घरेलू मज़दूरों के निरंकुश शोषण पर एक नज़र

राजकुमार

गुड़गाँव में एक मकान में रहने वाले किरायेदारों के यहाँ चोरी के शक़ में मकानमालिक ने घर पर बिजली का काम करने आये एक मज़दूर पर चोरी का इल्ज़ाम लगाकर उसके साथ मारपीट की और बाद में पुलिस बुलाकर उस मज़दूर को थाने ले गया। यह मज़दूर बिहार से आकर पिछले 15 वर्षों से घरों में खाना बनाने के साथ ही इलेक्ट्रीशियन का भी काम कर रहा है। इस वजह से शहर के कई लोग उसे जानते थे और उनके कहने पर अन्त में उसे छोड़ा गया। दिल्ली की एक पॉश कालोनी में एक डॉक्टर दम्पति अपने घर पर काम करने वाली झारखण्ड की एक किशोर उम्र लड़की को घर में बन्द करके विदेश चले गये। कई दिन बाद किसी तरह उसने पड़ोसियों को ख़बर की तो पुलिस ने उसे बाहर निकाला। ये कोई अनहोनी घटनाएँ नहीं हैं।

सम्पन्न व्यक्तियों के घरों में होने वाले किसी भी अपराध के लिए सबसे पहले घरेलू नौकरों या वहाँ काम करने वाले मज़दूरों पर ही शक़ किया जाता है। पुलिस भी उन्हें ही सबसे पहले पकड़ती है और अपराध क़बूलवाने के लिए पुलिस की बर्बर पिटाई से घरेलू मज़दूरों की मौत के अनगिनत उदाहरण हैं। मालिक भी बेख़ौफ़ अपना हक़ समझते हैं कि अपने घर में काम करने वाले कामगारों के साथ मनमाना सुलूक़ करें। कम उम्र के नौकरों को गर्म लोहे से दागने, बुरी तरह मारने-पीटने और स्त्री मज़दूरों के साथ बदसलूक़ी की घटनाएँ बहुत आम हैं। कुछ महीने पहले एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी द्वारा अपने घर में काम करने वाली एक बच्ची को चोरी के शक़ में यातनाएँ देकर मार डालने की बर्बर घटना अख़बारों में आयी थी।

पिछले 15-20 वर्षों में घरेलू काम में लगे असंगठित मज़दूरों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है, जो पूँजी की मार से देश के अलग-अलग हिस्सों से उजड़कर दिल्ली, गुड़गाँव, नोएडा, बेंगलोर, चेन्नई, मुम्बई, बड़ौदा जैसे महानगरों में आकर काम की तलाश करते हैं। ये मज़दूर बर्तन धोना, खाना बनाना, सफ़ाई करना, माली का काम, घरों में बिजली और प्लम्बर का काम, घरों के सुरक्षा गार्ड, ड्राइवर, बच्चों की देख-रेख जैसे अनेक काम करते हैं, और बड़ी मुश्क़िल से किसी तरह अपनी और परिवार की गुज़र-बसर करते हैं। इन कामों में ज़्यादातर बच्चे भी अपने माता या पिता के काम में हाथ बँटाते हैं। बड़ी संख्या में शहरों में लाकर बेचे गये अनेक बच्चे भी इस तरह के कामों में बँधुआ मज़दूरों की तरह खट रहे हैं।

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लगातार कम हो रहे रोज़गार के अवसरों के चलते उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, राजस्थान आदि राज्यों से लाखों-लाख ग़रीब मज़दूर और किसान परिवार उजड़कर रोज़गार की तलाश में महानगरों की ओर आ रहे हैं। पिछले 20-30 वर्षों के दौरान महानगरों में मध्यवर्गीय और उच्च मध्यवर्गीय आबादी की संख्या और सम्पन्नता में भारी बढ़ोत्तरी हुई है। इंजीनियर, डॉक्टर, पत्रकार, शिक्षक, मैनेजमेण्ट व मार्केटिंग के लोगों, दुकानदारों और निजी तथा सरकारी क्षेत्र के नौकरीपेशा लोगों की आमदनी लगातार बढ़ रही है। उनके लिए कमाई के दूसरे अवसर भी बढ़े हैं। इस नये मध्य वर्ग और आम ग़रीब आबादी के बीच का अन्तर लगातार बढ़ता जा रहा है और यह वर्ग भी अब घरेलू काम करवाने के लिए मज़दूरों की तलाश करता है।

बढ़ती महँगाई और बेरोज़गारी के चलते घरेलू काम करने वाली औरतों और बच्चों की संख्या बढ़ रही है। अब बहुत से पुरुष भी फै़क्टरियों में काम न मिलने के कारण घरों में काम करने लगे हैं। इन मज़दूरों की आमदनी का कोई स्थाई ज़रिया नहीं होता, और न ही मज़दूरी और काम के घण्टों का कोई नियम होता है। इनका वेतन और काम पूरी तरह से काम करवाने वाले मालिक परिवार की इच्छा पर निर्भर करता है, जिसके कारण ये लगातार एक जगह से दूसरी जगह काम बदलते रहते  हैं।

‘सोशल एलर्ट’ द्वारा 2008 में जारी रिपोर्ट के अनुसार भारत में लगभग 10 करोड़ महिलाएँ, बच्चे और पुरुष घरेलू काम करके आजीविका कमाते हैं। घरेलू काम करने वाली यह आबादी असंगठित मज़दूरों की उस आबादी का हिस्सा है जो भारत की कुल मज़दूर आबादी का लगभग 93 प्रतिशत है। घरेलू कामों में लगी यह मज़दूर आबादी सॉफ्टवेयर में काम करने वाले लोगों की संख्या से 50 गुना अधिक है। भारत में काम करने वाले कुल बच्चों में से 20 फ़ीसदी घरेलू काम करते हैं। घरेलू काम करने वाले 50 प्रतिशत बाल मज़दूरों की एक महीने की कमाई 1000 से 1500 रुपये होती है, जिनमें से ज़्यादातर को कोई भी छुट्टी नहीं मिलती है। इन बाल मज़दूरों में से 20 प्रतिशत से अधिक 5 से 14 साल उम्र के बच्चे हैं जिनसे मज़दूरी करवाना अपराध है, और जिन्हें संविधान मुफ्त शिक्षा देने की बात करता है। एक अन्य आँकड़े के अनुसार असंगठित मज़दूरों का यह क्षेत्र खेती और निर्माण के बाद सबसे बड़े व्यवसाय के रूप में सामने आया है और साल 2000 से लेकर 2010 तक इसमें 222 फ़ीसदी की वृद्धि हुई है।

बड़े महानगरों में कई निजी ठेका कम्पनियाँ भी बन चुकी हैं, जो गाँवों और छोटे शहरों से आने वाले बेरोज़गार लोगों की मजबूरी का फ़ायदा उठाती हैं। ये कम्पनियाँ परिवारों को ठेके पर घरेलू मज़दूर मुहैया करवाती हैं और इसके बदले ये काम कराने वालों से तगड़ी फ़ीस वसूलने के साथ-साथ मज़दूरों से भी भारी रक़म ऐंठ लेती हैं। कुछ एजेंसियाँ तो पहले महीने की पूरी तनख्वाह ही रख लेती हैं। कई एजेंसियाँ छोटे क़स्बों और गाँवों से मज़दूरों को अच्छी तनख्वाह और आराम के काम का लालच देकर महानगरों में ले आती हैं जहाँ आकर उन्हें पता चलता है कि वे ठगे गये।

हर तरह के घरेलू कामों में लगे मज़दूरों के लिए श्रम क़ानूनों और सामाजिक सुरक्षा का कोई मतलब नहीं है। उनकी हालत ग़ुलाम जैसी होकर रह जाती है। जिन पैसे वालों के घरों में ये काम करते हैं वे ख़ुद तो पैसे बढ़वाने और छुट्टी लेने के लिए सबकुछ करते हैं, लेकिन अगर काम करने वाले ने एक दिन भी छुट्टी कर ली या पैसे बढ़ाने की बात कर दी तो आसमान सिर पर उठा लेते हैं।

मज़दूर संगठनकर्ताओं के लिए यह एक महत्वपूर्ण चुनौती है कि इन असंगठित मज़दूरों को इनके अधिकारों के बारे में शिक्षित कैसे किया जाये, इनके बीच किस प्रकार रचनात्मक तरीक़े से राजनीतिक प्रचार कार्य करते हुये इन्हें संगठित किया जाये? इसकी शुरुआत उनके क़ानूनी अधिकारों के लिए करोड़ों की संख्या में मौजूद इस असंगठित मेहनतकश आबादी को यूनियनों में संगठित करने से होनी चाहिए। उनकी लड़ाई को फ़ैक्टरियों एवं अन्य असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले मज़दूरों के संघर्ष के साथ एकजुट करना होगा। साथ ही, व्यापक प्रचार कार्य के माध्यम से पूरे पूँजीवादी तन्त्र का भण्डाफोड़ करके उसकी सच्चाई को जनता के सामने लाना होगा, ताकि एक ऐसे समाज का निर्माण किया जा सके जिसमें मालिक और नौकर का भेद ही मिट जाये।

 

मज़दूर बिगुलअप्रैल 2012

 


 

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