स्त्री मज़दूरों का संघर्ष श्रम की मुक्ति के महान संघर्ष का हिस्सा है

एलियानोर मार्क्‍स
अनुवाद: विजयप्रकाश सिंह

 

मज़दूर वर्ग के महान नेता और शिक्षक कार्ल मार्क्‍स की सबसे छोटी बेटी एलियानोर मार्क्‍स सोलह वर्ष की उम्र से ही अपने पिता के सेक्रेटरी की ज़िम्मेदारी उठाने लगी थीं और मज़दूर आन्दोलन तथा समाजवाद पर अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में उनके साथ भागीदारी करती थीं। कार्ल मार्क्‍स की मृत्यु के बाद उनकी अधूरी पाण्डुलिपियों को प्रकाशन के लिए तैयार करने में एलियानोर ने फ्रेडरिक एंगेल्स के साथ मिलकर काम किया। एलियानोर और उनके पति एडवर्ड अवेलिंग इंग्लैण्ड में समाजवादी आन्दोलन में सक्रिय थे। एलियानोर इंग्लैण्ड की सबसे अच्छी वक्ताओं के रूप में प्रसिद्ध थीं। 1886 में एलियानोर ने क्लेमेंटिना ब्लैक के साथ मिलकर स्त्री मज़दूरों को संगठित करने का काम शुरू किया। वे विमेन्स ट्रेड यूनियन लीग में भी सक्रिय थीं। लन्दन की एक बड़ी माचिस फैक्ट्री की स्त्री मज़दूरों की सफल हड़ताल संगठित करने में भी उन्होंने अपनी मित्र एनी बेसेण्ट की मदद की थी। उन्होंने ‘नेशनल यूनियन ऑफ गैस वर्कर्स एंड जरनल लेबरर्स’ संगठित करने में अहम भूमिका निभायी और गोदी मज़दूरों की हड़ताल में शामिल रहीं। एलियानोर ने वैज्ञानिक समाजवाद की अनेक वैचारिक पुस्तकों और कई प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियों का अंग्रेज़ी में बेहतरीन अनुवाद किया। उन्होंने मज़दूर आन्दोलन पर कई पुस्तकें और महत्वपूर्ण लेख लिखे जिनमें से कुछ हैं: ‘दि फैक्ट्री हेल’ (कारख़ाने का नर्क), ‘दि विमेन क्वेश्चन’ (स्त्रियों का प्रश्न), ‘अमेरिका में मज़दूर आन्दोलन’, ‘शेली का समाजवाद’ और ‘इंग्लैण्ड में मज़दूर आन्दोलन’। इस बार ‘स्त्री मज़दूर’ स्तम्भ में हम एलियानोर के कुछ लेखों के महत्वपूर्ण अंश प्रकाशित कर रहे हैं जो हमारे देश में स्त्री मज़दूरों को संगठित करने की समस्याओं और चुनौतियों के लिए आज भी बेहद प्रासंगिक हैं। – सम्पादक

Eleanor marx

हम किस तरह संगठित हों?

केवल वर्ग संघर्ष का ध्यान दिलाना ही काफ़ी नहीं है। मज़दूरों को यह भी अवश्य जानना चाहिए कि किन हथियारों का और कैसे उपयोग करना है। किन स्थितियों में हमला करना है और पहले से प्राप्त किन लाभों को बनाये रखना है। और यही कारण है कि मज़दूर अब सीख रहे हैं कि कब और कहाँ हड़तालों और बहिष्कारों का सहारा लेना है, मज़दूरों के अधिकारों की हिफ़ाज़त करने वाले क़ानून कैसे हासिल करें और क्या करें कि पहले से मिले हुए क़ानून केवल काग़ज़ पर ही न रह जायें। और अब ऐसे में, हम स्त्रियों को क्या करना है? बिना किसी शक़ के हम एक चीज़ करनी है। हम संगठित होंगे – ‘स्त्रियों’ के रूप में संगठित नहीं, बल्कि सर्वहाराओं के रूप में; हमारे पुरुष कामगारों की स्त्री प्रतिद्वन्द्वियों के रूप में नहीं, बल्कि संघर्ष में उनकी साथियों के रूप में।

और सबसे गम्भीर सवाल यह है कि हम कैसे संगठित हों? मुझे लगता है कि हमें अन्तिम लक्ष्य – अपने वर्ग की मुक्ति तक पहुँचने के साधन के रूप में अपनी संगठित शक्ति का उपयोग करते हुए ट्रेड यूनियनों में संगठित होने से शुरुआत करनी चाहिए। यह काम आसान नहीं होगा। दरअसल, स्त्री मज़दूरों की स्थिति ऐसी है जिसमें आगे बढ़ना अक्सर इस क़दर कठिन होता है कि दिल टूट जाये।

लेकिन दिनो-दिन यह काम आसान होता जायेगा, और जैसे-जैसे स्त्रियाँ और विशेष रूप से पुरुष, यह देखना सीख जायेंगे कि सभी मज़दूरों को एकजुट करने में कितनी ताक़त है, आनुपातिक दृष्टि से यह काम कम से कम कठिन लगने लगेगा।

स्त्री मज़दूरों को ट्रेड यूनियनों में संगठित करने की समस्याएँ

हालांकि हम यह प्रगति देख कर खुश हैं, और मज़दूर संगठनों ने जो प्रगति की है उसे मानते भी हैं, लेकिन हम इस सच्चाई की ओर से अपनी आँखें बन्द नहीं कर सकते कि स्त्रियाँ आज भी बहुत पीछे हैं और वर्षों की मेहनत से हासिल नतीजे बहुत ही कम हैं।

यहाँ तक कि कपड़ा उद्योग में, जहाँ स्त्री मज़दूर पहली बार ट्रेड यूनियनों में संगठित हुई थीं, वहाँ भी बहुत सारी कमियाँ हैं। पहली बात तो यह कि बहुत से मामलों में स्त्रियाँ आज भी असंगठित हैं, हालाँकि अब इसमें लगातार कमी आ रही है; क्योंकि यूनियनें देख रही हैं कि असंगठित स्त्री मज़दूर किस तरह उनके ख़िलाफ़ मालिकों के हाथ में हथियार बन जाती हैं। दूसरी बात यह कि प्राय: अपनी यूनियन के संचालन में स्त्री मज़दूरों की कोई आवाज़ ही नहीं होती।

उदाहरण के लिए लंकाशायर और यार्कशायर में, जहाँ स्त्रियाँ लगभग बिना किसी अपवाद के यूनियनों की सदस्य हैं, नियमित रूप से चन्दा देती हैं, और बेशक़ उनसे लाभ भी उठाती हैं, मगर इन संगठनों के नेतृत्व में उनकी कोई भूमिका नहीं होती, ख़ुद अपने कोष के प्रबन्धन में उनकी कोई बात नहीं सुनी जाती, और अभी तक कभी भी अपनी ही यूनियन के सम्मेलनों में प्रतिनिधि नहीं बनी हैं। प्रतिनिधित्व और प्रशासन पूरी तरह पुरुष मज़दूरों के हाथ में रहता है।

स्त्रियों की इस स्पष्ट महत्वहीनता और उदासीनता का कारण आसानी से समझा जा सकता है। सभी स्त्री संगठनों के ज़्यादातर हिस्से में यह आम है और हम इसे नज़रन्दाज़ नहीं कर सकते। कारण यह है कि आज भी स्त्रियों को दो ज़िम्मेदारियाँ निभानी होती हैं: फ़ैक्टरी में वे सर्वहारा होती हैं और दिहाड़ी कमाती हैं जिस पर काफ़ी हद तक वे और उनके बच्चे निर्भर रहते हैं लेकिन वे घरेलू गुलाम भी हैं, अपने पतियों, पिताओं और भाइयों की बिना मज़दूरी की नौकर। सुबह फ़ैक्टरी जाने से पहले ही स्त्रियाँ इतना काम कर चुकी होती हैं कि अगर वही काम मर्दों को करना पड़े तो वे समझेंगे कि उन्होंने अच्छा-ख़ासा काम कर दिया है। दोपहर के समय मर्दों को कम से कम थोड़ा आराम मिलने की उम्मीद होती है, पर स्त्रियों को तब भी आराम नहीं मिलता। और आख़िरकार शाम का वक़्त बेचारे मर्द को अपने लिए मिल जाता है लेकिन और भी बेचारी स्त्री को तो उस वक़्त भी काम करना होता है। घरेलू काम उसका इन्तज़ार कर रहे होते हैं, बच्चों की देखभाल करनी होती है, कपड़ों की सफ़ाई और मरम्मत करनी पड़ती है। संक्षेप में, अगर किसी कारख़ाना इलाक़े के मर्द दस घण्टे काम करते हैं तो औरतें सोलह घण्‍टे करती हैं। फिर भला वे किसी और चीज़ में सक्रिय रुचि कैसे ले सकती हैं? यह भौतिक रूप से असम्भव लगता है। लेकिन इसके बावजूद इन्हीं कारख़ाना इलाक़ों में कुल मिलाकर औरतों की स्थिति सबसे अच्छी है। वे ‘अच्छी’ मज़दूरी पाती हैं, उनके काम के बिना मर्दों का काम नहीं चल सकता, और इसीलिए वे सापेक्षिक रूप से स्वतन्‍त्र हैं। जब हम उन शहरों या ज़िलों में पहुँचते हैं जहाँ स्त्रियों के काम का मतलब है नीरस और थकाऊ काम, जहाँ आम तौर पर बहुत सारा काम घर पर किया जाने वाला काम (किसी नियोक्ता के लिए घर पर किया गया काम) होता है, वहाँ हम पाते हैं कि स्थितियाँ सबसे बुरी हैं और संगठन की ज़रूरत सबसे अधिक है।

हाल के वर्षों में इस समस्या पर काफ़ी काम किया गया है, लेकिन यह कहना मेरा फर्ज़ है कि किये गये प्रयासों के मुक़ाबले नतीजे कुछ भी नहीं हैं। लेकिन मुझे लगता है कि स्त्री मज़दूरों की दयनीय स्थिति ही इसकी वजह नहीं है। बल्कि, मेरा मानना है कि इसका एक प्रमुख कारण अधिकांश स्त्री संगठनों के गठन और संचालन के तरीक़े में निहित है। हम देखते हैं कि उनमें से अधिकतर का नेतृत्व मध्यवर्ग के लोग करते हैं, स्त्रियाँ भी और पुरुष भी। इसमें दो राय नहीं कि ये लोग एक हद तक अच्छी नीयत से काम करते हैं, लेकिन वे समझ नहीं सकते और समझना भी नहीं चाहते कि दरअसल मज़दूर वर्ग के आन्दोलन का मक़सद क्या है। वे अपने आसपास फैली ग़रीबी-बदहाली देखते हैं और असहज अनुभव करते हैं, और वे अभागे मज़दूरों की परिस्थितियाँ सुधारना चाहते हैं। लेकिन वे हमारे अपने लोग नहीं हैं।

लन्दन के दो संगठनों को लें जिन्होंने स्त्रियों की यूनियनें बनाने के लिए कड़ी मेहनत की है। विमेन्स ट्रेड यूनियन प्रोविडेंट लीग पुराना संगठन है और विमेन्स ट्रेड यूनियन एसोसिएशन नया है। बाद वाले के लक्ष्य पहले के मुक़ाबले कुछ अधिक उन्नत हैं लेकिन दोनों का ही संगठन, नेतृत्व और समर्थन सबसे सम्भ्रान्त और खाँटी बुर्जुआ क़िस्म के स्त्री-पुरुष करते हैं। बिशप, पादरी, बुर्जुआ सांसद और उनसे भी अधिक निम्न-पूँजीवादी मानसिकता वाली उनकी बीवियाँ, धनी और अभिजात स्त्रियाँ और भद्रजन ये अनेक स्त्री संगठनों के संरक्षक हैं।

करोड़पति लार्ड ब्रेसेन जैसे मज़दूरों के बेशर्म शोषक और धुर प्रतिक्रियावादी सर जुलियन गोल्डश्मिड की पत्नी जैसी ‘सम्भ्रान्त महिलाएँ’ विमेन्स लीग के लिए धन जुटाने के वास्ते सैलून चाय पार्टियों का आयोजन करती हैं, जबकि लेडी डिल्के इस आन्दोलन का उपयोग अपने पति के राजनीतिक हित में करती हैं। मज़दूरों के बारे में ये लोग कितना कम जानते हैं इसका पता इस बात पर उनकी हैरानी से चलता है कि एक बैठक में स्त्री मज़दूरों ने ‘आर्थिक रूप से अपने से बेहतर लोगों की समझदारी भरी सलाह में … बहुत बुद्धिमानी भरी रुचि प्रदर्शित की!’

हमें आशा और विश्वास है कि मज़दूर स्त्रियाँ ख़ुद अपने मामलों में भी इतनी ही ‘बुद्धिमानी भरी रुचि’ लेंगी और अपने मामले ख़ुद सँभाल लेंगी, और सबसे बढ़कर यह कि वे सर्वहारा के महान आधुनिक आन्दोलन का एक विशाल और सजीव हिस्सा बन जायेंगी। काफ़ी हद तक वे ऐसा कर भी चुकी हैं।

स्त्री मज़दूरों और बुर्जुआ स्त्रियों के लक्ष्य अलग हैं

एक पुरानी कहावत है, ‘नर्क का रास्ता नेक इरादों से तैयार किया जाता है।’ स्त्री मज़दूर बुर्जुआ स्त्री आन्दोलन की माँगों को अच्छी तरह समझ सकती हैं, वे इन माँगों के प्रति सहानुभूति का रवैया रख सकती हैं और उन्हें रखना भी चाहिए; बस स्त्री मज़दूरों और बुर्जुआ स्त्रियों के लक्ष्य काफ़ी अलग हैं।

मैं अपना दृष्टिकोण स्पष्ट तरीक़े से रखना चाहती हूँ, और मेरे ख़्याल से मैं बहुत-सी स्त्रियों की तरफ़ से बोल रही हूँ। स्त्रियों के रूप में निश्चित तौर पर हम स्त्रियों के लिए वही अधिकार हासिल करने से सजीव सरोकार रखती हैं जोकि पुरुषों को, जिनमें मज़दूर पुरुष भी शामिल हैं, आज हासिल हो चुके हैं। लेकिन हम मानते हैं कि यह ‘स्त्री प्रश्न’ श्रम की मुक्ति के आम सवाल का एक अनिवार्य अंग है।

इसमें दो राय नहीं कि ‘स्त्री प्रश्न’ मौजूद है। लेकिन हमारे लिए जो जन्म से या फिर मज़दूरों के लक्ष्य के लिए काम करके मज़दूर वर्ग में गिने जाने के हक़दार हैं यह आम मज़दूर वर्ग के आन्दोलन का मुद्दा है। जब उच्च या मध्यवर्ग की स्त्रियाँ न्यायसंगत अधिकारों के लिए लड़ती हैं तो हम उसे समझ सकती हैं, उससे हमदर्दी रख सकती हैं, और ज़रूरत पड़ने पर मदद भी कर सकती हैं, और ये अधिकार हासिल होने से मज़दूर स्त्रियों को भी लाभ होगा। …

यदि इन स्त्रियों की उठायी सारी माँगें आज मान ली जायें तब भी हम मज़दूर स्त्रियाँ वहीं होंगी जहाँ हम पहले थीं। स्त्री मज़दूर तब भी बेहद लम्बे समय तक, बेहद कम मज़दूरी पर, बेहद अस्वास्थ्यकर हालात में काम करती रहेंगी; तब भी उन्हें वेश्यावृत्तिा और भुखमरी में से कोई एक चुनना होगा। यह भी पहले हमेशा से कहीं अधिक सच होगा कि वर्ग संघर्ष में स्त्री मज़दूरों को अपने कट्टर दुश्मनों के बीच नेक स्त्रियाँ भी मिलेंगी; उन्हें इन स्त्रियों से उतने ही तीखेपन से लड़ना होगा जितने तीखेपन के साथ मज़दूर वर्ग के उनके भाइयों को पूँजीपतियों के ख़िलाफ़ लड़ना है। मध्यवर्ग के स्त्री-पुरुष एक ‘मुक्त’ क्षेत्र चाहते हैं ताकि मज़दूरों का शोषण किया जा सके। …

जब बुर्जुआ स्त्रियाँ किसी ऐसे अधिकार की माँग करती हैं जो हमारे लिए भी मददगार है, तो हम उनके साथ मिलकर लड़ेंगे, ठीक उसी तरह जैसे हमारे वर्ग के पुरुषों ने महज़ इसलिए मतदान के अधिकार को ख़ारिज नहीं किया था कि यह माँग बुर्जुआ वर्ग ने उठायी थी। हम भी बुर्जुआ स्त्रियों द्वारा अपने हित में हासिल किये किसी ऐसे अधिकार को ख़ारिज नहीं करेंगे जो वे हमें चाहे या अनचाहे प्रदान करते हैं। हम इन अधिकारों को हथियार के रूप में स्वीकार करते हैं, ऐसे हथियार के रूप में जो हमें मज़दूर वर्ग के अपने भाइयों के साथ खड़े होकर बेहतर ढंग से लड़ने के योग्य बनाते हैं। हम पुरुषों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए लामबन्द स्त्रियाँ नहीं हैं बल्कि शोषकों के ख़िलाफ लड़ रही मज़दूर हैं।

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2012


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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