रहे-सहे श्रम अधिकारों के सफ़ाये की तेज़ होती कोशिशें

बीती 26 सितम्बर को अखबारों में एक खबर प्रकाशित हुई कि केन्द्र सरकार तेल कम्पनियों को समन्दर में चल रहे काम के लिए आठ घण्टे दिहाड़ी और साप्ताहिक कम से कम एक छुट्टी से सम्बन्धित कानून लागू करने की मज़बूरी से आजाद करने जा रही है। इसके लिए सरकार संसद में कोई कानून पास नहीं करेगी बल्कि एक कार्यकारी आदेश जारी करके ऐसा किया जायेगा। नए नियम के मुताबिक तेल कम्पनियाँ समन्दर में चल रहे कामों में लगे मज़दूरों के काम के घण्टे और साप्ताहिक छुट्टी सम्बन्धी नियम खुद तय कर सकेगी। यह बदलाव इस बहाने से किया जा रहा है कि समन्दर पर काम कर रहे मज़दूरों के लिए हर सप्ताह काम की जगह छोड़कर जाना सम्भव नहीं होता और साप्ताहिक छुट्टी का उन्हें कोई फायदा नहीं होता क्‍योंकि उनके परिवार वहाँ नहीं होते। पहली बात तो यह कि आराम, मनोरंजन और अन्य कामों के लिए मज़दूरों को रोजाना समय मिलना चाहिए और साप्ताहिक तौर पर कम से कम एक छुट्टी मिलनी ही चाहिए। साप्ताहिक छुट्टी की जरूरत सिर्फ परिवार के साथ समय बिताने के लिए ही नहीं होती। दूसरी बात यह कि मज़दूरों के लिए छुट्टी बिताने की कम्पनी द्वारा व्यवस्था की जानी मज़दूरों का एक मानवीय अधिकार है और ऐसा करना तेल कम्पनियों के लिए कोई मुश्किल काम भी नहीं है। इन बेसिर-पैर के बहानों के तले सरकार तेल कम्पनियों के मज़दूरों पर काम का बोझ अमानवीय हद तक लादने को कानूनी जामा ही पहनाने जा रही है। असल में तो ये कम्पनियाँ पहले ही कानूनों की अवहेलना कर रही हैं। जो पहले से हो रहा है, अब तो बस उसे कानूनी मान्यता देने की कवायद हो रही है।

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इस देश में बहुत ही कम मज़दूरों को कानून श्रम अधिकारों का लाभ मिल रहा है। देश में 93 प्रतिशत मज़दूर वे हैं जो गैर-रस्मी क्षेत्र में काम करते हैं यानि इन मज़दूरों को कानूनी श्रम अधिकार हासिल नहीं हैं। देश भर में पूँजीपतियों द्वारा आठ घण्टे कार्यदिवस, न्यूनतम वेतन, ई.पी.एफ., ई.एस.आई., साप्ताहिक, त्योहारों, बीमारी आदि से सम्बन्धित छुट्टियों, विभिन्न तरह के भत्तों, कारखानों में हादसों व बीमारियों से बचाव के लिए सुरक्षा इंतजाम, हादसे या बीमारी की सूरत में मुआवजा, स्त्री मज़दूरों के अधिकारों आदि सम्बन्धी श्रम कानूनों को लागू नहीं किया जा रहा। श्रम कानून भले ही ठेके पर काम करने वाले मज़दूरों से सम्बन्धित हों, भले ही खदानों में काम करने वाले मज़दूरों से सम्बन्धित, या भले ही दुकानों पर काम करने वाले मज़दूरों से सम्बन्धित हों हर तरह के श्रम कानूनों की पूँजीपति सरेआम धज्जियाँ उड़ा रहे हैं। देश में बनाए जा रहे विशेष आर्थिक क्षेत्रों में कानूनी तौर पर पूँजीपतियों की श्रम कानून लागू न करने की छूट है। असल में तो पूरा देश ही एक विशेष आर्थिक क्षेत्र बन चुका है।

लेकिन पूँजीपति अपने रास्ते से सारी अड़चनें हटा देना चाहते हैं। उन्हें कागजों पर रह गए श्रम कानून भी चुभ रहे हैं। आज देश के कोने-कोने से मज़दूरों द्वारा श्रम कानून लागू करने की आवाज उठ रही है हालांकि संगठित ताकत की कमी के कारण मज़दूर मालिकों और सरकारी ढाँचें पर पर्याप्त दबाव नहीं बना पाते। पूँजीपतियों को श्रम विभागों और श्रम न्यायालयों में मज़दूरों द्वारा की जाने वाली शिकायतों और केसों के कारण कुछ परेशानी झेलनी पड़ती है। इन कारणों से पूँजीपति वर्ग मज़दूरों के कानूनी श्रम अधिकारों का ही सफाया कर देना चाहता है।

पिछली सदी के अन्तिम दशक की शुरुआत के साथ भारत में उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण की नई आर्थिक नीति की शुरूआत हुई। ये ऐसा समय था जब विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था संकट से जूझ रही थी। विश्व पूँजीवाद के साथ साथ भारतीय पूँजीपतियों के मुनाफे भी सिकुड़ चुके थे। विकसित पूँजीवादी देशों के पूँजीपति वर्ग को जहाँ कच्‍चे माल, सस्ती श्रम शक्ति और विशाल मण्डियों की जरूरत थी वहीं भारत के पूँजीपति वर्ग को इन चीजों के साथ साथ उन्नत तकनीक और विदेशी पूँजी की जरूरत भी थी। पूँजी के निवेश के लिए देसी-विदेशी पूँजीपति वर्ग की यह फौरी जरूरत थी कि भारत में कानूनी श्रम अधिकारों को खत्म करके मुनाफे की राह से रूकावटें हटाई जाएँ। संवैधानिक स्तर पर उस समय ऐसा कर पाना सम्भव नहीं था। लेकिन कार्यस्थलों पर श्रम कानून लागू न करने की नीति अपनाई गई। श्रम विभागों और श्रम न्यायालयों में जजों, अधिकारियों तथा अन्य कर्मचारियों की संख्‍या घटाई जानी शुरू हो गई। भाकपा और माकपा जैसी संशोधनवादी कम्युनिस्ट पार्टियों की अगुवाई वाली ट्रेड यूनियन लीडरशिप द्वारा मज़दूर आन्दोलन के साथ गद्दारी के कारण पूँजीपतियों की राह काफी आसान रही। इन ट्रेड यूनियनों में जहाँ कहीं कुछ ईमानदारी रही भी है वहाँ भी पूँजीपतियों के नए हमले के खिलाफ जुझारू ढंग से पेश आने के हौंसले की कमी रही। मज़दूर वर्ग के स्वयंस्‍फूर्त आन्दोलन पूँजीवादी हुक्‍मरानों के संगठित हमले का मुकाबला न तो कर पाए और न ही कर सकते थे। मज़दूर आन्दोलन पूँजीवादी हुक्‍मरानों की नई आर्थिक नीतियों की रफ्तार कुछ हद तक ही धीमी कर पाया है। अब जो स्थिति बनी है वह सबके सामने है।

 

मज़दूर बिगुलअक्‍टूबर  2013

 


 

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