मार्क्सवादी इतिहासकार डी.डी. कोसाम्बी के स्मृति दिवस (29 जून) पर
मज़दूरों को इतिहास क्यों जानना चाहिए?

वारुणी

दामोदर धर्मानन्द कोसाम्बी भारत के इतिहास की ऐतिहासिक भौतिकवादी व्याख्या करने वाले पहले इतिहासकार थे। उनका जीवन बहुत छोटा रहा। महज़  58 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गयी लेकिन उन्होंने समाज और ज्ञान-विज्ञान की दुनिया को महान योगदान दिये। आज एक ऐसे दौर में जब फ़ासीवादी ताक़तों द्वारा इतिहास के विकृतिकरण की मुहिम चलायी जा रही है, जब आरएसएस “हिन्दू राष्ट्र” (यानी, मेहतनकश वर्गों पर धन्नासेठों की तानाशाही वाली व्यवस्था) के निर्माण की अपनी वैचारिक परियोजना के लिए इतिहास को तोड़ मरोड़ कर जनता के समक्ष प्रस्तुत कर रहा है, ऐसे दौर में डी.डी. कोसाम्बी जैसे इतिहासकार को याद करने की प्रासंगिकता पहले से कहीं ज़्यादा हो जाती है।

फ़ासीवादी ताक़तें हमेशा इतिहास और विज्ञान को अपना पहला निशाना बनाती है क्योंकि वे तार्किकता, वैज्ञानिकता और जनवादी मूल्यों को स्थापित करने का काम करते हैं। आज इन दोनों ही क्षेत्रों पर फा़सीवादियों का हमला जारी है और मिथकों को सामान्य बोध के रूप में स्थापित किया जा रहा है। यह हमला असल में जनता की विरासत पर हमला है। बुर्जुआ वर्ग की नग्न तानाशाही लागू करने वाले फ़ासीवादी हुक़्मरानों द्वारा इतिहास पर इस हमले का प्रतिकार करना आज सर्वहारा वर्ग का ही कार्यभार है। जो लोग मज़दूर वर्ग को महज़ वेतन-भत्ते, कार्यस्थिति तथा जीवनस्थिति सम्बन्धी लड़ाई तक सीमित करते हैं, असल में वह मज़दूर वर्ग को एक राजनीतिक वर्ग के रूप में संगठित होने से रोकते हैं। राजनीतिक वर्ग यानी वह वर्ग जो अपनी राज्यसत्ता, अपना शासन स्थापित करने के लक्ष्य को पूरा करने के प्रति सचेत और संगठित होता है। आज यह सर्वहारा वर्ग की पार्टी का ही काम है कि मज़दूरों को एक राजनीतिक वर्ग के रूप में संगठित करने के लिए उनके बीच हर उस मुद्दे को उठाये जो कि राजनीतिक महत्त्व रखते हैं।

आज हमें समझने की ज़रूरत है कि अपने इतिहास से कटकर हम अपने भविष्य का निर्माण नहीं कर सकते। असल में हर वर्ग अपनी विरासत को जिलाये रखता है ताकि उससे सीख सके और अपने भविष्य को गढ़ सके। आज मज़दूर वर्ग भी अपने देश काल के इतिहास से अनजान नहीं रह सकता। यदि वह भविष्य का रचयिता है तो उसे अपने अतीत से भी आलोचनात्मक सम्बन्ध रखना होगा।

इतिहास लेखन भी वर्ग संघर्ष का ही क्षेत्र है। इतिहास लेखन के ऊपर निश्चित वर्ग के दृष्टिकोण व विचारधारा का प्रभाव होता है। आज पूँजीपति वर्ग का नज़रिया जनता के बीच प्रभावशाली है। आज जनता को पूँजीवादी विचारधारा की ज़द से बाहर निकालने का कार्यभार भी सर्वहारा वर्ग और उसके अगुवा दस्ते का है। आज ज़रूरत है अतीत की पारम्परिक बुर्जुआ धारणा को चुनौती देते हुए जनता के पक्ष से लिखे गए इतिहास को आत्मसात करना और उससे सीखना। डी.डी. कोसाम्बी भी उन्हीं इतिहासकारों में आते हैं जिन्होंने जनता का पक्ष चुना। उनकी प्रतिबद्धता हमेशा से उस शोषित-उत्पीड़ित वर्ग के प्रति थी जिसने कि उन्हें वर्तमान को ध्यान में रखते हुए अतीत का विश्लेषण करने की पहुँच प्रदान की।  

डी.डी. कोसाम्बी वह नाम हैं जिन्होंने प्राचीन भारत के ऐतिहासिक भौतिकवादी इतिहास लेखन की नींव रखी। उससे पहले भारत का इतिहास लेखन मात्र घटनाओं के विवरण, राजाओं के क्रम निर्धारण, राजवंशों की स्थापना और साम्राज्य सीमा, प्रशासन, दरबारी लेखन और साम्राज्यवादियों के प्रचार और उसके ख़िलाफ़ किये गये राष्ट्रवादियों के प्रति-प्रचार तक ही सीमित था। भारत के प्राचीन इतिहास का तथ्यों के आधार पर एक वैज्ञानिक विश्लेषण करने का काम पहली बार कोसाम्बी ने किया। पारम्परिक अर्थों में इतिहासकार नहीं होने के बावजूद भी उन्होंने भारत के इतिहास लेखन की पद्धति पर एक गहरा  व स्थायी प्रभाव छोड़ा। उन्होंने ऐतिहासिक भौतिकवादी नज़रिये से भारत के इतिहास का वैज्ञानिक विश्लेषण पेश किया। उन्होंने मार्क्सवाद को एक जड़सूत्रवादी सिद्धान्त बनाये जाने का विरोध किया और मार्क्सवाद की वैज्ञानिक पहुँच और पद्धति को विश्लेषण के उपकरण के रूप में इस्तेमाल में लाया। यही कारण था कि वे भारत के इतिहास का एक वैज्ञानिक विश्लेषण पेश कर सके।    

डी.डी. कोसाम्बी असल में पेशे के बतौर एक इतिहासकार नहीं थे बल्कि गणितज्ञ थे, लेकिन  गणित के अलावा सांख्यिकी, भाषाशास्त्र, इतिहास और आनुवंशिकी में उनका बड़ा योगदान रहा है। यहाँ हम सिर्फ़ उनके इतिहास के क्षेत्र में दिये गये योगदानों पर चर्चा करेंगे। उन्होंने भारतीय इतिहास और संस्कृति के विभिन्न पहलुओं पर व्यापक शोध किया, जो 1940 के दशक की शुरुआत से सौ से अधिक लेखों के रूप में सामने आया। बाद में उन्होंने तीन पुस्तकों में अपने प्रमुख विश्लेषण को सुदृढ़ किया: ‘भारतीय इतिहास के अध्ययन का एक परिचय’ (1956), ‘मिथक और यथार्थ’ (1962) और ‘प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता: एक ऐतिहासिक रूपरेखा’ (1965)। उनकी ये रचनाएँ भारतीय अतीत के औपनिवेशिक वर्चस्व और राष्ट्रवादी महिमामण्डन पर मज़बूत चोट करती हैं।

अपनी किताब ‘भारतीय इतिहास के अध्ययन का एक परिचय’ (1956) में उन्होंने दर्शाया कि कैसे  उत्पादन सम्बन्धों और उत्पादक शक्तियों के बीच के अन्तरविरोध ने समाज को आगे विकसित किया। उत्पादन ही वह बुनियादी व्यवहारिक कारवाई है जो बाक़ी अन्य कारवाइयों को निश्चित करती है। उत्पादन के लिए संघर्ष के दौरान मनुष्य प्रकृति से एक निश्चित सम्बन्ध स्थापित करता है और चूँकि उत्पादन की कारवाई एक सामूहिक करवाई है तो इस प्रक्रिया में मनुष्य आपस में भी उत्पादक शक्तियों के विकास के अनुसार निश्चित सम्बन्ध स्थापित करते हैं। मार्क्सवाद की इस बुनियादी समझदारी को आधार बनाते हुए कोसाम्बी ने भारतीय इतिहास को व्यख्यायित किया। कोसाम्बी मार्क्स की ‘राजनीतिक अर्थशात्र की समालोचना में योगदान’ क़िताब की प्रस्तावना से काफ़ी प्रभावित थे जिसे उन्होंने कई जगह उद्धृत किया है। अपनी लेखनी में उन्होंने साफ़ रूप से दिखाया कि किस तरह महज़ आर्थिक कारकों से प्रस्थान करके आप ऐतिहासिक घटनाओं का विश्लेषण नहीं कर सकते। इसके साथ ही मार्क्सवाद को आर्थिक नियतत्ववादी समझदारी तक अपचयित करने की बात से वे इन्कार करते हैं। वे कहते हैं कि मार्क्सवाद उस आर्थिक नियतत्ववाद से बहुत दूर है जिसका आरोप मार्क्सवाद के विरोधी अक्सर उस पर लगाते हैं। वह ऐतिहासिक घटनाओं को समग्रता में देखते थे। उन्होंने मार्क्सवादी पद्धत्ति का बेहतरीन  इस्तेमाल कर दिखलाया कि किस तरह से सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक और धार्मिक कारक पलटकर आर्थिक मूलाधार को प्रभावित करते हैं, हालाँकि इतिहास में अन्तत: भौतिक जीवन का उत्पादन व पुनरुत्पादन निर्धारक भूमिका निभाता है।

सटीकता से कहें तो अपने इतिहास लेखन में उन्होंने दिखाया कि किस प्रकार विचारधारात्मक अधिरचना, यानी राजनीति, विचारधारा व संस्कृति की संरचनाएँ पलटकर मूलाधार यानी उत्पादन सम्बन्धों के कुल योग को प्रभावित करती है। उन्होंने एक तरफ़ सांस्कृतिक आयामों से राजनितिक ढाँचे के सम्बन्ध को स्पष्ट करने की कोशिश की वहीं दूसरी तरफ़ उन्होंने संस्कृति के विभिन्न पहलुओं पर शोध अध्ययन किया। पुरातात्विक कार्य की इतिहास के निर्माण में ज़रूरत को समझते हुए उन्होंने स्वयं बहुत मूल्यवान पुरातात्विक कार्य किये। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि पुरातात्विक सामग्री का एक सार्थक उपयोग केवल तभी सम्भव था जब यह न केवल पारम्परिक लिखित अभिलेखों के साथ बल्कि नृवंशविज्ञान डेटा के साथ भी सहसम्बद्ध हो, जो घटनाओं का एक विस्तृत विश्लेषण प्रदान करता है। पुरातात्विक स्रोतों को वे ख़ुद उस दौर के लोककथाओं, मौखिक परम्पराओं और मिथकों सहित नृशास्त्रीय डेटा से मिलाकर उसे सटीकता और सम्पूर्णता के साथ इस्तेमाल करते थे। किसी भी किस्म के निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले वे पर्याप्त साक्ष्य एकत्र करते थे और उसके आधार पर ही कोई सूत्रीकरण करते थे।

उनके लिए इतिहास कोई एकरेखीय गति में चलने वाली चीज़ नहीं थी बल्कि आन्तरिक अन्तरविरोध से विकसित होती एक ऐसी प्रक्रिया थी जिसमें कई आयाम एक दूसरे में गुँथे-बुने थे।

उन्होंने भारत के इतिहास लेखन में मौजूद साम्प्रदायिकता के अस्तित्व को और अतीत की साम्प्रदायिक और अन्धराष्ट्रवादी व्याख्याओं को सिरे से ख़ारिज किया। इतिहास के एक वैज्ञानिक विश्लेषण में आज भी इतिहास की ऐसी साम्प्रदायिक और अन्धराष्ट्रवादी व्याख्या रुकावट के बतौर मौजूद है और पहले से कहीं ज्यादा मौजूद है। कोसाम्बी के दौर में यानी स्वतन्त्रता के बाद के युग में राजनीतिक ताक़तों द्वारा प्रोत्साहित ऐसी व्याख्याएँ चलन में थीं। आज फ़ासीवादी ताक़तों द्वारा भी इतिहास की इन प्रकार की व्याख्यायों को व्यापक रूप से फैलाया जा रहा है जहाँ अतीत का महिमामण्डन किया जाता है, अन्य देशों से प्राप्त सांस्कृतिक, बौद्धिक, वैज्ञानिक और तकनीकी विचारों को पूर्ण रूप से ख़ारिज किया जाता है, भारतीय इतिहास के मध्ययुगीन काल यानी सल्तनत काल और मुगल काल को पतन के युग के रूप में पेश किया जाता है, मध्ययुगीन काल को साम्प्रदायिक दंगे व फ़साद से भरे काल के रूप प्रस्तुत किया जाता है, जो कि सरासर झूठ है। इतिहास का कोई भी गम्भीर विद्यार्थी जानता है कि भारत में साम्प्रदायिकता अंग्रेज़ों के दौर में औपनिवेशिक सत्ता द्वारा हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मदद से पैदा की गयी थी। हर वह टकराव जो दो धर्मों के लोगों के बीच होता है, वह दंगा या साम्प्रदायिकता नहीं होता। इस प्रकार के साम्प्रदायिक इतिहासलेखन का जवाब कोसाम्बी ने पहले ही अपने एक समीक्षा लेख  ‘व्हाट कॉन्स्टीट्यूट्स इण्डियन हिस्ट्री?’ (भारतीय इतिहास क्या है?) में दिया था। कोसाम्बी राष्ट्रवादी या साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों को बढ़ावा देने की अनुमति नहीं देते थे। यह बात विशेष रूप से भारतीय विद्या भवन द्वारा तीन खण्डों में निकाली गयी किताब की उनकी आलोचनात्मक समीक्षा में सामने आयी।

आज भी जिस तरीक़े से फ़ासीवादी सत्ता द्वारा इतिहास को विकृत करके जनता के सामने पेश करने की कोशिश हो रही है ताकि जनता के बीच  साम्प्रदायिकता का ज़हर घोला जा सके, ऐसे में कोसाम्बी की लेखनी बेहद महत्त्व रखती है। आज ज़रूरत है आम मेहनतकश जनता को अपने देश के इतिहास के ऐसे वैज्ञानिक विश्लेषणों से परिचित करवाने की ताकि उन्हें फा़सीवादियों के झूठे प्रचार की ज़द में आने से रोका जा सके। आज ज़रूरत है जनता को  सही मायने में तथ्यों और उनके वैज्ञानिक विश्लेषण पर आधारित इतिहास से परिचित करवाने की। कोसाम्बी इस सन्दर्भ में एक बेहद ज़रूरी स्थान रखते हैं और आज इसी रूप में उन्हें याद किया जा सकता है कि उन्होंने हमेशा इतिहास की साम्प्रदायिक और अन्धराष्ट्रवादी व्याख्याओं का अपनी लेखनी के ज़रिये मुकाबला किया और जनता के पक्ष से लिखे गए इतिहास को स्थापित किया।

मज़दूर बिगुल, जून 2023


 

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