अमर शहीद चन्द्रशेखर आज़ाद की क्रान्तिकारी विरासत को आगे बढ़ाओ!

विशाल

दोस्तो, इसी फ़रवरी महीने की 27 तारीख़ को सन 1931 में चन्द्रशेखर आज़ाद अंग्रेजों से लड़ते हुए शहीद हुए थे। उन्होंने शपथ ली थी कि वे जीते जी अंग्रेजों के हाथ नहीं आएँगे और हुआ भी यही कि वे अपनी आख़िरी साँस तक कभी पकड़े नहीं गये। इलाहाबाद के अल्फ़्रेड पार्क में जब उन्हें चारों तरफ़ से अंग्रेज़ पुलिस के सिपाहियों ने घेर लिया तब वह क़रीब घण्टेभर उनसे लड़ते रहे और अन्त में जब गोलियाँ ख़त्म हो गयीं तो आख़िरी गोली से उन्होंने खुद को मार लिया और शहादत दी।

एक ऐसे दौर में जब क्रान्तिकारियों की विरासत को आम जन तक पहुँचने ही नहीं दिया जा रहा है, तो चन्द्रशेखर आज़ाद को याद करने का सही अर्थ यही होगा कि हम उनके जीवन, उनके संघर्ष और ख़ासकर उनके विचारों को आम लोगों तक लेकर जायें।

आज़ाद के जीवन के बारे में उनके साथी क्रान्तिकारी भगवान दास माहौर ‘यश की धरोहर’ में लिखते हैं कि “आज़ाद का जन्म हद दर्जे की ग़रीबी में हुआ था। वे किसी बड़े बाप के बेटे न थे। उनके पिता पं. सीताराम तिवारी मूलत: उत्तर प्रदेश के जिला उन्नाव के ग्राम बदरका के रहने वाले थे और संवत् 1956 (1899) में देशव्यापी अकाल के समय जीविकोपार्जन के लिए घर से निकल कर भावरा में सरकारी बाग़ की रखवाली का काम करने लगे थे। वेतन पाँच रुपया मिलता था जिस पर ही वे अपनी पत्नी और एक बच्चे का (आज़ाद के सबसे बड़े भाई शुकदेव, जो बदरका में ही पैदा हुए थे) पेट पालते थे। उनका यह वेतन बढ़कर बाद में आठ रुपये मासिक तक हो गया था। आज़ाद का जन्म भावरा में ही ही टूटी-फूटी बाँस के टट्टरों में हुआ था। पिता जी कुछ विशेष पढ़े-लिखे न थे। माता जी तो बिल्कुल निरक्षर ही थीं। आज़ाद बचपन से ही तेजस्वी, कर्मशील और नटखट थे। ग्राम में पास-पड़ोस के लड़कों में तो वे नेता स्वभावत: ही बन गए थे। अपने नटखटपने के कारण वे प्राय: अपने पिता के कोप-भाजन बनते थे। जिनकी चार सन्तानें मर चुकी हों ऐसी माता के वे लाडले थे ही।…एक दिन किसी बात पर पिता से मार खाकर आज़ाद घर से भाग निकले…उन दिनों सन 20-21 का सत्याग्रह आन्दोलन चल रहा था। बालक आज़ाद उसके प्रति आकर्षित हुए और बढ़- चढ़ कर काम करने लगे। नेताओं का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट हुआ। सत्याग्रह आन्दोलन में अपनी कम उम्र के कारण उन्हें बेतों की सज़ा मिली जो उन्होंने बड़ी बहादुरी से भुगती तथा श्रीप्रकाश जी से उन्होंने ‘आज़ाद’ उपनाम पाया। सन् 20-21 का सत्याग्रह समाप्त हो जाने के बाद काशी में श्री मन्मथनाथ गुप्त आदि के सम्पर्क से वे गुप्त क्रान्तिकारी दल में सम्मिलित हुए। अमर शहीद पं. रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ के नेतृत्व में उन्होंने काकोरी ट्रेन काण्ड में भाग लिया और सन् 1925 में काकोरी षडयन्त्र केस से फ़रार होकर झाँसी आये। झाँसी और ओरछे के बीच सातार नदी के किनारे पर एक कुटिया में वे हरिशंकर ब्रह्मचारी बन कर रहे। यहीं से उन्होंने दल के छिन्न-भिन्न सूत्रों को फिर से जोड़ लिया और क्रान्तिकारी दल के नेता के रूप में अमर शहीद भगतसिंह आदि से मिलकर उन्होंने उस दल  का संगठन और संचालन किया जिसके प्रमुख कार्य लाहौर में लाला लाजपतराय पर लाठी चार्ज करने वाले ए.एस.पी. साण्डर्स का वध, दिल्ली की असेम्बली में बम विस्फोट तथा वायसराय की गाड़ी के नीचे बम विस्फोट करना थे। सन 1931 की फरवरी की 27 तारीख़ को वे इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में पुलिस से एकाकी युद्ध करते हुए शहीद हुए।”

परन्तु आज़ादी के इतने सालों बाद आज इस फ़ासीवादी दौर में जब ‘चन्द्रशेखर आज़ाद’ और ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ की विरासत को भुला देने की साज़िशें की जा रही हैं तब ऐसे समय में आज़ाद को उनके 94वें शहादत दिवस पर याद करने का हमारा मक़सद यही है कि हम उनके सपनों को पूरा करने के लिए उठ खड़े हो! आज़ाद ने एक ऐसे इंक़लाब का सपना देखा था, और एक ऐसे समाज के लिए लड़ रहे थे ‘जहाँ इन्सान द्वारा इन्सान का शोषण ख़त्म हो जाये, जो लोग सुई से लेकर जहाज तक सब कुछ बनाते है उनके लिए ही सारी सम्पदा हो,उनका ही राजकाज हो!’ आज़ाद और उनके साथी महज़ अंग्रेज़ों से आज़ादी नहीं चाहते थे, बल्कि हर प्रकार की लूट और शोषण से आज़ादी चाहते थे। आज के समय में मज़दूरों और युवाओं को आज़ाद से जो एक बात सीखनी होगी वह है इस उसूल में यक़ीन की मज़हब-धर्म सबका निजी मसला है। इसका आपके सामाजिक जीवन और राजनीति से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए। जैसा कि आज़ाद के साथी शहीदे-आज़म भगतसिंह ने साफ़ कहा था, धर्म पर हम अलग-अलग व्यक्तिगत आस्था रख सकते हैं, या हम नास्तिक हो सकते हैं, इसके बावजूद हमारी राजनीति हमारे वर्गीय हितों से तय होती है। मज़दूरों का एका मज़दूरों-मेहनतकशों से बनता है; पूँजीपतियों, व्यापारियों, दलालों का एका पूँजीपतियों, व्यापारियों, दलालों से बनता है। न तो सारे पूँजीपति धर्म पर एक निजी आस्था वाले हो सकते हैं, और न ही मज़दूर-मेहनतकश धार्मिक तौर पर एक आस्था वाले हो सकते हैं, इसकी कोई आवश्यकता भी नहीं है। मज़दूर कमज़ोर इसलिए पड़ते हैं, कि पूँजीपति आपस में तो धर्म को अपनी लूट के आड़े नहीं आने देते, लेकिन मज़दूरों को वे मन्दिर-मस्जिद पर लड़ाकर बाँट देते हैं, ताकि उन पर राज कर सकें। आज मोदी सरकार अपने साम्प्रदायिक फ़ासीवादी षड्यन्त्रों के ज़रिये यही तो कर रही है। आज़ाद को सच्चा इंक़लाबी सलाम तभी पेश किया जा सकता है, जब आज की लुटेरी ज़ालिम सरकार के खिलाफ़ संघर्ष का बिगुल फूँका जाय।

आज़ाद का सपना आज भी पूरा नहीं हुआ है। जिस “बाँटो और राज करो” कि नीति के ख़िलाफ़ उनकी लड़ाई थी उसी नीति को आज हमारे देश के हुक्मरान इस्तेमाल कर लोगों को बाँटने और लड़वाने का काम कर रहें है। जिस आज़ादी के सफ़ीने को बढ़ते जाना था वह आज ठहराव का शिकार है। हमारे चारों तरफ़ फैले इस ठहराव और निराशा को दूर करने के लिए आज युवाओं और मेहनतकशों को आगे आना होगा और एक बार फ़िर लोगों की रूह में क्रान्ति की स्पिरिट को ताज़ा करना होगा।

शहादत थी हमारी इसलिये कि
आज़ादियों का बढ़ता हुआ सफ़ीना
रुके एक पल को
मगर ये क्या? ये अँधेरा!
ये कारवाँ रुका क्यों है?
चले चलो कि
अभी काफ़िलाइंक़लाब को
आगे, बहुत आगे जाना है…”

 

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2024


 

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