मोज़रबेअर में मज़दूरों के संघर्ष को मिली हार और उसके नतीजे
मज़दूरों के टूल डाऊन के जबाव में कम्पनी ने एक महीने तक रखा काम बन्द रखा

अखिल

moserbaerहाल ही में ग्रेटर नोएडा स्थित मोज़रबेअर कम्पनी के मज़दूरों ने जब अपने हकों को लेकर आवाज़ उठायी तो मैनेजमेण्ट ने उन्हें सबक सिखाने की मंशा से 28 फरवरी से लेकर 2 अप्रैल तक कम्पनी में काम बन्द कर दिया। असल में मज़दूर वर्ष 2011 में मैनेजमेण्ट के साथ बोनस और वेतन में बढ़ोत्तरी सम्बन्धी हुए एक समझौते की तर्ज़ पर एक नये समझौते की माँग कर रहे थे। और यह नया समझौता अप्रैल 2014 से लागू हो जाना चाहिए था। मज़दूर कम्पनी से माँग कर रहे थे कि कम्पनी उन्हें नये समझौते के बारे में साफ़-साफ़ बताये। लेकिन मैनेजमेण्ट कई महीनों से उन्हें लगातार टरकाये जा रहा था। अन्त में जब उन्होंने 28 फरवरी को टूल डाऊन किया तो मैनेजमेण्ट ने सोची-समझी साज़िश के तहत कम्पनी में काम बन्द कर दिया।

आप को बता दें कि 2011 में कम्पनी ने मज़दूरों को मिलने वाले सालाना बोनस में एकाएक भारी कटौती (8300 रु. से 3500 रु.) कर दी, जिसे लेकर मज़दूर हड़ताल पर चले गये। पाँच दिन की हड़ताल के बाद मैनेजमेण्ट और मज़दूरों के बीच 3 वर्ष का समझौता हुआ जिसके तहत बोनस 7500 रु. और वेतन में बढ़ोत्तरी 1500 रु. प्रतिवर्ष निर्धारित की गयी। अप्रैल 2014 से नया समझौता लागू होना था, इसीलिए मज़दूर लम्बे समय से मैनेजमेण्ट से नये समझौते के सम्बन्ध में जानने की कोशिश कर रहे थे। दूसरा वे कम्पनी द्वारा बार-बार काम बन्द किए जाने से भी परेशान थे। लेकिन मैनेजमेण्ट मज़दूरों से बातचीत करने के प्रति पूरी तरह उदासीन था। मैनेजमेण्ट से कोई जवाब न मिलने की वजह से वर्ष 2014 के नवम्बर महीने में उन्होंने कम्पनी की मालकिन से भी मुलाक़ात की। लेकिन उसने कम्पनी की तंग हालत (कम्पनी की हालत इतनी तंग थी कि वर्ष 2014 के दौरान कम्पनी की आमदनी क़रीब एक हज़ार करोड़ रूपये रही!) का बहाना बनाते हुए मज़दूरों को 3 महीने तक इंतज़ार करने की नसीहत दे डाली। 3 महीने तक इंतज़ार करने पर भी जब मज़दूरों की कोई सुनवाई न हुई तो आखिरकार 28 फरवरी को मज़दूरों ने टूल डाउन कर दिया। मज़दूरों के टूल डाउन करते ही मैनेजमेण्ट ने कम्पनी में पॉवर बन्द करवा दी। मज़दूर कम्पनी में न आयें, इसके लिए उनकी कैंटीन, पानी और ट्रांसपोर्ट की सुविधाएँ भी बन्द करवा दी गयीं। इसके बावजूद जब मज़दूरों ने आना बन्द नहीं किया तो पंचिंग मशीनें भी बन्द करवा दी गयीं ताकि मज़दूर अपनी हाज़िरी न लगा सकें। मज़दूरों ने इसके जवाब में अपना हाज़िरी रजिस्टर लगा लिया। मैनेजमेण्ट की हर कोशिश के बावजूद मज़दूर 24 मार्च तक कम्पनी आते रहे। लेकिन 24 मार्च को कम्पनी ने पुलिस का सहारा लेकर मज़दूरों को ज़ोर-ज़बरदस्ती से बाहर निकलवा दिया। इसके बाद मज़दूरों ने कम्पनी के सामने टेंट लगा लिया। अंत में 2 मार्च को मैनेजमेण्ट और मज़दूरों में नया समझौता हुआ जिसके तहत बड़ी चालाकी से मैनेजमेण्ट ने एक तरफ़ तो वेतन में वृद्धि को 1500 से बढ़ाकर 2100 रुपये प्रतिवर्ष किया, दूसरी तरफ़ बोनस को 7500 से घटाकर 5000 रुपये कर दिया। कुल-मिलाकर समझौते में नुकसान मज़दूरों का ही हुआ। कम्पनी ने मज़दूरों का 21 दिन का वेतन भी काट लिया। ऊपर से कम्पनी ने नेतृत्वकारी स्थानीय मज़दूरों के ऊपर गैरक़ानूनी तरीक़े से काम ठप करने का केस भी डलवा दिया।

ग़ौरतलब है कि मोज़रबेअर कम्पनी में मज़दूरों की कोई यूनियन नहीं है। राजनीतिक चेतना और संघबद्धता का अभाव ही मज़दूरों की इस हार का बुनियादी कारण नज़र आता है। मज़दूर कम्पनी को इतना बेवकूफ़ मानकर चल रहे थे कि उन्हें लग रहा था 2011 की हड़ताल से कम्पनी ने कोई सबक नहीं सीखा होगा। उन्हें लग रहा था कि 2011 की तरह कम्पनी इस बार भी आसानी से झुक जायेगी। लेकिन मैनेजमेण्ट मज़दूरों से कई गुना चालाक निकला। उसे पता था कि जैसे ही 2011 के समझौते का अंत होगा मज़दूर फिर से समझौते के लिए दबाव बना सकते हैं। इसीलिए उसने काफ़ी समय पहले से ही मज़दूरों को सबक सिखाने के लिए कमर कस ली थी। कम्पनी की मालकिन ने जानबूझकर मज़दूरों को 3 महीने तक इंतज़ार करने की सलाह दी। मज़दूर इस आशा में 3 महीने तक इंतज़ार करते रहे कि इसके बाद उनकी भी सुनी जायेगी। इससे मैनेजमेण्ट को मज़दूरों से पुराने आर्डर पूरे करवाने का समय मिल गया। कम्पनी ने जानबूझकर जनवरी-फरवरी महीने के ऑर्डर नहीं लिये ताकि अगर काम बन्द भी करना पड़े तो कोई नुकसान न हो। लेकिन मोज़रबेअर के मज़दूरों ने योजनाबद्ध तरीक़े से मैनेजमेण्ट की रणनीति को जानने के बारे में सोचा तक नहीं। उन्होंने यह तक नहीं सोचा कि कम्पनी पर दबाव बनाने का सबसे अच्छा समय वह होता है जब कम्पनी के पास सबसे ज़्यादा काम हो। काफ़ी समय पहले से ही पुलिस का कम्पनी में आना-जाना शुरू हो गया था लेकिन इससे भी मज़दूर आँखें मूँदकर बैठे रहे। और तो और मज़दूर श्रम अधिकारियों की गरमागरम बातों से भी उम्मीद लगाये बैठे रहे। इस पूरे समय के दौरान मज़दूर अपना रास्ता बनाने की बजाय कम्पनी द्वारा उनके लिए पहले से ही तय किये गये रास्ते पर चलते रहे। जिसका नतीजा हार ही होना था।

अन्त में हम यही कहना चाहेंगे कि यह कोई पहली बार नहीं है कि मज़दूरों के किसी संघर्ष को हार का सामना करना पड़ा है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हार से कोई सबक लिया जाता है या नहीं ताकि भविष्य में फिर से ऐसी गलतियाँ न दोहरायी जा सकें। मोज़रबेअर के मज़दूरों के साथ-साथ यह सभी मज़दूरों के लिए सबक लेने का समय है कि किसी भी मज़दूर आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए, उसे गति देने के लिए मज़दूरों का राजनीतिक चेतना से लैस होना और एक ऐसी यूनियन के रूप में संघबद्ध होना बेहद ज़रूरी है जो ट्रेड यूनियन जनवाद को लागू करती हो। कुछ लोगों को संघर्ष का ठेका देने की बजाय (जैसा कि मोज़रबेअर में हुआ) ऐसी यूनियन जो हर मज़दूर की भागीदारी को सुनिश्चित करे, सवाल उठाने की आज़ादी दे और सामूहिक रूप से फैसला लेने का आधार मुहैया कराये।

 

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2015


 

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