षण हासिल करने और हासिल आरक्षण की हिफ़ाज़त करने तक ही सीमित रखना पर्याप्त होगा? इसी तर्क के आधार पर हम आज के समय आरक्षण को शासक वर्गों के हाथों में जनता को बाँटने का एक हथियार मानते हैं। बेशक अपने क़ानूनी और संवैधानिक अधिकार के तौर पर आरक्षण को ईमानदारी से लागू करवाने, कोटे के तहत ख़ाली पदों को भरने के लिए आन्दोलन खड़े किये जायें किन्तु आज सबके लिए सामान और निःशुल्क शिक्षा और हर काम करने योग्य व्‍यक्ति के लिए रोज़गार का नारा ही सर्वोपरि तौर पर तमाम जातियों की मेहनतकश जनता का साझा नारा बन सकता है। इस सच्चाई को समझने के बाद ही हम आपसी फूट और बँटवारे से बच सकते हैं।
आजकल एक नारा ख़ूब उछल रहा है। तमाम अस्मितावादी और पिछड़ी जातियों की पहचान की राजनीति करने वाले रंग-बिरंगे कूपमण्डूक बड़ी ही गर्मजोशी के साथ इस नारे को उठाते हैं। यह नारा है “जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी भागीदारी”! इसे इस रूप में भी कहा जा रहा है कि हरेक जाति को जनसंख्या के अनुपात के हिसाब से आरक्षण दे दिया जाना चाहिए! थोड़ा-सा भी दिमाग़ पर ज़ोर डाला जाये तो हम समझ सकते हैं इस नारे के तर्क में कोई दम नहीं है। इसका असल मक़सद है व्यापक मेहनतकश जनता को आरक्षण का आकाश कुसुम दिखाकर उसे आरक्षण आन्दोलनों में कोल्हू के बैल की तरह जोत देना और ख़ुद उसकी मेहनत से पैदा होने वाले रस को सरपेट जाना! जातिवादी राजनीति करने वाले तमाम चुनावी मदारी इसी श्रेणी में आते हैं। हमें आरक्षण को ढंग से लागू करवाने, इसके साथ छेड़छाड़ करने की सरकारों की मंशा का विरोध करने के साथ-साथ प्रमुखता के साथ सबके लिए समान और निःशुल्क शिक्षा और हर काम कर सकने वाले युवा के लिए रोज़गार के समान अवसर के नारे को उठाकर सरकारों को घेरना चाहिए। जतियों के जो ठेकेदार हमें जाति आधारित गोलबन्दी में ही क़ैद करके रखना चाहते हैं वे हमारे सबसे बड़े दुश्मन हैं। हमें आपने संघर्षों को व्यापक बनाना चाहिए। तमाम जातियों के मेहनतकशों को साझे मुद्दे तलाशकर एक साथ आगे बढ़ना चाहिए।
हमें यह बात समझनी होगी कि आबादी के अनुपात में आरक्षण के टुकड़े मिलने से भी कुछ नहीं होने वाला! नौकरियाँ लगातार घट रही हैं, बेरोज़गारी अपने चरम पर है! सितम्बर 2021 के शुरू में आयी सीएमआईई की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार भारत की बेरोज़गारी दर 8.3 प्रतिशत हो चुकी है। एनएसएसओ की रिपोर्ट के अनुसार तो हम बेरोज़गारी दर के पिछले सारे रिकॉर्ड काफ़ी पहले ही तो तोड़ चुके हैं। चपरासी की 62 सीटों के लिए 93,000 लोग आवेदन कर रहे हैं जिनमें 5,400 पीएचडी होते हैं! 10,000 आरपीएफ़ जवानों की भर्ती में 95,00,000 लोग लाइन में होते हैं! ऐसे दौर में सिर्फ़ आरक्षण के भरोसे बैठने और भेड़ों की तरह जातीय अस्मितावादी गधों के पीछे घूमने से व्यापक मेहनतकश आबादी को कुछ नहीं मिलने वाला है! चुनावी धन्धेबाज़ों के झाँसे में आकर सिर्फ़ जातीय अस्मितावाद और आरक्षण तक ही अपने संघर्ष को सीमित रखना आत्मघाती होगा। वहीं सामान्य वर्ग को भी इस भुलावे में नहीं रहना चाहिए कि उनकी नौकरियों के मार्ग में आरक्षित श्रेणियों के लोग ज़िम्मेदार हैं बल्कि उन्हें भी सरकारों की रोज़गार विरोधी नीतियों में अपनी समस्या को देखना चाहिए। यही नहीं एक न्यायपसन्द इन्सान के नाते हमें मेहनतकश जनता के हर समुदाय के अधिकारों पर हो रहे हमलों का कड़ा विरोध करना चाहिए। इसीलिए जाति आधारित अस्मितावादी राजनीति करने वालों की असलियत को हमें समझना होगा। हमें अपने संघर्ष के फ़लक को विस्तार देना चाहिए। हर जाति, हर मज़हब की ग़रीब आबादी की एकजुट ताक़त ही सरकारों के घुटने टिकवा सकती है और सबको शिक्षा और सबको रोज़गार के नारे में ही वह ताक़त है जो सबको एक एजेण्डे के तहत लामबन्द कर सके।

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2021


 

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