आपस की बात

देश के मज़दूर हैं

देश के मज़दूर हैं, बड़े मजबूर
मन में भरी कसक है, करने को कुछ विवश हैं
सपने ही गढ़ पाते, आगे बढ़ नहीं पाते,
बच्चे पढ़ नहीं पाते, कुछ वो कर नहीं पाते
रूखी-सूखी खाकर के, जीवन बिताते
रहते निगाहों में ख्वाब ही सजाते
होते न पूरे, जो अध्ूरे ही रह जाते।
मगर पार्टियों में, मालिक हैं नोट लुटाते
दया नहीं दिलों में, होते हैं क्रूर
देश के मज़दूर हैं बड़े मजबूर।
बढ़ो एक साथ, मिलाओ अब हाथ,
दे दो जवाब, बोलो इंकलाब,
सही मेहनताना दे दो, हमें अपने काम का
दिलासा नहीं चाहिए, किसी भी नाम का,
लिख के दे देती है, कोई भी सत्ता,
मिलता नहीं पिफर भी, मँहगाई भत्ता,
बिना मज़दूर के मालिक अध्ूरे
जिनके बिना काम होंगे न पूरे।
मेहनत हैं करते, दिन भर भरपूर
फिर भी मजबूर, देश के मज़दूर
 

ये है हमारा मज़दूरों का एक दल

ये है हमारा मज़दूरों का एक दल,
टूटे बिखरों में नहीं, होता एकता में बल।
कल-कल करते रहकर हम, पीछे हटते जाते हैं,
अपने अध्किरों से हम, वंचित ही रह जाते हैं।
रोटी कपड़ा से बढ़कर, कुछ और ना कर पाते हैं,
अपने नन्हें बच्चों को भी, काम पर लगते हैं,
 कम मज़दूरी के कारण ही, ज्यादा ना पढ़ पाते हैं।
 और हमारे जैसे ही, एक मज़दूर बन जाते हैं।
 कब तक जीते जायेंगे हम, मजबूरी का ये जीवन,
और भी कुछ करने को, क्या करता नहीं हमारा मन,
अपने भी कुछ सपने हैं, अपने भी कुछ अरमां हैं,
लेकिन बनकर रह जाते हैं, केवल खाली सपना हैं।
आओ मिलकर एक साथ, अब आगे बढ़कर आयेंगे,
और मालिकों से अपना हक, लेकर के दिखलायेंगे।
नहीं मानते हैं वो, तो काम बन्द कर जायेंगे
उनकी तानाशाही पे ना, अपना शीश झुकायेंगे।
कभी तो होगा पूरा, अपना कार्य अधूरा
कभी तो होंगे कल, हम मज़दूर सफल।।

– एक मज़दूर परिवार (पवन शर्मा (गुडडू) तथा सरस्वती शर्मा, करावल नगर, दिल्ली-94)

मैं बिगुल का नियमित पाठक हूँ। मुझे बिगुल के लेख बहुत अच्छे लगते हैं। यह अखबार बहुत सराहनीय काम कर रहा है। नकली कम्युनिस्टों के असली चरित्र के बारे में बिलकुल सच बताया जाता है। मज़दूर इतिहास के बारे में और कार्ल मार्क्स द्वारा लिखित मज़दूरों के अपने श्रम से अलगाव के बारे में लेख मुझे काफी अच्छे लगे।

– रामप्रकाश, गोरखपुर

अगर हम अपने अधिकारों को जानते हैं और एकजुट हो उसके लिए लड़ने को तैयार हैं तो इतिहास इस बात का गवाह है कि बड़ी से बड़ी ताकत को भी हमने घुटने टेकने को मजबूर किया है। इसलिए मैं हमेशा अपने मजदूर साथियों से कहता हूँ कि अगर हम पान, बिड़ी, गुटके पर रोज 5-10 रुपए खर्च कर सकते हैं तो क्या हम महीने में एक बार दस रुपए खर्च कर बिगुल अखबार नही पढ़ सकते जो हमारी माँगों और अधिकारों की लड़ाई लड़ रहा है। इसलिए साथियों भले ही अपने वेतन में हर महीने कुछ कटौती करनी पड़े लेकिन जिस उद्देश्य को लेकर यह अखबार निकाला जा रहा है, उसमें हमें भी अपना सहयोग जरूर देना चाहिए।

– एजाज़, वापी, गुजरात

 

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2024


 

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