महान समाजवादी अक्टूबर क्रान्ति की 105वीं वर्षगाँठ के अवसर पर
रूस की महान सर्वहारा समाजवादी क्रान्ति का आज मज़दूर वर्ग के लिए क्या महत्व है?
रूस में 36 वर्षों के मज़दूर राज के आज मज़दूरों और ग़रीब किसानों के लिए क्या मायने हैं?

अक्टूबर क्रान्ति की स्मृति और विरासत का आज हम मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए क्या अर्थ है?

सम्‍पादकीय अग्रलेख

हर वर्ग अपनी विरासत के गौरवशाली पहलुओं को याद करता है। उसे जीवित रखता है। उससे सीखता है। ताकि भविष्य को गढ़ा जा सके। पूँजीपति वर्ग भी अपनी क्रान्तियों और उनके नायकों को याद करता है। जब वह ख़ुद शासक वर्ग बन जाता है तो वह अपने वर्ग के नायकों को और अपनी जीतों को समूची जनता के नायकों और जीतों के रूप में पेश करता है। हर शोषक शासक वर्ग यह करता है। वह अपने नज़रिए को समूची जनता का नज़रिया बनाकर पेश करता है। वह अपने आपको समूचे “राष्ट्र” का नुमाइन्दा और प्रवक्ता बनाकर पेश करता है। पूँजीपति वर्ग अपने हितों को “राष्ट्रीय हित” बनाकर पेश करता है और अपने शासन को सबसे नैसर्गिक और स्वाभाविक शासन और व्यवस्था के रूप में पेश करता है।

चूँकि हम जिन स्कूलों आदि में पढ़ते हैं, जो समाचार चैनल सुनते हैं, जिस प्रकार की संस्थाओं और मूल्यों के प्रभाव में रहते हैं, वे पूँजीपति वर्ग के स्कूल, उनके चैनल और उनकी संस्थाएँ व मूल्य हैं, इसलिए हम मज़दूर-मेहनतकश भी पूँजीपति वर्ग के नज़रिए से प्रभावित होते रहते हैं। कई बार हम उनके “राष्ट्र” के हितों को अपना हित समझ बैठते हैं, हालाँकि उनके “राष्ट्र” में हमारा “कर्तव्य” केवल मुट्ठीभर धन्नासेठों के लिए खटना और हाड़ गलाना होता है। मालिकों के वर्ग की विचारधारा का निश्चित ही हमारे ऊपर असर होता है। जैसा कि मार्क्स ने बताया था हर युग के शासक विचार उस युग के शासक वर्ग के विचार होते हैं।

लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि शासक वर्ग के विचारों के वर्चस्व को तोड़ा नहीं जा सकता। इसकी वजह हमारे जीवन की स्थितियों में है। हमारी हाड़तोड़ मेहनत की ज़िन्दगी भी हमें हर रोज़ यह सिखाती है कि हम मज़दूरों-मेहनतकशों के हित हमारे मालिकों, ठेकेदारों, जॉबरों, बिचौलियों, धनी फ़ार्मरों आदि से अलग, बल्कि उनके विपरीत हैं। पूँजीवादी उत्पादन में हमारी जगह ही कुछ ऐसी होती है कि मालिकों की जमात के नज़रिए और सोच के हमारे ऊपर असर के बावजूद हम किसी न किसी हद तक सच्चाई से भी रूबरू होते रहते हैं। यदि मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी, यानी कम्युनिस्ट पार्टी मौजूद हो, तो वह इस सच्चाई के पीछे मौजूद कारणों को उजागर कर सकती है, मज़दूर वर्ग के व्यापक जनसमुदायों और जनता को पूँजीवादी विचारधारा के असर से आज़ाद कर सकती है, मज़दूर वर्ग के हिरावल तत्वों यानी सबसे उन्नत तत्वों को एक राजनीतिक वर्ग यानी सर्वहारा वर्ग के रूप में संगठित कर सकती है और सर्वहारा सत्ता की स्थापना के लिए समाजवादी क्रान्ति को अंजाम देने में समूची मेहनतकश जनता की अगुवाई कर सकती है। राजनीतिक वर्ग वह होता है, जो अपनी राज्यसत्ता, अपना शासन स्थापित करने के लक्ष्य को पूरा करने के प्रति सचेत और संगठित होता है।

आप पूछेंगे कि क्या ऐसा कभी वाक़ई हुआ है? जी हाँ! हुआ है। रूसी कैलेण्डर के अनुसार, 1917 के अक्टूबर महीने में रूस के सर्वहारा वर्ग ने अपनी कम्युनिस्ट पार्टी, जिसका नाम बोल्शेविक पार्टी था, की अगुवाई में पूँजीपतियों और पूँजीवादी ज़मीन्दारों की सत्ता को एक क्रान्ति के ज़रिए उखाड़ फेंका और मज़दूर राज की स्थापना की। हमारे कैलेण्डर के अनुसार, यह महान घटना 7 नवम्बर 1917 को हुई थी। इस मज़दूर राज के पहले व्यवस्थित प्रयोग का जीवन 36 वर्षों तक चला। उसके बाद पूँजीपति वर्ग ने मज़दूर वर्ग की सत्ता को गिराकर पूँजीवादी व्यवस्था की पुनर्स्थापना कर दी। यह कोई अनोखी बात नहीं थी। जब पूँजीपति वर्ग ने सामन्ती ज़मीन्दारों, राजे-रजवाड़ों और चर्च की सत्ता को दुनिया में पहली बार ज़मीन्दोज़ किया था तो उसकी सत्ता तो एक दशक भी मुश्किल से चली थी। हम 1789 की फ़्रांसीसी पूँजीवादी क्रान्ति की बात कर रहे हैं। उसके बाद भी कई देशों में पूँजीपति वर्ग द्वारा की गयी क्रान्तियाँ मुश्किल से एक-दो दशक ही चल पायीं। लेकिन चूँकि सामन्ती वर्ग इतिहास का डूबता सूरज था और नया जन्मा पूँजीपति वर्ग इतिहास का उगता सूरज था इसलिए उन्नीसवीं सदी का अन्त आते-आते यूरोप के कई उन्नत देशों में पूँजीपति वर्ग ने सामन्ती वर्ग को निर्णायक तौर पर शिकस्त दे दी थी। इसलिए समाजवादी क्रान्ति और मज़दूर राज के पहले प्रयोग का अन्तत: गिर जाना भी कोई अनहोनी-अनोखी घटना नहीं थी। यह तो इतिहास की गति है। हर नयी व्यवस्था कई असफल, अर्द्धसफल प्रयोगों के बाद ही टिकाऊ तौर पर स्थापित होती है।

लेकिन क्या आप जानते हैं कि सर्वहारा वर्ग ने अपने परिपक्व होने की शुरुआती मंज़िल में ही रूस में समाजवादी व्यवस्था के अपने पहले प्रयोग के 36 वर्षों में ही क्या चमत्कारिक उपलब्धियाँ हासिल की थीं? इन 36 वर्षों में सर्वहारा वर्ग ने सोवियत संघ में बेरोज़गारी का पूरी तरह से ख़ात्मा कर दिया, अशिक्षा को ख़त्म कर दिया, जनता को बेहतरीन भोजन, घर, स्कूल, कॉलेज, अस्पताल दिये और उनके जीवन-स्तर को दर्जनों गुना ऊँचा कर दिया, पूँजीपतियों से सभी खान-खदान, खेत-खलिहान और कल-कारख़ाने छीन लिये गये और मज़दूरों के उजरती श्रम के शोषण पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया गया; ग़रीब और मँझोले किसानों को छोटे पैमाने की खेती के अभाव से बाहर निकालकर उनके विशालकाय सहकारी, सामूहिक और सरकारी फ़ार्म बनाये गये, जिनमें इन मेहनतकश किसानों को बेहतरीन जीवन मिला, उनके बच्चों को शानदार शिक्षा, रोज़गार, आवास, चिकित्सा आदि हासिल हुई; देश से भुखमरी और कुपोषण पूरी तरह से समाप्त हो गया, वेश्यावृत्ति का ख़ात्मा हो गया, औरतों को चूल्हे-चौके की ग़ुलामी से आज़ादी दिलाने की महान शुरुआत हुई जिसके लिए विशालकाय सामूहिक रसोई घर और शिशु पालना गृह बनाये गये जिससे घर-गृहस्थी के काम और बच्चों के लालन-पालन का समाजीकरण हुआ। इसके अलावा, मज़दूरों के राज वाला यह देश विज्ञान और तकनोलॉजी में भी दुनिया में सबसे आगे निकल गया। इस देश ने पहली बार अन्तरिक्ष में इन्सान को भेजा, पहला कृत्रिम उपग्रह तैयार किया, तमाम लाइलाज बीमारियों का इस देश के मज़दूरों के वैज्ञानिक बेटे-बेटियों ने इलाज निकाल दिया। समूची जनता को सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा से मुक्ति दिलायी गयी।

अभी बहुत काम बाक़ी था। क्योंकि ये सारी उपलब्धियाँ हासिल करने की प्रक्रिया में अभी मज़दूर वर्ग को राजनीतिक शासन और आर्थिक प्रबन्धन सीखने का बहुत-सा काम बाक़ी था। अभी समाज में समूचे उत्पादन को पूर्ण रूप से समाजीकृत करने का काम अभी बाक़ी था। अभी पूँजीपति वर्ग का शासन राजनीतिक तौर पर ख़त्म हुआ था, लेकिन उसकी विचारधारा का वर्चस्व पूर्ण रूप से ध्वस्त करना अभी बाक़ी था। लेकिन तभी 1953 में मज़दूर वर्ग के महान नेता और शिक्षक स्तालिन की मृत्यु के बाद सोवियत संघ में सर्वहारा वर्ग का शासन गिर गया और पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हो गयी। ऐसा क्यों हुआ इस पर हम आज बात करेंगे, लेकिन उससे पहले अक्टूबर क्रान्ति की महान विरासत से कुछ परिचित होना, उसके आज भी जारी महत्व को समझना और उससे सीख लेकर भविष्य की नयी सर्वहारा समाजवादी क्रान्ति की तैयारियों की शुरुआत करने के विषय में बात करना ज़रूरी है। इसलिए भी कि पिछले छह दशकों के दौरान दुनियाभर में सर्वहारा वर्ग और क्रान्तिकारी शक्तियों की पराजय का जो सिलसिला जारी रहा है उसने हमारी जमात की सामूहिक याददाश्त को चोट पहुँचायी है, हमारे आत्मविश्वास को तोड़ा है, और इसकी वजह से हममें से तमाम मज़दूर भाइयों-बहनों पर पूँजीवादी विचारधारा के इस दावे का असर है कि हमारी नियति ही शोषित और उत्पीड़ित होते रहना है और मौजूदा शासन तो “रघुकुल रीत” है जो सदा से चली आयी है और हमेशा चलती रहेगी। हम भूल बैठे हैं कि हम मालिकों की जमात से लड़ सकते हैं और न सिर्फ़ लड़ सकते हैं, बल्कि जीत सकते हैं।

हम भूल बैठे हैं कि हम अतीत में भी लड़े थे और जीते थे और भविष्य में भी लड़ेंगे और जीतेंगे। हम भूल बैठे हैं कि जब तक मज़दूरों और मेहनतकशों का शोषण क़ायम है, जब तक मुनाफ़े की हवस पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था क़ायम है, तब तक दुनिया बेरोज़गारी, युद्ध, विनाश, ग़रीबी और महँगाई, और पर्यावरणीय तबाही की विभीषिका झेलती रहेगी और यह स्थिति हमेशा बरक़रार नहीं रह सकती है। हर व्यवस्था का उदय और अस्त होता है और पूँजीवादी व्यवस्था का भी एक आदि है और एक अन्त है। यह इतिहास की शिक्षा है। न तो कुदरत में सबकुछ ठहरा रहता है और न ही समाज में। यदि कुछ स्थायी है तो वह केवल परिवर्तन है। 105 साल पहले सर्वहारा वर्ग ने रूस में, 73 साल पहले सर्वहारा वर्ग ने चीन में और पिछले 50 वर्षों के दायरे में कोरिया में, वियतनाम में और अन्य कई देशों में सर्वहारा वर्ग ने इस बात को साबित किया था। क्रान्तियों के इस पहले दौर के समापन के बाद हार और क़दम पीछे हटाने के लम्बे दौर में पैदा हुई निराशा और पराजयबोध को त्यागकर नये सिरे से संगठित होने का दौर आज आ चुका है। पूँजीवादी व्यवस्था पूरी दुनिया में अब तक के भयंकरतम आर्थिक संकट में घिरी हुई है। दुनिया के तमाम हिस्सों में साम्राज्यवादी युद्ध हो रहे हैं या उनकी तैयारियाँ चल रही हैं जो विश्व पूँजीवाद की पहले से कहीं ज़्यादा गहरी अन्दरूनी कमज़ोरी को ही दिखला रहे हैं। हमारे देश में भी पूँजीपति वर्ग मुनाफ़े की गिरती औसत दर के संकट से बिलबिला रहा है और उससे निजात पाने के लिए फ़ासीवादी मोदी-शाह सत्ता की शरण में है ताकि वह मज़दूरों-मेहनतकशों का दमन करे और देश की मेहनत और कुदरत को और बुरी तरह से लूटने की आज़ादी पूँजीपति वर्ग को दे। यही समय है कि हम निराशा त्यागें, आलस छोड़ें, साहस करें और संगठित हों। और इसीलिए आज अक्टूबर क्रान्ति की विरासत और सीख को जानना भी हमेशा से ज़्यादा ज़रूरी है। अक्टूबर क्रान्ति के ये ऐतिहासिक सबक़ क्या हैं? आइए, इन्हें समझते हैं।

1. मज़दूर वर्ग लड़ सकता है और जीत सकता है!

अक्टूबर क्रान्ति की सबसे पहली सीख यही है, जिसे विशेष तौर पर आज के दौर में याद दिलाना बेहद ज़रूरी है। मज़दूर वर्ग लड़ सकता है और जीत सकता है। न सिर्फ़ वह ट्रेड यूनियन के आर्थिक संघर्षों को लड़ सकता है और जीत सकता है बल्कि वह वेतन-भत्ता के संघर्ष से आगे जाकर राजनीतिक सत्ता का संघर्ष भी लड़ सकता है और जीत सकता है। वह पूँजीपति वर्ग की सत्ता को उखाड़कर फेंक सकता है और अपनी सर्वहारा सत्ता को स्थापित कर सकता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण रूस में सर्वहारा वर्ग की सत्ता की 1917 में स्थापना था। ये हमारे और आप जैसे मज़दूर ही थे, जिन्होंने संगठित होकर अपनी पार्टी बनायी, समूची मेहनतकश जनता को अपने पक्ष में संगठित किया और पूँजीपतियों और पूँजीवादी ज़मीन्दारों की सत्ता को अक्टूबर 1917 में उखाड़ फेंका।

इससे इतना स्पष्ट है कि हमेशा पूँजीपति वर्ग के जुए तले खटते रहना हमारी नियति या क़िस्मत का लेखा नहीं है। अगर हम आज समाज में सुई से लेकर जहाज़ तक हरेक वस्तु और हरेक ज़रूरी सेवा का उत्पादन कर सकते हैं, तो हम इस देश की अर्थव्यवस्था और शासन को भी चला सकते हैं। हम ही बहुसंख्यक आबादी हैं। भारत में भी अगर मज़दूर वर्ग की बात करें तो वह क़रीब 50 से 55 करोड़ है। अगर हम इसमें अर्द्धसर्वहारा वर्ग, ग़रीब और निम्न-मँझोले किसानों और मँझोले व निम्न-मध्यवर्ग को मिला दें तो मेहनतकश जनता की कुल आबादी क़रीब 80 से 90 करोड़ बैठती है।

फिर पूँजीपति वर्ग हम पर कैसे शासन करता है? हमें बाँटकर और खण्ड-खण्ड में तोड़कर। वह हमें धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र और लिंग के आधार पर बाँट देता है और तोड़ देता है। आज हमारे देश में संघ परिवार और उसकी मोदी-शाह सरकार यही कर रही है। वह हिन्दू-मुसलमान, मन्दिर-मस्जिद के नाम पर मेहनतकश जनता को बाँटती है और आपस में लड़ाती है और फिर मेहनतकशों की चिताओं पर अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंककर सत्ता में पहुँचती है। इसी प्रकार अन्य पूँजीवादी पार्टियाँ भी हमें क्षेत्र, जाति और भाषा के नाम पर तोड़ने का काम करती हैं। रूस में भी रूस के पूँजीपति वर्ग ने रूसी मज़दूर वर्ग को राष्ट्र और भाषा के नाम पर यहूदी और ग़ैर-यहूदी मज़दूरों के नाम पर बाँटने का काम किया था। लेकिन रूस की क्रान्तिकारी सर्वहारा पार्टी यानी बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में रूस के मज़दूरों ने इस बात को समझा कि राजनीतिक तौर पर मज़दूरों का कोई राष्ट्र नहीं होता है, हालाँकि सामाजिक तौर पर वे भी किसी राष्ट्र में पैदा होते हैं; मज़दूर धर्म के बँटवारे को नहीं मानते हैं, धर्म को पूर्णत: निजी मसला मानते हैं और राजनीति और सामाजिक जीवन में धर्म को मिलाने की हर साज़िश का विरोध करते हैं; मज़दूर हर भाषा को बराबर दर्जा देते हैं; मज़दूर क्षेत्रों के बँटवारे को नहीं मानते क्योंकि हर जगह मज़दूर वर्ग को पूँजीपति वर्ग से उसका अन्तरविरोध और उत्पादन के साधनों से पूर्ण रूप से वंचित होकर श्रमशक्ति को बेचने की उसकी मजबूरी उसे एक बना देती है।

इन उसूलों को बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में रूस के सर्वहारा वर्ग ने समझा और उससेनिकलने वाले कार्यक्रम पर रूस के मज़दूर वर्ग और मेहनतकश आबादी के जनसमुदायों को सहमत किया। नतीजतन, रूसी सर्वहारा वर्ग एकजुट और संगठित हुआ और उसने ‘बाँटो और राज करो’ की रूसी पूँजीपति वर्ग की नीति को लात मारकर किनारे लगाया और अपनी अजेय शक्ति को संगठित कर सर्वहारा क्रान्ति को अंजाम दिया। यह आज भारत के हम मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए सबसे बड़ा सबक़ है।

अगर हम लड़ना चाहते हैं, लड़कर जीतना चाहते हैं, तो हमें पूँजीपति वर्ग द्वारा बाँटने और आपस में लड़ाने की हर साज़िश को नाकामयाब करना होगा और राजनीतिक तौर पर एकजुट और संगठित होना होगा, चाहे हमारा धर्म, जाति, भाषा, राष्ट्र, क्षेत्र, लिंग या जेण्डर कुछ भी हो। अगर हम एक राजनीतिक वर्ग के रूप में संगठित हो गये तो हम लड़ सकते हैं, हम जीत सकते हैं और अपनी जीत को क़ायम भी रख सकते हैं।

2. मज़दूर वर्ग उत्पादन, राज-काज और समूची व्यवस्था को चला सकता है!

ज़रा एक पल को सोचिए : आज अगर देशभर के कल-कारख़ानों, खानों-खदानों और खेतों-खलिहानों के मालिक, ठेकेदार और जॉबर मर जायें या भाप बनकर उड़ जायें तो क्या किसी भी कल-कारख़ाने, खान-खदान या खेत-खलिहान में उत्पादन का कोई काम रुकेगा? जी नहीं! इसीलिए मज़दूर वर्ग के महान नेता फ़्रेडरिक एंगेल्स ने कहा था कि पूँजीपतियों का समूचा वर्ग आज सामाजिक तौर पर ग़ैर-ज़रूरी हो गया है। एक समय में, यानी आधुनिक काल की शुरुआत में, दूसरे शब्दों में, पन्द्रहवीं-सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी और एक हद तक अट्ठारहवीं शताब्दी तक उभरते पूँजीपति वर्ग की उत्पादन व उसके प्रबन्धन की समूची प्रक्रिया में कोई भूमिका होती थी। इनमें से कई दस्तकार व कारीगरों के बीच से उठकर उस्ताद दस्तकार-कारीगर बने थे, आगे चलकर उन्होंने शागिर्द के तौर पर कामगारों को रखने की शुरुआत की और अपने वर्कशॉप आदि खोले थे और कालान्तर में उनमें से एक हिस्सा पूँजीपति बन गया था और उसने अपने आपको शारीरिक श्रम से काट लिया था। एक समय तक इस वर्ग की उत्पादन के काम में कोई भागीदारी थी। जो व्यापारी से पूँजीपति बने थे, वे तो शुरू से ही हर उत्पादक श्रम से कटे हुए थे, हालाँकि प्रबन्धन और लेखा-सम्बन्धी काम में शुरू में उनकी भी भागीदारी थी। एक समय तक इस उभरते पूँजीपति वर्ग की प्रबन्धन और हिसाब-किताब के ज़रिए उत्पादन के विनियमन में एक भूमिका थी। लेकिन आज यह काम भी इनके द्वारा भाड़े पर रखे गये कुशल व बौद्धिक मज़दूर ही कर रहे हैं। नतीजतन, उन्नीसवीं सदी बीतते-बीतते पूँजीपति वर्ग पूरी तरह से महज़ मुनाफ़ा विनियोजित करने वाला, शेयर बाज़ार में सट्टा खेलने वाला और कूपन काटने वाला एक वर्ग बन चुका था। और आज तो इसकी परजीविता, अश्लीलता और भद्देपन की सारी हदें पार कर चुकी है जो मेहनतकश जनता के आँसुओं के समन्दर के बीच ऐश्वर्य के टापुओं पर बैठे पूँजीपति वर्ग की घिन पैदा करने वाली अय्याशियों और रंगरलियों में पूरी तरह से नज़र आती है। सामाजिक उत्पादन में उसकी कोई भूमिका नहीं है। वह शुद्ध रूप से एक जोंक है जो मज़दूरों और मेहनतकशों के श्रम के उत्पाद को लूटकर जीवित है।

आज उत्पादन के शुरू से अन्त तक के सारे काम मज़दूर वर्ग को पूँजीवाद ने स्वयं ही सिखा दिये हैं चाहे वह उत्पादन के शारीरिक श्रम के कार्य हों, कारख़ाने के स्तर पर उसे विनियमित और प्रबन्धित करने के काम हों, बहीखाता चलाने के काम हों या फिर कुछ और। शारीरिक और बौद्धिक मज़दूर वर्ग ही इन सारे कामों को अंजाम देता है। इनमें से किसी में भी पूँजीपति वर्ग की कोई भूमिका नहीं है और यह परजीवी वर्ग बहुत पहले ही अपने अस्तित्व के प्रयोजन को यानी अपने वजूद को सही ठहराने की सभी वजहों को गँवा चुका है। वहीं दूसरी ओर मज़दूर वर्ग के पास हर वजह है कि वह समूचे उत्पादन और उत्पादन के साधनों पर अपना दावा ठोंके, पूँजीपतियों के परजीवी वर्ग से उन्हें छीन ले और समूचे समाज के मेहनतकश वर्गों के हितों के अनुसार समूचे सामाजिक उत्पादन और राजनीतिक व्यवस्था को संचालित करे। मज़दूर वर्ग यह कर सकता है और यह कर चुका है, भले आज विस्मृति के अँधेरे में हमें ऐसा लग सकता है कि हम इस क़ाबिल नहीं हैं। लेकिन जैसे ही हम निराशा और पस्तहिम्मती छोड़कर वैज्ञानिक और ऐतिहासिक तौर पर सोचते हैं, तो समझ लेते हैं कि निश्चित ही हम समूचे उत्पादन, राज-काज और समाज के ढाँचे को संचालित कर सकते हैं और पूँजीपति वर्ग की इसके लिए कोई आवश्यकता नहीं है। रूस में और फिर चीन में और फिर कई देशों में सर्वहारा क्रान्तियों के पहले चक्र में सर्वहारा वर्ग ने यह काम कर दिखाया था। इसलिए हम किसी शेख़चिल्ली के सपने की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि एक हक़ीक़त की बात कर रहे हैं।

अक्टूबर क्रान्ति द्वारा स्थापित हुई समाजवादी व्यवस्था की दूसरी सबसे बड़ी शिक्षा यही है कि हम आम मज़दूर-मेहनतकश अपनी इन्क़लाबी कम्युनिस्ट पार्टी की अगुवाई में, यानी अपने सर्वाधिक उन्नत तत्वों के दस्ते की अगुवाई में, समूचे उत्पादन, राज-काज और समाज को चला सकते हैं, सभी राजनीतिक और आर्थिक फ़ैसले ले सकते हैं और न सिर्फ़ ये सारे काम हम कर सकते हैं, बल्कि पूँजीपति वर्ग से कहीं बेहतर तरीक़े से कर सकते हैं जिससे कि समाज को बेरोज़गारी, ग़रीबी, महँगाई, असुरक्षा और अनिश्चितता से मुक्ति दिलायी जा सके। यह महज़ कोई खोखला नारा या दावा नहीं है। सोवियत संघ में क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग ने अपनी पार्टी के नेतृत्व में यह कर दिखाया था। आज दुनिया को पूँजीपति वर्ग और उसकी पूँजीवादी व्यवस्था की कोई ज़रूरत नहीं है, उल्टे आज वे दुनिया को आगे बढ़ने से रोक रही हैं। पूँजीवाद नामक यह बूढ़ी मुर्ग़ी आज दुनिया को युद्ध, तबाही, बेरोज़गारी, महँगाई, ग़रीबी, पर्यावरणीय विनाश, और संकट जैसे सड़े हुए अण्डों के अलावा कुछ नहीं दे सकती है और इसकी सही जगह इतिहास की कचरा-पेटी है। और इसे कचरा-पेटी में पहुँचाने का काम केवल एक ही वर्ग कर सकता है : सर्वहारा वर्ग और उसकी अगुवाई में आम मेहनतकश जनता।

3. समाजवाद और मज़दूर सत्ता क़ायम करने के लिए मज़दूर वर्ग को अपनी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी की आवश्यकता होती है

यह अक्टूबर क्रान्ति की तीसरी सबसे महान शिक्षा है। आधुनिक विश्व इतिहास के दो प्रमुख राजनीतिक वर्ग हैं : पूँजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग। ये दोनों वर्ग एक दूसरे के पूरक हैं। बिना श्रम के पूँजी का वजूद मुमकिन नहीं है क्योंकि पूँजीपति की पूँजी और कुछ नहीं होती बल्कि हम मज़दूरों का वह श्रम ही होती है, जो कि अब उत्पाद व मुद्रा का रूप ग्रहण कर चुका है। यानी पूँजी और कुछ नहीं मृत श्रम है जो कि एक पिशाच के समान मज़दूर वर्ग का जीवित श्रम अधिक से अधिक चूसकर ही जीवित रहती है। इसलिए श्रम के बिना पूँजी का अस्तित्व नहीं है और सर्वहारा वर्ग के बिना पूँजीपति वर्ग का अस्तित्व नहीं है। सर्वहारा वर्ग जब पूँजीपति वर्ग की सत्ता को उखाड़ फेंकता है, उसका सम्पत्ति-हरण करता है, निजी सम्पत्ति का ख़ात्मा करता है, और एक लम्बी ऐतिहासिक अवधि में अपने अधिनायकत्व के मातहत पूँजीवादी श्रम विभाजन और अन्तरवैयक्तिक असमानताओं के विभिन्न रूपों का ख़ात्मा करता है, और एक वर्गविहीन समाज यानी कम्युनिस्ट समाज की स्थापना की ओर आगे बढ़ता है, तो वह एक वर्ग के रूप में अपना अस्तित्व भी समाप्त करता जाता है।

सर्वहारा वर्ग के महान शिक्षक और समाज की गति के नियमों, यानी समाज के विज्ञान के नियमों की खोज करने वाले कार्ल मार्क्स ने बताया था कि वर्ग समाज की गति की जड़ में वास्तव में वर्गों का संघर्ष होता है। दास समाज में दास व दास-स्वामियों के बीच का वर्ग संघर्ष अन्तत: दास समाज के पतन और सामन्ती समाज के उदय की ओर ले गया। सामन्ती समाज में सामन्ती ज़मीन्दारों व उनके राजतंत्र तथा पूँजीपति वर्ग की अगुवाई में मज़दूरों, किसानों और मध्यवर्ग के बीच का वर्ग संघर्ष अन्तत: सामन्ती व्यवस्था के अन्त की ओर ले गया। पूँजीवादी समाज में पूँजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच का वर्ग संघर्ष अन्तत: सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व और समाजवादी व्यवस्था की ओर ले जाता है। लेकिन यह प्रक्रिया बहुत-सी जीतों और हारों के उतार-चढ़ाव से होकर गुज़रती है और ऐसा ही हो भी सकता है।

जब कोई नया युवा पहलवान पहली दफ़ा किसी तजुरबेकार उम्रदराज़ पहलवान को पहली बार अपनी शक्ति से शिकस्त देता है, तो भी अगले मुक़ाबलों में कई बार अपने लम्बे तजुरबे के कारण उम्रदराज़ पहलवान युवा अनुभवहीन पहलवान को हरा देता है। लेकिन जैसे-जैसे अपनी हारों से सीखते हुए नया युवा पहलवान परिपक्व होता जाता है, वैसे-वैसे वह उम्रदराज़ तजुरबेकार पहलवान को शिकस्त देने का ज्ञान और अनुभव एकत्र करता जाता है और अन्तत: उसे निर्णायक तौर पर पराजित कर देता है। हर नये क्रान्तिकारी वर्ग और पुराने सत्ताधारी वर्ग के बीच संघर्ष में भी ऐसा ही होता है। ख़ुद पूँजीपति वर्ग के साथ भी ऐसा ही हुआ था जबकि कुछ शुरुआती जीतों के बाद सामन्त वर्ग ने उसे हरा दिया था। लेकिन चूँकि पूँजीपति वर्ग उस समय इतिहास का अधिक क्रान्तिकारी और उभरता हुआ प्रगतिशील वर्ग था, इसलिए अन्तत: उसने सामन्ती वर्ग को हराकर पूँजीवादी व्यवस्था को स्थापित करने में कामयाबी हासिल की। सर्वहारा वर्ग की कहानी भी इससे अलग नहीं है और न ही हो सकती है। उसका वर्ग संघर्ष भी कई उतार-चढ़ावों से गुज़रेगा, जिसके बाद ही सर्वहारा सत्ता और समाजवाद की निर्णायक विजय हो सकती है। जो इसके अलावा किसी और परिणाम की अपेक्षा करता है, उसे इतिहास की गति को समझने और एक ऐतिहासिक दृष्टि विकसित करने की ज़रूरत है।

लेकिन पूँजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच जारी इस वर्ग संघर्ष में ये समूचे वर्ग किसी पार्क में इकट्ठा होकर कोरस गाने यानी समूह-गान के समान अपने संघर्ष को नहीं चलाते हैं और न ही चला सकते हैं। यानी, पूरे के पूरे वर्ग न तो वर्ग संघर्ष में सक्रिय व सचेतन राजनीतिक भागीदारी कर सकते हैं, न ही संघर्ष के समूचे राजनीतिक लक्ष्य, रणनीति और रणकौशल से परिचित होते हैं और न ही समूचे वर्ग बिना किसी राजनीतिक नेतृत्व और अपनी राजनीतिक पार्टी या पार्टियों के वर्ग संघर्ष का राजनीतिक संचालन कर सकते हैं। वर्ग संघर्ष में संघर्षरत वर्गों के उन्नत राजनीतिक तत्वों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली रणनीति, रणकौशल और नीतियों और उनके व्यवहार को ही राजनीति कहा जाता है और इन उन्नत राजनीतिक तत्वों द्वारा अपने आपको जिस रूप में संगठित किया जाता है, उसे ही हम राजनीतिक पार्टी कहते हैं। हर वर्ग संघर्ष एक राजनीतिक संघर्ष होता है। बिना राजनीतिक नेतृत्व और राजनीतिक पार्टी के आधुनिक विश्व के संघर्षरत वर्ग कभी भी वर्ग संघर्ष में व्यवस्थित तौर पर भागीदारी नहीं कर सकते हैं। जैसा कि लेनिन ने बताया था, यह मार्क्सवाद का ककहरा है। हर आधुनिक वर्ग के भीतर नेतृत्व देने वाले उन्नत हिस्से और बाक़ी हिस्से का अन्तर मौजूद रहता है। इसकी वजह यह है कि पूँजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग अलग-अलग तरीक़े से कई आधारों पर बँटे होते हैं, हालाँकि इन दोनों वर्गों के भीतर मौजूद विभाजन अलग क़िस्म के और अलग कारणों से होते हैं।

हम जानते हैं कि समाज में कोई एक पूँजीपति नहीं होता, और न ही हो सकता है, जिसके पास समाज की समूची पूँजी का मालिकाना हो, क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था की बुनियाद में ही प्रतिस्पर्द्धा होती है। एक दौर में यह प्रतिस्पर्द्धा पूँजी के छोटे-छोटे बहुल केन्द्रों के बीच थी, जिसे “मुक्त प्रतिस्पर्द्धा” का दौर कहा जाता था, और एक दूसरे दौर में इसी “मुक्त प्रतिस्पर्द्धा” के दौर ने इजारेदारियों को जन्म दिया, जिससे कि पूँजी के छोटे बहुल केन्द्रों के बीच प्रतिस्पर्द्धा की जगह बड़े-बड़े पूँजीपतियों के बीच और भी हिंस्र और गलाकाटू तीव्र प्रतिस्पर्द्धा ने ले ली। कुछ “यथार्थवादी” मूर्ख (‘यथार्थ’ नामक पत्रिका के इर्द-गिर्द एकत्र बौड़म-ब्रिगेड) इसे प्रतिस्पर्द्धा का ख़ात्मा मानते हैं क्योंकि उनके अनुसार अब महँगाई और मुनाफ़े का स्रोत इजारेदार क़ीमतें और इजारेदार मुनाफ़ा हो गया है (!)। लेकिन सच्चाई यह है कि इजारेदारी का अर्थ प्रतिस्पर्द्धा का और भी ज़्यादा तीखा होना होता है। बहरहाल, पूँजीपति वर्ग बाज़ार में प्रतिस्पर्द्धा के ज़रिए ही एक वर्ग के तौर पर संघटित होता है। इसी को मार्क्स ने पूँजीपति वर्ग का ‘दुश्मनाना भाईचारा’ कहा था।

इसलिए उत्पादन के अलग-अलग क्षेत्रों के भीतर भी पूँजीपतियों के बीच गलाकाटू प्रतिस्पर्द्धा जारी रहती है, अलग-अलग उत्पादन के क्षेत्रों के पूँजीपतियों के बीच भी गलाकाटू प्रतिस्पर्द्धा जारी रहती है। इसलिए पूँजीपति वर्ग के अलग-अलग धड़े बनते हैं और उन धड़ों के बीच समाज के मज़दूर वर्ग के अतिरिक्त श्रम को हड़पकर पैदा हुए कुल मुनाफ़े के बँटवारे को लेकर झगड़ा हमेशा चालू रहता है। इसी वजह से अलग-अलग धड़ों की अलग-अलग पूँजीवादी पार्टियाँ होती हैं। कुछ मुख्य तौर पर औद्योगिक-वित्तीय पूँजीपति वर्ग की पार्टियाँ होती हैं, कुछ मुख्य तौर पर बड़े व मँझोले व्यापारियों और धनी कुलकों-फ़ार्मरों की नुमाइन्दगी करती हैं, तो कुछ अलग-अलग क्षेत्रों के पूँजीपतियों की नुमाइन्दगी करती हैं। स्वयं इन पार्टियों के भीतर अलग-अलग दबाव समूह होते हैं और पूँजीपतियों के अलग-अलग धड़ों के हितों को आगे करने का प्रयास करते रहते हैं। लेकिन इतना स्पष्ट है कि पूँजीपति वर्ग को अपनी पार्टियों की आवश्यकता होती है क्योंकि उनकी आपसी प्रतिस्पर्द्धा के कारण उनके सामूहिक वर्गीय हितों को राजनीतिक तौर पर सूत्रबद्ध करना और उन्हें एक राजनीतिक वर्ग के रूप में संगठित करना आवश्यक होता है, क्योंकि अपने तमाम आपसी झगड़ों के बावजूद समूचा पूँजीपति वर्ग मिलकर समूचे सर्वहारा वर्ग को लूटता है और सर्वहारा वर्ग के बरक्स उसे राजनीतिक तौर पर एकजुट होना आवश्यक होता है। इसी काम को पूँजीपति वर्ग की पार्टियाँ एक स्तर पर अंजाम देती हैं और इसी काम को सबसे ऊँचे स्तर पर पूँजीपति वर्ग की राज्यसत्ता अंजाम देती है।

लुब्बेलुआब यह कि अपनी राजनीतिक पार्टियों के बिना पूँजीपति वर्ग एक राजनीतिक वर्ग के रूप में संगठित नहीं हो सकता है और इस वर्ग की प्रकृति ही ऐसी है कि इसे कई पार्टियों की आवश्यकता होती है। इसका पहला कारण तो यह है कि पूँजीपति वर्ग बनता ही आपसी प्रतिस्पर्द्धा और मुनाफ़े की दर के औसतीकरण से है और दूसरा कारण यह है कि चूँकि पूँजीपति वर्ग का शासन बहुसंख्यक मेहनतकश जनता पर शोषक अल्पसंख्या का शासन है, इसलिए उसे कई मुखौटों की ज़रूरत पड़ती है। 3, 5, 10 या 15 साल बाद एक मुखौटा इतना कलंकित और दाग़दार हो जाता है कि पूँजीपति वर्ग को अपना शासन बनाये रखने के लिए एक नये मुखौटे की ज़रूरत पड़ती है। इसीलिए पूँजीपति वर्ग की कई राजनीतिक पार्टियाँ होना आम तौर पर ज़रूरी होता है।

लेकिन क्या सर्वहारा वर्ग के भीतर आपसी विभाजन मौजूद नहीं होते हैं? होते हैं। मिसाल के तौर पर, शारीरिक श्रम व मानसिक श्रम करने वाले मज़दूरों के बीच का अन्तर, कुशल व अकुशल मज़दूरों के बीच का अन्तर, ग्रामीण व शहरी मज़दूरों के बीच का अन्तर, जाति, धर्म आदि के आधार पर पूँजीवादी सत्ता द्वारा लड़ाये जाने के कारण पैदा होने वाला अन्तर और इन सबके ऊपर यह कि पूँजीवादी व्यवस्था एक प्रकार की पूँजीवादी प्रतिस्पर्द्धा भी मज़दूरों पर थोप देती है, यानी नौकरी के अवसरों व मज़दूरी की प्रतिस्पर्द्धा। इन सबके कारण सर्वहारा वर्ग के भीतर भी आन्तरिक विभाजन मौजूद होते हैं। इसलिए सर्वहारा वर्ग को भी राजनीतिक तौर पर संगठित करने के लिए सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी की आवश्यकता होती है। यह पार्टी सर्वहारा वर्ग के दर्शन (यानी दुनिया को बदलने का दर्शन) और विज्ञान (यानी समाज की गति का विज्ञान) की वाहक होती है और यह सर्वहारा वर्ग के उन्नततम तत्वों का दस्ता होती है। मज़दूर वर्ग के रोज़मर्रा के आर्थिक संघर्ष स्वत:स्फूर्त ढंग से सर्वहारा वर्ग की विचारधारा को जन्म नहीं दे सकते, बल्कि यह “बाहर से” यानी क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों द्वारा मज़दूर वर्ग के संघर्ष के ऐतिहासिक अनुभवों के समाहार के ज़रिए ही पैदा हो सकती है और इस कम्युनिस्ट विचारधारा को मज़दूर वर्ग के आन्दोलन से जोड़कर ही सर्वहारा वर्ग का राजनीतिक वर्ग संघर्ष सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व और समाजवाद की विजय तक पहुँच सकता है। जब मज़दूर वर्ग का एक उन्नत प्रतिनिधि भी इस काम को अंजाम देता है तो वह भी मज़दूर वर्ग के आम जनसमुदायों से अलग एक क्रान्तिकारी सर्वहारा बुद्धिजीवी की भूमिका निभाता है। साथ ही, यह काम सामाजिक तौर पर मध्यवर्ग में जन्मे लेकिन राजनीतिक तौर पर सर्वहारा वर्ग के बुद्धिजीवी भी कर सकते हैं, जैसे कि मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन और माओ ने किया। स्वयं पूँजीपति वर्ग के सारे चिन्तक और नीति-निर्माता व राजनीतिक नेता स्वयं कारख़ाना-मालिक वर्ग से नहीं आते हैं। उल्टे, वे अक्सर ही मध्यवर्ग से आते हैं। इससे हमें यह सबक़ मिलता है कि जो भी आपके बीच किसी प्रकार के मज़दूरवाद की बात करते हुए कहता है कि सर्वहारा वर्ग के नेता के लिए मज़दूर वर्ग में पैदा होना अनिवार्य होना चाहिए, वह मज़दूर वर्ग का दुश्मन है और वह मज़दूर वर्ग से उसकी परिवर्तनकारी शक्ति या अभिकरण छीनने की बात कर रहा है।

लेकिन सर्वहारा वर्ग को कई पार्टियों की आवश्यकता नहीं होती और उसकी एक ही क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी हो सकती है। वजह यह कि सर्वहारा वर्ग मुनाफ़े की दर के औसतीकरण यानी प्रतिस्पर्द्धा के कारण संघटित नहीं होता है, बल्कि समूचे पूँजीपति वर्ग द्वारा शोषण के द्वारा और अपने सम्पत्तिहीन होने के कारण संघटित होता है। यह दीगर बात है कि श्रम बाज़ार में उस पर पूँजीपति वर्ग द्वारा पूँजीवादी प्रतिस्पर्द्धा थोप दी जाती है। लेकिन सर्वहारा वर्ग का संघटक तर्क प्रतिस्पर्द्धा नहीं है, बल्कि सामूहिकता है। सही सर्वहारा विचारधारात्मक लाइन, राजनीतिक लाइन व कार्यक्रम से लैस कई क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टियाँ नहीं हो सकतीं। कई मज़दूर पार्टियाँ हो सकती हैं, जो सर्वहारा विचारधारा नहीं बल्कि पूँजीवादी विचारधारा से लैस हों। लेकिन सर्वहारा विचारधारात्मक लाइन, राजनीतिक लाइन और कार्यक्रम से लैस कई सर्वहारा/कम्युनिस्ट पार्टियाँ नहीं हो सकतीं। ऐसी एक ही पार्टी हो सकती है। इसीलिए सर्वहारा वर्ग का शासन भी बहुपार्टी संसदीय उदार बुर्जुआ जनवाद पर आधारित नहीं होता है, बल्कि सोवियत जनवाद होता है जिसमें सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी की भूमिका प्रधान उपकरण की होती है।

बहरहाल, सर्वहारा वर्ग को भी एक राजनीतिक वर्ग के रूप में संगठित होने के लिए उपरोक्त प्रकार की क्रान्तिकारी सर्वहारा पार्टी की आवश्यकता होती है जो कि कम्युनिस्ट विचारधारा, राजनीतिक लाइन और कार्यक्रम से लैस हो, अनुशासित हो और व्यवस्थित और योजनाबद्ध ढंग से काम करती हो। यह पार्टी स्वयं सर्वहारा वर्ग के उन्नततम तत्वों का दस्ता होती है। यह पार्टी सर्वहारा वर्ग की विचारधारा का मूर्त रूप होती है। यह पार्टी सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी ज्ञान और उसके वर्ग संघर्ष का मुख्यालय होती है। यह पार्टी मज़दूर वर्ग और व्यापक मेहनतकश जनता के बीच क्रान्तिकारी जनदिशा लागू करती है, जनता के बीच मौजूद बिखरे और अव्यवस्थित सही विचारों को एकत्र करती है, उनका अमूर्तन करती है, उनका सामान्यीकरण और समाहार करती है और इस आधार पर वर्ग संघर्ष की एक सही राजनीतिक लाइन को सूत्रबद्ध करती है और इसी के ज़रिए मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता के जनसमुदायों को नेतृत्व देती है, पूँजीपति वर्ग की विचारधारा और राजनीतिक वर्चस्व को उनके बीच से समाप्त करती है और इसी के ज़रिए क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी समूची जनता के क्रान्तिकारी कोर या केन्द्रक की भूमिका निभाती है। व्यापक जनसमुदायों को पूँजीपति वर्ग की राजनीतिक लाइन और विचारधारा के असर से मुक्त किये बिना क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग समूची मेहनतकश जनता को अपने साथ नहीं ले सकता है और इसके बिना वह अकेले ही पूँजीवाद को उखाड़कर नहीं फेंक सकता है। इस द्वन्द्व को समझना ज़रूरी है कि सर्वहारा वर्ग सबसे क्रान्तिकारी वर्ग है, लेकिन वह अकेले इतिहास नहीं बना सकता है और साथ ही जनता इतिहास बनाती है लेकिन वह सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व के बिना इतिहास नहीं बना सकती। यह काम सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी के बिना सम्भव नहीं है। यानी सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी के बिना न तो सर्वहारा वर्ग एक राजनीतिक वर्ग के रूप में स्वयं को संघटित और संगठित कर सकता है और न ही सर्वहारा वर्ग समूची मेहनतकश जनता का नेतृत्व अपने हाथों में ले सकता है।

यही काम बोल्शेविक पार्टी ने रूस में किया और इसी वजह से रूसी क्रान्ति सम्भव हो सकी। बोल्शेविक पार्टी ने रूसी सर्वहारा वर्ग के उन्नततम तत्वों को अपने भीतर समेटा, अराजकतावाद, अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद, मज़दूरवाद जैसी पूँजीवादी विचारधाराओं को सर्वहारा वर्ग के बीच से किनारे किया, व्यापक मेहनतकश जनता, यानी ग़रीब मेहनतकश किसानों व अर्द्धसर्वहारा का समर्थन जीता और रूस में पूँजीपति वर्ग को अलग-थलग कर उसकी सत्ता को उखाड़ फेंका। इसलिए रूसी क्रान्ति की एक सबसे बड़ी शिक्षा पार्टी की ज़रूरत को समझना है। आज हमारे लिए भी भारत में प्रधान कार्यभार यह है कि सर्वहारा वर्ग की एक क्रान्तिकारी पार्टी का निर्माण किया जाये। आज कोई अखिल भारतीय क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी मौजूद नहीं है। एक सही विचारधारात्मक लाइन, एक सही राजनीतिक लाइन और क्रान्तिकारी जनदिशा, और एक सही कार्यक्रम के आधार पर एक अखिल भारतीय क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण के कामों को युद्धस्तर पर हाथ में लेना : यह आज हमारे लिए एक प्रमुख आम राजनीतिक कार्यभार है। यदि यह काम करने में हम कामयाब होते हैं तो सर्वहारा क्रान्ति और समाजवाद के रास्ते पर आगे बढ़ने से भारत के मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश वर्गों को कोई नहीं रोक सकता है। यह अक्टूबर क्रान्ति से मिलने वाली अगली सर्वाधिक महत्वपूर्ण शिक्षा है जिसे आज हमें समझना होगा।

4. मज़दूर वर्ग को अपने भीतर मौजूद भितरघातियों और विजातीय राजनीतिक प्रवृत्तियों को बाहर करना होगा

यह अक्टूबर क्रान्ति की अगली सबसे अहम सीख है। मज़दूर वर्ग के आन्दोलन और आम मेहनतकश जनता के बीच कई भितरघाती मौजूद होते हैं। ये ऊपर से दिखावे के लिए तो लाल झण्डा उठाते हैं, लेकिन वास्तव में इन्होंने लाल झण्डा ज़मीन पर फेंक दिया और पूँजीपति वर्ग की सेवा करते हैं। रूस में भी मज़दूर वर्ग के आन्दोलन में ऐसी ताक़तें मौजूद थीं जिनमें मेंशेविक सामाजिक जनवादी, “क़ानूनी मार्क्सवादी”, अराजकतावादी और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी थे। इनकी ख़ासियतें क्या थीं?

इन भितरघातियों और विजातीय राजनीतिक प्रवृत्तियों की ख़ासियतें ये थीं : इनमें से कुछ का मानना था कि मज़दूरों के बीच राजनीतिक चेतना और क्रान्तिकारी विचारधारा आर्थिक लड़ाइयाँ लड़ते-लड़ते स्वयं पैदा हो जाते हैं, उसके लिए उनके बीच सचेतन तौर पर क्रान्तिकारी सर्वहारा विचारधारा और राजनीति के प्रचार-प्रसार और शिक्षण-प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं होती है। यानी, बस वेतन-भत्ते आदि की आर्थिक लड़ाइयाँ लड़ते रहो। इसी को अर्थवाद कहा जाता है। “क़ानूनी मार्क्सवादी”, मेंशेविक सामाजिक जनवादी और साथ ही अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी इस प्रवृत्ति के प्रमुख वाहक थे। अर्थवाद मज़दूर वर्ग को अपने आम राजनीतिक हितों को प्राथमिकता और महत्व देने से रोकता है और अपने तात्कालिक विशिष्ट आर्थिक हितों (जिनके लिए राजनीतिक रूप से लड़ना अनिवार्य है) को ही सबकुछ मान लेने की शिक्षा देता है। इसके कारण सर्वहारा वर्ग कभी भी समूची मेहनतकश जनता का नेतृत्व अपने हाथ में नहीं ले सकता है और इस प्रकार समूची मेहनतकश जनता, जिसमें मज़दूर वर्ग के आम जनसमुदाय भी शामिल हैं, पूँजीपति वर्ग की विचारधारा और राजनीति के प्रभाव में बनी रहती है। नतीजतन, क्रान्ति की भ्रूणहत्या हो जाती है। लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों ने इस अर्थवाद को बेनक़ाब किया और दिखलाया कि यह सर्वहारा वर्ग के विरोध में खड़ी पूँजीवादी विचारधारा है।

इसी प्रकार, उपरोक्त में से कुछ अन्य का मानना है कि सर्वहारा वर्ग को हिरावल राजनीतिक पार्टी की आवश्यकता नहीं है या फिर सर्वहारा वर्ग स्वयं अपनी पार्टी का नेता होता है और उससे आगे चलता है (!), जिसका अर्थ फिर से यही हुआ कि सर्वहारा वर्ग को अपनी राजनीतिक हिरावल पार्टी की आवश्यकता नहीं है। ऐसे लोग सर्वहारा वर्ग की पार्टी को ही सर्वहारा वर्ग के विरुद्ध खड़ा कर देते हैं। ऐसे लोगों में अराजकतावादी व अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी प्रमुख थे। हमारे देश में आज इस प्रकार की सोच की नुमाइन्दगी मज़दूर क्रान्ति परिषद्क्रान्तिकारी नौजवान सभा (केएनएस) जैसे अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी और उनके एक साझा मंच ‘मासा’ (मज़दूर अधिकार संघर्ष अभियान) के कुछ घटक संगठन करते हैं। यह मज़दूर आन्दोलन के भीतर एक बहुत ही ख़तरनाक प्रवृत्ति है, जिसको बेनक़ाब करना और उसके विरुद्ध संघर्ष करना आज सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारियों का कर्तव्य है। लेनिन और उनके नेतृत्व में बोल्शेविकों ने ऐसे ही विजातीय तत्वों को मज़दूर आन्दोलन में बेनक़ाब किया और इतिहास ने यह दिखलाया कि रूस का सर्वहारा वर्ग इसी के चलते अपने आपको एक राजनीतिक वर्ग के रूप में संगठित करने में कामयाब हुआ।

इसी प्रकार, इन्हीं प्रवृत्तियों की नमुाइन्दगी करने वाले में कुछ ऐसे थे, जो कि एक लौह अनुशासन में बँधे और एक गोपनीय ढाँचा रखने वाले संगठन की आवश्यकता को नकारते थे। बोल्शेविक यह समझते थे कि सर्वहारा क्रान्तिकारियों को हर रूप में खुले काम और खुले संगठन खड़े करने चाहिए, लेकिन उनका यह भी मानना था कि इसके साथ पार्टी को अत्यधिक अनुशासित होना चाहिए और उसका एक गोपनीय ढाँचा भी होना चाहिए, वरना वह पार्टी पूँजीवादी राज्यसत्ता के रहमो-करम पर रहेगी और जैसे ही वह पूँजीवादी राज्यसत्ता के लिए ख़तरा बनेगी वैसे ही पूँजीवादी राज्यसत्ता उसका दमन करेगी और उसे कुचल डालेगी। लेकिन मेंशेविक खुली पार्टी और एक जनपार्टी की हिमायत कर रहे थे। लेनिन ने बताया कि जो ऐसी बात करता है, या तो वह स्वयं मूर्ख है और पूँजीवादी राज्यसत्ता को नहीं समझता या फिर उसे क्रान्ति करनी ही नहीं है और वह दूसरों को मूर्ख बना रहा है। इण्डोनेशिया में क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों द्वारा लेनिन की इसी शिक्षा को नहीं समझा गया और वहाँ की पूँजीवादी तानाशाह सुहार्तो सत्ता ने दस लाख कम्युनिस्टों व मज़दूरों का क़त्लेआम कर समूचे सर्वहारा आन्दोलन को ही कुचल दिया। आज भी आपसे जो लेनिनवादी पार्टी उसूलों को तिलांजलि देने की बात करता है, वह आपको धोखा दे रहा है। ऐसी पार्टियों में सारी संशोधनवादी पार्टियाँ शामिल हैं जो कि मेंशेविकों और अर्थवादियों का ही अनुसरण करती हैं, जैसे कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा/सीपीआई), भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) यानी कि माकपा/सीपीएम, और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन, यानी भाकपा-माले लिबरेशन/सीपीआई-एमएल लिबरेशन। ये सर्वहारा वर्ग के सबसे ख़तरनाक ग़द्दार हैं और इन्हें मज़दूर आन्दोलन से बाहर करना आज की सबसे बड़ी प्राथमिकताओं में से एक है। ये वे पार्टियाँ हैं जो कि मार्क्सवाद के क्रान्तिकारी विज्ञान और दर्शन को छोड़ चुके हैं और मार्क्सवाद का नाम लेते हुए पूँजीवादी विचारधारा और राजनीति को अपना चुके हैं। केरल और कुछ समय पहले तक पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में इनकी सरकारों ने दमन-उत्पीड़न और पूँजीपति वर्ग की ज़्यादा सूझ-बूझ और दूरगामिता के साथ सेवा करने में तो खुली पूँजीवादी पार्टियों को भी पीछे छोड़ दिया है। संशोधनवादियों के अलावा तमाम अराजकतावादी व अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों मसलन केएनएसमज़दूर क्रान्ति परिषद् जैसे संगठनों की ग़ैर-सर्वहारा विचारधारा और राजनीति को भी मज़दूरों के बीच बेनक़ाब करना आज बेहद ज़रूरी है।

इस प्रकार की विचारधाराओं व राजनीतियों का असर सर्वहारा वर्ग को भीतर से कमज़ोर करता है और उसे पूँजीवादी विचारधारा और राजनीति के समक्ष अरक्षित बना देता है। वह उसे एक राजनीतिक वर्ग के रूप में अपने आपको संगठित करने और अपने आपको व्यापक मेहनतकश जनता के नेतृत्व में स्थापित करने में अक्षम बनाता है।

इसके अलावा, एक अन्य प्रवृत्ति के विरुद्ध भी लेनिन व बोल्शेविक पार्टी ने शुरू से ही संघर्ष किया। यह प्रवृत्ति नरोदवाद की प्रवृत्ति थी जिसका यह मानना था कि समूचा किसान वर्ग क्रान्तिकारी है और यह या तो क्रान्ति की अगुवाई करेगा या क्रान्ति में सर्वहारा वर्ग का मित्र होगा। हम मज़दूर और विशेष तौर पर ग्रामीण मज़दूर व ग़रीब जानते हैं, कि इससे बड़ा झूठ और मज़ाक़ और कुछ नहीं हो सकता। जब तक हमारा साझा दुश्मन कोई सामन्ती जागीदार या ज़मीन्दार था, तब तक तो हम मज़दूरों और समूची किसान आबादी का एक साझा दुश्मन बनता था। उस समय ग्रामीण पूँजीपति वर्ग के हाथ में गाँव की चौधर यानी राजनीतिक शक्ति नहीं थी। आज ग्रामीण पूँजीपति वर्ग (यानी पूँजीवादी फ़ार्मर (यानी वह पूँजीवादी मालिक या काश्तकार किसान जो भाड़े पर मज़दूर रखकर काम करवाता है), पूँजीवादी भूस्वामी (यानी जो ज़मीन किराये पर पूँजीवादी काश्तकारों को देता है और लगान लेता है), और आढ़तियों, बिचौलियों, सूदख़ोरों, व्यापारियों का वर्ग जो कि असमान विनिमय व लगान द्वारा साधारण माल उत्पादन करने वाले निम्न मँझोले व ग़रीब किसानों को लूटता है) के हाथों में गाँव की राजनीतिक शक्ति है और देश के पैमाने पर वह औद्योगिक-वित्तीय पूँजीपति वर्ग के साथ सत्ता का साझीदार बन चुका है, भले ही उनके आपसी अन्तरविरोध कितने ही क्यों न हों। आज समूची किसान आबादी राजनीतिक तौर पर कोई एक वर्ग नहीं है। धनी किसान और भूस्वामी आज शत्रु वर्ग का अंग हैं और गाँवों में आज सर्वहारा वर्ग के मित्र अर्द्धसर्वहारा, निम्न किसान व मध्य मध्यम किसान हैं। यानी अर्द्धसर्वहारा आबादी और ग़रीब मेहनतकश किसान आबादी। लेकिन हमारे देश में आज भी कई ऐसे तथाकथित कम्युनिस्ट हैं, जो कि सर्वहारा वर्ग को धनी पूँजीवादी किसानों व ज़मीन्दारों की पूँछ पकड़कर चलने की सलाह दे रहे हैं। वे धनी किसानों की मज़दूर व ग़रीब किसान-विरोधी लाभकारी मूल्य (एमएसपी) की माँग का समर्थन करने की हिमायत कर रहे हैं, सिर्फ़ इसलिए क्योंकि गाँव का पूँजीपति वर्ग यह माँग फ़ासीवादी मोदी-शाह सरकार के सामने उठा रहा है। इस प्रकार के छोटी पूँजी व मँझोली पूँजी के तथाकथित “कम्युनिस्ट”-प्रेमियों से भी सर्वहारा वर्ग को दूर रहना चाहिए और अपने वर्गीय हितों और अपने वर्ग मित्रों की सही पहचान करनी चाहिए, वरना वह ग्रामीण पूँजीपति वर्ग और छोटे पूँजीपति वर्ग का पुछल्ला बन जायेगा। ऐसे तथाकथित “कम्युनिस्टों” में ‘यथार्थ’ पत्रिका के इर्द-गिर्द एकत्र मूर्ख-मण्डली और साथ ही नवजनवादी क्रान्ति का कार्यक्रम मानने वाले सभी नवनरोदवादी कम्युनिस्ट शामिल हैं। कई समझदार और सूझ-बूझ वाले कम्युनिस्ट भी फ़ासीवाद-विरोध के नाम पर या अपने पराजयबोध में कुलकों-धनी फ़ार्मरों की पूँछ पकड़ बैठे थे, जबकि साफ़ तौर पर देखा जा सकता है कि धनी फ़ार्मरों व कुलकों को अपने आपमे फ़ासीवाद से कोई दिक़्क़त नहीं है क्योंकि 2019 तक जब तक कि मोदी-शाह सरकार एमएसपी बढ़ा रही थी तो ये ही ग्रामीण पूँजीपति वर्ग उनके सिजदे कर रहा था। साथ ही, कुलक आन्दोलन के दौरान भी, धनी किसान-कुलक मोदी-शाह सरकार के पूँजीवादी राष्ट्रवाद के पिछलग्गू ही बने हुए थे। उनका अन्तरविरोध केवल ग्रामीण पूँजीपति वर्ग की आर्थिक माँग और मज़दूर वर्ग को लूटकर एकत्र किये जाने वाले अधिशेष के बँटवारे पर था। झगडा केवल मुनाफ़े के बँटवारे पर था। इसलिए सर्वहारा वर्ग को नरोदवादी व नवनरोदवादी कम्युनिस्टों को बेनक़ाब करना चाहिए और समझना चाहिए कि उसका एका पूँजीपति वर्ग के किसी हिस्से के साथ नहीं बनता चाहे वह ग्रामीण पूँजीपति वर्ग या छोटा व मँझोला पूँजीपति वर्ग ही क्यों न हो।

5. सर्वहारा वर्ग को दमन और शोषण के हर क्षेत्रीय, राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय मसले पर अपनी भूमिका चुननी चाहिए

अक्टूबर क्रान्ति की एक अन्य महान शिक्षा यह है कि रूस का सर्वहारा वर्ग समाजवादी क्रान्ति को अंजाम देने में कामयाब इसलिए हुआ क्योंकि सही मायने में एक राजनीतिक वर्ग के रूप में उसने हर रूप में और हर जगह पर शोषण और दमन का विरोध किया, शोषित और दमित सामाजिक समुदायों के साथ एकता स्थापित की, और उसने यह समझा कि यदि सर्वहारा वर्ग किसी भी रूप में दमन या उत्पीड़न पर शान्त रहता है या उसकी हिमायत करता है तो वह स्वयं भी हमेशा शोषित और उत्पीड़ित रहने के लिए अभिशप्त होगा।

रूस में बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में सर्वहारा वर्ग ने रूसी अन्धराष्ट्रवाद का खण्डन किया और रूसी साम्राज्य में शामिल सभी दमित राष्ट्रों व राष्ट्रीयताओं के दमन व उत्पीड़न का पुरज़ोर विरोध किया। रूस के सर्वहारा वर्ग ने जॉर्जिया, आर्मेनिया, अज़रबैजान, यूक्रेन, उजबेकिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, लात्विया, लिथुआनिया, पोलैण्ड आदि में रूस के शासक पूँजीपति वर्ग द्वारा राष्ट्रीय दमन का विरोध किया, अपने देश के रूसी शासक वर्ग के राष्ट्रवाद से अपना रिश्ता तोड़कर न्याय और बराबरी का साथ दिया। नतीजतन, रूस में क्रान्ति के बाद रूस के शासक मज़दूर वर्ग ने हर राष्ट्र को यह अधिकार दिया कि वह ख़ुद अपना फ़ैसला ले और अलग होना चाहे तो अलग हो जाये। रूस के सर्वहारा वर्ग ने साफ़ किया कि अपनी इच्छा से वह अधिक से अधिक बड़े साझा देश और राज्य के पक्ष में है, लेकिन यह साझा देश और साझा राज्य ज़ोर-ज़बर्दस्ती के आधार पर नहीं, बल्कि स्वेच्छा से बनाया जा सकता है। इसी के ज़रिए रूस के क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग ने सभी दमित राष्ट्रों का भरोसा जीता और क्रान्ति के 5-6 वर्ष बाद ही सोवियत संघ अस्तित्व में आया जिसमें अधिकांश दमित राष्ट्र जो कि अब मुक्त हो चुके थे, स्वेच्छा से शामिल हुए और समाजवादी व्यवस्था को स्वीकारा।

इसी प्रकार रूसी पूँजीपति वर्ग ने अल्पसंख्यक यहूदियों के ख़िलाफ़ भी कट्टरपन्थ को फैलाकर उनका दमन और उत्पीड़न किया था और मज़दूर वर्ग के भीतर भी यहूदी-विरोधी कट्टरपन्थी सोच (एण्टी-सेमिटिज़्म) का प्रभाव फैलाया था। नतीजतन, कई मज़दूर भी यहूदी-विरोध की भावना से प्रभावित थे। रूसी सर्वहारा वर्ग ने अपनी हिरावल पार्टी यानी बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में इस विचारधारा का सतत् विरोध किया, उसे बेनक़ाब किया और व्यापक मज़दूर जनसमुदायों को यह समझाया कि यह विचारधारा वास्तव में मज़दूर वर्ग की एकता को तोड़ने और उसकी शक्ति को बंजर कर देने के लिए फैलायी जा रही है। धर्म मज़दूर वर्ग के लिए पूरी तरह से एक व्यक्तिगत मसला है और मज़दूर वर्ग का यह मानना है कि कोई अपने घर में कौन-सा धर्म मानता है या कोई धर्म नहीं मानता, इसका सरकार, राज्यसत्ता और सामाजिक जीवन से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए। समाजवाद सभी को कोई भी धर्म मानने या न मानने की स्वतंत्रता देता है लेकिन किसी भी व्यक्ति या समूह को यह आज़ादी नहीं है कि वह धार्मिक प्रचार करे, धर्म को राजनीति या सामाजिक जीवन से जोड़े। यही सच्चे मायने में सेक्युलरिज़्म है और इतिहास ने दिखलाया है कि सर्वहारा वर्ग ही क्रान्तिकारी मायने में सेक्युलर हो सकता है। साथ ही, रूस की कम्युनिस्ट पार्टी ने हर प्रकार के भाषाई दमन का विरोध करते हुए स्पष्ट किया कि समाजवादी सोवियत संघ में कोई भी भाषा केन्द्र या राज्य (प्रान्त) के स्तर पर राष्ट्रीय, राजकीय या आधिकारिक भाषा नहीं होगी और सभी भाषाओं को बराबरी का दर्जा प्राप्त होगा। एकसमान स्कूल व्यवस्था होगी और उसमें हर क़ौम से आने वाले छात्र को अपनी भाषा में अध्यापन व पुस्तकों की पूरी सुविधा मिलेगी। सोवियत संघ ने इसे करके दिखलाया। इसकी वजह से राष्ट्रीय व भाषाई अन्तरविरोध भी कम होते गये और सोवियत संघ की जनता ने स्वेच्छा से सोवियत संघ की निश्चित विशिष्ट परिस्थितियों में रूसी भाषा को आपसी सम्पर्क भाषा के तौर पर चुना।

आज भारत के मज़दूर वर्ग के लिए सोवियत संघ के ये उदाहरण मिसाल हैं।

हमारे देश में भी संघ परिवार और मोदी-शाह की फ़ासीवादी सत्ता द्वारा आज मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता को ख़ास तौर पर हिन्दू-मुसलमान और मन्दिर-मस्जिद के नाम पर बाँटा जा रहा है। साथ ही, सभी पार्टियाँ जाति और भाषा के आधार पर भी मज़दूर वर्ग और व्यापक मेहनतकश आबादी को बाँटने में लगी हुई हैं। चूँकि हम अपने जीवन की आर्थिक असुरक्षा और अनिश्चितता से तंगहाल हैं और थके हुए हैं, इसलिए हमें भी आनन-फ़ानन में एक दुश्मन की तलाश होती है। कोई देशव्यापी क्रान्तिकारी पार्टी आज मौजूद नहीं है जो पूरे देश के पैमाने पर सघन और व्यापक प्रचार के ज़रिए यह दिखला सके कि हमारे जीवन की आर्थिक व सामाजिक असुरक्षा व अनिश्चितता के लिए किसी विशेष धर्म, समुदाय या जाति के लोग ज़िम्मेदार नहीं हैं, बल्कि हर धर्म, जाति या समुदाय की मेहनतकश जनता के जीवन की आर्थिक व सामाजिक असुरक्षा व अनिश्चितता के लिए मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था ज़िम्मेदार है जो अपनी स्वाभाविक गति से बेरोज़गारी, महँगाई, ग़रीबी, भुखमरी, कुपोषण व पर्यावरणीय विनाश पैदा कर रही है। इसीलिए तो इस व्यवस्था के शीर्ष पर बैठे नीति-निर्माता यानी कि पूँजीपति वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधि अपनी इस व्यवस्था के काले अपराध छिपाने के लिए हमें धर्म व जाति के नाम पर बाँट रहे हैं और हिन्दू को बता रहे हैं कि मुसलमान दुश्मन है, मुसलमान को बता रहे हैं कि हिन्दू दुश्मन है; सवर्ण को बता रहे हैं कि दलित दुश्मन हैं और दलित को बता रहे हैं कि सवर्ण दुश्मन हैं। जबकि सच यह है कि सभी धर्मों और जातियों के मेहनतकशों, मज़दूरों और ग़रीबों का साझा दुश्मन इस देश का पूँजीपति वर्ग और उसकी पूँजीवादी व्यवस्था है, चाहे इसके शीर्ष पर बैठे लोगों का धर्म कुछ भी हो। यह है सच्चाई जिसे हम जितनी जल्दी समझ लें उतना बेहतर है। और रूस के क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग, समाजवादी क्रान्ति और समाजवादी व्यवस्था से सीखने वाली बातों में हम भारतीय मेहनतकशों व मज़दूरों के लिए यह बात विशेष महत्व रखती है।

साथ ही, हमारे देश में कश्मीर और उत्तर-पूर्व के तमाम राष्ट्रों का राष्ट्रीय दमन मौजूद है। सर्वहारा वर्ग को इस राष्ट्रीय दमन का भी पुरज़ोर विरोध करना चाहिए और हर राष्ट्र को आत्मनिर्णय के अधिकार दिये जाने के लिए संघर्ष करना चाहिए। हम राष्ट्रों के अलग होने का समर्थन नहीं करते हैं, बल्कि उनके अलग होने के अधिकार का समर्थन करते हैं। सर्वहारा वर्ग तो सभी राष्ट्रों की सीमाओं को मिटा देना चाहता है, भला वह क्यों राष्ट्रों को अलग करना चाहेगा? लेकिन सर्वहारा वर्ग राष्ट्रों के राजनीतिक दमन और ज़ोर-ज़बर्दस्ती का पुरज़ोर विरोध करता है और यह मानता है कि अधिकतम सम्भव बड़े राज्य का निर्माण स्वैच्छिक आधार पर होना चाहिए, राष्ट्रीय दमन और ज़ोर-ज़बर्दस्ती के आधार पर नहीं। इसलिए हमें अपने देश के शासक वर्ग के राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय कट्टरपन्थ में नहीं फँसना चाहिए और सभी दमित राष्ट्रों की मुक्ति की लड़ाई का समर्थन करना चाहिए। केवल यही राजनीतिक लाइन कालान्तर में न्याय और समानता पर आधारित अधिकतम सम्भव बड़े सर्वहारा राज्य के निर्माण की ओर जा सकती है। साथ ही, दमित राष्ट्रों के सर्वहारा वर्ग का यह कर्तव्य है कि वह दमनकारी देश के सर्वहारा वर्ग को नहीं बल्कि पूँजीपति वर्ग को अपना दुश्मन माने और राष्ट्रीय दमन को ख़त्म कर स्वैच्छिक समेकन और एकीकरण की लाइन पर बल दे, क्योंकि दमित राष्ट्रों का पूँजीपति वर्ग भी अपने देश की कुदरत और मेहनत की लूट के अधिकार और अपने घरेलू बाज़ार पर क़ब्ज़े की ख़ातिर ही राष्ट्रीय मुक्ति की लड़ाई लड़ता है। राजनीतिक तौर पर उससे मोर्चा बनाने के विकल्प को खुला रखते हुए भी दमित राष्ट्रों का सर्वहारा वर्ग ऐसे किसी भी राष्ट्रीय मोर्चे में अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता को क़ायम रखता है और अपनी राजनीतिक लाइन के वर्चस्व को स्थापित करने का प्रयास करता है न कि बुर्जुआ वर्ग का पुछल्ला बनता है।

आज भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में भी ऐसे राष्ट्रवाद के मर्ज़ के कुछ शिकार मौजूद हैं, मसलन ‘ललकार-प्रतिबद्ध’ ग्रुप और उसके बचकाने नुमाइन्दे और उसका नेतृत्व जो कि भारत के सभी राष्ट्रों को दमित मानते हैं (एक “अराष्ट्रीय”, मंगल ग्रह से आये पूँजीपति वर्ग द्वारा दमित!!) लेकिन उनके लिए अलग होने के अधिकार समेत राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के अधिकार की क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट लाइन की बजाय पूँजीपति वर्ग से संघीय अधिकारों और प्रान्तीय स्वायत्तता की माँग करते हैं और भारत में समाजवादी क्रान्ति को इन संघीय अधिकारों व स्वायत्तता को हासिल करने का रास्ता मानते हैं! अव्वलन तो भारत में आज कश्मीर और उत्तर-पूर्व के तमाम राष्ट्रों के अलावा कोई दमित राष्ट्र नहीं हैं और अगर कोई किसी राष्ट्र को दमित मानता है तो उसके लिए कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी कार्यक्रम राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति के ज़रिए राष्ट्रीय मुक्ति का होगा, न कि दमनकारी देश में समाजवादी क्रान्ति के ज़रिए अपने राष्ट्र की राष्ट्रीय मुक्ति करना और तब तक दमनकारी देश के शासक वर्ग से संघीय अधिकारों और स्वायत्तता की भीख माँगना! यह अलग बात है कि हर दमित राष्ट्र के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी अपने देश में राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति की शक्तियों और दमनकारी देश में समाजवादी क्रान्ति की कम्युनिस्ट शक्तियों के साथ एकता स्थापित करेंगे, लेकिन इससे दमित राष्ट्र में क्रान्ति की मंज़िल को ही गटक जाने का काम राष्ट्रीय प्रश्न पर अपनी क़ौम की बुर्जुआज़ी का स्टैण्ड अपनाने और सुधारवादी लाइन अपनाने वाले नक़ली कम्युनिस्ट ही कर सकते हैं और पंजाब के ‘ललकार-प्रतिबद्ध’ ग्रुप को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है।

सर्वहारा वर्ग को इस प्रकार की विजातीय पूँजीवादी लाइन को बेनक़ाब करना चाहिए और उसे समूचे मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनसमुदायों के समक्ष बेपर्द करना चाहिए।

6. कोई भी नया वर्ग और नयी व्यवस्था जीतों-हारों के उतार-चढ़ाव भरे लम्बे सिलसिले के बाद ही टिकाऊ तौर पर स्थापित होती है

हम जानते हैं कि 1953 में स्तालिन की मृत्यु के बाद ख्रुश्चेव नामक सर्वहारा वर्ग के ग़द्दार के नेतृत्व में सोवियत संघ में पूँजीवादी व्यवस्था की पुनर्स्थापना हो गयी। यह कोई बिल्कुल अनपेक्षित बात नहीं थी। इसे समझने के दो पहलू हैं। पहली बात तो यह कि सोवियत संघ और फिर चीन में समाजवादी क्रान्ति और समाजवादी व्यवस्था के प्रयोग सर्वहारा वर्ग के द्वारा समाजवादी व्यवस्था के पहले चक्र के प्रयोग थे। इस पहले चक्र में अभी सर्वहारा वर्ग और उसके क्रान्तिकारी नेताओं को बहुत-सी चीज़ें नहीं पता थीं और तमाम ग़लतियों और कमियों के तजुरबों के साथ ही वे उनके बारे में सीखने की प्रक्रिया में थे। इस वजह से सर्वहारा वर्ग और उसके राजनीतिक नेतृत्व द्वारा तमाम गम्भीर भूलें होना स्वाभाविक था। क्रान्ति एक वर्ग संघर्ष की प्रक्रिया होती है और दो वर्गों के बीच जीवन-मरण का संघर्ष होता है। इस संघर्ष का एकरेखीय, सीधा और सरल होना नामुमकिन है।

इसका दूसरा पहलू यह है कि इतिहास में कोई भी नया वर्ग और कोई भी नयी व्यवस्था शासक वर्ग और प्रभावी व्यवस्था के तौर पर टिकाऊ रूप में पहले चक्र की क्रान्तियों के ज़रिए ही नहीं स्थापित हुए। पूँजीपति वर्ग की राजनीतिक और विचारधारात्मक लड़ाई सामन्तवाद के ख़िलाफ़ 15वीं-16वीं शताब्दी से ही शुरू हो गयी थी। 17वीं शताब्दी में इंग्लैण्ड में पहली पूँजीवादी क्रान्ति हुई। 1789 में फ़्रांस में सबसे महान और ऐतिहासिक पूँजीवादी क्रान्ति हुई। लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था प्रभावी व्यवस्था के तौर पर और पूँजीपति वर्ग शासक वर्ग के तौर पर टिकाऊ रूप में 1850 के दशक से ही उन्नत यूरोपीय देशों में स्थापित हुए और दुनियाभर में पूँजीवाद के प्रभावी व्यवस्था के तौर पर स्थापित होने का सिलसिला तो बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक चलता रहा। यानी पूँजीवाद की सामन्तवाद पर स्थायी जीत के पहले क़रीब 400 साल की अवधि बीती! अभी तो कम्युनिस्ट घोषणापत्र के प्रकाशित हुए ही केवल 172 साल हुए हैं और उसमें ही सर्वहारा वर्ग ने तमाम कामयाब क्रान्तियाँ कर समाजवादी प्रयोगों को कई दशकों तक चलाया और दिखला दिया कि पूँजीवाद से बेहतर, न्यायपूर्ण, समानतामूलक और वैज्ञानिक व्यवस्था सम्भव है। रूस, चीन, वियतनाम, कोरिया, पूर्वी यूरोप के कई देशों आदि में समाजवाद के प्रथम चक्र के प्रयोगों ने ही सर्वहारा वर्ग और समाजवाद की श्रेष्ठता को स्थापित और सिद्ध कर दिया। लेकिन सर्वहारा क्रान्ति की विश्व प्रक्रिया भी निश्चय ही हारों-जीतों से, उतारों-चढ़ावों से गुज़रनी ही थी और इसमें कुछ भी ताज्जुब की बात नहीं है। पहले चक्र की क्रान्तियों के बाद पराजय और विपर्यय का एक लम्बा दौर आना ही था, और इसमें भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है। जिसके पास भी ऐतिहासिक दृष्टि है, वह ‘समाजवाद के अन्त’, ‘मार्क्सवाद के अन्त’ के अवैज्ञानिक दावों को आसानी से चिन्दी-चिन्दी कर सकता है। साथ ही, यह भी नहीं भूलना चाहिए कि पूँजीवादी क्रान्ति में एक शोषक वर्ग (पूँजीपति वर्ग) दूसरे शोषक वर्ग (सामन्त वर्ग) की जगह ले रहा था और उसकी लड़ाई एक प्रकार की शोषक व्यवस्था से ही थी। लेकिन सर्वहारा वर्ग की समाजवाद और कम्युनिज़्म के लिए लड़ाई समूचे वर्ग समाज के चार हज़ार वर्ष के ख़िलाफ़ है क्योंकि वह इतिहास का अन्तिम क्रान्तिकारी वर्ग है जिसका ऐतिहासिक लक्ष्य ही एक वर्ग के रूप में ख़ुद को समाप्त करते हुए समूचे वर्ग समाज का ही ख़ात्मा है। इसलिए सर्वहारा वर्ग की समाजवाद के लिए लड़ाई वैसे भी पूँजीवाद की सामन्तवाद के विरुद्ध लड़ाई से कहीं ज़्यादा आमूलगामी, कहीं ज़्यादा ढाँचागत और ज़्यादा जटिल है। ऐसे में, यह उम्मीद करना कि समाजवाद के पहले प्रयोग ही स्थायी रूप में टिक क्यों नहीं गये और उनके न टिकने पर समाजवाद के लक्ष्य और मार्क्सवाद की सर्वहारा विचारधारा के प्रति ही संशयग्रस्त हो जाना उन मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों की पहचान है जिनके पास ऐतिहासिक दृष्टि और वैज्ञानिक पद्धति का अभाव है।

आगे बढ़ते हैं और समाजवादी संक्रमण की जटिल समस्याओं पर बेहद संक्षेप में एक चर्चा करते हैं।

समाजवादी क्रान्ति के बाद पूँजीपति वर्ग हारता है, वह कोई कपूर की तरह उड़ नहीं जाता है। वह समाज में मौजूद रहता है और लगातार अपने खोये हुए स्वर्ग को फिर से हासिल करने के प्रयासों में लगा रहता है, तोड़-फोड़ करता है, सर्वहारा वर्ग के आम जनसमुदायों को अपनी बुर्जुआ विचारधाराओं, जैसे निजी सम्पत्ति व पैसे के लालच, बचत करने की प्रवृत्ति, स्वार्थीपन और आत्मकेन्द्रण की प्रवृत्ति से प्रभावित करने की कोशिश करता है। सर्वहारा वर्ग के व्यापक जनसमुदाय भी अभी-अभी पूँजीवादी समाज से निकले होते हैं और स्वयं उनमें भी पूँजीवादी विचारधारा का असर मौजूद होता है।

समाजवादी समाज में तत्काल ही मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम का अन्तर समाप्त नहीं हो जाता है, न ही कृषि और उद्योग तथा गाँव व शहर के बीच की असमानता समाप्त हो जाती है। इन रूपों में श्रम विभाजन के मौजूद रहने के कारण पूँजीवादी विशेषाधिकार भी बने रहते हैं। मसलन, शुरुआती तौर पर समाजवादी निर्माण में भी विशेषज्ञों, बौद्धिक कर्मियों, आदि की आवश्यकता होती है जो कि अधिक वेतन व सुविधाएँ न मिलने की सूरत में समाजवादी व्यवस्था से असहयोग कर सकते हैं। ऐसे में, डॉक्टरों, इंजीनियरों, टेक्नीशियनों आदि को अधिक वेतन और बेहतर आवास आदि देना शुरुआती दौर में समाजवादी सर्वहारा सत्ता की मजबूरी होती है। इससे बुर्जुआ विशेषाधिकारों और उसकी सोच के बढ़ने की सम्भावना लगातार मौजूद रहती है। समाजवादी व्यवस्था में कई पीढ़ियों के समाजवादी शिक्षा आन्दोलनों व सांस्कृतिक क्रान्तियों तथा उत्पादक शक्तियों के विकास के बाद ही ये अन्तर धीरे-धीरे ख़त्म हो सकते हैं, और तब तक सर्वहारा वर्ग की सत्ता को बेहद मज़बूत और सटीक सर्वहारा चौकसी के साथ समाजवादी निर्माण को आगे बढ़ाना होता है।

समाजवादी संक्रमण के दौरान, सर्वहारा राज्य और पार्टी द्वारा किसी भी क़ीमत पर जल्दी आर्थिक विकास करने को लक्ष्य नहीं बनाया जा सकता है, बल्कि उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण को जारी रखते हुए ही उत्पादक शक्तियों के विकास को आगे बढ़ाया जाना चाहिए। यानी राजनीति और वर्ग संघर्ष को कमान में रखते हुए ही उत्पादक शक्तियों का विकास किया जाना चाहिए। इसके अलावा, जब तक समूची सम्पत्ति का उन्नततम समाजीकरण यानी राष्ट्रीकरण व राजकीयकरण नहीं हो जाता, यानी समूचे उद्योग का राष्ट्रीकरण होना और उसका पार्टी नेतृत्व में मज़दूर नियंत्रण में आना, तब तक समूची खेती में राजकीय फ़ार्मों की स्थापना के बिना माल उत्पादन भी जारी रहता है। सामूहिक फ़ार्म अन्य सामूहिक फ़ार्मों व सहकारी संस्थाओं तथा सर्वहारा राज्यसत्ता से उत्पादों का विनिमय करते हैं और उत्पादक के साधनों का और श्रमशक्ति का तो माल के रूप में अस्तित्व समाप्त हो जाता है, लेकिन तमाम व्यक्तिगत उपभोग की वस्तुएँ भी माल (यानी बेचने-ख़रीदने की वस्तुओं) के रूप में मौजूद रहती हैं और यह माल उत्पादन हर घण्टे पूँजीवादी मूल्यों, सम्बन्धों और विचारधाराओं को जन्म देता रहता है। इसलिए जब तक सर्वतोमुखी सर्वहारा अधिनायकत्व के मातहत सांस्कृतिक क्रान्तियों के सिलसिले के ज़रिए माल उत्पादन का, विनिमय सम्बन्धों का और पूँजीवादी श्रम विभाजन का ख़ात्मा नहीं होता, तब तक पूँजीवादी मूल्य व सम्बन्ध उत्पादित व पुनरुत्पादित होते रहते हैं। और इसलिए पुराने पूँजीपति वर्ग के साथ पार्टी और राज्य के भीतर भी एक ऐसा पूँजीपति वर्ग पैदा होता है, जो कि राजनीति और विचारधारा से पूँजीवादी पथगामी होता है और अगर उसके विरुद्ध सतत् संघर्ष की प्रक्रिया नहीं चलायी जाती तो वह पार्टी में एक पूँजीवादी मुख्यालय क़ायम कर कालान्तर में सर्वहारा पार्टी और राज्य का भीतर से चरित्र-परिवर्तन कर डालता है। सोवियत संघ में तमाम उपलब्धियों के बावजूद उत्पादकतावाद की सोच के कारण यह ग़लती हुई, जिसके बारे में हम कभी ‘मज़दूर बिगुल’ में विस्तार से लिखेंगे।

इसके अलावा, पूँजीवादी विचारधारा का असर भी अभी न सिर्फ़ बरक़रार होता है, बल्कि उसकी वर्चस्वकारी स्थिति भी अभी नहीं समाप्त हुई होती है। इसलिए सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में बुर्जुआ विचारधारा के विरुद्ध सतत् सचेतन संघर्ष अनिवार्य होता है। अधिकांश यांत्रिक मार्क्सवादी मार्क्स की इस बुनियादी शिक्षा को भूल जाते हैं कि जब विचारधारा किसी जनसमूह को अपनी गिरफ़्त में ले लेती है तो वह भी एक भौतिक शक्ति बन जाती है जो एक व्यवस्था को गिरा भी सकती है।

इस प्रकार एक ओर पूँजीवादी मूल्यों व सम्बन्धों का जारी माल उत्पादन के कारण सतत् उत्पादन और पुनरुत्पादन और वहीं दूसरी ओर विचारधारात्मक स्तर पर पूँजीवादी विचारधारा का जारी वर्चस्व तथा समाज में पूँजीवादी तत्वों का लगातार पैदा होना समाजवादी समाज में नये रूपों में सर्वहारा वर्ग (जो कि अब शासक वर्ग बन चुका है) और पूँजीपति वर्ग के बीच वर्ग संघर्ष को जारी रखता है और इसमें जीत-हार का फ़ैसला होना अभी बाक़ी होता है। यदि सर्वहारा वर्ग आर्थिक ही नहीं बल्कि राजनीतिक, सामाजिक और विचारधारात्मक क्षेत्र में सर्वतोमुखी अधिनायकत्व को लागू करते हुए नये राजकीय और पुराने बुर्जुआ वर्ग के प्रतिरोध को कुचलता है, माल उत्पादन को क़दम-दर-क़दम समाप्त करता है, उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण व वर्ग संघर्ष को कमान में रखते हुए उत्पादक शक्तियों का विकास जारी रखता है और विचारधारात्मक अधिरचना के क्षेत्र में सतत् क्रान्ति के सिद्धान्त को लागू करता है, तो ही समाजवादी संक्रमण को कामयाबी के साथ आगे बढ़ाया जा सकता है, पूँजीपति वर्ग की निर्णायक ऐतिहासिक पराजय को सुनिश्चित किया जा सकता है और कम्युनिस्ट समाज की ओर आगे बढ़ा जा सकता है। यही माओ त्से-तुङ की महान शिक्षा थी, जिसे माओ ने सोवितय संघ में समाजवादी प्रयोग और चीन में समाजवादी प्रयोग के नकारात्मक व सकारात्मक अनुभवों से निकाला था। इसे ही महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति का सिद्धान्त कहते हैं।

इस नये सिद्धान्त और इन नये उसूलों का जन्म सोवियत संघ और चीन में विश्व-ऐतिहासिक समाजवादी प्रयोगों का परिणाम था। अन्तत: इन प्रयोगों के पतन के बावजूद सर्वहारा वर्ग ने अपने भावी प्रयोगों को अमल में लाने और उन्हें स्थायी तौर पर कामयाब बनाने का रास्ता सीखा है और इन शिक्षाओं पर अमल करके ही भविष्य के समाजवादी प्रयोगों को टिकाना और कम्युनिस्ट समाज की ओर आगे बढ़ना सम्भव है। सोवियत संघ और फिर चीन में समाजवादी प्रयोगों का गिरना एक रूप में इन युगान्तरकारी शिक्षाओं को हासिल करने की क़ीमत थी। इन प्रयोगों का अन्तत: गिरना मार्क्सवाद और कम्युनिज़्म की असफलता को नहीं दिखाता। उल्टे इनसे निकले उसूल, सिद्धान्त और शिक्षाएँ यह दिखलाते हैं कि अपने आप में इन प्रयोगों का पतन और कुछ नहीं दिखलाता सिवाय इसके कि इतिहास की गति ऐसी ही होती है, हर नया वर्ग और नयी व्यवस्था जीतों-हारों के एक ऐतिहासिक सिलसिले के बाद ही अपने आपको स्थापित कर सकते हैं और कोई भी नया वर्ग और नयी व्यवस्था इसका अपवाद नहीं हैं। इन शिक्षाओं के जन्म की प्रक्रिया में सोवियत संघ के समाजवादी प्रयोग के दौरान उत्पादकतावाद की ग़लती होने, वर्ग संघर्ष की कुंजीभूत कड़ी से पकड़ कमज़ोर पड़ने और सर्वहारा अधिनायकत्व और उसकी चौकसी के कमज़ोर पड़ने और नतीजतन, सोवियत संघ की सर्वहारा राज्यसत्ता व पार्टी के भीतर बुर्जुआ तत्वों के जड़ जमाने और फिर उस पर क़ब्ज़ा कर लेने की सम्भावनाएँ थीं और यही हुआ भी। चीन में माओ द्वारा पूँजीवादी पुनर्स्थापना के कारणों की सही पड़ताल के बावजूद उसकी शिक्षाओं के अमल द्वारा एक ही बार में पूँजीवादी पुनर्स्थापना को रोक देने में सफलता हासिल करने की सम्भावना भी कम ही थी और स्वयं माओ भी इस बात को समझते थे। चीन में पूँजीवादी पुनर्स्थापना ने भी महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के माओ के मार्क्सवादी सिद्धान्त को ग़लत नहीं बल्कि सही साबित किया है।

यहाँ हमने समाजवादी संक्रमण की समस्याओं पर बेहद संक्षेप में चर्चा की है, ताकि सभी साथियों के समक्ष एक शुरुआती तस्वीर आ सके। बेशक इसके कई पहलू अभी आपके लिए धुँधले और अधूरे हो सकते हैं। इसमें चिन्ता की कोई बात नहीं है। आगे इन चीज़ों को हम और विस्तार में समझेंगे। अभी के लिए एक तस्वीर पेश करना ही सम्भव था और फ़िलहाल यह पर्याप्त भी है।

7. निष्कर्ष के तौर पर…

आज सर्वहारा वर्ग को अक्टूबर क्रान्ति की 105वीं वर्षगाँठ के अवसर पर अक्टूबर क्रान्ति की उपरोक्त शिक्षाओं को आत्मसात करने की आवश्यकता है। केवल इन शिक्षाओं को आत्मसात करके ही सर्वहारा वर्ग अपने ऐतिहासिक लक्ष्य को पूरा कर सकता है। केवल तभी सर्वहारा वर्ग आज की चुनौतियों को समझ सकता है और उनका मुक़ाबला कर सकता है। केवल तभी वह अपने आपको एक राजनीतिक वर्ग के रूप में संगठित कर सकता है। केवल तभी वह पूँजीवादी राज्यसत्ता का ध्वंस कर पूँजीपति वर्ग को सत्ता से उखाड़कर फेंक सकता है, सर्वहारा सत्ता की स्थापना कर सकता है और समाजवादी निर्माण कर सकता है जो कि देश की मेहनतकश जनता को भूख, बेकारी, ग़रीबी, महँगाई, असुरक्षा और अनिश्चितता से निजात दिला सकते हैं।

अक्टूबर क्रान्ति को याद करके हम महज़ पुरखों के प्रति किसी उधार को चुकता नहीं कर रहे हैं और न ही किसी रस्म की अदायगी कर रहे हैं। हम महान अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति की विरासत से एक आलोचनात्मक रिश्ता क़ायम कर रहे हैं, उसकी सीख को आत्मसात कर रहे हैं और इसलिए आत्मसात कर रहे हैं कि उसके सकारात्मक व नकारात्मक से सीखते हुए हम आज की चुनौतियों को समझ सकें, उनका मुक़ाबला कर सकें और इक्कीसवीं सदी की नयी समाजवादी क्रान्तियों के संस्करण रच सकें। वैज्ञानिक विचारधारा रखने वाले एक क्रान्तिकारी वर्ग के तौर पर सर्वहारा वर्ग अपनी गौरवशाली विरासत से इसी तरह से एक रिश्ता क़ायम करता है। ज़ाहिर है कि आज के पूँजीवाद और बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों के पूँजीवाद में बहुत अन्तर है। उस समय की रूस की परिस्थितियों और आज के भारत की परिस्थितियों में भी बहुत अन्तर है। इसलिए बहुत-सी नयी चुनौतियाँ और समस्याएँ हैं और साथ ही बहुत-से नये सकारात्मक पहलू भी हैं, जिन्हें इक्कीसवीं सदी की नयी समाजवादी क्रान्तियों को अंजाम देने के लिए सर्वहारा वर्ग को समझना होगा और यह कार्य अक्टूबर क्रान्ति का अनुसरण करके नहीं किया जा सकता है। हमें अतीत की नक़ल नहीं करनी होती बल्कि उससे ज़रूरी सबक़ सीखने होते हैं। भविष्य की समस्याओं का समाधान अतीत में नहीं होता बल्कि भविष्य में होता है। लेकिन जो अतीत से नहीं सीखते, अतीत पर गोलियाँ चलाने की हिमाक़त करते हैं, भविष्य उनपर तोप से गोले बरसाता है। इसलिए अक्टूबर क्रान्ति की सार्वभौमिक शिक्षाओं की पहचान करनी होगी, जो वर्ग समाज और पूँजीवाद के रहते सार्वभौमिक वैधता रखती हैं और हमने इस लेख में ऐसी ही कुछ अहम शिक्षाओं को चिह्नित किया है।

इन सार्वभौमिक शिक्षाओं से यह स्पष्ट है कि आज हमारा प्रमुख कार्यभार है एक सही विचारधारात्मक समझ, सही राजनीतिक लाइन, हमारे देश की ठोस परिस्थितियों के ठोस विश्लेषण पर आधारित एक सही कार्यक्रम और बोल्शेविक सांगठनिक उसूलों पर यानी एक सही सांगठनिक लाइन पर आधारित एक नयी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी का निर्माण करना; देश के मज़दूर आन्दोलन के बीच मौजूद विजातीय प्रवृत्तियों को बेनक़ाब करके उन्हें बेदख़ल करना, मसलन, संशोधनवाद, अराजकतावाद, अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद, अर्थवाद, मज़दूरवाद आदि, जिन पर हमने ऊपर संक्षिप्त चर्चा की है; हर रूप में शोषण और दमन के विरुद्ध सर्वहारा वर्ग के प्रतिरोध को पेश करना; और मौजूदा फ़ासीवादी निज़ाम द्वारा मेहनतकश जनता को धर्म, जाति आदि के आधार पर बाँटने की साज़िशों को नाकामयाब करना और एक क्रान्तिकारी फ़ासीवाद-विरोधी जन आन्दोलन खड़ा करना।

यदि हम उपरोक्त कार्यभारों पर सही तरीक़े से अमल की दिशा में आगे बढ़ते हैं, तो हम न सिर्फ़ प्रभावी तरीक़े से लड़ेंगे बल्कि हम अन्तत: अवश्य ही जीतेंगे। भविष्य हमारा है। सर्वहारा वर्ग के पास हारने के लिए अपनी बेड़ियों के अलावा कुछ भी नहीं है और जीतने को सारी दुनिया है। सपने देखने का साहस करो! जीतने का साहस करो! आज अक्टूबर क्रान्ति की विरासत को याद करने और समझने का हमारे लिए यही अर्थ हो सकता है।

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2022


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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