टेक्सास एलिमेण्ट्री स्कूल ‘मास शूटिंग’ के बहाने कुछ बुनियादी सवाल
अन्धाधुन्ध गोलियाँ बरसाकर सामूहिक हत्याएँ : अमेरिकी समाज की गम्भीर मनोरुग्णता का एक लक्षण

कात्यायनी

विगत 24 मई को सल्वाडोर रामोस नामक एक अठारह वर्षीय युवा अमेरिका के टेक्सास राज्य के युवाल्डे स्थित बच्चों के एक स्कूल में घुसकर अन्धाधुन्ध गोलियाँ बरसाने लगा। नतीजतन उन्नीस बच्चे और दो शिक्षक मारे गये तथा अठारह अन्य घायल हुए। दिल दहला देने वाली इस घटना के एक घण्टे बाद तक रामोस वहीं मौजूद रहा, जब तक कि पुलिस की एक टुकड़ी ने वहाँ पहुँचकर उसे गोली नहीं मार दी। स्कूल में घुसने से पहले रामोस घर पर अपनी दादी को सिर में गोली मारकर गम्भीर रूप से घायल कर आया था।

ज़ाहिर है कि इस अकारण ख़ून-ख़राबे के लिए रामोस की असामान्य मानसिक स्थिति ही ज़िम्मेदार थी, लेकिन ग़ौरतलब बात यह है कि अमेरिका में ‘मास शूटिंग’ की ऐसी घटनाएँ अक्सर होती रहती हैं और गत कुछ दशकों से राजनीतिक एवं बौद्धिक दायरों में तथा समाजशास्त्रियों और मनश्चिकित्सकों के बीच गम्भीर चर्चा और वाद-विवाद का विषय बनी रही हैं। पहले यह स्पष्ट कर दें कि पारिभाषिक तौर पर ‘मास शूटिंग’ की श्रेणी में ऐसी घटनाएँ आती हैं जिनमें कोई व्यक्ति अन्धाधुन्ध गोलियाँ बरसाकर चार या उससे अधिक लोगों की जान ले ले। ‘गैंगवार’, घरेलू हिंसा और आतंकवादी कार्रवाइयाँ इस श्रेणी में नहीं आतीं। ‘मास शूटिंग’ आज अमेरिकी समाज की एक गम्भीर समस्या बन चुकी है। ग़ौरतलब है कि अधिकांशत: ऐसी घटनाएँ विकसित पूँजीवादी देशों में ही घटती हैं और पूरी दुनिया में होने वाली ‘मास शूटिंग्स’ की घटनाओं में से 73 प्रतिशत अकेले अमेरिका में होती हैं।

‘रिपब्लिक वर्ल्ड डॉट कॉम’ के अनुसार सिर्फ़ 2022 में 28 जून तक अमेरिका में ‘मास शूटिंग’ की 292 घटनाएँ घट चुकी हैं। तस्वीर की भयावहता के अहसास के लिए कुछ और आँकड़े ध्यान देने लायक़ हैं। 1966 से 2012 के बीच पूरी दुनिया में ‘मास शूटिंग’ की जितनी घटनाएँ घटीं, उनमें से एक तिहाई अकेले अमेरिका में घटीं। ‘गन वॉयलेंस आर्काइव्स’ के अनुसार 2019 के अन्त तक 417, 2020 के अन्त तक 611 और 2021 के अन्त तक 699 ‘मास शूटिंग’ की घटनाएँ अमेरिका में घटीं। 2021 के मध्य मई तक अमेरिका में प्रति सप्ताह औसतन दस ‘मास शूटिंग्स’ हुईं। 2022 के मध्य मई तक प्रति सप्ताह औसतन ग्यारह ऐसी घटनाएँ हुईं। युवाल्डे स्कूल ‘मास शूटिंग’ के पहले 2022 में अमेरिका में ‘स्कूल शूटिंग’ की 26 घटनाएँ घट चुकी थीं और ‘एबीसी न्यूज़’ के पियेर थॉमस के अनुसार, उस घटना के बाद 33 ऐसी और घटनाएँ घट चुकी हैं। ‘एजुकेशन वीक’ पत्रिका के अनुसार 2018 से लेकर अभी तक अमेरिका में सिर्फ़ ‘स्कूल शूटिंग’ की ही 119 घटनाएँ घट चुकी हैं।

युवाल्डे स्कूल की घटना 2012 में सैण्डी हुक एलिमेण्ट्री स्कूल, कलेक्टिकट की उस ‘स्कूल मास शूटिंग’ की घटना के बाद दूसरी सबसे भीषण घटना थी जिसमें 20 बच्चे और 6 वयस्क मारे गये थे। युवाल्डे की घटना बफ़ैलो सुपर मार्केट, न्यूयार्क की घटना के ठीक दस दिन बाद घटी जिसमें एक श्वेतवर्ण श्रेष्ठतावादी ने अन्धाधुन्ध गोलियाँ बरसाकर दस बेगुनाह काले लोगों को मौत के घाट उतार दिया था।

अमेरिका में इस ज्वलन्त मसले पर जारी बहस में डेमोक्रेटिक पार्टी और उसके बाहर के बहुतेरे उदारवादी-सुधारवादी बुर्जुआ बुद्धिजीवियों का कहना है कि रिपब्लिकन्स (विशेषकर ट्रम्प के समर्थकों) और अन्य धुर दक्षिणपन्थी राजनीतिक शक्तियों के प्रभाव में काले, एशियाई और लातिनी मूल के नागरिकों तथा आप्रवासियों (विशेषकर मज़दूरों), स्त्रियों और समलैंगिकों के विरुद्ध घृणा और हिंसा का जो व्यापक माहौल बनाया जा रहा है और इनकी आज़ादी और अधिकारसम्पन्नता को जिस तरह अमेरिकी हित, संस्कृति और भविष्य के लिए ख़तरे के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, उससे पिछड़ी चेतना की श्वेत आबादी में निराशा और ग़ुस्सा बढ़ रहा है। इस मानसिकता के चलते ऐसी घटनाएँ घट रही हैं। कुछ समाजशास्त्री यह भी मानते हैं कि वियतनाम से लेकर अफ़ग़ानिस्तान और सीरिया तक अमेरिका के मानमर्दन ने अमेरिकी समाज में बहुप्रचारित अमेरिकी “श्रेष्ठता” के मिथक को चूर-चूर कर दिया है। उधर पचास से भी अधिक वर्षों से जारी दीर्घकालिक मन्दी ने आम अमेरिकी के सामने इस बात को साफ़ कर दिया है कि केनेडीकालीन वैभव के स्वर्णिम दिन अब कभी भी वापस नहीं लौटने वाले। संकट की आँच अब खाता-पीता अमेरिकी मध्यम मध्य वर्ग तक अपने दैनन्दिन जीवन पर महसूस करने लगा है। नतीजतन पूरा अमेरिकी समाज ही आज गहन अवसाद, निरर्थकता बोध, पराजयबोध और अपराधबोध का शिकार है।

अमेरिकी बुर्जुआ समाज की इन्हीं सामूहिक मनोरुग्णताओं का विस्फोट विविध रूपों में होता रहता है, जिनमें से एक ‘मास शूटिंग’ की परिघटना है। अमेरिका के मनश्चिकित्सकों का एक हिस्सा तो यहाँ तक कहता है कि ‘मास शूटिंग्स’, आत्महत्या, पारिवारिक हिंसा और अवसाद के बढ़ते मामलों को ‘मानसिक स्वास्थ्य महाआपदा’ के रूप में देखा जाना चाहिए। लेकिन इस स्थिति की सामाजिक जड़ों को देखने की जगह वे मानसिक चिकित्सा के व्यापक सरकारी तंत्र के निर्माण की बात करते हैं। या फिर ऐसा वे शायद इसलिए करते हैं कि मूल व्याधि के सामाजिक ढाँचागत कारणों को दूर करने का रास्ता वे बता ही नहीं सकते। और यह शायद उनके वर्गहित में भी नहीं होगा।

यह कहना अंशत: सही है कि धुर-दक्षिणपन्थी शक्तियों और रिपब्लिक पार्टी की मज़दूर-विरोधी, स्त्री-विरोधी, नस्लवादी और तमाम क़िस्म की रूढ़िवादी नीतियों का किसी हद तक, निरर्थक हिंसा के माहौल और मानसिकता के निर्माण में एक हाथ है। लेकिन यह भी सच है कि डेमोक्रेटिक पार्टी का उदारवाद-सुधारवाद इतना पंगु और निष्प्रभावी है कि सामाजिक घुटन और निरुपायता के विविधरूपा सामाजिक हिंसात्मक विस्फोटों को रोकने के लिए ‘सेफ़्टीवाल्व’ की सीमित भूमिका भी नहीं निभा सकता। न केवल साम्राज्यवादी वर्चस्व और नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के मामले में, बल्कि अधिकांश घरेलू नीतियों के मामले में भी डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन पार्टी में कोई मूलभूत अन्तर नहीं है। स्त्रियों की स्वतंत्रता, काले लोगों और आप्रवासियों के अधिकारों जैसे मामलों में डेमोक्रेटिक पार्टी कुछ प्रगतिशील स्टैण्ड लेती दीखती है, लेकिन वह भी रस्मी और ज़ुबानी जमाख़र्च अधिक होता है। जो समाजशास्त्री अमेरिकी समाज के चौतरफ़ा संकट और पराभव से ‘मास शूटिंग्स’, आत्महत्याओं, घरेलू हिंसा की बढ़ती घटनाओं को जोड़कर देखते हैं, वे किसी हद तक सच्चाई के निकट खड़े हैं। लेकिन इस पूरी स्थिति को व्यापक सामाजिक-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के बिना समझा नहीं जा सकता।

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अमेरिकी बुर्जुआ समाज, बीमार, सचमुच बेहद बीमार है। बुर्जुआ सभ्यता और भौतिक प्रगति का यह बहुप्रचारित, लकदक चमक-दमक वाला मॉडल अन्दर से सड़ चुका है। अमेरिकी बुर्जुआ सभ्यता मानवीय सारतत्व से रिक्त और खोखली हो चुकी है। अमेरिकी बुर्जुआ समाज समृद्धि के शिखर पर बैठा हुआ भविष्यहीनता के अवसाद और आतंक में डूबा हुआ है। अमेरिकी “श्रेष्ठता” की खोखली उल्लास व उन्माद-भरी चीख़ों के पीछे दुनियाभर के युद्धों, रक्तपातों, नरसंहारों का अपराधबोध सामूहिक मानस में पार्श्व-संगीत की तरह लगातार बज रहा है।

आज के वैभवशाली अमेरिका की बुनियाद कभी यूरोप की तिरस्कृत-लांछित, हाशिए पर धकेल दी गयी मेहनतकश आबादी ने डाली थी। यही वह मेहनतकश आबादी थी जो 1775-84 की अमेरिकी बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति में नवोदित बुर्जुआ वर्ग की सहयोगी मुख्य शक्ति थी। आगे चलकर अब्राहम लिंकन ने जब दास-प्रथा का उन्मूलन करके बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के आख़िरी छूटे हुए महत्वपूर्ण कार्यभार को पूरा किया तो यह मेहनतकश आबादी मज़बूती से उनके साथ खड़ी थी। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से जब यूरोप में सर्वहारा वर्ग के संघर्षों की उत्ताल तरंगे उठ रही थीं तो अमेरिकी मज़दूर वर्ग भी उसके क़दम से क़दम मिलाकर चल रहा था। शिकागो के मज़दूरों का संघर्ष उसकी संघर्ष यात्रा का एक मील का पत्थर था। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक अमेरिकी बुर्जुआ वर्ग जनवादी क्रान्ति के आदर्शों को तिलांजलि देकर मज़दूर वर्ग और समूची मेहनतकश आबादी के खुले शत्रु के रूप में सामने आ चुका था। जनवादी क्रान्ति के बुनियादी कार्यभारों के पूर्ण होने और अमेरिकी पूँजीवाद के इजारेदारी की मंज़िल में प्रवेश के साथ मेहनतकश जनता का बुर्जुआ वर्ग से कुछ भी साझा नहीं रह गया था। सदी के अन्तिम दशकों तक अमेरिका एक साम्राज्यवादी देश बन चुका था और दुनिया के बाज़ार और कच्चे माल के स्रोतों पर क़ब्ज़े के लिए यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियों से प्रतिस्पर्द्धा करने लगा था। दूसरे विश्वयुद्ध के पहले ही यह स्पष्ट हो चुका था कि साम्राज्यवादी दुनिया का अगला चौधरी अब अमेरिका ही होगा और विश्वयुद्ध के बाद ऐसा ही हुआ।

साम्राज्यवाद की अवस्था में प्रवेश के बाद अमेरिकी बुर्जुआ वर्ग ने भी यूरोपीय साम्राज्यवादियों की ही तरह दुनियाभर से निचोड़े गये अधिशेष से अपने देश के मज़दूरों के एक हिस्से को सुविधाओं की घूस देकर भ्रष्ट बनाया। इन कुलीन मज़दूरों में ज़्यादातर श्वेत मज़दूर थे जो आम अश्वेत और आप्रवासी मज़दूरों से घृणा करते थे और साथ ही ग़रीब श्वेत मेहनतकश आबादी से भी नफ़रत करते थे। क्रान्तियों के तूफ़ानों का केन्द्र अब पश्चिम से पूरब की ओर खिसक चुका था। अमेरिकी समाज की ऊर्जस्विता और सर्जनात्मकता अब मुख्यत: निश्शेष हो चुकी थी। जिस देश ने कभी साहित्य के क्षेत्र में वाल्ट व्हिटमैन से लेकर मार्क ट्वेन, अप्टन सिंक्लेयर, जैक लण्डन जैसे महान सर्जक दिये थे, वह बीसवीं शताब्दी का मध्य आते-आते बीमार व्यक्तिवाद, निरर्थकताबोध और ऐन्द्रिक-मानसिक रुग्णताओं के साहित्यिक आन्दोलनों का केन्द्र बन गया। बीसवीं शताब्दी में हेमिंग्वे और विलियम फ़ॉकनर जैसों के यथार्थवादी साहित्य में मानवतावादी और जनवादी मूल्यों की जो कौंधें थीं, वे भी धीरे-धीरे विलुप्त होती चली गयीं। कला के अन्य क्षेत्रों में भी कमोबेश यही स्थिति थी।

कला-साहित्य की यह स्थिति दरअसल पूरे अमेरिकी बुर्जुआ समाज की बढ़ती आत्मिक रिक्तता को ही प्रतिबिम्बित करती है। बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के बाद सर्वहारा वर्ग के वर्ग संघर्षों से अमेरिकी सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन को ऊर्जस्विता, सर्जनात्मकता और भविष्य-स्वप्नों की जो संजीवनी शक्ति मिल रही थी, वह सोता ही क्रमश: सूखता चला गया। अमेरिकी समाज में मेहनतकश जनता के संघर्ष जैसे हाशिए के इलाक़ों में क्षीण धाराओं के रूप में मौजूद रह गये हैं, उसी तरह सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में भी स्वस्थ मानवीय मूल्यों और भविष्यस्वप्नों के बीज यहाँ-वहाँ बिखर-से गये हैं और मुश्किल से ही दृष्टिगोचर होते हैं। ऐसा समाज केवल एक बीमार, अवसादग्रस्त, आत्महन्ता और घोर मानवद्रोही समाज ही हो सकता है। इतिहास की स्वाभाविक गति से, वर्ग संघर्षों की उत्ताल तरंग जब वेगवाही तूफ़ान बनकर पूरब से पश्चिम की ओर पहुँचने लगेंगी, तब फिर निश्चय ही अमेरिकी समाज भी ऊर्जस्वी और व्याधिमुक्त होकर सर्जनात्मकता की राह पर आगे डग भरने लगेगा। निचोड़ यह कि अमेरिकी समाज की आत्महन्ता मनोव्याधि के कारण ऐतिहासिक हैं और वर्ग संघर्ष की ऐतिहासिक गतिकी में ही इसका उपचार निहित है।

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आज से 112 वर्ष पहले, 1910 में, मक्सिम गोर्की ने एक लम्बा निबन्ध लिखा था – ‘व्यक्तित्व का विघटन’। उस निबन्ध में उन्होंने प्रभावशाली ढंग से यह दर्शाया था कि वर्ग समाज और श्रम-विभाजन के जन्म के साथ ही मनुष्य के सामाजिक समष्टिगत व्यक्तित्व के विघटन की जो प्रक्रिया शुरू हुई थी, वह पूँजीवाद के पतनशील दौर तक पहुँचते-पहुँचते अपने चरम पर जा पहुँची है और बुर्जुआ समाज संस्कृति एवं आत्मिक मूल्यों के धरातल पर कुछ भी स्वस्थ और सकारात्मक दे पाने की क्षमता तेज़ी से खोता जा रहा है। गोर्की ने पतनशीलता के ज़्यादातर उदाहरण अमेरिकी समाज और संस्कृति से ही दिये हैं। गोर्की के उस लेख के 112 वर्षों बाद अमेरिकी समाज अगर अन्दर से इतना खोखला और बीमार नज़र आ रहा है तो इसमें भला आश्चर्य की क्या बात है!

मक्सिम गोर्की के उक्त लेख के लिखे जाने से भी लगभग आधी सदी पहले मार्क्स ने यह स्पष्ट कर दिया था कि पूँजीवाद मज़दूर वर्ग को उनके द्वारा उत्पादित या सृजित वस्तु से अलग कर देता है (बेगाना बना देता है) और उसे आने-पाई पर आधारित सम्बन्धों में बँधने के लिए बाध्य कर देता है। इस प्रक्रिया में एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से कट जाता है, सामाजिकता से कट जाता है और मानवीय मूल्यों से भी बेगाना हो जाता है। पूँजीवादी समाज का ज़ोर “उत्पादकता” पर होता है, यानी इन्सान का मोल इस बात से तय होता है कि वह पूँजीपति के लिए कितना मुनाफ़ा पैदा करता है। इस तरह पूँजीवाद विभेद और अलगाव अपनी स्वतंत्र आन्तरिक गति से पैदा करता है। बुर्जुआ समाज में शोषण के साथ-साथ नस्लवाद, रंगभेदवाद, पुरुषवर्चस्ववाद आदि उत्पीड़न के जितने भी रूप होते हैं वे आम लोगों के बीच बँटवारे और अलगाव को और अधिक बढ़ाने का काम करते हैं। बुर्जुआ समाज की ऐतिहासिक पतनशीलता के दौर में हमें इसके चरम विकृत रूप और परिणाम देखने को मिलते हैं। यौन हिंसा, नस्लवादी हिंसा, अवसाद, आत्महत्या आदि के साथ ही ‘मास शूटिंग’ जैसी घटनाओं को भी इसी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखा और समझा जाना चाहिए।

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इस पूरी प्रवृत्ति की सांगोपांग समझदारी के लिए इसे एक और कोण से भी देखा जाना चाहिए। आज का अमेरिकी बुर्जुआ समाज अवचेतन के स्तर पर एक सामूहिक अपराध-बोध का किसी हद तक शिकार है। वह जानता है कि हिरोशिमा और नागासाकी में दो लाख लोगों का नरसंहार फ़ासिज़्म की पराजय के लिए नहीं (वह तो हो चुकी थी) बल्कि अमेरिकी वैश्विक प्रभुत्व के लिए किया गया था। कोरिया, वियतनाम, कम्पूचिया से लेकर अफ़ग़ानिस्तान, इराक़, लीबिया, सीरिया तक – युद्ध से लौटे सैनिकों के ज़रिए यह बात समाज में पहुँचती रही है कि भीषण विनाशकारी युद्ध वास्तव में अमेरिकी साम्राज्यवादी प्रभुत्व के लिए लड़े जाते रहे हैं, न कि अमेरिकी राष्ट्र पर आये किसी “ख़तरे” से निपटने के लिए। आज का औसत जागरूक अमेरिकी नागरिक भी जानता है कि लातिन अमेरिकी देशों से लेकर ईरान, फिलिप्पींस आदि देशों तक सभी बर्बर तानाशाह वास्तव में अमेरिका की ही कठपुतली थे। सामूहिक अवचेतन में जड़ जमाये अमेरिकी बुर्जुआ नागरिक के इस अपराध-बोध को दबाने के लिए शासक वर्ग ज़्यादा से ज़्यादा आक्रामक, अन्धराष्ट्रवादी, नस्लवादी और तमाम क़िस्म के धुर-प्रतिक्रियावादी नारे देता है। विशेषकर विकल्पहीनता के कारण मध्यवर्गीय आबादी का एक बड़ा हिस्सा शासक वर्ग द्वारा दी गयी ‘मिथ्याचेतना’ को अपना शरण्य बनाता है और ‘अमेरिकी कॉमन सेंस’ के रूप में उसे अपना लेता है। लेकिन अवचेतन का अपराधबोध फिर भी बना रहता है। यही वह मानसिकता है जो एक ओर परग्रहीय दुष्ट शक्तियों को शिकस्त देकर ब्रह्माण्ड विजय करने और दूसरी ओर मनुष्यता के विनाश की फन्तासियों में मनोरंजन ढूँढ़ती है और दूसरी ओर गहन अवसाद, निरर्थकता बोध, निरर्थक हिंसा, रुग्ण ऐन्द्रिक विलास और आत्महत्या की इच्छा के भँवरों के बीच डूबती-उतराती रहती है। ऐसी ही विशेष मानसिक स्थिति के झोंक में कोई आदमी अगर बन्दूक़ लेकर निकल पड़ता है और किसी सुपर मार्केट या स्कूल में पहुँचकर तड़ातड़ निर्दोष अपरिचितों पर या बच्चों पर या काले लोगों पर गोलियों की बौछार कर देता है, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।

इस प्रकार की घटनाओं के फ़ौरन बाद ही अमेरिकी उदार बुर्जुआ वर्ग बन्दूक़ नियंत्रण (गन कण्ट्रोल) के बारे में हल्ला मचाने लगता है। यह पूरी समस्या का असुधारणीय रूप से लिबरल समाधान है, या दूसरे शब्दों में, समाधान है ही नहीं। वजह यह कि बन्दूक़ हत्याएँ नहीं करती बल्कि रुग्णमानस लोग ऐसे हत्याकाण्ड करते हैं। सवाल यह है कि ऐसे रुग्णमानस लोग किस प्रकार के समाज में बनते हैं और क्यों बनते हैं? आक्रामक और बीमार क़िस्म के व्यक्तिवाद, अलगाव और विक्षिप्तता के शिकार लोग अमेरिकी समाज और कई पूँजीवादी समाजों में क्यों पैदा होते हैं? जनता के सशस्त्र होने के अधिकार का मौजूद होना अमेरिकी जनवादी क्रान्ति और उसके बाद के इतिहास के कारण पैदा हुई परिघटना थी जिसे पूँजीपति वर्ग ने बाद में तरह-तरह से नियंत्रित किया। लेकिन आज भी उसे पूरी तरह से नियंत्रित नहीं किया जा सका है। जनता को निशस्त्र रखना हर-हमेशा पूँजीपति वर्ग और उसकी राज्यसत्ता के लिए ज़रूरी होता है। इसलिए ऐसी घटनाओं पर हमेशा बुर्जुआ उदार शान्तिवादी बन्दूक़ नियंत्रण की बात करने लगते हैं। लेकिन जिन पूँजीवादी समाजों में नागरिकों के पास यह अधिकार नहीं है उन समाजों में भी बर्बर अपराधों और हत्याकाण्डों को अंजाम देने वाले व्यक्तित्व निर्मित होते रहते हैं। इसके कारणों की तलाश मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीवादी सभ्यता व संस्कृति में की जानी चाहिए न कि लोगों के शस्त्र रखने के अधिकार में। पूँजीवादी समाज में मौजूद बीमार मस्तिष्क मौजूद होंगे तो उनके लिए ऐसी बर्बरताओं को अंजाम देने के लिए बन्दूक़ की आवश्यकता नहीं होती है। अमेरिका आज भी विश्व पूँजीवाद का केन्द्र और शीर्ष है, हालाँकि आर्थिक तौर पर वह एक लम्बे ह्रास से गुज़र रहा है। लेकिन पूँजीवाद के इस स्वर्ग में पूँजीवादी सभ्यता और संस्कृति अपनी ही रुग्णता की सड़ाँध में डूबकर दम तोड़ रही है।

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2022


 

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