पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में दिमागी बुखारः 35 वर्ष से जारी है मौत का ताण्डव

डॉ. अमृतपाल

पूरे देश के लिए जहाँ मानसून अच्छी फसल की उम्मीद लेकर आती है, वहीं पूर्वी उत्तरप्रदेश के गोरखपुर, कुशीनगर, देवरिया तथा बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर, गया ज़िलों और उनके आसपास के इलाके के लिए मानसून मौत की काली परछाईं अपने पीछे लेकर आती है। दिमागी बुखार की बीमारी 1978 से लगातार हर साल मानसून के साथ मौत बनकर इन इलाकों में आती है और घरों में छोड़ जाती है बच्चों की लाशें और रोते-बिलखते माँ-बाप! हर साल इन इलाकों में यह बीमारी सैकड़ों लोगों को जिनमें 2-15 वर्ष की आयु के बच्चे ही ज़्यादा होते हैं, निगल जाती है और इससे कई गुना ज़्यादा को सारी उम्र के लिए अपंग बना देती है।

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इस साल यानि 2013 में अक्टूबर महीने के पहले सप्ताह तक, अलग-अलग रिपोर्टों के मुताबक सिर्फ उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और आसपास के इलाकों में ही 350-500 मौतें हो चुकी है और 2,000 से ऊपर लोग जिनमें अधिकांश बच्चे हैं, इस बीमारी का शिकार हो चुके हैं। यह बीमारी नवम्बर महीने के आख़िर तक चलती है, इस तरह अभी बीमारी के दो महीने बाकी हैं और मौतों तथा मरीज़़ों की संख्या और बढ़ेगी। ये सरकारी आँकड़े हैं, मतलब ये वे मौतें है जो सरकारी अस्पतालों में हुई हैं। कितने लोग प्राइवेट अस्पतालों में मरे और प्राइवेट अस्पतालों में भर्ती हैं, तथा कितने लोग अपने घरों-गाँवों में बिना इलाज के मर गये हैं, इनकी अभी कोई गिनती नहीं है, और यह गिनती कभी होती भी नहीं है। बिहार में भी स्थिति यही है, वहाँ भी मौतों की संख्या 100 से ऊपर है। पिछले साल, 2012 में भी यही कहानी थी। उत्तरप्रदेश में मौतों की संख्या 500 से ऊपर थी और बिहार में 250 से ज्यादा लोग इस बीमारी से मौत के मुँह जा पड़े थे। हर साल यही कहानी दुहराई जाती है। अगर 1978 से लेकर अब तक मौतों की बात करें तो सरकारी आँकड़ों के मुताबिक ही लगभग 35,000 मौतें हो चुकी है। मगर, गैर-सरकारी स्रोतों के मुताबक मौतों की संख्या 50,000 से भी ज़्यादा है। मगर सबसे बड़ी बात यह है कि ये बीमारी से होने वाली मौतें नहीं, असल में यह तथाकथित चुनी हुई सरकारों और पूँजीवादी व्यवस्था के हाथों आम लोगों की सामूहिक हत्या है, क्योंकि चिकित्सा विज्ञान इस बीमारी के इलाज और रोकथाम में पूरी तरह सक्षम है। अगर सरकारें ऐसा करना चाहतीं तो हज़ारों मासूम बच्चों की बलि चढ़ने से रोकी जा सकती थी। सरकारों के लिए यह आज तक गम्भीर सवाल नहीं बना क्योंकि इस बीमारी से मरने वाले लगभग सभी लोग ग़रीबों के घरों के होते हैं। जिनके पास पैसे से अच्छा इलाज ख़रीद लेने की सुविधा है, वे अगर बीमारी की चपेट में आ भी गये, तो बच जाते हैं।

सरकारों के अपराध को छिपाने के लिए ही, इस बीमारी को हर साल “रहस्यमय बीमारी” कह दिया जाता है, हालाँकि इस बीमारी के बारे में बहुत कुछ ज्ञात है! 2005 तक दिमागी बुखार का मुख्य कारण जापानी बी एन्सेफलाइटिस वायरस था जो मच्छर के काटने से फैलता है, मगर 2005 के बाद इससे होने वाले दिमागी बुखार के मामलों में कमी आयी बतायी जा रही है (वैसे यह सरकारी बयान है)! 2005 के बाद होने वाले ज़्यादा मामले पानी और भोजन से फैलने वाले वायरस के कारण माने जा रहे हैं! एक तीसरा वायरस भी इस बुखार का कारण माना जा रहा है, जिसकी पिछले आठ वर्ष से पहचान ही नहीं हो पायी है!! जापानी बी एन्सेफलाइटिस के लिए वैक्सीन की खोज बहुत पहले हो चुकी है! जापान ने 1930 के दशक में ही इसकी वैक्सीन बना ली थी और लगातार वैक्सीन लगाने के अभियान चलाकर इस बीमारी को काबू में कर लिया था। लेकिन भारत में 2005 में भी इसी वायरस की वजह से 1000 से ऊपर मौतें हुईं, जबकि अब 1930 की वैक्सीन से कहीं बेहतर वैक्सीन वैज्ञानिक बना चुके हैं। इसके अलावा, आम लोगों में मच्छरों से बचाव की जानकारी का प्रचार करके बीमारी को काबू में किया जा सकता है। मच्छरदानी लगाकर सोना, मच्छरों के पलने की जगहों, जैसे रुका हुआ पानी, अँधेरे कोनों की सफाई, और मच्छरों को मारने के लिए दवा का छिड़काव आदि कई तरीके हैं जिनसे बीमारी को रोका जा सकता है। दूसरी किस्म के वायरस से होने वाले दिमागी बुखार को पीने के लिए साफ-स्वच्छ पानी के प्रबन्ध से बड़ी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। इसके साथ ही घरों में भोजन तथा पानी को रखने के तरीकों के बारे में आम लोगों को जानकारी देना भी ज़रूरी है। साथ ही साथ, बीमार होने वाले लोगों के लिए मानसून शुरू होने से पहले बाकायदा स्वास्थ्य सुविधाओं का पुख्ता प्रबन्ध करने से मरीज़़ों की जान बचायी जा सकती है। मगर यह सब तभी सम्भव है अगर सरकारों का आम लोगों की तरफ कोई ध्यान हो।

 “दलित की बेटी” मायावती की सरकार एक पार्क बनाने पर 685 करोड़ रुपये खर्च करती है, लेकिन जिस बीमारी से इतने लोग मौत के मुँह में जाते हैं उसके इलाज तथा फैलने से रोकने के लिए उसी साल में महज़ 18 करोड़ रुपये का बजट देती है! “समाजवादी” अखिलेश यादव का भी यही हाल है। पिछले साल ये महोदय ऐलान करके आए थे कि गोरखपुर में इस बीमारी के इलाज के लिए करोड़ों की लागत से ‘एडवांस’ केन्द्र स्थापित किया जायेगा, मगर हालत इस साल फिर वही है, गोरखपुर के मेडिकल कालेज में एक-एक बेड पर 3-3, 4-4 बच्चे लेटे हैं। जब मेडिकल कालेज में यह हाल है तो गाँवों-देहात में स्वास्थ्य ढाँचे का क्या हाल होगा, सोचा ही जा सकता है। 2011 में केन्द्रीय स्वास्थ्य मन्त्री गुलाम नबी आज़ाद गोरखपुर पधारे और आनन-फानन में इस बीमारी को रोकने के लिए 4000 करोड़ रुपये देने का ऐलान कर गये। दो साल बीत चुके हैं, 4000 करोड़ का क्या हुआ, किसी को कुछ पता नहीं!! अब, बिहार के विकास पुरुष “नीतीश बाबू” की बात कर लें। ये जनाब तो केन्द्र सरकार की तरफ से भेजे गए फंड को भी इस्तेमाल करने में भी असमर्थ हैं और हर साल ऐलान करते हैं कि अगले साल तक बीमारी को पूरी तरह काबू में कर लिया जायेगा। बीमारी हर साल कहर बरपा करती है मगर इस मामले में “सुशासन” बाबू भी उतने ही ढीठ हैं जितने लालू जी थे। फिर शुरू होती है ‘राजनीति’, राज्य सरकारें केन्द्रीय सरकार पर इलज़ाम लगाती हैं और केन्द्रीय सरकार राज्य सरकारों पर, मगर आम लोग हर साल वैसे ही मरते रहते हैं। बात साफ है कि इस लुटेरी पूँजीवादी व्यवस्था में आम मेहनतकश लोग नेताओं, अफसरशाही के लिए सिर्फ ऐसी “भीड़” हैं जो खेतों में अपनी उम्र खपाकर अमीरों का पेट भरने के लिए अनाज पैदा करते हैं, या फिर मशीनों के पुर्जे़ हैं जो मुनाफ़ा कमाने का जरिया हैं, और या फिर ग़ुलाम हैं जो अमीरों के घरों में साफ-सफाई करते हैं तथा उनकी हर तरह से सेवा करते हैं। इस भीड़ से, मशीन के पुर्जों से, ग़ुलामों में से दो-चार हज़ार मर जायें या अपंग हो जायें, तो इससे पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी यानि “लोकतांत्रिक” सरकार को कुछ फर्क नहीं पड़ता, चाहे वह किसी भी पार्टी की हो। हाँ, अमीरों के शहरी इलाकों की सुन्दरता का पूरा ख्याल करना इनका असली काम है। ग़रीबों, आम लोगों के इलाकों में फैलती बीमारियों को रोकने का अगर ये थोड़ा-बहुत इन्तज़ाम करते भी हैं, तो इसलिए नहीं कि इनको आम लोगों की फिक्र सता रही होती है, बल्कि तब करते हैं कि जब इन बीमारियों के ज़्यादा फैलने से अमीरों की मुलायम चमड़ी पर मच्छर का डंक लगने का ख़तरा खड़ा हो जाता है।

 

मज़दूर बिगुलअक्‍टूबर  2013

 


 

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