मज़दूर वर्ग की पार्टी कैसी हो? (पहली क़िस्त)
मज़दूर वर्ग की पार्टी कैसी हो?

– सनी

हर वर्ग का राजनीतिक प्रतिनिधित्व उसकी राजनीतिक पार्टी या पार्टियाँ करती हैं। भारत में तमाम पार्टियाँ मौजूद हैं जो अलग-अलग वर्ग का समर्थन करती हैं या शासक वर्ग के किसी हिस्से के हितों की हिफ़ाज़त करती हैं। भाजपा और कांग्रेस मूलत: और मुख्यत: बड़े पूँजीपतियों के वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं। ये दोनों पार्टियाँ भारत की बड़ी वित्तीय-औद्योगिक पूँजी के हितों को प्रमुखता से उठाती हैं।
वहीं तृणमूल कांग्रेस, राजद, जदयू, अन्नाद्रमुक और द्रमुक से लेकर तमाम पार्टियाँ मँझोले व क्षेत्रीय बुर्जुआ वर्ग और/या धनी किसानों-कुलकों की प्रतिनिधि हैं, जो कि बड़े पूँजीपति वर्ग से देशभर में विनियोजित हो रहे बेशी मूल्य में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने की जद्दोजहद करते रहते हैं। लेकिन ये अपेक्षाकृत छोटी पूँजीवादी पार्टियाँ तथा क्षेत्रीय दल भी जब मौक़ा मिले बड़े पूँजीपति वर्ग की सेवा करने का मौक़ा नहीं चूकते हैं। संशोधनवादी पार्टियाँ, यानी नाम से ‘कम्युनिस्ट’ लेकिन वास्तव में पूँजीपति वर्ग की सेवा करने वाली पार्टियाँ जैसे कि माकपा, भाकपा, भाकपा (माले) लिबरेशन, एसयूसीआई आदि आम तौर पर छोटे और मँझोले पूँजीपति वर्ग, खेतिहर पूँजीपति वर्ग और छोटे व मँझोले व्यापारियों की सेवा करती हैं और बड़े पूँजीपति वर्ग के कान में ‘धीरे चलो-धीरे चलो’ का मंत्र फूँकती रहती हैं, ताकि समूची पूँजीवादी व्यवस्था सुरक्षित रहे। ये सारी पार्टियाँ पूँजीपति वर्ग के अलग-अलग हिस्सों की नुमाइन्दगी करती हैं।
पूँजीपति वर्ग की प्रकृति और चरित्र ही ऐसा होता है कि उन्हें अपनी कई राजनीतिक पार्टियों की आवश्यकता होती है। कारण यह है कि इसके अलग-अलग धड़े स्वयं आपस में प्रतिस्पर्द्धा करते हैं और यह प्रतिस्पर्द्धा ही उन्हें एक वर्ग के रूप में बनाती है। इसीलिए मार्क्स ने कहा था कि पूँजीपति वर्ग का दुश्मनाना भाईचारा बाज़ार में प्रतिस्पर्द्धा के ज़रिए पैदा होता है। दुश्मनाना इसलिए क्योंकि पूँजीपति एक दूसरे से गलाकाटू प्रतिस्पर्द्धा में संलग्न होते हैं और भाईचारा इसलिए क्योंकि वे मिलकर सर्वहारा वर्ग का शोषण करते हैं और लूट के माल में अपनी पूँजी के अनुसार हिस्सेदारी करते हैं। पूँजीपति वर्ग की कई पार्टियाँ होने का दूसरा कारण यह है कि चूँकि पूँजीपति वर्ग का शासन पूँजीपति वर्ग और उसके चाकर वर्गों (मसलन शहरी और ग्रामीण उच्च मध्य वर्ग) के लिए ‘जनवाद’ होता है, लेकिन व्यापक मेहनतकश जनता के लिए पूँजीवादी तानाशाही, इसलिए उसे कई मुखौटों की आवश्यकता होती है, जिन्हें हर पाँच, दस या पन्द्रह वर्षों पर बदलने की आवश्यकता पड़ती है। जब किसी एक मुखौटे के प्रति जनता का असन्तोष और सब्र का प्याला छलकने लगता है, तो किसी दूसरे मुखौटे को आगे कर दिया जाता है।
हर पूँजीवादी दल धर्म, क्षेत्र, भाषा या जाति के नाम पर जनता को बाँटकर बुर्जुआ वर्ग की सेवा करता है। अकाली दल से लेकर चौटाला की इनेलो तक मुख्य तौर पर स्थानीय पूँजीपति वर्ग व धनी किसानों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियाँ हैं। जैसा कि हमने ऊपर बताया, नक़ली संशोधनवादी पार्टियाँ बुर्जुआ वर्ग का ही प्रतिनिधित्व करती हैं। यह मुख्यत: छोटे पूँजीपति वर्ग, बड़े और मँझोले किसानों, मँझोले व छोटे व्यापारियों और संगठित क्षेत्र में काम करने वाले उच्च श्रेणी के पक्के कर्मचारियों के वर्ग के एक हिस्से (जो कि कुलीन मज़दूर वर्ग में तब्दील हो चुका है) की सेवा करती हैं। ये पार्टियाँ आज कांग्रेस और भाजपा की तरह चवन्निया मेम्बरशिप वाली पार्टियाँ ही हैं।
मज़दूर वर्ग की अपनी पार्टी होती है लेकिन वह पूँजीपति वर्ग की पार्टियों-सरीखी नहीं होती है। यह मज़दूर वर्ग की विचारधारा यानी मार्क्सवादी विज्ञान और दर्शन पर आधारित होती है और यही इसका क़ुतुबनुमा होता है और इसे दिशा दिखलाती है। मार्क्सवाद की वैज्ञानिक विचारधारा व उसूलों की रोशनी में और क्रान्तिकारी जनदिशा को लागू करके ही मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी अपनी राजनीतिक दिशा व कार्यक्रम तय करती है।
क्रान्तिकारी जनदिशा का अर्थ है व्यापक मेहनतकश जनता के बीच बिखरे अविकसित, अकेन्द्रित, असंगठित सही विचारों को इकट्ठा करना, उनके बुनियादी तत्वों को पकड़ना और उनका सामान्यीकरण करके एक सही राजनीतिक कार्यदिशा निकालना और फिर उसके सहीपन को भी वापस जनता के बीच लागू करके ही जाँचना और इसी प्रक्रिया में उसकी कमियों को दूर करके उसे विकसित करते जाना।
राजनीतिक कार्यदिशा का क्या अर्थ है? राजनीतिक कार्यदिशा का अर्थ है किसी भी सामाजिक स्थिति में मज़दूर वर्ग के हितों के मद्देनज़र उसके व्यवहार की एक आम दिशा। दूसरे शब्दों में, किसी भी राजनीतिक-सामाजिक स्थिति में वर्ग संघर्ष और राज्यसत्ता के प्रश्न पर सर्वहारा वर्ग की आम पहुँच और नज़रिया और कार्यों की आम दिशा। सही राजनीतिक कार्यदिशा के निर्धारण के लिए मज़दूर वर्ग की पार्टी मार्क्सवादी विज्ञान और उसूलों की रोशनी में (जो कि स्वयं सामाजिक व्यवहार के अनुभवों का ही सामान्यीकरण और समाहार है) क्रान्तिकारी जनदिशा को लागू कर सही विचारों को पहचानती है और उनका सामान्यीकरण करती है। केवल मार्क्सवादी विज्ञान, उसूलों व राजनीतिक कार्यदिशा और कार्यक्रम के आधार पर ही कोई पार्टी सर्वहारा वर्ग के हिरावल की भूमिका निभा सकती है और अपने समय के राजनीतिक कार्यभारों को पूरा कर सकती है। केवल ऐसी पार्टी के नेतृत्व में ही सर्वहारा वर्ग एक राजनीतिक वर्ग बन सकता है, यानी एक ऐसा वर्ग जिसका लक्ष्य राजनीतिक सत्ता प्राप्त करना और अपनी राज्यसत्ता स्थापित करना होता है।
मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी का ढाँचा ट्रेड यूनियन सरीखा नहीं होता, बल्कि इस्पाती अनुशासन वाला और काडर-आधारित होता है। पार्टी की सदस्यता पर लेनिन की उक्ति ‘कम लेकिन बेहतर’ लागू होती है, जिसके अनुसार, हर हड़ताल करने वाले मज़दूर को पार्टी की सदस्यता नहीं दी जाती। मज़दूर वर्ग के उन्नत हिस्से को, जो कि राजनीतिक सवाल, यानी राज्यसत्ता का सवाल उठाने की क्षमता रखता है या विकसित कर लेता है, महज़ आर्थिक माँगों के गोल चक्कर से आगे जाकर पूरी व्यवस्था और सत्ता का प्रश्न उठाने लगता है, और जो एक वैज्ञानिक नज़रिए को अपना लेता है, केवल वही पार्टी की सदस्यता हासिल कर सकता है। इसके अलावा, मज़दूरों की व्यापक आबादी पार्टी के पूँजीवाद-विरोधी समाजवादी कार्यक्रम को स्वीकार कर उससे अलग-अलग स्तरों पर जुड़ सकती है। ऐसे मज़दूरों को हम ‘समाजवादी’ मज़दूर कह सकते हैं। अपने समय में लेनिन ने ऐसे ही मज़दूरों को ‘सामाजिक-जनवादी’ मज़दूर कहा था, क्योंकि तब यह शब्द समाजवादी के पर्यायवाची के रूप में प्रयोग किया जाता था।
मज़दूर वर्ग की पहली पार्टियों के प्रयोग यूरोप में उन्नीसवीं सदी के दूसरे हिस्से में हुए थे। श्रम और पूँजी के ऐतिहासिक महासमर में सर्वहारा क्रान्तियों के तीन मील के पत्थर पेरिस कम्यून, रूसी क्रान्ति और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति हैं। इस ऐतिहासिक यात्रा में पार्टी की अवधारणा और उसके ढाँचे की समझ में महत्वपूर्ण परिवर्तन आये। इसके ढाँचे पर व्यवस्थित रूप से पहली बार लेनिन ने लिखा और बताया कि किस प्रकार की सर्वहारा पार्टी पूँजीवादी राज्यसत्ता से निपटने और अन्तत: उसका ध्वंस कर समाजवादी समाज की नींव रखने की क्षमता रख सकती है। लेनिन की इसी समझदारी पर बोल्शेविक पार्टी 1902 से लेकर 1913 के बीच ठोस रूप ग्रहण करती गयी और जिन उसूलों पर यह पार्टी बनी और मज़बूत हुई, उन्हीं को आगे पार्टी संगठन के बोल्शेविक उसूल कहा गया। हम कुछ नुक़्तों में मज़दूर वर्ग की पार्टी की मुख्य चारित्रिक अभिलाक्षणिकताओं पर बात करेंगे। मसलन पार्टी की विचारधारा क्या है? पार्टी का लक्ष्य क्या है? पार्टी का मज़दूर वर्ग से कैसा सम्बन्ध है? पार्टी का प्रचार कैसा हो? पार्टी का स्वरूप और उसका ढाँचा क्या है?
आज विघटन और निराशा के दौर में तमाम अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी संगठन तथा धुरीविहीन बुद्धिजीवी सोवियत रूस और समाजवादी चीन में समाजवाद के पतन के लिए पार्टी की अवधारणा को ही ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। तो दूसरी ओर तमाम संशोधनवादी पार्टियाँ अपने मूल चरित्र में बुर्जुआ पार्टी होते हुए मज़दूर वर्ग के समक्ष ख़ुद को मज़दूर वर्ग की पार्टी के रूप में पेश करती हैं और मज़दूर वर्ग को बरगलाती हैं। दोनों ही छोर पार्टी की लेनिनवादी अवधारणा को बदनाम करते हैं। इसलिए लेनिनवादी पार्टी की अवधारणा के बुनियादी पहलुओं को आज समझना बहुत ज़रूरी है।

मज़दूर वर्ग की पार्टी सर्वहारा वर्ग का हिरावल होती है

मज़दूर वर्ग की पार्टी मज़दूर वर्ग का अगुआ दस्ता होती है। यह मज़दूर वर्ग को नेतृत्व देती है। यह वर्ग संघर्ष का उत्पाद भी है और दूसरी ओर उसे संचालित करने का उपकरण भी होती है। हिरावल होने का अर्थ है मज़दूर वर्ग के उन्नत हिस्से द्वारा मज़दूर वर्ग को नेतृत्व देना। पार्टी का वर्ग चरित्र सर्वहारा होता है। पार्टी स्वयं लेनिन के शब्दों में सर्वहारा वर्ग के उन्नत तत्वों को आत्मसात करती है और सर्वहारा वर्ग का अगुआ दस्ता होती है।
हर वर्ग के मुख्यत: तीन अंग होते हैं: उन्नत हिस्सा, मध्यवर्ती हिस्सा और पिछड़ा हुआ हिस्सा। सर्वहारा वर्ग भी मौजूदा पूँजीवादी समाज में पूँजीपति वर्ग द्वारा थोप दी गयी आपसी प्रतिस्पर्द्धा के कारण पूँजीवादी और निम्न-पूँजीवादी विचारधारा का शिकार होता है; क्षेत्रीय, भाषाई, जातिगत, जेण्डरगत अन्तर के कारण एक वर्ग समाज में उनके भीतर आपसी अन्तरविरोध होते हैं; पेशागत व सेक्टरगत अन्तरों के कारण, कुशल व अकुशल श्रम के अन्तर के कारण, मानसिक व शारीरिक श्रम के बीच अन्तर के कारण और इसी प्रकार की अन्य अन्तरवैयक्तिक असमानताओं के कारण मज़दूर वर्ग कई संस्तरों में विभाजित होता है। विभिन्न कारकों के मिश्रित प्रभाव के कारण हर जगह ही मज़दूर वर्ग के कुछ उन्नत तत्व होते हैं जो उन्नत राजनीतिक चेतना रखते हैं, केवल वेतन-भत्तों की लड़ाई से उन्हें सन्तोष नहीं होता, वे केवल एक मालिक को नहीं बल्कि मालिकों के पूरे वर्ग और उस वर्ग की पूँजीवादी सत्ता को दुश्मन के तौर पर देखते हैं। इसके बाद का हिस्सा मध्यवर्ती तत्वों का होता है जो इस प्रकार की राजनीतिक चेतना को अपेक्षाकृत तेज़ी से अर्जित करने की क्षमता और सम्भावनासम्पन्नता रखते हैं। और अन्त में पिछड़ा हिस्सा होता है जिसमें राजनीतिक चेतना का अभाव होता है, और उसे राजनीतिक वर्ग चेतना हासिल करने में अपेक्षाकृत अधिक समय लगता है। सर्वहारा वर्ग की पार्टी वास्तव में सर्वहारा वर्ग के अग्रिम तत्वों को आत्मसात करती है और यह हिरावल पार्टी सर्वहारा वर्ग के अपेक्षाकृत पिछड़े हिस्सों को नेतृत्व देती है, उनकी राजनीतिक चेतना को उन्नत करती है, उनका राजनीतिक और विचारधारात्मक शिक्षण करती है और उनके रोज़मर्रा के संघर्षों में उन्हें नेतृत्व देती है और इस प्रक्रिया में उन्हें पूँजीवाद-विरोधी बनाती है और साथ ही उन्हें समाजवाद की ज़रूरत पर सहमत करती है, यानी समाजवादी कार्यक्रम का हामी बनाती है। इसके अलावा, सर्वहारा वर्ग की पार्टी समूचे मेहनतकश जनसमुदायों के विभिन्न वर्गों के साथ सर्वहारा वर्ग का मोर्चा स्थापित करती है और उस मोर्चे का नेतृत्व करने में सर्वहारा वर्ग को सक्षम बनाती है।
मज़दूरों के महान नेता मार्क्स ने कहा था कि कम्युनिस्ट मज़दूर वर्ग के तात्कालिक ही नहीं बल्कि दूरगामी तथा केवल एक क्षेत्र या एक राष्ट्र के मज़दूरों के नहीं बल्कि पूरे देश और पूरी दुनिया के मज़दूरों के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी अकेले क्रान्ति नहीं करती और न ही मज़दूर वर्ग अकेले क्रान्ति करता है। कम्युनिस्ट पार्टी मज़दूर वर्ग के सबसे उन्नत तत्वों का दस्ता होती है और उनके ज़रिए ही वह समूचे मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता का नेतृत्व करती है। उसकी शक्ति आम मेहनतकश जनता ही होती है। आम मेहनतकश जनता का नेतृत्व सर्वहारा वर्ग करता है। यह याद रखना ज़रूरी है कि सर्वहारा वर्ग अकेले इतिहास नहीं बनाता, बल्कि जनता इतिहास बनाती है। आम जनता (जिसमें आज के दौर में मज़दूर वर्ग, ग़रीब व मँझोले किसान, शहरी व ग्रामीण निम्न मध्यवर्ग शामिल हैं) के बीच पूँजीपति वर्ग अपनी विचारधारा और राजनीति का दबदबा स्थापित करके सर्वहारा वर्ग से अलग-थलग करने के लिए सतत् प्रयासरत रहता है और जनसमुदायों को उस शक्ति से वंचित करता है जिससे कि वह पूँजीवादी राज्यसत्ता को उखाड़कर फेंक सकें, ताकि उसकी तानाशाही, यानी पूँजीवादी राज्यसत्ता को क़ायम रखा जा सके। कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में सर्वहारा वर्ग आम जनता के बीच अपनी विचारधारा और राजनीति को स्थापित कर उन्हें पूँजीवाद की असलियत से वाक़िफ़ करने और उन्हें पूँजीवाद के विरुद्ध संगठित करने के लिए संघर्ष करता है। जनता के बीच जिस वर्ग की विचारधारा और राजनीति अन्तत: प्रभुत्व स्थापित करती है, वही वर्ग इस संघर्ष में विजयी होता है। सर्वहारा वर्ग और पूँजीपति वर्ग के बीच राजनीतिक वर्ग संघर्ष का असली मसला ही यही होता है।
जनता स्वयं अपने से भी पूँजीवाद के विरुद्ध बेरोज़गारी, ग़रीबी, आदि से तंग आकर बीच-बीच में विद्रोह कर सकती है, लेकिन अगर उसके बीच सर्वहारा वर्ग की विचारधारा, राजनीति और नेतृत्व का प्रभुत्व नहीं होगा, तो वह पूँजीवादी व्यवस्था को बदल नहीं सकती। लेकिन सर्वहारा वर्ग भी अकेले पूँजीवादी व्यवस्था को बदल नहीं सकता। उसे अपनी राजनीति और विचारधारा के वर्चस्व को जनसमुदायों में स्थापित कर जनसमुदायों की शक्ति को पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध मोड़ना होता है। इसलिए सर्वहारा वर्ग अपनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में जनसमुदायों के बीच क्रान्तिकारी जनदिशा को लागू करता है, जनता के बीच अविकसित, बिखरे हुए और अधूरे सही विचारों को एकत्र करता है, उसे मार्क्सवादी विज्ञान और उसूलों की रोशनी में विकसित करता है, उसे केन्द्रित करता है और उसे पूर्ण बनाता है और इस प्रक्रिया में वह अपनी सर्वहारा राजनीतिक कार्यदिशा को विकसित करता है और फिर इसी राजनीतिक लाइन के ज़रिए वह जनसमुदायों को नेतृत्व देता है। यह एक सतत् प्रक्रिया होती है जो लगातार जारी रहती है।
इस प्रकार कम्युनिस्ट पार्टी मज़दूर वर्ग का हिरावल बनने के साथ समूची मेहनतकश जनता का क्रान्तिकारी केन्द्र या कोर भी बन जाती है और केवल तभी वह पूँजीवादी व्यवस्था और उसकी राज्यसत्ता के विरुद्ध समाजवादी क्रान्ति कर सकती है।
कम्युनिस्ट निजी सम्पत्ति का विलोप चाहते हैं। वे पूँजी का रूप ग्रहण किये हुए उत्पादन के साधनों का समाजीकरण कर इसे अंजाम देते हैं। इस ऐतिहासिक लक्ष्य को इंगित करने का काम कार्ल मार्क्स और उनके साथी फ़्रेडरिक एंगेल्स ने किया। उन्होंने वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धान्त को रचा तथा यह बताया कि इतिहास के विकासक्रम में समाजवादी व्यवस्था की स्थापना किसी की सदिच्छा का प्रश्न नहीं बल्कि इतिहास का अगला पड़ाव है। उन्होंने ही बताया कि पूँजीपति वर्ग सर्वहारा वर्ग को लूटता है जिसका आधार बेशी मूल्य होता है। उन्होंने बेशी मूल्य की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए पूँजीवादी शोषण के घृणित व क्षुद्र रहस्य को उजागर किया और बताया कि मज़दूर अपने कार्यदिवस का केवल एक हिस्सा अपने लिए काम करता है और अपनी मज़दूरी के बराबर मूल्य पैदा करता है और बाक़ी हिस्से में वह पूँजीपति के लिए अतिरिक्त मूल्य या बेशी मूल्य पैदा करता है। मज़दूरी स्वयं और कुछ नहीं बल्कि मज़दूर के काम करने की ताक़त यानी श्रमशक्ति के मूल्य का ही एक परिवर्तित रूप होती है। यानी मज़दूर को काम करने के बदले केवल जीने की ख़ुराक मिलती है और बाक़ी समय वह मुफ़्त में पूँजीपति का मुनाफ़ा पैदा करता है और यही पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े का स्रोत होता है। मार्क्स व एंगेल्स ने समूचे मानव समाज के गति के विज्ञान के रूप में ऐतिहासिक भौतिकवाद और सर्वहारा वर्ग के दर्शन के रूप में द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की स्थापना की, जो कि सामाजिक व्यवहार के समस्त अनुभवों का और साथ ही प्राकृतिक विज्ञान की खोजों के समाहार के आधार पर निकाला गया एक विश्व-दृष्टिकोण है, यानी पूरी दुनिया को देखने का नज़रिया है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार इहलोक यानी कि यह समूचा भौतिक यथार्थ ही अस्तित्वमान है और वास्तविक है और यह लगातार अपने अन्दरूनी अन्तरविरोधों के कारण लगातार बदलता रहता है। मार्क्स और एंगेल्स की इन बुनियादी शिक्षाओं को ही कुल मिलाकर मार्क्सवाद कहते हैं।
मार्क्सवाद कर्मों का मार्गदर्शक विज्ञान है जो सामाजिक व्यवहार और उसके अनुभवों के सतत् सामान्यीकरण और फिर उसके नतीजों के आधार पर उन्नत सामाजिक व्यवहार की सतत् प्रक्रिया में ऊँचे से ऊँचा होता जाता है।
लेनिन ने जहाँ एक तरफ़ मज़दूर वर्ग की हिरावल पार्टी की अवधारणा रखी तो वहीं दूसरी ओर साम्राज्यवाद के दौर में मार्क्सवादी विज्ञान में इज़ाफ़ा किया। वहीं माओ ने क्रान्तिकारी जनदिशा की अवधारणा और समाजवादी संक्रमण काल की समझदारी को महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के उसूल के रूप में रखा।
कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी दर्शन और विज्ञान की रोशनी में सर्वहारा वर्ग को उसके ऐतिहासिक लक्ष्य से परिचित कराती है, उसे जागृत, गोलबन्द और संगठित करती है। लेनिन ने कहा है कि कम्युनिस्ट पार्टी क्रान्तिकारी मार्क्सवाद का कार्यशील स्कूल होती है। मज़दूर वर्ग का हिरावल दस्ता होने के नाते पार्टी का काम इस ऐतिहासिक लक्ष्य की प्राप्ति के संघर्ष में सर्वहारा वर्ग व समस्त मेहनतकश जनता को नेतृत्व देना होता है। पूँजी और श्रम के ऐतिहासिक महासमर में श्रम के शिविर का सेनापतित्व सर्वहारा वर्ग की पार्टी करती है। इसकी पहली मंज़िल पूँजीवादी राज्यसत्ता को उखाड़कर उसकी जगह सर्वहारा वर्ग की तानाशाही स्थापित करना है यानी एक समाजवादी राज्य स्थापित करना। समाजवादी व्यवस्था व राज्यसत्ता की स्थापना के बाद सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी का कार्यभार होता है मज़दूर वर्ग के राजकाज में चल रहे वर्ग संघर्ष में मज़दूर वर्ग और जनसमुदायों को नेतृत्व देते हुए बुर्जुआ वर्ग के प्रतिरोध को कुचलना, बुर्जुआ विचारधारा के वर्चस्व को तोड़ना और इस प्रक्रिया में मानसिक श्रम व शारीरिक श्रम, शहर व गाँव तथा उद्योग व कृषि के अन्तरों को मिटाते हुए माल उत्पादन का ख़ात्मा करना और कम्युनिज़्म, यानी एक वर्ग-विहीन समाज की ओर आगे बढ़ना। संशोधनवादी पार्टियाँ सबसे पहले मार्क्सवाद के मूल पर हमला करती हैं। बर्नस्टीन, काउत्स्की, त्रात्स्की, ख्रुश्चेव से लेकर देंङ शियाओ पेंङ ने मार्क्सवादी विज्ञान पर हमला किया। संशोधनवादी पार्टियाँ बस कम्युनिस्ट पार्टी होने का खोल ओढ़े होती हैं जबकि इनकी अर्न्तवस्तु पूँजीवादी पार्टी की होती है।
मज़़दूर वर्ग को नेतृत्व देने का मतलब उन्हें विचारधारात्मक, राजनीतिक व आर्थिक संघर्षों में नेतृत्व देना है। यह बेहद ज़रूरी मसला है क्योंकि मज़दूर वर्ग की पार्टी मज़दूर वर्ग को स्वत:स्फूर्ततावाद के चंगुल में नहीं छोड़ती है। मज़दूर वर्ग केवल आर्थिक मुद्दों पर संघर्ष करते हुए ख़ुद-ब-ख़ुद क्रान्तिकारी चेतना विकसित नहीं कर सकता है। मज़दूरों के बीच क्रान्तिकारी राजनीति को ले जाने का काम पार्टी का होता है। राज्यसत्ता का प्रश्न और समाजवाद की अवधारणा तक की समझ को मज़दूर वर्ग केवल आर्थिक मुद्दों पर लड़कर हासिल नहीं कर सकता है। मज़दूर वर्ग के ऐतिहासिक लक्ष्य व उसकी नेतृत्वकारी भूमिका के बारे में पार्टी उसे परिचित कराती है, जो कि ख़ुद मज़दूर वर्ग के अगुवा तत्वों को आत्मसात करने वाला निकाय है। मज़दूर वर्ग की स्वत:स्फूर्त चेतना ट्रेड यूनियनवादी राजनीति के दायरे तक ही लेकर जाती है। आज पूरे भारत में केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें अर्थवाद के दायरे में ही मज़दूर वर्ग को उलझाये रहती हैं। देश के बड़े औद्योगिक शहरों में संशोधनवादी पार्टियों की यूनियनें मज़दूरों को वेतन-भत्ते की लड़ाई में उलझाये रहती हैं। बैंककर्मी, रेलवेकर्मी व तमाम स्थायी मज़दूरों की ये यूनियनें मज़दूरों के बीच एक यूनियन नौकरशाही को पैदा करती हैं जो कि इस व्यवस्था में ही अपना स्वर्ग खोजते हैं। असंगठित मज़दूरों में भी जिन यूनियनों का प्रभाव है उनमें से अधिकांश केवल फ़ैक्टरी मालिकों और श्रम विभाग की दलाली ही करती हैं। ऐसे में मज़दूरों के बीच हमें राजनीतिक प्रचार को लेकर जाने की ज़रूरत है। मज़दूरों को आर्थिक संघर्षों में पार्टी नेतृत्व देती है परन्तु इसके ज़रिए एकता बनाकर मज़दूरों के बीच राजनीतिक प्रचार का आधार तैयार करती है और इन आर्थिक संघर्षों को राजनीतिक तौर पर लड़ती हैं। यानी आर्थिक माँगों के लिए लड़ते हुए भी वे मज़दूर वर्ग को इन आर्थिक समस्याओं के मूल कारण से अवगत कराती हैं और उसे उसके दीर्घकालिक लक्ष्य के बारे में शिक्षित करती हैं। समाजवादी चेतना का प्रवेश ‘बाहर से’ कराया जाता है जिसका अर्थ यह है कि यह ख़ुद-ब-ख़ुद आर्थिक संघर्षों से पैदा नहीं हो सकती है और आरम्भिक दौर में इस चेतना को मज़दूर आन्दोलन में ले जाने वाला समूह अक्सर क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों का होता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि मज़दूर स्वयं क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी की भूमिका को नहीं निभा सकते। लेकिन लेनिन के ही शब्दों में जब वे इस भूमिका को निभाते हैं उस समय वे एक सामान्य मज़दूर नहीं बल्कि एक समाजवादी बुद्धिजीवी की भूमिका में होते हैं। सर्वहारा विचारधारा को मज़दूर वर्ग तक व आम मेहनतकश जनता तक लेकर जाने का काम सर्वहारा वर्ग की पार्टी करती है।
आज मज़दूर वर्ग के सामने ऐतिहासिक तौर पर दो नये कार्यभार भी हैं। हम जिस दौर में जी रहे हैं वहाँ सर्वहारा क्रान्तियों का पहला ऐतिहासिक कालचक्र पूरा हो चुका है और हम सर्वहारा वर्ग और बुर्जुआ वर्ग के बीच वर्ग संघर्ष के दूसरे और निर्णायक वर्ग संघर्ष के महासमर के आरम्भ से पहले के दौर में हैं। ऐसे में हमें मज़दूर वर्ग को उसके अतीत के संघर्षों से परिचित कराने के सर्वहारा पुर्नजागरण के कार्यभार को भी उठाना होगा। यह काम क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी ही कर सकती है। वहीं दूसरी तरफ़ हमें बदली हुई परिस्थितियों में क्रान्ति के विज्ञान को लागू करना है क्योंकि आज का पूँजीवाद हूबहू लेनिन के दौर का पूँजीवाद नहीं है और माओ के दौर से भी इसमें तमाम बदलाव आए हैं, जिन्हें मार्क्सवादी विज्ञान की रोशनी में समझना होगा। यह सर्वहारा प्रबोधन का कार्यभार बन जाता है। सर्वहारा पुर्नजागरण और सर्वहारा प्रबोधन के कार्यभार को मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी ही मौजूदा दौर में पूरा कर सकती है।

(अगले अंक में जारी)

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2021


 

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