मई दिवस 1886 से मई दिवस 2022
कितने बदले हैं मज़दूरों के हालात?

– भारत

इस वर्ष पूरी दुनिया में 136वाँ मई दिवस मनाया गया। 1886 में शिकागो के मज़दूरों ने अपने संघर्ष और क़ुर्बानियों से जिस मशाल को ऊँचा उठाया था, उसे मज़दूरों की अगली पीढ़ियों ने अपना ख़ून देकर जलाये रखा और दुनियाभर के मज़दूरों के अथक संघर्षों के दम पर ही 8 घण्टे काम के दिन के क़ानून बने।
लेकिन आज की सच्चाई यह है कि 2022 में कई मायनों में मज़दूरों के हालात 1886 से भी बदतर हो गये हैं। मज़दूरों की ज़िन्दगी आज भयावह होती जा रही है। दो वक़्त की रोटी कमाने के लिए 12-12 घण्टे खटना पड़ता है। ऊपर से फ़ासीवादी मोदी सरकार जो चार लेबर कोड लेकर आयी है, उससे मज़दूरों के शोषण की रफ़्तार और तेज़ करने के रास्ते में मालिकों-ठेकेदारों के सामने आने वाली सारी बाधाएँ दूर हो जायेंगी। आज किस तरह मज़दूरों के हालात 1886 से भी बुरे हैं, यह हम कुछ मज़दूरों के साक्षात्कार के माध्यम से जानेंगे। उससे पहले एक बार संक्षेप में जान लेते हैं कि आज से 136 साल पहले मज़दूरों की क्या स्थिति थी। काम के घण्टे कम करने के इस आन्दोलन का मज़दूरों के लिए बहुत राजनीतिक महत्व है। जब अमेरिका में फ़ैक्टरी व्यवस्था शुरू हुई, लगभग तभी यह संघर्ष उभरा। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में “सूर्योदय से सूर्यास्त” तक यही उस समय काम के घण्टे थे। चौदह, सोलह और यहाँ तक कि अट्ठारह घण्टे का कार्यकाल भी आम बात थी। 1806 में अमेरिका की सरकार ने फ़िलाडेल्फ़िया के हड़ताली मोचियों के नेताओं पर साज़िश के मुक़दमे चलाये। इन मुक़दमों में यह बात सामने आयी कि मज़दूरों से उन्नीस या बीस घण्टों तक काम कराया जा रहा था। 1834 में न्यूयॉर्क में नानबाइयों की हड़ताल के दौरान ’वर्किंग मेन्स एडवोकेट’ नामक अख़बार ने छापा था – “पावरोटी उद्योग में लगे कारीगर सालों से मिस्त्र के ग़ुलामों से भी ज़्यादा यातनाएँ झेल रहे हैं। उन्हें हर चौबीस में से औसतन अट्ठारह से बीस घण्टों तक काम करना होता है।” हालॉंकि अमेरिका में अधिक तनख़्वाहों की माँग ज़्यादा प्रचलित थी, लेकिन जब भी मज़दूरों ने अपनी माँगों को सूत्रबद्ध किया, काम के घण्टे कम करने का प्रश्न केन्द्र में रहा। जैसे-जैसे शोषण बढ़ता गया, मज़दूरों को अमानवीय रूप से लम्बे काम के दिन और भी बोझिल महसूस होने लगे।
इसके साथ ही मज़दूरों की काम के घण्टों में आवश्यक कमी की माँग भी मज़बूत होती गयी। मज़दूरों के भीतर यह अहसास अधिक से अधिक गहरा होता गया कि उनके जीवन में मानवीय जीवन जैसा कुछ भी नहीं है। उनका पूरा जीवनकाल ही एक प्रकार से पूँजीपतियों के लिए कार्यकाल बन गया है। इस गहराते अहसास के साथ मज़दूर वर्ग में इन हालात को बदलने के लिए सुगबुगाहट भी बढ़ने लगी। पहले ऑस्ट्रेलिया में 1856 में पत्थरतराश मज़दूरों द्वारा विक्टोरिया प्रान्त में 8 घण्टे के कार्यदिवस का अधिकार जीता गया और बाद में 1886 में शिकागो में 1 मई को इसी माँग को लेकर आम हड़ताल की शुरुआत हुई। इस आन्दोलन का अमेरिकी पूँजीवादी सरकार ने नंगे तरीक़े से दमन किया और बाद में एक मुक़दमे की नौटंकी करके चार मज़दूर नेताओं को फाँसी दे दी। लेकिन इन साथियों की क़ुर्बानी ज़ाया नहीं जाने दी गयी। 1900 से 1960 के बीच में ही अधिकांश देशों की पूँजीवादी सरकार को मज़दूर वर्ग के संघर्षों के दबाव में 8 घण्टे का कार्यदिवस या 40-48 घण्टे के कार्यसप्ताह का क़ानून बनाना पड़ा।
लेकिन ख़ास तौर पर 1970 से दुनिया में हालात बदलने लगे और सभी देशों के पूँजीपति वर्ग और उनकी सरकारों ने हम मज़दूरों-मेहनतकशों से ये हक़ एक-एक करके छीनना शुरू कर दिया, जो कि हमने अकूत क़ुर्बानियाँ देकर हासिल किये थे। आज हालात क्या हो गये हैं?
अब बात करते हैं 2022 में मज़दूरों के हालात के बारे में। मज़दूरों की मेहनत लूटने के लिए मालिक आज तमाम नये हथकण्डे अपना रहे हैं। श्रम क़ानून तो पहले से ही काग़ज़ों की शोभा बढ़ाने के काम आते रहे हैं और अब मोदी सरकार ने इन्हें भी ख़त्म करने की पूरी तैयारी कर ली है। औद्योगिक इलाक़ों में 8 घण्टे काम का नियम लुप्त हो चुका है, मज़दूरों से 12-12 घण्टे काम कराया जाता है। वहीं दूसरी तरफ़ बेरोज़गारों की बड़ी आबादी काम की तलाश में भटकती रहती है। आज महँगाई आसमान छू रही है और उसमें मज़दूरों की बड़ी आबादी रुपये 7000-8000 वेतन में गुज़ारा कर रही है। आइए जानते है मज़दूरों की कहानी उन्हीं की ज़ुबानी।
दुर्गा विजय बवाना औद्योगिक क्षेत्र के सेक्टर-5 में प्लास्टिक दाना लाइन में काम करते हैं। वह बताते हैं कि – “कोरोना के बाद से काम बहुत मन्दा हो गया है। एक तो मालिक ने भी कोरोना में कोई मदद नहीं की और सरकार से तो क्या ही कहें! जो भी जमा पूँजी बची थी सब ख़त्म हो गयी। पिछले साल से काम शुरू हुआ तो मालिक ने फ़ैक्टरी में से कई लोगों को निकाल दिया और अब हम 15 लोग ही बचे हैं और हमसे 12 घण्टे काम कराता है।”
सवाल: “आपके कारख़ाने में श्रम क़ानून लागू होते हैं?”
जवाब: “अब आप ख़ुद देखिए, 12 घण्टे में 11 हज़ार वेतन मिल रहा है तो ये क़ानून तो नहीं कहता! ऊपर से ये भी मालिक देने में आनाकानी करता है। कभी पैसा समय पर नहीं देता। ई.एस. आई-पी.एफ़ तो बहुत दूर की बात है। पिछले साल हमारी कम्पनी में एक मज़दूर की उँगली कट गयी थी मालिक ने प्राइवेट से पट्टी करा के भेज दिया और कुछ दिन बाद काम से निकाल दिया। पैसा बढ़ाने की बात करो तो धमकी देता है कि काम करना है करो वरना निकल जाओ बहुत हैं काम करने वाले। जबकि उसकी फ़ैक्टरी में काम करते हुए मुझे 10 साल हो गये।”
सवाल: “आपकी पगार कितनी है?”
जवाब: “8 घण्टे काम का 8 हज़ार और 12 घण्टे काम करने के बाद मुश्किल से 11 हज़ार तक हो पाते हैं। उसी में घर भी पैसा भेजना होता है, बच्चों की स्कूल की फ़ीस भी देनी होती है, यहाँ अपना भी ख़र्च निकालना होता है। ऊपर से ये महँगाई रोज़ बढ़ती जा रही है। हर चीज़ में तो कटौती कर ही चुके हैं अब तो लगता है खाने में भी कटौती करनी होगी।”
सवाल: “अपने भविष्य को लेकर क्या सोचते हैं?”
जवाब: “भविष्य आख़िर क्या ही है हमारा! सरकार, मालिक सब मिलकर हमें लूट रहे हैं। वेतन कम है काम ज़्यादा। सुबह 8.30 बजे निकलते हैं और रात के 9.30 बजे आते हैं। फिर खाना बना के सो जाते है। सुबह उठो, काम पर जाओ, खाओ और सो जाओ, यही गोल चक्कर घूमता रहता है दिन, महीनों, सालों तक। अब जब तक मज़दूर एकजुट नहीं होंगे तो क्या ही किसी का भविष्य होगा।”
यह तो बवाना के एक कारख़ाना मज़दूर की आपबीती थी। यही हालत देश में सभी अनौपचारिक-असंगठित क्षेत्र के कारख़ाना मज़दूरों के हैं। अब आइए, एक घरेलू कामगार की ज़ुबानी उनके जीवन और काम के हालात के बारे में सुनते हैं।
सुनीता घरेलू कामगार के तौर पर काम करती हैं। वह बताती हैं कि – “मुझे 20 साल हो गये कोठियों में काम करते हुए। 18 साल की थी तब से ही काम करना शुरू कर दिया था और आज तक कर रही हूँ। इतने सालों में सब कुछ बदल गया पर हमारे काम के हालात नहीं बदले। जब शुरू-शुरू में काम पर लगी थी तब 300 रुपये एक घर का मिलता था बर्तन, झाड़ू, पोंछा करने का, अब मुश्किल से हज़ार मिलता है तो बताइए इतने सालों में हर चीज़ के दाम इतने बढ़ गये पर हमारा वेतन नाममात्र के लिए ही बढ़ा है। आज पाँच घर में काम करती हूँ तब जाकर कहीं 5-6 हज़ार हो पाते हैं। वो भी सुबह से लेकर रात तक हाथ-पाँव घिसने के बाद। मालिक को बोलो पैसे बढ़ाने को तो उल्टा-सीधा बोलता है। अब हमारी भी मजबूरी है। नहीं करेंगे तो कोई और उतने में ही करेगा इसलिए चुप हो जाते हैं। बाक़ी अकेले इनसे कैसे ही लड़ सकते हैं, इसके लिए सबका इकठ्ठा होना ज़रूरी है।”
देश की करोड़ों घरेलू कामगारों की यही स्थिति है, जो साथी सुनीता ने बयान की है। क्या हमारे ये हालात बदल सकते हैं? हाँ। कैसे और क्यों? इसलिए क्योंकि हम 80 फ़ीसदी हैं और हमें लूटने वाले 20 फ़ीसदी। लेकिन वे 20 फ़ीसदी एकजुट हैं और इसीलिए उनकी राजनीतिक सत्ता भी क़ायम है। हम कम नहीं हैं, पर हम कम संगठित हैं। यदि देश का मज़दूर वर्ग अपनी एक क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी के नेतृत्व में संगठित हो जाये, तो मालिकों, धन्नासेठों, अमीरज़ादों और लुटेरों का राज ख़त्म कर मज़दूर राज को लाया जा सकता है। इन लुटेरों और जोंकों की समाज में क्या ज़रूरत है? वे समाज के लिए कौन-सी ज़रूरी चीज़ बनाते हैं? वे समाज को कौन-सी ज़रूरी सेवा देते हैं? बस उनके पास उन उत्पादन के साधनों का मौजूदा व्यवस्था में मालिकाना है, जो उत्पादन के साधन भी मज़दूर वर्ग के श्रम ने ही बनाये हैं। और हमारे पास बेचने के लिए अपनी श्रमशक्ति के अलावा कुछ नहीं है, इसलिए हम उनके पास उजरती ग़ुलामी करने को बाध्य हैं। लेकिन न तो यह ‘जाहि बिधि राखे राम…’ वाला मामला है और न हमारी तक़दीर की रेखा। हम इसे बदल सकते हैं, बशर्ते कि हम अपनी क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी को खड़ा कर सकें, बशर्ते कि हम अपनी क्रान्तिकारी यूनियनें बना सकें।
सरकारें पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी होती हैं। सरकारों का काम मालिकों की सेवा करना है, मज़दूर मालिकों की ग़ुलामी करते रहें इसके लिए नीतियाँ बनाना है। अगर मज़दूर शोषण अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायें तो डण्डे चलाना है, दमन करना है। यह कभी नहीं भूलना चाहिए सरकार किसी भी दल की हो वह हमेशा मालिकों की ही चाकरी करती है। इसलिए भाजपा, कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, सपा, बसपा, आदि से उम्मीद लगाने का कोई मतलब नहीं है। सरकार इस पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टी की बने या उस की, हम मज़दूरों के लिए ये कुछ भी नहीं करने वाली हैं। रास्ता एक ही है: समाजवादी क्रान्ति के ज़रिए मज़दूर राज और समाजवादी व्यवस्था की स्थापना और तात्कालिक तौर पर अपनी क्रान्तिकारी यूनियनें संगठित करके पूँजीपति वर्ग के शोषण और दमन का जुझारू तरीक़े से मुक़ाबला करना।
इस मामले में 2022 में मज़दूरों के जीवन और काम के हालात कमोबेश वैसे ही बन चुके हैं जैसे कि 1886 में थे। आज भी जुझारू संघर्ष की उतनी ही शिद्दत से ज़रूरत है, जितनी तब थी। आज भी मज़दूर वर्ग की व्यापक एकजुटता की उतनी ही दरकार है, जितनी कि तब थी। सोचना हमें है कि हम अपनी निराशा, पस्तहिम्मती और पराजयबोध त्यागकर मई दिवस के शहीदों की तरह उठ खड़े होने को तैयार हैं, या फिर पुश्त दर पुश्त ग़ुलामी का जुआ अपने कन्धों पर ढोते जाने को स्वीकार कर चुके हैं।

मज़दूर बिगुल, मई 2022


 

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