चेन्नई बाढ़ त्रासदी – प्राकृतिक क़हर नहीं,  विकास के पूँजीवादी  रास्ते का नतीजा

रणबीर

गुज़रे वर्ष का अन्त दक्षिण भारत ख़ासकर तमिलनाडू के चेन्नई (मद्रास) शहर के लोगों पर पड़ी बाढ़ की भारी मार के साथ कड़वी यादें छोड़ गया है। नवम्बर-दिसम्बर में बाढ़ के कारण 400 से अधिक लोग मारे गये और 18 लाख से अधिक विस्थापन का शिकार हुए हैं। इसके चलते एक लाख करोड़ रुपये के आर्थिक नुक़सान का अन्दाज़ा लगाया गया है। लौट रहे मानसून में, बंगाल की खाड़ी में बने कम दबाव के चलते भारी बरसात हुई। तमिलनाडू, आन्ध्र प्रदेश के कई शहरों व ज़िलों में और केन्द्र शासित पाडूचेरी में लोगों को बाढ़ की मार झेलनी पड़ी। चेन्नई शहर का अधिकतर हिस्सा पानी से भर गया। शहर के निचले हिस्सों में तो बेहद बुरी हालत थी। कुछ दिनों के लिए अस्पताल, स्कूल, परिवहन, बिजली, टेलीफ़ोन, आदि सब ठप्प हो गये।

अचानक भारी बरसात के कारण आयी बाढ़ को प्राकृतिक क़हर नहीं कहा जा सकता। यह बाढ़ उस विकास ढंग का नतीजा है जो हमारे देश में लागू किया जा रहा है।

Chennai-Floodभारत का पाँचवाँ सबसे बड़ा चेन्नई शहर जनसंख्या सघनता के मामले में चौथे स्थान पर है। इसे दुनिया का 36वाँ चौथा सबसे बड़ा शहरी क्षेत्र होने का दर्जा भी प्राप्त है। यह दक्षिण भारत का सबसे बड़ा औद्योगिक व व्यापारिक केन्द्र है। इसे दक्षिण भारत के अहम आर्थिक, सांस्कृतिक और शिक्षा के केन्द्र के तौर पर भी जाना जाता है। पर्यटन के तौर पर भी इसके भारत और संसार में अहम स्थान माना जाता है। लेकिन यह सारा विकास पूँजीवादी ग़ैरयोजनाबद्ध विकास है। प्रकृति से भयानक छेड़छाड़ की गयी है। भारी बारिश जैसी प्राकृतिक स्थितियों को सिरे से नज़रअन्दाज़ करके शहरी विकास हुआ है। पानी के प्राकृतिक निकास के स्थानों – नालों, तालाबों, आदि की जगह क़ानूनी-ग़ैरक़ानूनी इमारतें, सड़कें, मैदान आदि बना दिये गये हैं। शहर में साधारण हालतों के लिए भी सीवरेज निकासी का आवश्यक प्रबन्ध नहीं किया गया। भारी बारिश जैसी प्राकृतिक हालत के दौरान पानी की निकासी के लिए तो शहर में कोई व्यवस्था की ही नहीं गयी। इसके चलते चेन्नई शहर का अधिकतर हिस्सा पानी में डूब गया।

सवाल है कि इसका ज़िम्मेदार कौन है? इसका स्पष्ट तौर पर ज़िम्मेदार समाज का वह तबका है जो अन्धाधुन्ध दौलत जुटाने में लगा हुआ है। वह इसके लिए इंसान और प्राकृतिक स्रोत-संसाधनों की घृणित से घृणित ढंग से लूट करने से गुरेज नहीं कर रहा। चेन्नई में पूँजीपतियों, सरकार व अफ़सरों के गठजोड़ ने क़ानूनी-ग़ैरक़ानूनी तौर-तरीक़ों के ज़रिये नाजायज़ तौर पर ऐसी जगहों पर क़ब्ज़े कर लिये जहाँ से पानी की निकासी हो सकती थी। दौलत कमाने के लिए और अय्याशी के अड्डे स्थापित करने के लिए अन्धाधुन्ध ग़ैरयोजनाबद्ध ढंग से धड़ाधड़ निर्माण कार्य हुआ है। इस दौरान बाढ़, भूकम्प जैसी परिस्थितियों के पैदा होने का ध्यान नहीं रखा गया। नाजायज़ क़ब्ज़ों के लिए ग़रीबों को दोष दिया जा रहा है। झुग्गी-झोंपड़ी में रहने को मज़बूर लोगों के पुख्ता रिहायश के लिए कोई भी क़दम सरकार ने नहीं उठाये। इनके पास रहने के लिए और कोई जगह नहीं है। नाजायज़ क़ब्ज़े करने वाते तो पूँजीपति और सरकारी पक्ष है।

बाढ़ या भूकम्प जैसी परिस्थिति से निपटने के लिए राहत कार्यों के लिए आवश्यक प्रबन्धों की पहले से कोई तैयारी नहीं थी। इसके चलते भी नुक़सान अधिक हुआ है। परिस्थिति बिगड़ने के बाद लोगों को राहत पहुँचाने के बड़े-बड़े दावे किये गये। राज्य व केन्द्र सरकार द्वारा किये जा रहे राहत कार्यों को बढ़ा-चढ़कर पेश किया गया। लेकिन बाढ़ प्रभावितों को न तो समय पर बाढ़ से बाहर निकाला गया, न ही उन्हें पर्याप्त पीने का पानी, भोजन, कपड़े, दवाएँ, आदि सामग्री समय पर पहुँचायी गयी। तमिलनाडू सरकार ने बाढ़ पीड़ितों की आवश्यक मदद न करने का ठीकरा केन्द्र सरकार के सिर फेंकने के लिए, खु़द को आर्थिक तौर पर कमज़ोर दिखाते हुए करोड़ों रुपये की मदद केन्द्र सरकार से माँग ली। केन्द्र ने भी माँगी गयी मदद में से कुछ हिस्सा देना ही माना है। इसमें से पीड़ितों तक कितना पहुँचेगा यह समझना मुश्किल नहीं। बाढ़ पीड़ितों की आवश्यक मदद करने की जगह पीड़ितों का हालचाल पूछने व मदद करने की ड्रामेबाज़ी पूरे ज़ोर से की गयी। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी भी हवाई जहाज़ के ज़रिये चेन्नई शहर का नज़ारा देखने गया। इस दौरे की फ़ोटोशॉप की गयी तस्वीरें पीआईबी द्वारा इण्टरनेट पर डाली गयीं, उनसे सरकार की जनता के दुखों के प्रति असंवेदनशीलता एक बार फिर जगज़ाहिर हो गयी। लोगों पर बरपे क़हर को अपना नाम चमकाने के लिए इस्तेमाल करना मोदी सरकार की कमीनगी की हद तक असंवेदनशीलता है।

दक्षिण भारत में चेन्नई और अन्य शहरों में आयी बाढ़ पहली घटना नहीं है जिसने भारत में हो रहे विकास के विनाशक चरित्र का पर्दाफ़ाश किया है। पिछले समय में जम्मू, केदारनाथ, व अन्य जगहों पर आयी बाढ़ के दौरान मची भारी तबाही ने पूँजीवादी विकास के मानवद्रोही चरित्र को नंगा किया है। भारत के विभिन्न हिस्सों में, शहरों और पर्यटन क्षेत्रों में तबाही के लिए बड़े स्तर पर आधार तैयार हुआ है जो भविष्य में समय-समय पर त्रासदियों का कारण बनता रहेगा।

मुनाफ़े पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था में इन त्रासदियों से छुटकारे और मानवता को केन्द्र में रखकर योजनाबद्ध ढंग से प्रकृति से तालमेल बिठाकर विकास की उम्मीद करना मूर्खता होगी। इसके लिए समाजवादी आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था की ज़रूरत है। चेन्नई जैसी त्रासदियाँ बार-बार हमें पूँजीवादी व्यवस्था की तबाही और समाजवादी व्यवस्था के निर्माण के लिए सामाजिक इंक़लाब की तैयारी के मैदान में कूदने की फ़ौरी ज़रूरत का अहसास करवाती हैं।

 


मज़दूर बिगुल
, जनवरी 2016


 

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