तनख्वाह उतनी ही, मगर काम दोगुना

एक मज़दूर, लुधियाना

पूँजीपति ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए मज़दूरों से ज्यादा से ज्यादा काम लेने के तरीके निकालते रहते हैं। कभी वे मशीन की रफ्तार बढा देते हैं तो कभी प्रति मज़दूर मशीनों की संख्या बढ़ा देते हैं। पिछले दिनों लुधियाना की एक ट्रैक्टर पार्ट बनाने वाली फैक्ट्री में ऐसा ही हुआ। इसमें काम करने वाले कई किस्म के कारीगरों में एक हैं चूड़ी डालने वाले कारीगर। यह काम करने वाले कारीगर तनख्वाह पर काम करते हैं। पहले हर कारीगर एक मशीन चलाता था। प्रोडक्शन बढ़ाने के लिए मालिक ने फैसला सुनाया कि अब हर कारीगर दो मशीनें चलायेगा। मज़दूरों के अनुसार इस मशीन पर काम करते हुए हर मिनट के बाद नये पार्ट को चूड़ी डालने के लिए मशीन में रखना होता है। इसी एक मिनट पर मालिक की नज़र थी। मालिक के अनुसार बीच के समय में मज़दूर खाली रहता है, इस समय के दौरान वह दूसरी मशीन पर काम कर सकता है। मालिक की मुनाफे की हवस इतनी ज्यादा है कि वह चाहता है कि मज़दूर के हाथ कुछ सेकंडों के लिए भी खाली न रहें। जब दो मशीनों पर काम करना पड़ेगा तो प्रोडक्शन का टारगेट भी दोगुना हो जाएगा। अब मज़दूरों को दोगुनी मेहनत करनी पड़ेगी, मगर उनकी तनख्वाह उतनी ही रहेगी। क्योंकि मालिक मज़दूर को एक दिन की दिहाड़ी के पैसे देकर उसको एक तरह से खरीद लेता है, फिर वह उससे जितना चाहे काम करवा सकता है। मगर मज़दूरों से  बात करने पर सामने आया कि ऐसे मामलों को समझने के लिए उनकी चेतना बहुत पिछड़ी हुई है।

मज़दूरों में इस बात को लेकर गुस्सा है मगर वे इसका विरोध करने या तनख्वाह दोगुनी करने जैसी माँग करने की मानसिकता में नहीं हैं। कई मज़दूरों का कहना था कि वे किसी दूसरी जगह काम करने चले जायेंगे। कुछ मज़दूरों ने इससे निपटने के लिए मशीनों को ही ख़राब करने की योजना बना रखी थी, उनका कहना था कि वे एक ही मशीन चलायेंगे और दूसरी मशीन को ख़राब कर देंगे। जब तक मशीन ठीक हो पायेगी, तब तक उनकी शिफ्ट ख़त्म हो जायेगी। बाकी मज़दूर तो बिल्कुल हारे हुए लग रहे थे। उनके अनुसार इसमें कुछ नहीं किया जा सकता, मालिक जैसे कहेगा, करना ही पडेग़ा। एक-दो मज़दूर ऐसे भी थे जो विरोध करना चाहते थे मगर उनका कहना था कि जैसे ही वे इस बारे में फैक्ट्री में कोई बात शुरू करेंगे मालिक के चापलूस कुछ मज़दूर ही सब कुछ जाकर मालिक को बता देंगे और मालिक उन्हें काम से निकाल देगा। इससे अच्छा है कि या तो ख़ुद ही काम छोड़ दिया जाये या फिर सिर झुका के काम किया जाये। दूसरे दिन पता चला कि सुबह की शिफ्ट वाले कुछ मज़दूरों ने दो मशीनों पर काम करना चालू कर दिया जिसके चलते सभी मज़दूर मजबूर हो गये कि या तो काम करें या नौकरी से हाथ धोयें।

मज़दूरों को समझ लेना चाहिए कि एक जगह काम छोड़कर दूसरी जगह काम पकड़ लेने से इस लूट से उनका पीछा नहीं छूटेगा। क्योंकि भारत तो क्या दुनिया भर में कोई कारख़ाना ऐसा नहीं होगा जहाँ पर पूँजीपति मज़दूरों की मेहनत की लूट के लिए ऐसे हथकण्डे न अपनाते हों। और न ही मशीनें ख़राब करने से यह लूट ख़त्म हो सकती है। 200 साल पहले, जब मज़दूर अपने शोषण का कारण नहीं समझ पाते थे तो वे अपना गुस्सा मशीन पर निकालते थे। लेकिन जल्दी ही उन्हें समझ आ गया कि इससे उनकी हालत में कोई सुधार नहीं होने वाला। कुछेक मशीनें ख़राब होने से मालिक की सेहत पर ज्यादा असर नहीं होगा और कैमरे आदि के ज़रिए जब कुछ मज़दूर पकड़ लिये जायेंगे तो यह सिलसिला अपने आप ही ख़त्म हो जायेगा।

इस लूट का विरोध किया जा सकता है और इसे बन्द भी करवाया जा सकता है। मज़दूरों ने ऐसा किया है और आगे भी करते रहेंगे। मज़दूरों ने न सिर्फ फैक्ट्रियों में मेहनत की लूट पर नकेल डालने के लिए लड़ाइयाँ लड़ी और जीती हैं, बल्कि उन्होंने इस पूँजीवादी व्यवस्था का भी तख्ता पलटा है। इसके लिए हमें अपना इतिहास पढ़ना चाहिए और आज के समय में देश-दुनिया में चल रहे मज़दूरों के संघर्षों के बारे में जानना चाहिए। दूसरी बात आती है कि विरोध कैसे करें? कोई भी लड़ाई लड़ने से पहले सबसे ज़रूरी है आपस में एकता बनाना और संगठित होना, जिसके बिना कोई भी संघर्ष बेकार साबित होगा।

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2012


 

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