उत्तर-पश्चिम दिल्ली के छोटे कारख़ानों में बेहद बुरी स्थितियों में खटती स्त्री मज़दूर

बिगुल संवाददाता

उत्तर-पश्चिमी दिल्ली में छोटे कारख़ानों का जालनुमा फैलाव देखने को मिलता है। ख़ासकर ये कारख़ाने मज़दूर बस्तियों के इर्द-गिर्द बसाये गये हैं ताकि सस्ते श्रम का दोहन किया जा सके। ऐसा ही एक जाल शाहबाद-डेरी से बवाना के आसपास के क्षेत्र में भी देखने को मिलता है। इन कारख़ानों में मुख्यतः धातु छँटाई ,पैकिंग इत्यादि का काम होता है। जिसमें तांबा, पीतल, चाँदी इत्यादि की छँटाई का काम किया जाता है।
इन कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूरों से नियमित प्रकृति के रोज़गार के आधार पर काम नहीं करवाया जाता बल्कि यहाँ काम करने वाले मज़दूर दिहाड़ी पर काम करते हैं। साथ ही काम की कोई निश्चितता नहीं होती, कारख़ाना मालिक जब चाहे मज़दूरों को काम से निकाल सकता है। इन कारख़ानों में कोई भी श्रम क़ानून लागू नहीं होते हैं, कारख़ानों में कोई सुरक्षा के नियम लागू नहीं होते और न ही न्यूनतम वेतन दिया जाता है। इन कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूरों की संख्या बहुत कम होती है जिसके कारण मज़दूरों का शोषण बड़े कारख़ानों के मुक़ाबले ज़्यादा होता है। प्रतिदिन की दिहाड़ी 220 से लेकर 250 तक दी जाती है, दिहाड़ी के साथ एक वक़्त की चाय दी जाती है जिसकी गुणवत्ता ऐसी है कि बहुत-से मज़दूरों ने चाय पीना छोड़ दिया है। इन कारख़ानों में से कई में युवा स्त्री मज़दूर काम करती हैं। यहाँ भी मज़दूर महिलाओं की स्थिति बहुत भयंकर है। उनके साथ यहाँ दोयम दर्जे का बर्ताव देखने को मिलता है एक तो सस्ती दर पर उनके श्रम का दोहन किया जाता है, साथ ही अपने इन हालातों पर ये मज़दूर मालिक के ख़िलाफ़ आवाज़ न उठा सकें, उसके लिए मज़दूरों के बीच में कई तरीक़े से मज़दूरों को कई दर्जे में विभाजित किया जाता है ताकि इन कारख़ानों में मज़दूर एकजुट न हो सकें। यहाँ कम वेतन पर मज़दूर महिलाओं को काम करने के पीछे का तर्क यही दिया जाता है कि ‘कहीं दूर नहीं जाना है, पास तो है, इसलिए जो मिल रहा है ले लो!’
इन कारख़ानों को सरकार व पूँजीपतियों ने सोचे-समझे तौर पर इन मज़दूर बस्तियों के किनारे बसाया है। यहाँ मज़दूर महिलाएँ छँटाई का काम 8 घण्टे से लेकर 10 घण्टे तक करती हैं। धातु छँटाई भी कई तरीक़े की होती है। पहले चरण में धातु के टुकड़े इतने बड़े होते हैं कि उन्हें आसानी से अलग किया जा सकता है। इसलिए इस चरण में काम करने वाले मज़दूरों को कम दिहाड़ी दी जाती है। दूसरे चरण में महीन धातु होने के कारण धातु को केमिकल में डुबाकर दिया जाता है। दूसरे चरण में बिना केमिकल के छँटाई बहुत मुश्किल होती है। ये केमिकल इतने घातक होते हैं कि काम करने वाले मज़दूरों के हाथों पर छाले पड़ जाते हैं। केमिकल में पड़े धातु की छँटाई करने के लिए कोई भी सुविधा नहीं दी जाती, न ही कोई सुरक्षा उपकरण मुहैया कराये जाते हैं। नतीजतन इन मज़दूरों की ज़िन्दगी धीरे-धीरे कई बीमारियों की जकड़न में आती जाती है।
इन महिला मज़दूरों को कोई छुट्टी नहीं मिलती। इन छोटे कारख़ानों के भीतर महिला मज़दूरों की स्थिति बहुत भयंकर है, धातु की छँटाई का काम ज़मीन पर बैठ कर किया जाता है, बैठने के लिए कोई चटाई वग़ैरह नहीं दी जाती। साथ ही इन मज़दूरों को दीवार से सटकर तक नहीं बैठने दिया जाता। इसके साथ इन मज़दूरों के लिए कारख़ानों में कोई बुनियादी सुविधा नहीं है, न तो पीने का साफ़ पानी मिलता है और न ही इस चिलचिलाती धूप में पंखे की हवा। कई मज़दूरों से बात करते हुए पता चला कि महिला मज़दूरों के लिए कोई शौचालय की सुविधा तक नहीं है, लंच के समय 10 मिनट के लिए शौचालय का गेट खोला जाता है उसके बाद बन्द कर दिया जाता है यानी 8 से 10 घण्टे काम करते हुए ये महिला मज़दूर सिर्फ़ एक बार शौचालय जा सकती हैं, इन मज़दूरों से बात करते हुए यह भी पता चला कि लम्बे समय तक शौचालय न जाने कारण इन मज़दूर महिलाओं को पेट से सम्बन्धित कई दिक़्क़तें हो रही हैं। धातुओं को साफ़ करते समय एक अजीब-सी गंध धातु में रहती है जिसके कारण सांस सम्बन्धी बीमारियाँ भी इन मज़दूरों में बेहद आम हो गयी हैं।
इन कारख़ानों की तरफ़ रुख़ मुख्य रूप से घरेलू कामगारों ने किया है क्योंकि घरेलू कामगारों को तो इससे भी कम में रोज़ खटना पड़ता है। इन मज़दूरों की काम के बाद तसल्ली से तलाशी ली जाती है। तलाशी कोई मेटल डिटेक्टर से नहीं बल्कि महिला सुपरवाइज़र करती है। इन कारख़ानों में मज़दूरों की हालत ज़्यादा बदतर है क्योंकि महिला मज़दूर होने के कारण तनख़्वाह से लेकर कई चीज़ों में इनके साथ ज़्यादती की जाती है। और ये सब कहीं दूर नहीं बल्कि केन्द्र से लेकर राज्य सरकार की नाक के नीचे हो रहा है क्योंकि कारख़ाना मालिक या तो ये ख़ुद तमाम नेता-मंत्री हैं या इन कारख़ाना मालिकों के प्रतिनिधि ही सत्ता में बैठे हैं।

मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2022


 

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