इराकी जनता को तबाह करने के बाद अब इराक से वापसी का अमेरिकी ड्रामा

शिशिर

US-soldiers-return-to-the-007पिछले सात वर्षों तक इराकी जनता को अपने बमों और हथियारों का निशाना बनाने और उनकी सम्प्रभुता, स्वतन्त्रता और जीवन को बरबाद करने के बाद अमेरिका ने इराक में अपने ”मिशन” के पूरा होने की घोषणा की। ज्ञात हो, कि अमेरिका ने सात वर्ष पहले जनसंहार के हथियारों के इराक के पास होने के नाम पर और इराकी शासक सद्दाम हुसैन की तानाशाही को ख़त्म कर ”लोकतन्त्र” की स्थापना करने के नाम पर इराक पर हमला बोल दिया था। आज सारी दुनिया जानती है कि इराक में अमेरिका को जनसंहार के कोई हथियार नहीं मिले। अमेरिका स्वयं भी इस तथ्य को मान चुका है। हमले के पीछे बताये गये दूसरे कारण की पोल भी खुल चुकी है। अमेरिका ने लोकतन्त्र की स्थापना के नाम पर इराक पर साम्राज्यवादी कब्ज़ा किये रखा और सैन्य ताकत के एक बड़े हिस्से को वापस बुलाने के बावजूद इराक के प्राकृतिक संसाधनों, ख़ास तौर पर, इराकी तेल पर उसका कब्ज़ा अभी भी बरकरार है और लम्बे समय तक रहेगा। सैन्य कब्ज़े को हल्का करने के पीछे भी अमेरिका की कोई भलमनसाहत नहीं है, बल्कि इराकी प्रतिरोध योध्दाओं का वीरतापूर्ण संघर्ष है जिसने अमेरिका को मजबूर कर दिया कि वह अपने प्रत्यक्ष और पूर्ण कब्ज़े को अप्रत्यक्ष और आंशिक कब्ज़े में तब्दील कर दे। लेकिन 31अगस्त को बराक ओबामा द्वारा की गयी अमेरिकी सेना की वापसी की सच्चाई पर ग़ौर करें तो हम क्या तस्वीर देखते हैं??ओबामा ने 31 अगस्त को अपने ओवल कार्यालय से घोषणा की कि ‘ऑपरेशन इराकी फ्रीडम’ पूर्ण हो चुका है! अब इराकी जनता अपने देश में स्वयं शासन और सुरक्षा सँभालेगी और अमेरिका उसमें ”सुझाव” और ”सहायता” देगा। आइये देखें कि इस ”सुझाव” और ”सहायता” का क्या अर्थ है।

ओबामा के तमाम एलानों के बावजूद सच्चाई यह है कि 50 हज़ार से ज्यादा अमेरिकी सैनिक इस समय भी इराक में हैं और अभी काफी समय तक मौजूद रहेंगे। ये सैनिक इराक के बड़े और प्रमुख शहरों में स्थित पाँच विशालकाय सैन्य अड्डों में रहेंगे। बग़दाद में अमेरिका का दूतावास एक महाविशाल किले के समान दिखता है। एक अमेरिकी सैन्य अधिकारी ने ओबामा की घोषणा के ही समय पूरी नंगई के साथ एलान किया कि अन्तरिक्ष से पृथ्वी की आदमी द्वारा बनायी गयी जिन इमारतों को देखा जा सकता है उनमें से बग़दाद में अमेरिकी दूतावास एक है। इस दूतावास की सुरक्षा में 24 ब्लैक हॉक हेलीकॉप्टर और 50 बमरोधी वाहन और हज़ारों अमेरिकी और इराकी सैनिक 24 घण्टे लगे रहते हैं।

ओबामा ने अपने भाषण में कहा कि जो अमेरिकी सैनिक अभी भी इराक में हैं, वे इराकी बलों को ”सुझाव और सहायता”देने के लिए हैं। लेकिन एक हफ्ता भी नहीं बीता था कि अमेरिकी सैनिकों ने इराकी विद्रोहियों पर हमला किया और उसके बाद भी इराकी जनता के प्रतिरोध को कुचलने की हर सम्भव कोशिश अमेरिकी सैन्य शक्ति इराक में कर रही है। दरअसल,इराक में मौजूद अमेरिकी सैनिकों में से 4,500 सीधे-सीधे सैन्य कार्रवाइयों में हिस्सा लेने के लिए हैं। ग़ौरतलब है कि ओबामा की घोषणा के कुछ ही दिनों बाद इराक में अमेरिकी सेना के प्रवक्ता ने कहा कि श्रीमान राष्ट्रपति की घोषणा चाहे जो भी हो, इराक में व्यावहारिक तौर पर बहुत कुछ बदलने नहीं जा रहा है। यानी, अमेरिकी सेना के बर्बर इराकी जनता की उसी तरह हत्या करते रहेंगे, उसी तरह उन्हें यातना देते रहेंगे और उसी तरह उनकी अस्मिता को अपने बूटों तले कुचलते रहेंगे।

सारी दुनिया जानती है कि इराक की समस्या अमेरिकी साम्राज्यवाद की नाक का फोड़ा बन चुकी थी। इसलिए यह भी सभी जानते हैं कि ”मानवतावादी” अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इराक से बड़ी संख्या में अमेरिकी सेना की वापसी किसी मानवतावाद के कारण नहीं की है। एक कारण तो यह था कि इराक युद्ध अमेरिकी जनता के बीच बेहद अलोकप्रिय हो चुका था और ओबामा के सत्त में आने और बुश के हारने का एक कारण इराक और अफगानिस्तान में अमेरिका का विनाशकारी उलझाव भी था। दरअसल सत्त में आने से पहले ओबामा ने ख़ुद कहा था कि इराक युद्ध ”मूर्खतापूर्ण” है। लेकिन ज़रा सुनिये कि उन्होंने 31 अगस्त को क्या कहा! ओबामा ने कहा कि वियतनाम और इराक में अमेरिका ने जनता को मुक्त करने के लिए वीरतापूर्ण युद्ध किया। यह नायकत्वपूर्ण युद्ध था और अमेरिकी सैनिकों ने इसमें शानदार बहादुरी का प्रदर्शन किया! अब ऐसी कलाबाज़ी पर तो हुनरमन्द से हुनरमन्द नट भी बग़लें झाँकने लगेगा! वास्तव में इराक युद्ध अमेरिका के लिए बेहद ख़र्चीला भी साबित हो रहा था और अमेरिकी वित्तीय संकट के तात्कालिक कारणों में से एक इराक युद्ध भी था,हालाँकि लम्बी दूरी में ऐसे सभी युद्ध साम्राज्यवाद को अपने आर्थिक संकट से निपटने में मदद करते हैं। भूमण्डलीकरण की वकालत करने वाले जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ तक ने कहा कि इराक युद्ध की लागत 3 ट्रिलियन डॉलर से भी अधिक हो चुकी है। इराक युद्ध के कारण 2003 में 140 डॉलर प्रति बैरल बिकने वाला कच्चा तेल अब 400 डॉलर प्रति बैरल से भी अधिक कीमत पर बिक रहा है, जिसकी कीमत सारी दुनिया की ग़रीब जनता चुका रही है। इन सभी कारकों का अमेरिकी अर्थव्यवस्था की सेहत पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है। मन्दी दूर होने का नाम नहीं ले रही है और अमेरिका में बेरोज़गारी नये कीर्तिमान बना रही है। बेघर लोगों की संख्या अमेरिका में 1930 के दशक के करीब पहुँच रही है। सभी ”कल्याणकारी”कदम बेकार साबित हो रहे हैं और जनता में ओबामा के प्रति असन्तोष बढ़ रहा है। आज अमेरिकी सत्त 1960 के दशक में हो रहे विशाल जनप्रदर्शनों जैसे जनप्रदर्शनों की साक्षी बन रही है और शासक वर्ग बेहद चिन्ता में है। 2006 से जारी आर्थिक संकट ने अमेरिकी पूँजीवाद को बुरी हालत में पहुँचा रखा है।

लेकिन आर्थिक संकट से बड़ा तात्कालिक कारण यह था कि इराक युद्ध में अभी तक करीब 6,000 अमेरिकी सैनिक मारे जा चुके हैं; हज़ारों विकलांग हो चुके हैं; मानसिक रूप से बीमार हो चुके सिपाहियों की कोई गिनती नहीं है; इराक से वापस आने वाले करीब 300 सिपाही आत्महत्या कर चुके हैं। ये सारे कारक अमेरिकी सत्ता पर भयंकर दबाव बना रहे थे। इराक युद्ध में उनका जीतना सम्भव नहीं था, यह बात अमेरिकी शासकों की समझ में आ चुकी थी। याद करें कि अमेरिका ने इराक पर हमले के समय कहा था कि वह मध्‍य-पूर्व का नक्शा बदल देगा। इसका अर्थ क्या था – यह भूतपूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिण्टन के एक बयान से आप समझ सकते हैं। क्लिण्टन में हाल ही में बताया कि अमेरिका की योजना इराक पर कब्ज़े के बाद सीरिया और ईरान में सत्ता परिवर्तन की थी, ताकि मध्‍य-पूर्व पर हर प्रकार का आर्थिक और राजनीतिक नियन्त्रण स्थापित किया जाये। लेकिन इराक में ही अमेरिका के लिए जीना मुश्किल हो गया और उसे एक तरह से वहाँ से भागना पड़ रहा है। लेकिन इसके पहले वह हर तरह से सुनिश्चित कर लेना चाहता है कि इराक में उसके साम्राज्यवादी आर्थिक हित सुरक्षित रहें। इसलिए वह अपने किसी पसन्दीदा शासक को गद्दी पर बिठाने की कोशिश में लगा हुआ है। लेकिन आख़िरी चुनावों में लटकी हुई संसद अस्तित्व में आयी और लम्बे इन्तज़ार के बावजूद अभी तक इस राजनीतिक संकट का कोई हल नहीं निकल सका है। लोग यह भी कयास लगाने लगे हैं कि कोई हल न निकलने की सूरत में अमेरिकी शह पर सेना तख्तापलट कर सकती है और एक सैन्य तानाशाही अस्तित्व में आ सकती है।

अचरज की बात नहीं थी कि ओबामा ने अपने भाषण में अप्रत्यक्ष रूप से बुश की प्रशंसा भी की और कहा कि बुश द्वारा इराक में किये गये ”सैन्य उभार” ने इराकी प्रतिरोध को कम किया और इराक को स्थिर किया। लेकिन यह किस प्रकार हुआ यह देखना दिलचस्प होगा। इराक युद्ध के बाद पुनर्निर्माण के नाम पर करोड़ों डॉलर के ठेके अमेरिकी कम्पनियों को दिये गये जिसमें डिक चेनी की कम्पनी भी शामिल थी, जो कि बुश का सहयोगी और उपराष्ट्रपति था। इसके अलावा, इराक की तेल सम्पदा की अमेरिकियों ने ज़बर्दस्त लूट मचायी। अमेरिका अभी भी करीब 8.7 अरब डॉलर के इराकी तेल का कोई हिसाब नहीं दे पाया है। यह अमेरिका के लोकतन्त्र की स्थापना का अपना ‘स्टाइल’ है! और अमेरिका दुनिया के हर ऐसे देश में अमेरिकी स्टाइल ”लोकतन्त्र” की स्थापना कर देना चाहता है जिसकी सत्ता उसके साम्राज्यवादी मंसूबों के विपरीत आचरण करती है। इस लोकतन्त्र का क्या अर्थ होता है यह आज के इराक और अफगानिस्तान में देखा जा सकता है! ओबामा को जो लोग बुश से बेहतर मानते थे, उन्हें ओबामा का 31 अगस्त का ओवल कार्यालय से दिया गया भाषण अवश्य पढ़ना चाहिए।

इसमें भी आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि ओबामा ने अपने भाषण में एक जगह भी इराकियों के दुख-दर्द के बारे में कुछ नहीं कहा। इसके लिए इराकियों से कभी माफी नहीं माँगी गयी कि इराकी जनता के 10 लाख से भी अधिक लोगों की इस साम्राज्यवादी युद्ध में हत्या कर दी गयी; इराक की पूरी अवसंरचना को नष्ट कर दिया गया; इराकी अर्थव्यवस्था की कमर टूट गयी, जो वास्तव में दुनिया की सबसे समृद्ध अर्थव्यवस्थाओं में से हुआ करती थी; आज इराक के बड़े हिस्सों में बिजली और पीने का पानी तक मयस्सर नहीं है; बेरोज़गारी आसमान छू रही है और जनता के पास शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी नहीं हैं। आज के इराक को देखकर कोई अन्धा भी बता सकता है कि सद्दाम हुसैन जैसे सर्वसत्तावादी शासक के शासन के तहत वह कहीं बेहतर स्थिति में था।

सद्दाम हुसैन निश्चित रूप से एक तानाशाह था और उसके शासन में कुर्दों, शियाओं और कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी ताकतों पर अकथनीय अत्याचार किये गये। लेकिन कौन इस बात को भूल सकता है कि यह वह दौर था जब सद्दाम हुसैन ईरान के ख़िलाफ अमेरिका का मित्र हुआ करता था? कौन भूल सकता है कि ईरान के साथ दस वर्ष के युद्ध के दौरान इराक को हथियारों की आपूर्ति अमेरिका से हो रही थी? कौन भूल सकता है कि कुर्दों और शियाओं पर सद्दाम के आदेश पर चलने वाली गोलियाँ वास्तव में अमेरिकी थीं? उस समय भी सद्दाम हुसैन अमेरिका के दोस्त थे। यह सच है सद्दाम हुसैन की बाथ पार्टी ने इराक में धार्मिक कट्टरपन्थ पर हमला किया, इराक का आधुनिकीकरण किया और कई अन्य प्रगतिशील कार्य किये। लेकिन सद्दाम ने जो कुछ भी प्रगतिशील किया उसमें कुछ भी अमेरिकी नहीं था, और जो कुछ भी तानाशाहीपूर्ण किया उसमें लगभग सबकुछ अमेरिकी था। सद्दाम हुसैन के शासन के तहत कम से कम इराकियों को राशनिंग व्यवस्था के ज़रिये बुनियादी खाद्य सामग्री; सुलभ उपलब्ध शिक्षा और चिकित्सा; बिजली और पानी उपलब्ध था। स्त्रियाँ बाथ पार्टी के शासन को सबसे अधिक याद करती हैं क्योंकि इस दौरान उन्हें हर वह अधिकार प्राप्त था जो पश्चिम में महिलाओं को हासिल हैं। अमेरिकी कब्ज़े के बाद साम्राज्यवाद की कठपुतलियों ने स्त्रियों को इस्लामी शासन के अधीन कर दिया है। 1996में सामान्य इराकी जीवन प्रत्याशा 71 वर्ष थी जो 2007 में घटकर 67 वर्ष रह गयी; अन्तरराष्ट्रीय एजेंसियों के अनुसार करीब 5 लाख इराकी बच्चे युद्ध से सदमे में हैं; युद्ध शुरू होने के बाद करीब 40 लाख इराकी विस्थापित हो चुके हैं जिसमें से करीब आधे इराक छोड़ने को मजबूर हो गये हैं; इराक पर अमेरिकी कब्ज़े के दौरान सुन्नियों, शियाओं और कुर्दों के बीच टकराव लगातार बढ़ता गया है और धार्मिक कट्टरपन्थ में तीव्र बढ़ोत्तरी हुई है; हर महीने औसतन 300 इराकी मारे जाते हैं।

इराकी मज़दूर वर्ग विशेष रूप से भयंकर बदहाली का जीवन जी रहा है और उस जीवन पर भी हर समय मिसाइलों और बमों का साया होता है। अमीर वर्ग तो अपनी सुरक्षा ख़रीदने के लिए कुछ कदम उठा भी सकते हैं, लेकिन आम ग़रीब इराकी जनता के लिए यह सम्भव नहीं है। अमीरों के एक विचारणीय हिस्से ने समझौतापरस्ती भी की है। प्रतिरोध योध्दाओं की मिलिशिया में भी बड़ी संख्या में निम्न मध्‍यवर्ग के इराकी नौजवान और ग़रीब मेहनतकश इराकी शामिल हैं। ज़ाहिर है कि किसी प्रगतिशील नेतृत्व की ग़ैर-मौजूदगी में इनका एक हिस्सा धार्मिक कट्टरपन्थ की ओर भी जा रहा है। लेकिन अमेरिकी साम्राज्यवादी कब्ज़े का एक प्रतिशत भी बाकी रहते जनता के लिए सबसे अहम अमेरिकियों को खदेड़ना और अपनी अस्मिता की रक्षा है। इसलिए आज जो ताकत भी अमेरिकियों के ख़िलाफ लड़ने में नेतृत्व देने की कूव्वत रखती है, जनता उसके साथ खड़ी है।

यह साम्राज्यवादी अन्धेरगर्दी, लफ्फाज़ी और बेशर्मी की इन्तहाँ है कि अमेरिका का राष्ट्रपति मंच से बोलता है कि इराकी जनता को मुक्त कर दिया गया है और वहाँ लोकतन्त्र की बहाली कर दी गयी है। यह अपना गन्दा और घायल चेहरा छिपाने के लिए दिया गया कथन मालूम पड़ता है। इराकी जनता ने भारी कुर्बानियों के बावजूद साम्राज्यवाद के विरुद्ध एक नायकत्वपूर्ण संघर्ष किया और अमेरिकी सैन्य गुण्डागर्दी के सामने घुटने नहीं टेके। और अन्तत: उन्होंने अमेरिकियों को अपने नापाक इरादे पूरे किये बग़ैर अपने देश से भगाने में सफलता हासिल करनी भी शुरू कर दी है। यह सच है कि इस थोपे गये साम्राज्यवादी युद्ध ने इराक को तबाह करके रख दिया है। इराक आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से बिखरी हुई स्थिति में है और अतीत में कई वर्ष पीछे चला गया है। लेकिन इराकी जनता ने यह साबित कर दिया है कि साम्राज्यवादी शक्ति के समक्ष कोई क्रान्तिकारी विकल्प न होने की सूरत में अगर जनता जीत नहीं सकती तो वह साम्राज्यवादी शक्तियों से हार भी नहीं मानती है। लेकिन साथ में इसका नकारात्मक सबक यह भी है कि आज साम्राज्यवादी हमले और कब्ज़े को उखाड़ फेंकने और उसे हरा देने की ताकत मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शक्तियों के नेतृत्व में ही हो सकता है।

इराक के मुकाबले कहीं पिछड़े वियतनाम ने कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में अमेरिका द्वारा बर्बरतम नरसंहारों के बावजूद घुटने नहीं टेके और अन्तत: अमेरिका लुट-पिटकर वियतनाम से जान बचाकर भागा और आज तक वियतनाम का नाम अमेरिकी सत्ताधारियों के दिल में एक बुरा स्वाद और ख्याल छोड़ जाता है। यही हाल अमेरिका का कोरिया के युद्ध में भी हुआ था। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय फासीवादी साम्राज्यवादी ताकतों को भी समाजवादी सोवियत संघ ने हराया था। क्या विश्व इतिहास इस बात के पर्याप्त प्रमाण नहीं देता कि साम्राज्यवाद के विरुद्ध विजयी प्रतिरोध हमेशा मज़दूरों की संगठित ताकत ने किया है? आज भी अगर दुनिया भर की आम मेहनतकश जनता को साम्राज्यवाद की लूट के जुए से मुक्ति पानी है तो उसे अपने देश में समाजवाद के लिए संघर्ष करना होगा।

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2010


 

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