फ़ासीवाद क्या है और इससे कैसे लड़ें? (तीसरी किश्त)
इटली में फ़ासीवाद

अभिनव 

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इटली में फ़ासीवाद की हमारी चर्चा के इतना विस्तृत होने की कोई आवश्यकता नहीं है। हम यहाँ उन कारकों की चर्चा करेंगे जिनके मामले में इटली में फ़ासीवादी उभार जर्मनी से अलग था।

इटली में फ़ासीवादी आन्दोलन की शुरुआत 1919 में हुई। युद्ध की समाप्ति के बाद इटली के मिलान शहर में बेनिटो मुसोलिनी ने फ़ासीवादी आन्दोलन की शुरुआत करते हुए एक सभा बुलायी। इस सभा में कुल जमा करीब 100 लोग इकट्ठा हुए। इसमें से अधिकांश युद्ध में भाग लेने वाले नौजवान सिपाही थे। पहले विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्रों की तरफ से युद्ध में हिस्सा लेने के बावजूद इटली को उसका उचित पुरस्कार नहीं मिला जबकि युद्ध में उसे काफी क्षति उठानी पड़ी थी। इससे पूरे देश में एक प्रतिक्रिया का माहौल था, ख़ासकर सैनिकों के बीच। दूसरी तरफ, देश की आर्थिक स्थिति बुरी तरह से डावाँडोल थी। सरकार एकदम अप्रभावी और कमज़ोर थी और कोई भी कदम नहीं उठा पा रही थी। एक ऐसे समय में मुसोलिनी ने फ़ासीवादी आन्दोलन की शुरुआत की। मुसोलिनी ने इस सभा में खुले तौर पर ऐलान किया कि फ़ासीवाद मार्क्‍सवाद, उदारवाद, शान्तिवाद और स्वतन्त्रता का खुला दुश्मन है। यह राजसत्ता के हर शक्ति से ऊपर होने, उग्र राष्ट्रवाद, नस्ली श्रेष्ठता, युद्ध, नायकवाद, पवित्रता और अनुशासन में यकीन करता है। आर्थिक और सामाजिक तौर पर बिखरे हुए और असुरक्षा और अनिश्चितता का सामना कर रहे एक राष्ट्र को ऐसे जुमले आकृष्ट करते हैं, ख़ासतौर पर तब, जबकि कोई क्रान्तिकारी सम्भावना उनकी दृष्टि में न हो। फ़ासीवाद के आर्थिक और सामाजिक आधारों के बारे में हम आगे चर्चा करेंगे। पहले उसके वैचारिक आधारों की बात कर लें। मुसोलिनी पहले इतालवी समाजवादी पार्टी में शामिल था। 1903 से 1914 तक वह समाजवादी पार्टी का एक महत्वपूर्ण नेता था। इसके बाद वह जॉर्ज सोरेल नामक एक संघाधिपत्यवादी चिन्तक के प्रभाव में आया, जो कहता था कि संसदीय जनतन्त्र नहीं होना चाहिए और श्रम संघों द्वारा सरकार चलायी जानी चाहिए। मुसोलिनी पर दूसरा गहरा प्रभाव फ्रेडरिख नीत्शे नामक जर्मन दार्शनिक का था, जो मानता था कि इतिहास में अतिमानव और नायकों की केन्द्रीय भूमिका होती है, जिनमें सत्ता प्राप्त करने की इच्छाशक्ति होती है। इन सारे विचारों का मेल करके ही इटली में जेण्टाइल नामक फ़ासीवादी चिन्तक की सहायता से मुसोलिनी ने पूरे फ़ासीवादी सिद्धान्त की रचना की। यह सिद्धान्त मज़दूर-विरोधी, पूँजी के पक्ष में खुली तानाशाही, अधिनायकवाद, जनवाद-विरोध, कम्युनिज्म-विरोध और साम्राज्यवादी विस्तार की खुले तौर पर वकालत करता था।

लेकिन यह सिद्धान्त कोई जेण्टाइल और मुसोलिनी के दिमाग़ की उपज नहीं था। यदि जेण्टाइल व मुसोलिनी न होते तो कोई और होता क्योंकि समाज में इस प्रकार एक प्रतिक्रियावादी विचार और आन्दोलन की ज़मीन मौजूद थी। इस ज़मीन को समझकर ही इटली में फ़ासीवादी उभार को समझा जा सकता है।

जर्मनी के समान इटली में भी पूँजीवादी विकास बहुत देर से शुरू हुआ। इटली का एकीकरण 1861 से 1870 के बीच हुआ। जैसाकि हम पिछले उपशीर्षक में ही बता चुके हैं, इस समय तक ब्रिटेन, फ्रांस और हॉलैण्ड जैसे देश पूँजीवादी विकास की एक लम्बी यात्रा तय कर चुके थे और औद्योगिक क्रान्ति को भी अंजाम दे चुके थे। इन देशों में रैडिकल भूमि-सुधार लागू किये गये थे। पूँजीवादी विकास एक लम्बी प्रक्रिया में हुआ था, जिसके कारण इससे पैदा होने वाले सामाजिक तनाव को व्यवस्था जनवादी दायरे के भीतर रहते हुए ही झेल सकती थी। इटली में 1890 के दशक में औद्योगीकरण की शुरुआत हुई और जर्मनी के ही समान इसकी रफ्तार काफी तेज़ रही। जर्मनी से अलग इटली में यह विकास क्षेत्रीय तौर पर बहुत असमानतापूर्ण रहा। उत्तरी इटली में मिलान, तूरिन और रोम से बनने वाले त्रिभुजाकार इलाके में उद्योगों का ज़बरदस्त विकास हुआ और एक मज़दूर आन्दोलन भी पैदा हुआ जिसका नेतृत्व पहले इतालवी समाजवादी पार्टी कर रही थी और बाद में इसके नेतृत्व में इतालवी कम्युनिस्ट पार्टी का भी प्रवेश हुआ। उत्तरी इटली के क्षेत्रों में भूमि-सुधार भी एक हद तक लागू हुए और कृषि का वाणिज्यीकरण हुआ जिसके कारण कृषि में पूँजीवादी विकास हुआ। नतीजतन, औद्योगिक और कृषि क्षेत्र, दोनों में ही एक मज़दूर आन्दोलन पैदा हुआ। दूसरी ओर दक्षिणी इटली था जहाँ सामन्ती उत्पादन सम्बन्‍धों का वर्चस्व कायम था। यहाँ कोई भूमि-सुधार लागू नहीं हुए थे और बड़ी-बड़ी जागीरें थीं जिन पर विशाल भूस्वामियों का कब्ज़ा था। इसके अतिरिक्त, छोटे किसानों और खेतिहर मज़दूरों की एक विशाल आबादी थी जो पूरी तरह इन बड़े भूस्वामियों के नियन्त्रण में थी। इस नियन्त्रण को ये भूस्वामी अपने सशस्त्र गिरोहों द्वारा कायम रखते थे। इन्हीं गिरोहों को इटली में माफिया कहा जाता था जो बाद में स्वायत्त शक्ति बन गये और पैसे के लिए लूटने, मारने और चोट पहुँचाने का काम करने लगे। फ़ासीवादियों ने इन माफिया गिरोहों का ख़ूब लाभ उठाया। दक्षिणी इटली में औद्योगिक विकास न के बराबर था। इस फर्क के बावजूद, या यूँ कहें कि इसी फर्क के कारण फ़ासीवादियों को दो अलग-अलग प्रकार के प्रतिक्रियावादी वर्गों का समर्थन प्राप्त हुआ। वह कैसे हुआ इस पर हम बाद में आते हैं, पहले उस प्रक्रिया पर निगाह डालें जिसके ज़रिये मुसोलिनी सत्ता में आया।

Italy-fascism1896 में इटली को इरिट्रिया से अपने साम्राज्य को इथियोपिया तक फैलाने के प्रयास में अडोवा नामक जगह पर एक शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा। इसके कारण देश में चार वर्षों तक एक भयंकर अस्थिरता का माहौल पैदा हो गया। लेकिन 1900 से 1914 तक के दौर में उदारवादी पूँजीवादी प्रधानमन्त्री गियोवान्नी गियोलिटी के नेतृत्व में थोड़ी स्थिरता वापस लौटी और इटली में औद्योगिक विकास ने और गति पकड़ी। 1913 में सर्वमताधिकार के आधार पर इटली में पहले आम चुनाव आयोजित किये गये। लेकिन यह जनवादी संसदीय व्यवस्था अभी अपने पाँव जमा ही पायी थी कि 1915 में इटली ने मित्र राष्ट्रों की तरफ से प्रथम विश्वयुद्ध में प्रवेश किया। इसके बाद इटली में जो अस्थिरता पैदा हुई, उसने संसदीय व्यवस्था को जमने ही नहीं दिया। अक्टूबर 1917 में इटली कापोरेट्टो नामक जगह पर बुरी तरह हारते-हारते बचा। युद्ध के बाद इटली को कुछ ख़ास हासिल नहीं हुआ। इन सभी कारकों की वजह से पूरा देश विभाजित था। इसका प्रमुख कारण इटली का आर्थिक रूप से छिन्न-भिन्न हो जाना भी था। 1919 में जो चुनाव हुए, उसमें किसी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला। समाजवादियों और उदारवादियों को सबसे अधिक वोट मिले थे, लेकिन वे साथ में सरकार बनाने को तैयार नहीं थे। समाजवादियों ने 1919 में बोल्शेविक क्रान्ति के प्रभाव में वक्त से पहले ही सशस्त्र संघर्ष शुरू कर दिया। 1919-20 में इटली की पो घाटी में यह संघर्ष काफी आगे तक गया। समाजवादियों ने कई शहरों पर एक तरह से कब्ज़ा कर लिया था। ऐसा लग रहा था कि इटली एक गृहयुद्ध की कगार पर खड़ा है। लेकिन समाजवादियों ने इस उभार को सँभाल पाने के लिए न अपनी तैयारी की थी और न ही जनता की। नतीजतन, यह उभार कुचल दिया गया। इसे कुचलने में जहाँ बुर्जुआ राजसत्ता ने एक भूमिका निभायी, वहीं फ़ासीवादी सशस्त्र गिरोहों ने भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। 1919 के चुनावों में फ़ासीवादियों को कोई विशेष सफलता नहीं मिली थी। लेकिन 1919-20 के मज़दूर उभार ने सम्पत्तिधारी वर्गों के दिल में एक ख़ौफ पैदा कर दिया था। रूस में जो कुछ हुआ था, वह उनके सामने था। ऐसे मौके पर उन्हें किसी ऐसी ताकत की ज़रूरत थी जो मज़दूर उभार को कुचलने के लिए एक वैकल्पिक गोलबन्दी कर सके। यह वायदा मुसोलिनी ने उनसे किया। मुसोलिनी ने उद्योगपतियों से वायदा किया कि अगर वे उसे समर्थन देते हैं तो वह औद्योगिक अनुशासन को फिर से स्थापित करेगा। इसके बाद से ही मुसोलिनी को उद्योगपतियों से भारी आर्थिक मदद मिलनी शुरू हुई जिसके बूते पर फ़ासीवादियों ने ज़बरदस्त प्रचार किया और जनता के दिमाग़ में ज़हर घोला। शहरों में फ़ासीवादियों के सशस्त्र दस्तों ने मज़दूर कार्यकर्ताओं, ट्रेडयूनियनिस्टों, कम्युनिस्टों, हड़तालियों आदि पर हमले और उनकी हत्याएँ करनी शुरू कीं। फ़ासीवाद पूँजी, और विशेषकर बड़ी पूँजी की सेवा में अपने हरबे-हथियारों के साथ हाज़िर था।

दक्षिणी इटली में बड़े भूस्वामी अपने तईं स्वयं फ़ासीवादी तरीकों से किसानों और खेतिहर मज़दूरों के संघर्ष का दमन कर रहे थे। फ़ासीवाद की यह किस्म जल्दी ही मुसोलिनी के फ़ासीवाद में समाहित हो गयी और बड़ा भूस्वामी वर्ग मुसोलिनी का एक बड़ा समर्थक बनकर उभरा। 1920 के अन्त में एक अन्य प्रतिद्वन्द्वी फ़ासीवादी संगठन जिसका नेता गेब्रियेल दि’ अनुंसियो था, मुसोलिनी की फ़ासीवादी धारा में शामिल हो गया। 1921 तक इतालवी समाजवादी पार्टी द्वारा बिना किसी तैयारी के किया गया सशस्त्र विद्रोह कुचला जा चुका था। शहरों में कायम हुआ मज़दूर नियन्त्रण योजना और हथियारबन्द तैयारी के अभाव में कुचला जा चुका था। फ़ासीवादी आन्दोलन की बढ़त स्पष्ट रूप से हासिल हो चुकी थी। अक्टूबर 1922 में मुसोलिनी ने नेपल्स में फ़ासीवादी पार्टी की कांग्रेस में निर्णय लिया कि फ़ासीवादी रोम पर चढ़ाई करेंगे। फ़ासीवादी सशस्त्र गिरोहों ने रोम पर चढ़ाई शुरू कर दी। राजा विक्टर इमानुएल तृतीय ने घुटने टेक दिये और मुसोलिनी को सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित किया और इसके साथ 1922 में मुसोलिनी इटली का प्रधानमन्त्री बना। उसने एक गठबन्‍धन सरकार गठित की जिसमें इतालवी संशोधनवादी शामिल थे, जिस पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए! उनका मानना था कि मुसोलिनी को वे उदारवादी धारा का अंग बना लेंगे। इतिहास ने उनकी इस इच्छा को मूर्खतापूर्ण साबित किया।

1924 के चुनावों में फ़ासीवादी पार्टी को 65 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए। हालाँकि, सामाजिक जनवादी नेता मात्तिओत्ती ने संसद में प्रमाण सहित साबित किया कि चुनाव में फ़ासीवादियों ने घपले और बल के आधार पर दो-तिहाई के करीब वोट हासिल किये हैं, लेकिन फ़ासीवादियों ने संसद में शोर मचाकर उसे आगे बोलने ही नहीं दिया। दो महीने बाद फ़ासीवादी गुण्डों ने मात्तिओत्ती को चाकू से गोद-गोदकर मार डाला। यही हाल जल्दी ही उन सभी राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वियों का हुआ जिन्होंने मुसोलिनी की मुख़ालफत की हिम्मत की। 1925 में मुसोलिनी ने अपनी खुली तानाशाही को स्थापित करने की प्रक्रिया शुरू कर दी। एक-एक करके सभी अन्य पार्टियों पर प्रतिबन्‍ध लगा दिया गया। नवम्बर, 1926 में ”अपवादस्वरूप पेश कानूनों” के साथ यह प्रक्रिया पूरी हो गयी। इसके बाद के 17 वर्षों में मुसोलिनी ने अपने सभी राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वियों को ख़त्म करने का काम किया और किसी को भी सिर नहीं उठाने दिया।

फ़ासीवादी शासन के सुदृढ़ रूप से स्थापित होने के बाद मज़दूर प्रतिरोध को बुरी तरह कुचल दिया गया। कहने के लिए मालिकों और मज़दूरों के संघ बनाए गये, जिसमें कि फ़ासीवादी पार्टी के लोग भी होते थे। इन संघों को ही निर्णय लेने का अधिकार था कि उत्पादन कितना, कैसे और किसके लिए किया जाये। लेकिन यह बात बस दिखावा थी। वास्तव में मज़दूर प्रतिनिधि इसमें कुछ भी नहीं बोल सकते थे। सारे निर्णय पूँजीपतियों के प्रतिनिधि फ़ासीवादियों के साथ मिलकर लेते थे। मज़दूरों के एक हिस्से को फ़ासीवादियों ने अपने साथ मिला रखा था जिसके कारण मज़दूर कोई संगठित प्रतिरोध नहीं खड़ा कर पाते थे। अपने साथ मज़दूरों को शामिल करने के लिए फ़ासीवादियों ने उनके बीच सुधार के काम किये और उनके मनोरंजन के लिए क्लब आदि बनाये। साथ ही, उनके बीच आपसी आर्थिक सहयोग के संगठन बनाये जिनका फायदा 10 से 15 फीसदी मज़दूरों को मिलता था। लेकिन सिर्फ इतने मज़दूरों को एक भ्रामक और बेहद मामूली फायदा पहुँचाकर और अच्छे-ख़ासे मज़दूरों को इस फायदे का सपना दिखलाकर वे मज़दूरों की वर्ग चेतना और एकजुटता को तोड़ने में सफल हो गये। यही कारण था कि ऐसे मालिक-मज़दूर संघों में मज़दूरों का ज़बरदस्त शोषण जारी रहा और उसका कोई कारगर प्रतिरोध भी नहीं हो सका। बाद में बात यहाँ तक पहुँच गयी कि हड़ताल पर प्रतिबन्‍ध लगा दिया गया, किसी भी प्रकार के प्रदर्शन या जुटान को अपराध घोषित कर दिया गया, ट्रेडयूनियनों पर रोक लगा दी गयी और उनकी जगह पूँजी के तलवे चाटने वाले मज़दूर संघों ने ले ली जिनमें फ़ासीवादी घुसे होते थे। फ़ासीवादियों ने वर्ग सहयोग के नाम पर उजरती श्रम की ग़ुलामी को और अधिक बढ़ाया और मज़दूरों को पूँजीपतियों का और अधिक ग़ुलाम बनाया।

इतालवी फ़ासीवाद को कृषक पूँजीपति वर्ग का भी ज़बरदस्त समर्थन प्राप्त था। हम पहले भी बता चुके हैं कि उत्तरी इटली में पूँजीवादी कृषि का विकास हो गया था और वहाँ एक उन्नत कृषक पूँजीपति वर्ग सामने आ चुका था। लेकिन साथ ही ग़रीब किसानों और खेतिहर मज़दूरों का एक आन्दोलन भी कम्युनिस्टों और समाजवादियों के नेतृत्व में पैदा हो चुका था। संगठित किसान व खेतिहर मज़दूर संघर्षों के कारण मुनाफे की दर कम होती जा रही थी। इससे निपटने के लिए इन पूँजीपतियों को राजसत्ता के समर्थन की आवश्यकता थी। लेकिन इतालवी एकीकरण के बाद उदारवादी पूँजीवादी राजसत्ता इतनी ताकतवर नहीं थी कि पूँजी के पक्ष में कोई खुला दमनात्मक कदम उठा सके। नतीजतन यहाँ पर फ़ासीवादियों के उभार की एक ज़मीन मौजूद थी। फ़ासीवादियों ने इन मज़दूर आन्दोलनों पर नकेल कसने का कृषक पूँजीपतियों से वायदा किया और इसके बदले में उन्हें उनका सहयोग-समर्थन प्राप्त हुआ। राज्य हस्तक्षेप की जगह फ़ासीवादियों के नग्न हस्तक्षेप ने ली। दक्षिणी इटली में बड़े भूस्वामी वर्ग को फ़ासीवादी पार्टी के समर्थन की ज़रूरत नहीं थी क्योंकि वह सभी फ़ासीवादी कदम और हिंस्र हमले अपने माफिया गिरोहों के दम पर कर लेता था और अपने यहाँ की ग़रीब किसान व काश्तकार आबादी व खेतिहर मज़दूरों को कुचलकर रखता था। फ़ासीवादी पार्टी ने मुसोलिनी के नेतृत्व में कुशलता से फ़ासीवाद की इस अभिव्यक्ति को अपने में समाहित करा लिया। यहाँ का बड़ा भूस्वामी वर्ग भी फ़ासीवाद का ज़बरदस्त समर्थक बना।

इटली में फ़ासीवाद के उदय की पृष्ठभूमि और प्रक्रिया के इस विश्लेषण के बाद साफ है कि यहाँ पर भी फ़ासीवादी उभार की मूल वजहें कमोबेश वे ही रही हैं जो जर्मनी में थीं। जर्मनी में फ़ासीवाद के उदय का कालानुक्रम अलग था, लेकिन वहाँ पर भी प्रेरक शक्तियाँ कमोबेश वे ही थीं।

फ़ासीवादी उभार की ज़मीन हमेशा पूँजीवादी विकास से पैदा होने वाली बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी, अस्थिरता, असुरक्षा, अनिश्चितता और आर्थिक संकट से तैयार होती है। फ़ासीवादी प्रतिक्रिया के पैदा होने की उम्मीद उन देशों में सबसे अधिक होती है जहाँ पूँजीवादी विकास किसी क्रान्तिकारी प्रक्रिया के द्वारा नहीं बल्कि एक विकृत, विलम्बित और ठहरावग्रस्त प्रक्रिया से होता है। जर्मनी और इटली विश्व इतिहास के पटल पर बहुत देर से पैदा होने वाले राष्ट्र थे। इन देशों में एकीकृत पूँजीवाद और उसकी मण्डी में पैदा होने वाला अन्‍धराष्ट्रवाद तब अस्तित्व में आया जब विश्व पैमाने पर पूँजीवाद अपनी चरम अवस्था साम्राज्यवाद, यानी इजारेदार पूँजीवाद, की अवस्था में प्रवेश कर चुका था। नतीजतन, इन दोनों ही देशों में पूँजीवादी विकास बेहद द्रुत गति से हुआ जिसने आम मेहनतकश आबादी, निम्न मध्‍यवर्गीय आबादी और आम मध्‍यवर्गीय आबादी को इस गति से उजाड़ा जिसे सोख पाने की क्षमता इन देशों के अविकसित पूँजीवादी जनवाद में नहीं थी। दूसरी तरफ, विश्वव्यापी पूँजीवादी मन्दी ने इन दोनों ही देशों के पूँजीपति वर्ग की हालत खस्ता कर दी। पूँजीपति वर्ग अब किसी उदारवादी पूँजीवादी जनवाद और उसकी कल्याणकारी नीतियों का ख़र्च उठाने के लिए कतई तैयार नहीं था। वह मज़दूरों को उनके श्रम अधिकार देने के लिए भी तैयार नहीं था। इसके लिए सभी जनवादी अधिकारों का दमन और मज़दूर आन्दोलन को कुचलना ज़रूरी था। इस आन्दोलन को एक प्रतिक्रियावादी आन्दोलन के ज़रिये ही कुचला जा सकता था। यह प्रतिक्रियावादी आन्दोलन निम्न पूँजीपति वर्ग, लम्पट सर्वहारा वर्ग, धनी और मंझोले किसान वर्ग की प्रतिक्रिया की लहर पर सवार होकर जर्मनी में नात्सी पार्टी और इटली में फ़ासीवादी पार्टी ने खड़ा किया। हालाँकि समय ने यह साबित किया कि फ़ासीवादी उभार ने निम्न पूँजीपति वर्ग और लम्पट सर्वहारा या मंझोले किसान को कुछ भी नहीं दिया। आगे चलकर उनका भी दमन किया गया। वास्तव में, फ़ासीवादी उभार ने हर हमेशा मुख्य तौर पर दो ही वर्गों को फायदा पहुँचाया क्योंकि वह उन्हीं का प्रतिनिधि था – वित्तीय और औद्योगिक बड़ा पूँजीपति वर्ग और धनी किसान, कुलक व फार्मरों का वर्ग, यानी बड़ा कृषक पूँजीपति वर्ग। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि इतिहास के समक्ष और कोई रास्ता नहीं था। सच्चाई तो यह है कि ऐसे देशों में पूँजीवादी संकट पैदा होने के बाद क्रान्तिकारी सम्भावना और प्रतिक्रियावादी सम्भावना, दोनों ही समान रूप से मौजूद रहती हैं। इटली और जर्मनी, दोनों ही देशों में फ़ासीवादी उभार का एक बहुत बड़ा कारण मज़दूर वर्ग के ग़द्दार सामाजिक जनवादियों की हरकतें रहीं। इन दोनों ही देशों में क्रान्तिकारी सम्भावना ज़बरदस्त रूप से मौजूद थी, लेकिन सामाजिक जनवादियों ने मज़दूर आन्दोलन को अर्थवाद, सुधारवाद, संसदवाद और ट्रेडयूनियनवाद की चौहद्दी में ही कैद रखा। पूरा मज़दूर आन्दोलन जर्मनी में सर्वाधिक संगठित था, लेकिन वह महज़ एक दबाव फैक्टर बनकर रह गया जो प्राप्त कर लिये गये जनवादी अधिकारों से चिपका रह गया, जबकि पूँजीवाद का संकट अब माँग कर रहा था कि पूँजीवाद का विकल्प दिया जाये। किसी विकल्प के पेश न होने की सूरत में वही क्रान्तिकारी सम्भावना प्रतिक्रियावाद की दिशा में मुड़ गयी और जर्मनी में नात्सी पार्टी और इटली में फ़ासीवादी पार्टी इसके इस्तेमाल के लिए तैयार खड़ी थीं।

अन्त में, समाहार करते हुए हम कह सकते हैं कि फ़ासीवादी उभार की सम्भावना ऐसे पूँजीवादी देशों में हमेशा पैदा होगी जहाँ पूँजीवाद बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के ज़रिये नहीं आया, बल्कि किसी भी प्रकार की क्रमिक प्रक्रिया से आया; जहाँ क्रान्तिकारी भूमि-सुधार लागू नहीं हुए; जहाँ पूँजीवाद का विकास किसी लम्बी, सुव्यवस्थित, गहरी पैठी प्रक्रिया के ज़रिये नहीं बल्कि असामान्य रूप से अव्यवस्थित, अराजक और द्रुत प्रक्रिया से हुआ; जहाँ ग्रामीण क्षेत्रों में पूँजीवाद इस तरह विकसित हुआ कि सामन्ती अवशेष किसी न किसी मात्रा में बचे रहे। ऐसे सभी देशों में पूँजीवाद का संकट बेहद जल्दी उथल-पुथल की स्थिति पैदा कर देता है। समाज में बेरोज़गारी, ग़रीबी, अनिश्चितता, असुरक्षा का पैदा होना और करोड़ों की संख्या में जनता का आर्थिक, सामाजिक और भौगोलिक तौर पर उजड़ना बहुत तेज़ी से होता है। ऐसे में पैदा होने वाली क्रान्तिकारी परिस्थिति को कोई तपी-तपायी क्रान्तिकारी पार्टी ही संभाल सकती है। फ़ासीवादी उभार होना ऐसी परिस्थिति का अनिवार्य नतीजा नहीं होता है। फ़ासीवादी उभार हर-हमेशा सामाजिक जनवादियों की घृणित ग़द्दारी के कारण और क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों की अकुशलता के कारण सम्भव हुआ है। जर्मनी और इटली दोनों ही इस तथ्य के साक्ष्य हैं। 

अगले अंक में हम भारत में फ़ासीवाद के उभार के इतिहास के बारे में पढ़ेंगे और साथ ही भारत में फ़ासीवाद से लड़ने के रास्तों पर विचार करेंगे। आज हर क्रान्तिकारी ताकत के सामने यह सबसे जीवन्त और ज्वलन्त सवालों में से एक है। भारत में भी हम बेहद तेज़ी से उस पूँजीवादी संकट की तरफ बढ़ रहे हैं, जो क्रान्तिकारी सम्भावना और प्रतिक्रियावादी सम्भावना को समान रूप से जन्म देता है। फ़ासीवादी ताकतें इस प्रतिक्रियावादी सम्भावना को संभालने की तैयारी में लगी हुई हैं। ऐसे में क्रान्तिकारी ताकतों को अपनी तैयारियाँ कैसे करनी होंगी? यही अगली किश्त की प्रमुख विषय-वस्तु होगी।

बिगुल, अगस्‍त 2009

 


 

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