कविता कृष्णन : भाकपा (माले) लिबरेशन जैसी पतिततम संशोधनवादी पार्टी में परवरिश और कम्युनिज़्म-विरोधी अमेरिकी साम्राज्यवादी दुष्प्रचार की बौद्धिक ख़ुराक से तैयार हुई सर्वहारा वर्ग की नयी ग़द्दार

आनन्द

वैसे तो संशोधनवादी पार्टियों के सभी नेता सर्वहारा वर्ग के साथ ग़द्दारी करने का ही काम करते हैं, लेकिन कविता कृष्णन सीपीआई (एमएल) लिबरेशन से अलग होने के बाद से कम्युनिज़्म व मज़दूर वर्ग के महान शिक्षकों पर जिस क़दर खुले रूप में हमले कर रही है उससे यह स्पष्ट है कि उसकी ग़द्दारी अपने चरम पर जा पहुँची है। लेकिन उसे ग़द्दारी के इस मुक़ाम तक पहुँचाने में उसकी पार्टी का बहुत बड़ा हाथ है क्योंकि पार्टी ने ही वह पूँजीवादी उदारवादी माहौल बनाया जिसमें कविता कृष्णन जैसी ग़द्दार पार्टी में क़रीब तीन दशकों तक रही और केन्द्रीय कमेटी और पोलित ब्यूरो तक में लगभग एक दशक तक बनी रही।
ग़ौरतलब है कि कृष्णन के बाहर निकलने पर पार्टी ने अफ़सोस जताया और उनके इतने लम्बे साथ व सक्रिय भूमिका की सराहना व सम्मान किया। कोई भी क्रान्तिकारी सर्वहारा पार्टी ग़द्दारों को बाहर करके या उनसे पीछा छुड़ाकर अफ़सोस नहीं जताती बल्कि ख़ुशी और तसल्ली का इज़हार करती है। कुछ मायनों में देश की इस सबसे पतित संशोधनवादी पार्टी की असलियत इसी से ज़ाहिर हो जाती है कि कविता कृष्णन जैसे बेशर्म ग़द्दार द्वारा कम्युनिज़्म और क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग की गौरवशाली विरासत पर कीचड़ उछालने के बावजूद उसके प्रति उसकी ‘सराहना’ व ‘सम्मान’ में कोई कमी नहीं आयी! यही नहीं जब सोशल मीडिया पर तमाम लोग कृष्णन की ग़द्दारी की पोल खोल रहे थे तो यह पार्टी उसके बचाव में उतरती है और उसकी आलोचना करने वालों को ट्रोल की संज्ञा देकर उनकी भर्त्सना करती है! वैसे कविता कृष्णन जैसे बेशर्म ग़द्दार का खुलकर सामने आना कोई ताज्जुब की बात नहीं है। जिस प्रकार सीपीआई जैसी मरियल संशोधनवादी पार्टी कन्हैया कुमार जैसा विदूषक ही पैदा कर सकती थी उसी प्रकार ‘लिबरेशन’ जैसी काँइयाँ संशोधनवादी पार्टी से कविता कृष्णन जैसी कुटिल ग़द्दार पैदा करने की ही उम्मीद थी। ग़ौरतलब है कि इस पार्टी ने आज तक कृष्णन के झूठों का कोई जवाब नहीं दिया है, उसने बस यह दोस्ताना शिकायत की है कि अभी तो फ़ासीवाद से लड़ने (चुनावी गठबन्धन के ज़रिए!) का समय है, न कि इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ने का! हम मज़दूरों को केवल इतने से ही भाकपा (माले) लिबरेशन का असली चरित्र समझ जाना चाहिए। लेकिन फिर भी कविता कृष्णन नामक इस मज़दूर वर्ग की ग़द्दार के कम्युनिज़्म और मज़दूर वर्ग पर किये जा रहे हमलों की तथ्यों और प्रमाणों समेत सच्चाई जान लेते हैं।

कविता कृष्णन द्वारा फेंका जा रहा कीचड़ अमेरिकी साम्राज्यवादी दुष्प्रचार के मल-मूत्र से बना है

कविता कृष्णन का कहना है कि हाल के वर्षों में उसने गहन अध्ययन किया है (!) जिसके बाद वह इस नतीजे पर पहुँची है कि सोवियत यूनियन और चीन की सर्वहारा सत्ताओं की गिनती दुनिया की सबसे क्रूर सर्वसत्तावादी सत्ताओं में की जानी चाहिए जो आज भी दुनियाभर में निरंकुश सत्ताओं के लिए मॉडल का काम करती हैं। लेकिन उसके दावों पर सरसरी निगाह डालने से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि उसे ये सड़ी और झूठी बौद्धिक ख़ुराक अमेरिकी साम्राज्यवादी दुष्प्रचार के विराट तंत्र से मिलती है। सोवियत यूनियन व स्तालिन के बारे में आज वह जो कुछ भी बक रही है वह अमेरिकी साम्राज्यवादी दुष्प्रचार तंत्र शीत-युद्ध के दौर से ही लगातार प्रसारित करता आया है। इन काल्पनिक झूठों की रचना में त्रॉत्स्की व ख्रुश्चेव जैसे सर्वहारा वर्ग के ग़द्दारों की करतूतों के अलावा रॉबर्ट कांक्वेस्ट, सोल्झेनित्सिन व रॉय मेदवेदेव जैसे साम्राज्यवादी भोंपुओं ने भी अहम भूमिका निभायी है।
समकालीन दौर की बात करें तो कविता कृष्णन के दावों के मुख्य स्रोत टिमोथी श्नाइडर जैसे सेलिब्रिटी इतिहासकार व ऐन ऐपलबॉम तथा टॉम निकोल्स जैसे रूढ़िवादी प्रतिक्रियावादी लेखक हैं जिन्होंने अफ़ग़ानिस्तान, इराक़ और लीबिया पर अमेरिकी साम्राज्यवादी हमलों की पैरोकारी की थी। कविता कृष्णन निहायत ही बेशर्मी के साथ इन साम्राज्यवादी भोंपुओं के ट्वीट अपने ट्विटर प्रोफ़ाइल से नियमित रूप से ट्वीट करती है। ‘लिबरेशन’ से अलग होने के फ़ैसले को सार्वजनिक करने से एक दिन पहले ही इस ग़द्दार ने सर्वहारा वर्ग के एक अन्य ग़द्दार गोर्बाचोव को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए और उसकी शान में क़सीदे गढ़ते हुए ऐपलबॉम व निकोल्स के लेख साझा किये थे! वह गोर्बाचोव जो कि सोवियत यूनियन में मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी करने वाले तमाम संशोधनवादियों की आख़िरी कड़ी था और बेहद घिनौना व्यक्ति था।
टिमोथी श्नाइडर की बात करें तो उसे कोई संजीदा बुर्जुआ इतिहासकार भी गम्भीरता से नहीं लेता और 2010 में प्रकाशित उसकी किताब ‘ब्लडलैण्ड : यूरोप बिटवीन हिटलर एण्ड स्तालिन’ में किये गये हास्यास्पद दावों व झूठ के पुलिन्दों का पर्दाफ़ाश अमेरिकी इतिहासकार ग्रोवर फ़र ने अपनी किताब ‘ब्लड लाइज़’ में बख़ूबी किया है। कविता कृष्णन की फ़ेसबुक वाल पर अगर कोई श्नाइडर, ऐपलबॉम या निकोल्स जैसे अमेरिकी साम्राज्यवादी भोंपुओं की असलियत उजागर करता है तो उसके पास कोई जवाब नहीं रहता है और यहाँ तक कि वह ऐसे लोगों को ब्लॉक करने की धमकी भी देती है। इससे भी यह स्पष्ट होता है कि वह अब सचेतन रूप से ग़द्दारी पर ही नहीं बल्कि बेशर्म क़िस्म की बेईमानी और ढीठता पर उतारू हो चुकी है।
भारत में कविता कृष्णन के प्रेरणा-स्रोत बालगोपाल जैसे मानवाधिकार कर्मी व बुद्धिजीवी हैं जो कभी माओवादियों के शुभचिन्तक हुआ करते थे, लेकिन बाद के दिनों में उनका मार्क्सवाद से ही मोहभंग हो चुका था और हर प्रकार की हिंसा की निरपेक्ष रूप से आलोचना करने के साथ ही वे ऐसे बचकाने व हास्यास्पद दावे करने लगे थे कि मार्क्सवाद की सबसे बड़ी कमी यह है कि वह मानव स्वभाव को नहीं समझ पाता है! इतना मूर्खतापूर्ण और अवैज्ञानिक दावा करने के लिए पर्याप्त रूप से मूर्ख होने की आवश्यकता है। मानव स्वभाव कोई प्राकृतिक चीज़ नहीं होता है और मार्क्सवाद दिखलाता है कि मानव स्वभाव समाज की प्रकृति और चरित्र से स्वतंत्र रूप में कुछ भी नहीं हो सकता है। एक वर्गीय समाज में आम तौर पर वर्गीय प्रवृत्ति और स्वभाव की ही बात की जा सकती है। सिवाय खाने-पीने और मल-मूत्र का त्याग करने के प्राकृतिक स्वभाव या ‘इंस्टिंक्ट’ के अलावा इन्सान का बच्चा और कुछ भी लेकर नहीं पैदा होता। अन्य सभी मूल्य और विचार उसमें समाज में परवरिश के दौरान ही बनते हैं, जिस समाज की (आदिम क़बीलाई समाज को छोड़कर) सबसे बड़ी सच्चाई यह होती है कि वह वर्गों में बँटा होता है। यह मूर्ख व्यक्ति बालगोपाल इस समय इस दूसरी मूर्ख और ग़द्दार कविता कृष्णन का प्रकाश स्तम्भ बन गया है, तो इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है। समान पंख वाले पंछी एक दूसरे को ढूँढ़ ही लेते हैं।
अब आइए देखते हैं कि मूर्खतापूर्ण ग़द्दारी की बेख़याली में कविता कृष्णन ने क्या दावे किये हैं और उनकी सच्चाई क्या है।

कविता कृष्णन के दावों की पड़ताल

‘मार्क्सवाद पर कीचड़ उछालो’ मुहिम के तहत कविता कृष्णन की रणनीति स्तालिन काल में सोवियत यूनियन में हुई ज़्यादतियों से सम्बन्धित अमेरिकी साम्राज्यवादी झूठों को रट्टू तोते की तरह दोहराने के साथ ही साथ निहायत ही शातिराना ढंग से वर्तमान चीन को साम्यवादी बताते हुए उसके सामाजिक फ़ासीवादी व साम्राज्यवादी कुकृत्यों को कम्युनिज़्म के मत्थे मढ़ने की है। यही नहीं वह टिमोथी श्नाइडर के हथकण्डे का इस्तेमाल करते हुए हास्यास्पद ढंग से मौजूदा यूक्रेन युद्ध की वजह से यूरोप में पैदा हुई परिस्थिति का सादृश्य-निरूपण द्वितीय विश्व युद्ध की परिस्थिति से करती है और पुतिन व स्तालिन को एक ही श्रेणी में रखती है ताकि पुतिन की कारगुज़ारियों की आड़ में समूचे कम्युनिज़्म को बदनाम किया जा सके। इस प्रक्रिया में वह “साम्राज्यवाद” और “फ़ासीवाद” जैसे शब्दों को निहायत ही चलताऊ ढंग से इस्तेमाल करती है जो उसकी मूर्खता और मार्क्सवाद की बुनियादी अवधारणाओं के प्रति उसकी अनभिज्ञता को दर्शाता है।
वैसे तो कविता कृष्णन जो दावे कर रही है उनमें से अधिकांश का जवाब तमाम मार्क्सवादियों और लूडो मार्टेन्स, ग्रोवर फ़र, मारियो सूसा जैसे लेखकों-इतिहासकारों ने बहुत पहले ही दे दिया है, लेकिन चूँकि झूठ के इन पुलिन्दों का असर सोवियत संघ के इतिहास से अनजान तमाम असजग व असावधान लेकिन ज़हीन लोगों पर होता है इसलिए उनका बिन्दुवार जवाब देना ज़रूरी है।

दावा नम्बर 1 : ‘स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत यूनियन में एक सर्वसत्तावादी राज्य मौजूद था’

स्तालिनकालीन सोवियत राज्य को हिटलरकालीन जर्मनी जैसा सर्वसत्तावादी बताने और स्तालिन की तुलना हिटलर से करने का हथकण्डा शीतयुद्ध के समय से ही अमेरिकी साम्राज्यवाद अपनाता आया है। इसकी शुरुआत अमेरिकी साम्राज्यवाद की बौद्धिक एजेण्ट हाना आरेण्ट ने की थी। सर्वसत्तावाद की शब्दावली ही उसने रची थी और कहा था कि एक ओर पूँजीवादी जनवाद है और दूसरी तरफ़ सर्वसत्तावाद है, जिसके दो संस्करण हैं : फ़ासीवाद और कम्युनिज़्म। तबसे इस बकवास को नोम चॉम्स्की जैसे अराजकतावादियों समेत कविता कृष्णन सरीखे सर्वहारा वर्ग के ग़द्दार दुहराये जा रहे हैं, यह समझे बिना कि पूँजीवादी जनवाद वास्तव में पूँजीपति वर्ग की तानाशाही का ही दूसरा नाम है और सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व सर्वहारा जनवाद यानी अधिकतम सम्भव बड़ी मेहनतकश जनता के लिए जनवाद और लूटने वाले मालिकों, व्यापारियों, ठेकेदारों, बिचौलियों, धनी कुलकों व फ़ार्मरों के लिए तानाशाही का ही दूसरा नाम है। संक्षेप में, पूँजीवादी जनवाद यानी अल्पसंख्या के लिए जनवाद और बहुसंख्या के लिए तानाशाही है जबकि सर्वहारा अधिनायकत्व या सर्वहारा जनवाद बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी के लिए सर्वाधिक आज़ादी और जनवाद तथा लुटेरी अल्पसंख्या के लिए तानाशाही है।
हिटलर व स्तालिन को सर्वसत्तावादी क़रार देने वाली इस नक़ली और झूठी समतुल्यता के हथकण्डे से अमेरिकी साम्राज्यवाद और उसकी फेंकी हड्डियों पर पलने वाले बौद्धिक दलाल और क़लमघसीट एक साथ दो शिकार करने का प्रयास करते हैं। एक तरफ़ हिटलर की तानाशाही के पूँजीवादी तानाशाही का उग्रतम बर्बरतम रूप होने की सच्चाई पर पर्दा डालते हुए पूँजीवाद को बचा लिया जाता है वहीं दूसरी ओर सर्वहारा वर्ग की तानाशाही को एक व्यक्ति की तानाशाही के रूप में प्रस्तुत करके समाजवाद के बारे में विभ्रम फैलाया जाता है।
सच तो यह है कि स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत यूनियन ने तीन दशक के भीतर जो अप्रतिम सामाजिक-आर्थिक उपलब्धियाँ अर्जित कीं वे किसी एक व्यक्ति की तानाशाही में पूरी नहीं की जा सकती थीं। यह बात पूरी तरह से झूठ है कि सोवियत यूनियन की कम्युनिस्ट पार्टी के सभी निर्णय स्तालिन के इशारे पर लिये जाते थे। सच तो यह है कि उस दौरान पार्टी के भीतर विभिन्न मुद्दों पर फ़ैसले बहस-मुबाहसे और वोटिंग के ज़रिए लिये जाते थे, मसलन एक देश के भीतर समाजवाद का मसला और सामूहिकीकरण का मसला। ऐसे तमाम मुद्दों पर बहुमत द्वारा फ़ैसला होने के बाद भी जो लोग पार्टी के भीतर गुटबाज़ी करके बहुमत के ख़िलाफ़ जाते हुए और यहाँ तक कि तोड़फोड़ की गतिविधियों में संलग्न पाये गये उन्हें पार्टी से निकाला भी गया और उनमें से कईयों को ग़लती मान लेने के बाद पार्टी में वापस भी लिया गया, मिसाल के लिए ज़िनोवियेव, कामेनेव, एवोद्किमोव, प्रियोब्राजिंस्की और रादेक आदि। इस प्रकार पार्टी एक व्यक्ति के इशारे पर चलने वाली कोई एकाश्मी पार्टी नहीं थी।
यह भी सच है कि बोल्शेविक पार्टी के भीतर नौकरशाहाना प्रवृत्तियाँ बड़े पैमाने पर मौजूद थीं और चापलूसी करने का चलन भी था। लेकिन ऐसे अनेक लिखित प्रमाण हैं जो यह दिखाते हैं कि स्तालिन ऐसी प्रवृत्तियों व आदतों को बढ़ावा देने की बजाय उनके ख़िलाफ़ संघर्ष छेड़ने का आह्वान किया करते थे और पार्टी के भीतर जनवाद को बढ़ावा देने पर बहुत अधिक ज़ोर दिया करते थे। मिसाल के लिए यंग कम्युनिस्ट लीग की आठवीं कांग्रेस के सामने 16 मई, 1928 को दिये गये भाषण ‘नीचे से आलोचना संगठित करो’ में स्तालिन कहते हैं, “कम्युनिस्ट नौकरशाह सबसे ख़तरनाक क़िस्म का नौकरशाह होता है। क्यों? क्योंकि वह अपनी नौकरशाही को पार्टी सदस्यता के कार्ड के नीचे छिपा लेता है। और, दुर्भाग्य से, ऐसे कम्युनिस्ट नौकरशाह हमारी क़तारों में बड़ी संख्या में हैं।”… “इस तरह पार्टी का तात्कालिक काम यह बनता है कि : नौकरशाही के ख़िलाफ़ तीखा संघर्ष करना, नीचे से लोगों द्वारा आलोचना को संगठित करना, और इस आलोचना को पहचानते हुए और इसकी रोशनी में हमारी कमियों-कमज़ोरियों को दूर करने के लिए व्यावहारिक फ़ैसले लेना।” यह बात दीगर है कि नौकरशाही पर लगाम कसने के अपने संघर्ष में स्तालिन पूरी तरह सफल नहीं हुए। यह भी समझना ज़रूरी है कि समाजवादी समाज कम्युनिस्ट समाज और पूँजीवादी समाज के बीच एक लम्बी संक्रमण की अवधि है जिस समय बुर्जुआ वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच संघर्ष नये और बेहद जटिल रूपों में जारी रहता है, समाज में मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम का अन्तर अभी ख़त्म नहीं हुआ होता है और पूँजीवादी विशेषाधिकारों की सोच भी समाज में अभी मौजूद होती है। विचारधारा और संस्कृति के धरातल पर निजी सम्पत्ति के ख़त्म हो जाने मात्र से बुर्जुआ विचारों का प्रभाव समाप्त नहीं हो जाता है। इसलिए नौकरशाही को स्तालिन या उनसे पहले लेनिन कोई क़ानून पारित करके नहीं समाप्त कर सकते थे। सवाल उसके ख़िलाफ़ लगातार संघर्ष चलाने का था और सवाल लगातार राजनीतिक वर्ग संघर्ष को चलाने का था। स्तालिन ने लाक्षणिक तौर पर यह संघर्ष चलाया हालाँकि सैद्धान्तिक तौर पर और सुसंगत तौर पर वे इस संघर्ष को नहीं चला सके। लेकिन जहाँ तक स्तालिन या सोवियत पार्टी के तानाशाह या सर्वसत्तावादी होने का प्रश्न है, तो यह साम्राज्यवादी मीडिया का थोथा कुत्साप्रचार ही है और कुछ नहीं। जिसने भी सोवियत यूनियन के संजीदा इतिहास लेखन को पढ़ा है, बाज़ारू पत्रकारों के लेखन को नहीं, वह यह जानता है।
इसी प्रकार स्तालिन ने पार्टी के अलावा समाज में भी जनवाद को बढ़ावा देने के लिए संघर्ष किया। मिसाल के लिए 1936 का संविधान तैयार करते समय उन्होंने सोवियतों के सदस्यों के लिए प्रत्यक्ष चुनाव करवाने, कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवारों के अलावा दूसरे शहरी ग्रुपों द्वारा उम्मीदवार खड़े करने की आज्ञा होने, चुनाव-प्रचार और सार्वजनिक सभाओं में लोगों को उम्मीदवारों और पार्टी के व्यक्तियों से सवाल-जवाब करने और चुनावों के लिए गुप्त मतदान होने के पक्ष में दृढ़ स्टैण्ड लिया। यह भी स्तालिन तब कर रहे थे जबकि देश के भीतर बाहर से जारी तमाम क़िस्म के षड्यंत्रों और फिर द्वितीय विश्वयुद्ध ने स्तालिन द्वारा पार्टी व समाज में जनवादी माहौल बनाने के इस प्रयास को बाधित किया।

दावा नम्बर 2 : ‘स्तालिन ने हिटलर के साथ गठबन्धन बनाया था जिसकी वजह से विश्वयुद्ध के दौरान लाखों लोग मारे गये’

श्नाइडर के इस हास्यास्पद दावे को भी कविता कृष्णन रट्टू तोते की तरह दोहराती है कि विश्वयुद्ध से पहले स्तालिन के नेतृत्व वाले सोवियत यूनियन ने हिटलर के नेतृत्व वाले जर्मनी के साथ समझौता कर लिया था जो पोलैण्ड, बेलारूस, यूक्रेन व तीन बाल्टिक देशों में लाखों लोगों की मौत का ज़िम्मेदार बना। सभी त्रॉत्स्कीपन्थी और कम्युनिज़्म-विरोधी प्रचारकों की ही भाँति कृष्णन भी इस दावे को बल देने के लिए मोलोतोव-रिबेनट्रॉप सन्धि को सन्दर्भ से काटकर प्रस्तुत करती है। स्तालिन-विरोधी साम्राज्यवादी दुष्प्रचार की ही भाँति वह भी शातिराना ढंग से ग्रेट ब्रिटेन, फ़्रांस और अमेरिका जैसे साम्राज्यवादी देशों द्वारा फ़ासिस्टों के तुष्टीकरण के लम्बे इतिहास को गोल कर देती है और साथ ही अलग-थलग पड़ने के बावजूद फ़ासीवाद के आसन्न ख़तरे से निपटने के लिए सोवियत संघ द्वारा इन पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों के साथ मिलकर एक सामूहिक सुरक्षा समझौते को सम्पन्न कराने के अनथक प्रयासों की कोई चर्चा ही नहीं करती है। इतिहास का तथ्य यह है कि 1936 में जर्मनी, इटली और जापान का फ़ासिस्ट गठबन्धन खुले रूप में अस्तित्व में आ चुका था। 1936 में ही इटली ने इथियोपिया पर हमला कर दिया था। सोवियत यूनियन के प्रस्ताव के बावजूद इटली के ख़िलाफ़ कोई कारगर सामूहिक क़दम नहीं उठाया गया। 1938 में नात्सियों ने ऑस्ट्रिया और चेकोस्लोवाकिया पर क़ब्ज़ा कर लिया। इस प्रकार नात्सी सोवियत संघ की सीमा की ओर तेज़ी से अग्रसर हो रहे थे। ऐसे में फ़ासीवाद के ख़तरे से निपटने के लिए सामूहिक पहल लेने के बजाय पश्चिमी ताक़तें हिटलर को सोवियत संघ पर हमला करने के लिए उकसाने में ही लगी हुई थीं। 29-30 सितम्बर 1938 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री चैम्बरलेन और फ़्रेंच प्रधानमंत्री दलादिए ने म्यूनिक में हिटलर और मुसोलिनी के साथ मुलाक़ात की और प्रसिद्ध ‘म्यूनिक समझौते’ पर हस्ताक्षर किये जिसके तहत चेकोस्लोवाकिया का विभाजन कर कुछ महत्वपूर्ण इलाक़े जर्मनी को दे दिये गये। इसके बाद ब्रिटेन और फ़्रांस ने अलग-अलग जर्मनी के साथ अनाक्रमण सन्धि करके उसे सोवियत संघ पर हमले के लिए और उकसाया। यही नहीं स्पेनी गणराज्य को कुचलने में उन्होंने जर्मन और इतालवी आक्राताओं का साथ दिया।
1939 तक आते-आते यह साफ़ हो चुका था कि दूसरा विश्वयुद्ध कभी भी छिड़ सकता है। मई, 1939 में जापान ने सोवियत यूनियन पर हमला कर दिया। बिल्कुल इसी समय, जब साम्राज्यवादी यह सोच रहे थे कि हिटलर पूर्व की ओर चढ़ाई करेगा और सोवियत यूनियन दोनों तरफ़ से उलझ जायेगा तो दिनों में ढह जायेगा, तब स्तालिन ने मोलोतोव-रिबेनट्रॉप समझौते के तहत जर्मनी के साथ अनाक्रमण सन्धि के रूप में ऐसा कूटनीतिक पैंतरा खेला कि साम्राज्यवादी अवाक रह गये। वैसे देखा जाये तो यह एक ऐसा कूटनीतिक मास्टरस्ट्रोक था जिसके लिए विश्व सर्वहारा के नेता स्तालिन की प्रशंसा की जानी चाहिए क्योंकि इसके ज़रिए सोवियत संघ ने साम्राज्यवादियों के दोनों धड़ों को आपस में ही लड़ाई में उलझा दिया और युद्ध की तैयारी के लिए बेशक़ीमती दो से ढाई वर्ष अर्जित किये।
जहाँ तक पोलैण्ड का सवाल है तो ग़ौरतलब है कि सोवियत सेना ने पोलैण्ड की सीमा वहाँ नात्सी हमले के 16 दिनों बाद तब पार की जब एक राज्य के रूप में उसका कोई वजूद नहीं रह गया था और उसने केवल उन्हीं क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में लिया जो अक्टूबर क्रान्ति के बाद पोलैण्ड के शासकों ने उससे छीन लिये थे। अमेरिकी साम्राज्यवादी तंत्र के दुष्प्रचार के नशे में कविता कृष्णन इतना मदहोश हो चुकी है कि उसे यह भी याद नहीं रहा कि कि हिटलरनुमा फ़ासीवादी दानव को फ़ैसलाकुन शिकस्त स्तालिन के नेतृत्व में लाल सेना के लड़ाकों ने रूसी जनता के साथ मिलकर स्तालिनग्राद की गलियों में अपने बेमिसाल शौर्य, पराक्रम और अकूत क़ुर्बानियों की बदौलत दी थी।

दावा नम्बर 3 : ‘स्तालिन ने सत्ता में बने रहने के लिए पार्टी के भीतर शीर्ष नेतृत्व का सफ़ाया कर दिया’

यह दावा भी कोई नया नहीं है और इसके तार ख्रुश्चेव द्वारा 1956 में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं कांग्रेस में दिये गये गुप्त भाषण से जुड़ते हैं। ग्रोवर फ़र ने अपनी किताब ‘ख्रुश्चेव लाइड’ (‘ख्रुश्चेव ने झूठ बोला था’) में सोवियत पुरालेखों के आधार पर ख्रुश्चेव के सारे झूठों की कलई खोली है। सच तो यह है कि 1 दिसम्बर 1934 को पार्टी के अग्रणी नेता किरोव की हत्या के बाद से सोवियत सत्ता को गिराने के मक़सद से उसके ख़िलाफ़ आतंकी और विध्वंसक कार्रवाइयों की साज़िशें सामने आने लगी थीं। वास्तव में त्रॉत्स्की के नेतृत्व में त्रॉत्सकीपन्थियों, ज़िनोवियेववादियों और अन्य द्वारा एक गुप्त ब्लॉक 1932 में ही बनाया जा चुका था जिसका मक़सद आतंकी कार्रवाइयाँ करना और बोल्शेविक नेताओं की हत्याएँ करना और विद्रोह की तैयारी करना था। इस ब्लॉक को बनाये जाने के तथ्य को त्रॉत्स्की के पुरालेखों के आधार पर भी सिद्ध किया जा चुका है जिन्हें 1980 के बाद हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने सार्वजनिक कर दिया है। यह सच है कि 1936-38 के दौरान सोवियत सत्ता के ख़िलाफ़ षड्यंत्र को नाकाम करने की प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर गिरफ़्तारियाँ हुईं, बहुतों को मौत की सज़ा सुनायी गयी और तमाम सदस्यों को पार्टी से बाहर निकाला गया। यह सच है कि इस मुहिम की चपेट में कई निर्दोष लोग भी आ गये। लेकिन इसे पार्टी या स्तालिन की सचेतन तौर पर अपनायी गयी नीति के रूप में प्रस्तुत करना इतिहास के साथ अत्याचार करने जैसा है। सच तो यह है कि स्तालिन को जैसे ही इन ज़्यादतियों के बारे में पता चला उन्होंने फ़ौरन इन्हें रोकने और ऐसा करने वाले लोगों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई करने के आदेश दिये। सोवियत पुलिस एनकेवीडी का प्रमुख येजोव जो इन ज़्यादतियों का नेतृत्व कर रहा था उसे उसके पद से हटाकर लवेन्ती बेरिया को एनकेवीडी का प्रमुख बनाया गया जिसके बाद से ज़्यादतियों में कमी आयी। येजोव को गिरफ़्तार करके उसपर मुक़दमा चलाया गया और 1940 में उसे मौत की सज़ा दी गयी। यह समाजवादी समाज में जारी वर्ग संघर्ष था और वर्ग संघर्ष की प्रक्रिया में हर चीज़ योजनाबद्ध तरीक़े से, किसी रात्रि-भोज या रेशम की क़सीदेकारी के समान नहीं होती है। पूँजीवादी क्रान्तियों के दौरान इससे कहीं भयंकर ज़्यादतियाँ हुई थीं और हिंसा हुई थी। लेकिन जब सर्वहारा क्रान्ति की बात आती है, तो उससे एक प्रेमगीत के समान कोमल और नाज़ुक होने की उम्मीद की जाती है! इससे बड़ी बेहूदगी और बकवास और क्या हो सकती है?
जहाँ तक मॉस्को मुक़दमों की बात है, तो उन्हें तमाम देशों के राजदूतों, पत्रकारों और बहुत सारे लेखकों की मौजूदगी में चलाया गया था। इनमें से कई ने बाद में इन मुक़दमों के सही होने और अपराधियों के इक़बालनामे एकदम दुरुस्त होने की बात को माना था। इनमें से एडवर्ड डेवीज़ उस समय अमेरिका के सोवियत यूनियन में प्रधान राजदूत और ख़ुद वकील थे; डी.एन. प्रिण्ट ब्रिटेन के राजदूत और विश्वप्रसिद्ध वकील थे; अन्ना लूई स्ट्रांग एक अमेरिकी लेखक थीं जिन्हें 1949 में सोवियत यूनियन से निकाला गया था, इसके बावजूद उन्होंने अपनी किताब ‘स्तालिन युग’ में इन मुक़दमों के सही होने की पुष्टिकी है।

दावा नम्बर 4 : ‘स्तालिन यूक्रेन व सोवियत यूनियन के अन्य हिस्सों में लाखों किसानों की मौत के लिए ज़िम्मेदार थे’

यह दावा भी बहुत पुराना है कि सोवियत यूनियन में 1929 से शुरू हुई पहली पंचवर्षीय योजना के दौरान सामूहिकीकरण की मुहिम व कुलकों के परजीवी वर्ग के एक वर्ग के तौर पर ख़ात्मे के अभियान के फलस्वरूप लाखों लोगों की मौत हुई और उसके लिए स्तालिन सीधे तौर पर ज़िम्मेदार थे। लेकिन लूडो मार्टेन्स व अन्ना लुई स्ट्रॉन्ग जैसे लेखकों ने पहले ही इस झूठ का पर्दाफ़ाश किया है। अव्वलन तो मौत के आँकड़ों को बेशर्मी के साथ बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है ताकि स्तालिन को एक क्रूर व हिंसक व्यक्ति साबित किया जा सके। ऐसा करके सामूहिकीकरण के दौरान जारी तीखे वर्ग संघर्ष की प्रक्रिया को नज़रअन्दाज़ कर दिया जाता है। यह उथल-पुथल-भरी प्रक्रिया मोटे तौर पर दो चरणों से गुज़रती है। पहले चरण में अनुमान से अधिक खेतों का सामूहिकीकरण होने से जो अराजकता व्याप्त हुई थी उसे दूसरे चरण में दुरुस्त कर लिया गया था। इस दूसरे चरण में कुलकों ने वर्ग के रूप में अपने अस्तित्व को बचाने के लिए सोवियत सत्ता के ख़िलाफ़ बग़ावत छेड़ दी। उनके द्वारा खड़े किये गये हथियारबन्द दस्तों ने जगह-जगह विद्रोह किये, आतंकवादी कार्रवाइयाँ कीं, पार्टी द्वारा भेजे गये कितने ही कम्युनिस्टों को मारा गया। सामूहिकीकरण की प्रक्रिया को असफल करने के लिए उत्पादन के साधनों का ख़ात्मा बड़े स्तर पर किया गया ताकि सामूहिक खेत शुरू ही न हो सकें। पकी फ़सलों को जलाया गया, और इमारतों को तबाह किया गया। यही नहीं कुलकों द्वारा अफ़वाहें भी फैलायी गयीं और राजनीतिक प्रचार भी किया गया, किसानों की निरक्षरता, सांस्कृतिक पिछड़ेपन, अन्धविश्वासों और धार्मिक विश्वासों का पूरा फ़ायदा उठाया गया और उन्हें बोल्शेविकों के ख़िलाफ़ भड़काया गया। ऐसे में प्रतिक्रियावादी कुलकों-धनी फ़ार्मरों का दमन किया गया जो किसी भी समाजवादी सत्ता के लिए लाज़िमी है। जैसाकि माओ ने कहा था कि क्रान्ति कोई डिनर पार्टी या रेशम की क़सीदाकारी नहीं होती बल्कि एक वर्गयुद्ध होती है। इस नंगी सच्चाई से मुँह मोड़ने वाला व्यक्ति ही क्रान्तिकारी हिंसा से व्यथित होकर निरपेक्ष रूप में हिंसा का विरोध करेगा।
जहाँ तक यूक्रेन में अकाल की वजह से लाखों लोगों की मौतों की बात है तो इस सन्दर्भ में लूडो मार्टेन्स ने यह दिखाया है कि अनाज की कमी ज़रूर हुई थी, परन्तु अकाल की कहानी पूरी तरह मनगढ़न्त है जिसके पीछे हिटलर की प्रचार मशीनरी और विलियम हर्स्ट का अमेरिका में क़ायम किया गया ‘पीत पत्रकारिता’ का साम्राज्य था।

दावा नम्बर 5 : ‘ग्लोबल लेफ़्ट’ (?!!) जारी यूक्रेन युद्ध में रूसी साम्राज्यवाद की तरफ़दारी कर रहा है

यूक्रेन में रूस के साम्राज्यवादी हमले के बाद से जारी युद्ध के सन्दर्भ में कविता कृष्णन दुनियाभर के वामपन्थियों को पानी पी-पीकर कोस रही है कि वे रूस की तरफ़दारी कर रहे हैं और यूक्रेन की जनता का साथ नहीं दे रहे हैं। अपने झूठ को प्रामाणिक बनाने के लिए वह ‘ग्लोबल लेफ़्ट’ जैसे शब्द का इस्तेमाल करती है, मानो ऐसा कोई एकाश्मी समुदाय मौजूद हो। यह सच है कि कुछ कम्युनिस्ट पार्टियों (ख़ासकर संशोधनवादी पार्टियों) और तथाकथित वाम बुद्धिजीवियों ने रूसी हमले के लिए रूस को पर्याप्त रूप से ज़िम्मेदार नहीं ठहराया है और वे अपना मुख्य निशाना अमेरिकी साम्राज्यवाद को बना रहे हैं। परन्तु यह भी सच है कि अधिकांश संजीदा कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी ग्रुपों-संगठनों व पार्टियों ने यूक्रेन में जारी युद्ध के लिए अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ ही साथ रूसी साम्राज्यवाद को भी कठघरे में खड़ा किया है और इस युद्ध को दो साम्राज्यवादी शिविरों के बीच जारी होड़ का नतीजा बताया है। परन्तु शायद कविता कृष्णन ग्लोबल पैमाने पर अमेरिकी साम्राज्यवाद के चहेते वामपन्थी चेहरे के रूप में स्थापित होने के सपने देख रही है! यह एक वजह हो सकती है कि वह रूसी व चीनी साम्राज्यवाद पर तो ख़ूब बोलती है परन्तु अमेरिकी साम्राज्यवाद की कारगुज़ारियों पर बेशर्मी से पर्दा डालती है।

कविता कृष्णन का लिबरल (बुर्जुआ) जनवाद के प्रति प्रेम का इज़हार और लिबरल ख़ेमे में ख़ुशी की लहर!

कविता कृष्णन ने पार्टी छोड़ने के निर्णय के 3 कारणों में से एक कारण लिबरल (पढ़ें बुर्जुआ) जनवाद की रक्षा करना बताया है। लिबरल जनवाद के प्रति उसके उमड़े इस अपार प्रेम से तमाम लिबरल, वाम-लिबरल और लिबरल-वामी कविता कृष्णन को बधाइयाँ दे रहे हैं। जब वह पार्टी के भीतर थी तब भी उसकी क़रीबी इसी ख़ेमे से थी, लेकिन आज उसने पूरी तरह से इस ख़ेमे में शामिल होने का मन बना लिया है। इसीलिए हर घाघ संशोधनवादी की ही तरह वह ‘जनवाद’ शब्द का इस्तेमाल बिना ‘सर्वहारा’ या ‘पूँजीवादी’ विशेषण के साथ करती है और फ़ासीवाद के बरक्स उसे बचाने की क़समें खाती है। ऐसे में यह ताज्जुब की बात नहीं है कि अपूर्वानन्द और अशोक कुमार पाण्डेय जैसे घोर कम्युनिस्ट-विरोधी पतित लेखक-बुद्धिजीवी उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे हैं।
हाल ही में एक इण्टरव्यू में कविता कृष्णन ने बताया कि माओवादी चीन के बारे में अभी उसका अध्ययन नहीं है। इसलिए चीन पर हमला करते समय वह बड़ी ही चालाकी से मौजूदा चीन की मौजूदा संशोधनवादी राज्यसत्ता के निरंकुश चरित्र का हवाला देते हुए मार्क्सवाद पर हमले करती है। कहने की ज़़रूरत नहीं कि माओकालीन चीन के बारे में जानने के लिए भी वह एडगर स्नो, विलियम हण्टन और स्टुअर्ट श्रैम जैसे प्रामाणिक लेखकों की किताब पढ़ने की बजाय अमेरिकी साम्राज्यवादी स्रोतों पर ही निर्भर रहने वाली है। ख़ैर, ऐसी बौद्धिक बौनी व्यक्ति से उम्मीद ही क्या की जा सकती है जो ‘आइटम सांग्स’ को स्त्री मुक्ति के रास्ते के तौर पर देखती हो और ‘सरकाय लो खटिया’ जैसे गीतों को स्त्री यौनिकता की अभिव्यक्ति मानती हो। ऐसी व्यक्ति भाकपा (माले) लिबरेशन जैसे पतित संशोधनवादी संगठन में ही इतने वर्षों तक रह सकती थी और अब अगर वह प्रतिक्रियावादी ख़ेमे में खड़ी होकर मार्क्सवाद और सर्वहारा वर्ग को कलंकित करने का प्रयास कर रही है, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। अस्मितावाद, एनजीओ राजनीति और साम्राज्यवाद की बौद्धिक दलाली करने का रास्ता कविता कृष्णन ने अपने लिए खोल लिया है और वही रास्ता ऐसी पतित तत्व के लिए उपयुक्त भी है। सर्वहारा वर्ग के पास ऐसे तत्वों के लिए घृणा के अलावा और कुछ नहीं हो सकता है।

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2022


 

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