तुम्हारे जोंकों की क्षय

राहुल सांकृत्यायन

राहुल सांकृत्यायन सच्चे अर्थों में जनता के लेखक थे। वह आज जैसे कथित प्रगतिशील लेखकों सरीखे नहीं थे जो जनता के जीवन और संघर्षों से अलग-थलग अपने-अपने नेह-नीड़ों में बैठे कागज पर रोशनाई फि़राया करते हैं। जनता के संघर्षों का मोर्चा हो या सामंतों-जमींदारों के शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ़ किसानों की लड़ाई का मोर्चा, वह हमेशा अगली कतारों में रहे। अनेक बार जेल गये। यातनाएं झेलीं। जमींदारों के गुर्गों ने उनके ऊपर कातिलाना हमला भी किया, लेकिन आजादी, बराबरी और इंसानी स्वाभिमान के लिए न तो वह कभी संघर्ष से पीछे हटे और न ही उनकी कलम रुकी।

दुनिया की छब्बीस भाषाओं के जानकार राहुल सांकृत्यायन की अद्भुत मेधा का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि ज्ञान-विज्ञान की अनेक शाखाओं, साहित्य की अनेक विधाओं में उनको महारत हासिल थी। इतिहास, दर्शन, पुरातत्व, नृतत्वशास्त्र, साहित्य, भाषा-विज्ञान आदि विषयों पर उन्होंने अधिकारपूर्वक लेखनी चलायी। दिमागी गुलामी, तुम्हारी क्षय, भागो नहीं दुनिया को बदलो, दर्शन-दिग्दर्शन, मानव समाज, वैज्ञानिक भौतिकवाद, जय यौधेय, सिंह सेनापति, दिमागी गुलामी, साम्यवाद ही क्यों, बाईसवीं सदी आदि रचनाएं उनकी महान प्रतिभा का परिचय अपने आप करा देती हैं।

राहुल जी देश की शोषित-उत्पीड़ित जनता को हर प्रकार की गुलामी से आजाद कराने के लिए कलम को हथियार के रूप में इस्तेमाल करते थे। उनका मानना था कि ”साहित्यकार जनता का जबर्दस्त साथी, साथ ही वह उसका अगुआ भी है। वह सिपाही भी है और सिपहसालार भी।“

राहुल सांकृत्यायन के लिए गति जीवन का दूसरा नाम था और गतिरोध मृत्यु एवं जड़ता का। इसीलिए बनी-बनायी लीकों पर चलना उन्हें कभी गंवारा नहीं हुआ। वह नयी राहों के खोजी थे। लेकिन घुमक्कड़ी उनके लिए सिर्फ़ भूगोल की पहचान करना नहीं थी। वह सुदूर देशों की जनता के जीवन व उसकी संस्कृति से, उसकी जिजीविषा से जान-पहचान करने के लिए यात्रएं करते थे।

समाज को पीछे की ओर धकेलने वाले हर प्रकार के विचार, रूढ़ियों, मूल्यों-मान्यताओं-परम्पराओं के खिलाफ़ उनका मन गहरी नफ़रत से भरा हुआ था। उनका समूचा जीवन व लेखन इनके खिलाफ़ विद्रोह का जीता-जागता प्रमाण है। इसीलिए उन्हें महाविद्रोही भी कहा जाता है। जनता के ऐसे ही सच्चे सपूत महाविद्रोही राहुल सांकृत्यायन की एक पुस्तिका ‘तुम्हारी क्षय’ बिगुल के पाठकों के लिए हम धारावाहिक रूप से प्रकाशित कर रहे हैं। राहुल की यह निराली रचना आज भी हमारे समाज में प्रचलित रूढ़ियों के खिलाफ़ समझौताहीन संघर्ष की ललकार है।       -सम्पादक

जोंकें? – जो अपनी परवरिश के लिए धरती पर मेहनत का सहारा नहीं लेतीं। वे दूसरों के अर्जित खून पर गुजर करती हैं। मानुषी जोंकें पाशविक जोंकों से ज्यादा भयंकर होती हैं। इन्होंने मानव-जीवन को कितना हीन और संकटपूर्ण बना दिया, इसका जिक्र कुछ पहले हो चुका था और आगे भी कुछ करेंगे। इन जोंकों की उत्पत्ति कैसे हुई? आरम्भिक मनुष्य असभ्य था, वह जंगल में रहता था। लेकिन अपनी जीविका वह धरती में खोजता था। वह शिकार करता था। वह जंगल में फल तोड़ता था, लेकिन दूसरे की कमाई, दूसरे के खून को चूसकर गुजारा करना पसन्द नहीं करता था। आत्मरक्षा के लिए वह अपना नेता भी बनाता था। समाज का साधारण संगठन भी करता था। लेकिन चूसने वाले के लिए वहाँ स्थान न था। शिकारी अवस्था से मनुष्य पशुपालक की अवस्था में आया। अब भी उनके नायक और शासक खुद अपनी भेड़ और गायें रखते थे। हाँ, अब कभी-कभी एक-आध भेड़-गाय उनके पास पहुँचने लगी और इस प्रकार बहुत हल्के रूप में मानुषी जोंकों का आविर्भाव हुआ। कृषक की अवस्था में पहुँचने पर नेता और शासकों का प्रभाव और बढ़ा। उन्होंने राजा का रूप धारण करना शुरू किया। यद्यपि पहले समाज की आत्मरक्षा के लिए शस्त्र और शासन की सुव्यवस्था का भार उन पर सौंपा गया था और उनका पद तभी तक सुरक्षित था जब तक कि उन कार्यों के संचालन की योग्यता उनमें मौजूद रहती। योग्यता द्वारा निर्वाचित राजा भेंट और कर में अधिक धन एकत्र करने में सफल हुआ और इस प्रकार योग्यता के अतिरिक्त धन की शक्ति उसके हाथ आयी। अब जहाँ वह अपने शासक और नेता होने के जरिए लोगों पर प्रभाव डालता था, वहाँ धन का प्रलोभन देकर के भी कुछ लोगों को अपनी ओर खींच सकता था। इस तरह वह जहाँ कितने ही अत्याचार भी करने का साहस रखता था, वहाँ साथ ही यह भी कोशिश करने लगा कि उसके बाद उसका स्थान उसके लड़के को मिले। शताब्दियों के प्रयत्न से योग्यता का सबब भाड़ में चला गया और राजा की ज्येष्ठ सन्तान राजा बनने लगी। सम्पूर्ण राज-परिवार का खर्च दूसरों के ऊपर लदने लगा। इन जोंकों ने यही नहीं कि अपनी परिवरिश दूसरों की कमाई से चलानी शुरू की, बल्कि कितने ही धरती से धन उपजाने वाले को भी नौकर-परिचारक रखकर समाज को उनके श्रम से वंचित रखा। खानदानी राजा तब तक इस प्रकार शोषण, निठल्लापन और अपनी वासना-तृप्ति के लिए तरह-तरह की गन्दगी फैलाते रहते जब तक कि जनता को ऊबते देखकर कोई सेनापति या मन्त्री राजा का वध कर नये राजवंश की नींव नहीं डालता। जब से राजा अधिक सम्पत्ति का स्वामी और गैर-जवाबदेह शासक बनने लगा, तब से ‘यथा राजा तथा प्रजा’ का अनुकरण करते हुए कितने ही लोग स्वयं भी जोंक बनकर आराम से सुख और चैन की जिन्दगी बसर करने लगे। राजा भी प्रलोभन दे-देकर उन्हें इसके लिए उत्साहित करते थे। धरती से धन पैदा करने वाले का स्थान समाज में बहुत नीचा हो गया था और राजा, राजकुमार, पुरोहित, मन्त्री, सामन्त ही नहीं, बल्कि उनके परिचारक भी धन कमाने वालों से अधिक सम्मानित समझे जाते थे। शारीरिक श्रम को बहुत हेय दृष्टि से देखा जाता था। अब जोंकों की एक और श्रेणी भी पैदा हो गयी जो कारीगरों और किसानों द्वारा उत्पादित चीजों के क्रय-विक्रय का काम करती थी। इन साधारण बनियों ने लाभ-वृद्धि के साथ-साथ अपने काम को भी अधिक विस्तृत और सुव्यवस्थित किया। इनके बड़े-बड़े दल (कारवाँ) देश के एक कोने की चीज दूसरे कोने में पहुँचाते और आँख मूँदकर नफा कमाते थे। राजा, राजकुमारों के बाद अपनी राज-सेवा के उपहार में जिन मन्त्रियों और सेनानायकों को बड़ी-बड़ी जागीरें मिलीं, वे भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखते थे, और उनके बाद नम्बर था बनियों का। समाज में अब भी पुराना भाव कभी-कभी मौज मारता था जबकि किसान की कमाई को सबसे शुभ कमाई समझा जाता था। राजचाकरी और वाणिज्य को निम्न श्रेणी की जीविका मानते थे, लेकिन दुनिया का सुख और वैभव तो उसी के लिए है जिसके पास धन है, चाहे वह धन किसी भी तरह प्राप्त किया गया हो। राजकार्य और व्यापार की तो बात ही क्या, सूद के लाभ – जिसे कि पाप का धन अभी हाल तक समझा जाता रहा है – को भी कोई छोड़ने के लिए तैयार न था। सामन्त दासों और अर्द्ध-दास किसानों की पलटन से खेती कराते तथा कारीगरों से बेगार में चीजें तैयार कराते। व्यापारी स्थल और जलमार्ग से व्यापार ही नहीं करते थे, बल्कि कभी-कभी कुछ कारीगरों को जमा कर उनसे वाणिज्य की कितनी ही चीजें भी बनवाते थे। बिना मेहनत की कमाई अब सबसे इज्जत की कमाई हो गयी थी। और क्यों न हो, जब कि हजारों बरस से पुरोहित लोग खुद इस लूट के नफे से मौज करते आ रहे थे। उन्हीं के हाथ में भले-बुरे की व्यवस्था थी।

बढ़ते-बढ़ते अवस्था जब यहाँ तक पहुँची तो समझा जाने लगा कि राजा अपनी पुरानी तपस्या का उपभोग करने या खुदा की न्यामत को हासिल करने के लिए धरती पर आया है, तब बहुत हुआ तो राजवंश के संस्थापक प्रथम व्यक्ति ने कुछ योग्यता का परिचय दिया और उसके उत्तराधिकारी – चाहे योग्य हो या अयोग्य, सिर्फ भोग-विलास के लिए राजसिंहासन पर बैठते थे। मुफ्त के भोग-विलास को देखकर किसके मुँह में पानी न भर आता। और उसके लिए जब राजा लोग आपस में लड़ने लगते, तो योग्य सेनानायकों का महत्त्व बढ़ना जरूरी था। फिर उनकी जागीरें बढ़ीं और हालत यहाँ तक पहुँची कि राजा सामन्तों के हाथ की कठपुतली हो गया।

राहुल फाउण्‍डेशन, लखनऊ द्वारा राहुल का ये संकलन एक पुस्तिका की शक्‍ल में भी प्रकाशित हुआ है जिसे इस लिंक से खरीदा जा सकता है - http://janchetnabooks.org/product/tumhari-kshay/

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शिकार और कृषि के साथ पहले जोंकों का जन्म होता है। राजशाही युग में उनकी संख्या कुछ बढ़ती है और राजकुमार, राजकर्मचारी, व्यापारी तथा इनके परिचारक जोंकों की श्रेणी में शामिल होकर संख्या को और बढ़ा देते हैं। जब राजा सामन्तों के हाथ की कठपुतली हो जाते हैं, तब सामन्तों की स्वेच्छाचारिता का पृष्ठपोषण करना भी अपना कर्तव्य समझते हैं – ऐसी सामन्तशाही के युग में जोंकों की संख्या कई गुना बढ़ जाती है। इस युग का अन्त होने के समय यूरोप के बनियों को अपना प्रभाव बढ़ाने का नया मौका मिलता है। “वाणिज्ये बसते लक्ष्मीः” की कहावत प्रसिद्ध ही है। इंग्लैण्ड के व्यापारी भी पुर्तगाल, स्पेन आदि के व्यापारियों की देखादेखी दुनिया के दूर-दूर देश में व्यापार करने लगे। इंग्लैण्ड में उनके पास अपार सम्पत्ति जमा होने लगी। यूरोप के भिन्न-भिन्न देशों में व्यापार के सम्बन्ध में प्रतिद्वन्द्विता बढ़ने लगी, तो भी धरती का बहुत-सा हिस्सा अछूता था और सभी साहसियों के लिए कहीं न कहीं काम का क्षेत्र मौजूद था। अठारहवीं शताब्दी के अन्त तक यूरोप के व्यापारियों में अंग्रेजों ने प्रमुख स्थान प्राप्त कर लिया था। उनके पास दुनिया में सबसे अधिक बाजार थे। उनके माल से भरे जहाज इंग्लैण्ड से बाजारों को और बाजारों से इंग्लैण्ड को छह-छह महीने चलकर पहुँचाते थे। उस समय की लकड़ी को नावों – जिन्हें पाल और पतवार के सहारे एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता था – में यात्रा बड़ी संकट की थी, लेकिन अपार नफे के सामने संकट क्या चीज थी। व्यापारियों को सबसे अधिक चिन्ता थी – अधिक से अधिक परिमाण में माल कैसे तैयार हो। इसी समय इंग्लैण्ड में इंजिन का आविष्कार हुआ। भाप से चालित यन्त्र अधिक परिमाण में और ज्यादा तेजी के साथ माल तैयार करने लगा। इंजिनों को रेल और जहाज में लगा देने पर लम्बी-लम्बी यात्राएँ भी छोटी हो गयीं और खतरा तथा परतन्त्रता भी कम होती गयी।

यन्त्रों के आविष्कार से, उनके द्वारा बनी चीजों की अपेक्षा हाथ की बनी चीजें महँगी पड़ने लगीं और हाथ के कारीगर बेकार होने लगे। बेकारी से कुपित होकर कारीगरों ने कितने ही कारखानों को तोड़ा, जगह-जगह बलवे हुए। लेकिन अब व्यापारियों की शक्ति साधारण नहीं रह गयी थी। धन के कारण राजदरबारों में उनका प्रभाव और सम्मान सामन्तों की तरह होने लगा था और धन के बल पर शासन-तन्त्र पर वह अपना अधिकार जमा रहे थे। जिस यन्त्रचालित कारखानेदार – पूँजीपति के पीछे राजशक्ति थी, उसका मुकाबला ये कारीगर क्या करते? धीरे-धीरे उनके बलवे तो ठण्डे पड़ गये जिसमें दमन के अतिरिक्त एक यह भी कारण था कि यान्त्रिक कारखाने मुख्यतः इंग्लैण्ड में ही स्थापित हुए थे और इंग्लैण्ड के पास सारी दुनिया का बाजार पड़ा हुआ था। इस प्रकार वहाँ के पूँजीपति सभी कारीगरों को बेकार न करके उन्हें नये-नये कारखानों में लगाते जाते थे। जैसे ही जैसे व्यापार चमकता गया वैसे ही वैसे पूँजीपतियों के पास अपार धनराशि जमा होती गयी। वहाँ का राज शासन भी पूँजीपतियों के हाथ चला गया और राजशाही या सामन्तशाही सरकार की जगह पूँजीवादी सरकार स्थापित हुई। इसका पवित्र कर्तव्य था पूँजीपतियों के स्वार्थों की रक्षा करना।

इस नयी आर्थिक व्यवस्था से संसार में तरह-तरह की उथल-पुथल होने लगी। देश के श्रमिक पूँजीपतियों के अर्थदास बनने लगे। जिन देशों पर पूँजीवादियों का शासन था, वहाँ पर भी उसी स्वार्थ को सामने रखकर काम लिया जाने लगा। इंग्लैण्ड में सामन्तशाही का स्थान पूँजीशाही ने लिया था, किन्तु हिन्दुस्तान में उस वक्त तक सामन्तशाही ही चल रही थी। तो भी अंग्रेजी पूँजीशाहों ने अपने देश की तरह हिन्दुस्तान से सामन्तशाही को लुप्त होने नहीं दिया। उसी का परिणाम है कि यद्यपि सारे भारतवर्ष पर अंग्रेजी पूँजीशाही का शासन है तो भी भीतर में सामन्तशाही को रियासतों और बड़ी-बड़ी जमींदारियों के रूप में कायम रखा गया है। पूँजीवाद मनुष्यों को अर्थदास बनाता है और बराबर बेकारी पैदा करके उन्हें नरक की यातना में ढकेलता है, यह बात तो अब स्पष्ट हो चुकी थी। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक बाजारों और साम्राज्य के विस्तार के लिए आपस में लड़ती यूरोप की राजशक्तियों ने यह भी दिखला दिया था कि पूँजीवाद युद्धों का प्रधान कारण है।

इसी समय जर्मनी में एक विचारक पैदा हुआ जिसका नाम था कार्ल मार्क्स। उसने बतलाया कि बेकारी और युद्ध पूँजीवाद के अनिवार्य परिणाम रहेंगे बल्कि जितना ही पूँजीवाद की संरक्षकता में यन्त्रों का प्रयोग बढ़ता जायेगा, बेकारी और युद्ध उतना ही भयानक रूप धारण करते जायेंगे – उसने इससे बचने का एक ही उपाय बतलाया – साम्यवाद। जर्मनी, फ्रांस – जहाँ भी उसने अपने इन विचारों को प्रकट किया, वहाँ की सरकारें उसके पीछे पड़ गयीं। पूँजीपति समझ गये कि साम्यवाद उनकी जड़ काटने के लिए है। उसमें तो सारी सम्पत्ति का मालिक व्यक्ति न होकर समाज रहेगा। उस वक्त हर एक को अपनी योग्यता के मुताबिक काम करना पड़ेगा और आवश्यकता के मुताबिक जीवन-सामग्री मिलेगी। सबके लिए उन्नति का मार्ग एक-सा खुला रहेगा। कोई किसी का नौकर और दास नहीं रहेगा। भला धनी इसे कब पसन्द करने वाले थे? लेकिन अभी तक मार्क्स के विचार सिर्फ हवा में गूँज रहे थे। मजदूरों पर उनका असर बिलकुल हल्का-सा पड़ रहा था, इसलिए पूँजीवादियों का विरोध तेज न था – खास करके जबकि उन्होंने देखा कि एक समय के आग उगलने वाले प्रलोभनों को हाथ में आया पाकर वे पूँजीवाद के सहायक बन सकते हैं। दुनिया की जोंकों ने समझा कि साम्यवाद हमेशा हवा और आसमान की चीज रहेगा और उसे कभी ठोस जमीन पर उतरने का मौका नहीं मिलेगा।

पूँजीवाद धीरे-धीरे हर मुल्क में बढ़ रहा था। यूरोप में तो उसकी गति बड़ी तेज थी। अन्त में सिपाहियों का देश जर्मनी भी उसकी बाढ़ से न बच सका। बल्कि प्रतिभाशाली जर्मनों ने यन्त्रों के आविष्कार और प्रयोग में और भी अधिक योग्यता दिखलायी। पूँजीवादी सरकारों ने दाँव-पेंच लगाकर दुनिया के हिस्से-बखरे कर लिये। जर्मनी ने देखा कि उसके लिए तो कहीं जगह नहीं। इसके लिए उसने वर्षों की तैयारी की, क्योंकि वह जानता था कि हथियार के बल पर उसे नया बाजार मिल सकता है। इसी आकांक्षा, इसी तैयारी का परिणाम था 1914 ई- का महायुद्ध। पूँजीवादी फैक्टरियों में गरीबों का खून चूसकर तृप्त न थे। वे बाजार और नफा लूटने के लिए बड़े पैमाने पर नर-संहार करना चाहते थे। जो कहते हैं कि महायुद्ध आस्ट्रिया के युवराज की हत्या के कारण हुआ था, वे या तो भोले-भाले हैं या जान-बूझकर झूठ बोलते हैं। युद्ध हुआ था जोंकों की खून की प्यास के कारण। जर्मनी की जोंकें परास्त हुईं। फ्रांस और इंग्लैण्ड की जोंकें विजयी। इन जोंकों की लड़ाई में एक फायदा हुआ कि दुनिया के छठे हिस्से – रूस से जोंकों का राज उठ गया। अब वहाँ ईमानदारी से कमाकर खाने वालों का राज है। आरम्भ में दुनिया की जोंकों ने पूरी कोशिश की कि वहाँ साम्यवादी शासन न होने पाये। लेकिन रूस के मजदूरों और किसानों ने हर तरह की कुर्बानी करके, जान पर खेलकर अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा की। लेनिन के नायकत्व में संस्थापित रूस की साम्यवादी सरकार आज दुनिया की जोंकों की आँखों में काँटे की तरह चुभ रही है। सारा पूँजीवादी जगत देख रहा है कि दुनिया के सभी मजदूर-किसान रूस की तरफ स्नेह भरी निगाह से देखते हैं और उससे अन्तःप्रेरणा ले रहे हैं।

महायुद्ध के अन्त में जोंकों की रक्तपिपासा के नंगे नाच को देखकर तथा रूस की क्रान्ति से प्रभावित होकर यूरोप के कितने ही देशों के मजदूरों में साम्यवाद का जोर बढ़ा। सामग्री तैयार थी, उसका उपयोग करके वहाँ भी साम्यवादी शासन स्थापित करने के लिए। लेकिन श्रमजीवियों का नेतृत्व जिन कमजोर दिलवाले शिक्षितों के कन्धों पर था, उन्होंने अपनी कायरता और कमजोरी को जनता के मत्थे मढ़ा और इस प्रकार श्रमजीवी-जागृति का वह वेग वि  शृंखलित हो गया। पूँजीपति महत्त्वाकांक्षी साम्यवादी नेताओं – जो कि आपस में होड़ और अनबन के कारण अपने लिए किसी बड़ी चीज की आशा न रखते थे – को आसानी से अपनी ओर मिला सकते थे, इसके लिए सिर्फ दो चीजों की जरूरत थी। एक तो आदर्श-द्रोही नेता को नेतृत्व दे दिया जाये और इसमें पूँजीवाद को कोई नुकसान तो था नहीं, दूसरे, उसी थैली से मदद दी जाये और यह बात भी पूँजीपतियों के लिए कड़वी नहीं थी, क्योंकि उनके हाथ से सारी की सारी थैली को मजदूर छीन लेने वाले थे। इस प्रकार पूँजीवाद ने नया रूप – ‘फासिज्म’ धारण किया। उसने असली उद्देश्य को छिपाकर सामन्तशाही के विनाशक पूँजीवाद के हथकण्डे इस्तेमाल किये और राष्ट्रीयता के नाम पर जनता को अपने झण्डे के नीचे एकत्रित होने के लिए आवाहन किया। वर्षों से मजदूर और किसान अपने शिक्षित मध्यम श्रेणी के साम्यवादी नेताओं की कायरता और विश्वास से तंग आ गये थे। उन्होंने फासिज्म को राष्ट्रीय पुनरुज्जीवन का सन्देशवाहक समझकर मदद दी, और, इस प्रकार फिर से पूँजीवाद ने अपने को मजबूत किया। शोषकों और शोषितों को कायम रखने वाले फासिज्म श्रमिकों के दुखों को भीतर से दूर कर नहीं सकते थे, इसलिए उन्होंने दूसरे देशों पर नजर गड़ायी। इटली में फासिज्म के जन्म का यह इतिहास है।

जर्मनी की जोंकें भी महायुद्ध में पराजित हुईं, लेकिन विजेता कभी यह नहीं चाहते थे कि पराजित जोंकें बिल्कुल नष्ट कर दी जायें। वह जानते थे कि जर्मनी में जोंकों का लोप इंग्लैण्ड और फ्रांस पर पूरा प्रभाव डालेगा। इसलिए उन्होंने उन्हें जीते रहने दिया। लड़ाई के बाद जर्मनी के श्रमजीवी भी अपने देश की जोंकों के अत्याचार को देखते-देखते तंग आ गये थे और उनमें बड़ी जागृति हुई तो भी शब्द के प्रयोग में प्रवीण, किन्तु मैदान में अत्यन्त कायर शिक्षित नेतागण ने उन्हें धोखा दिया और वे स्वर्ण-युग को लाने का दिलासा दे-देकर दिन बिताते रहे। जोंकें इतनी बेवकूफ न थीं। वे अवसर ताक रही थीं। जब साम्यवादी इस तरह अपने कीमती समय को बरबाद कर रहे थे, उस समय जोंकें भी मंसूबे बाँध रही थीं। युद्ध के बाद की घटनाओं को देखकर पूँजीवादियों को विश्वास हो गया कि उनके स्वार्थों की रक्षा वही कर सकता है जो स्वयं श्रमजीवी-श्रेणी का हो और जिसके दिल में पूँजीवादी श्रेणी के अस्तित्व की आवश्यकता ठीक जँचती हो। नात्सिज्म ने जर्मनी में जातीय पराभव और अपमान के नाम पर लोगों को अपनी ओर खींचना शुरू किया। पूँजीवादियों ने हिटलर के भूरी कमीज वाले संगठन को दृढ़ करने के लिए अपनी थैलियाँ खोल दीं। नेताओं के विश्वासघात से पीड़ित और कर्तव्यविमूढ़ श्रमजीवी-श्रेणी धीरे-धीरे हिटलर के फरेब में फँसने लगी और 1933 तक उसने अपनी शक्ति इतनी मजबूत कर ली कि शासन की बागडोर उसके हाथ आ गयी। हिटलर के शासन के चार वर्षों – 1933 से 1937 के बीच मजदूरों की जीवन-वृत्ति जर्मनी में आधी हो गयी और पूँजीपति चैन की बाँसुरी बजाने लगे तो भी पूँजीवाद के नये अवतार फासिज्म और नात्सिज्म श्रमजीवी जनता की आँख में धूल झोंकना अच्छी तरह जानते हैं। हिटलर ने जर्मनी के स्वाभिमान को लौटाने और वृहत्तर जर्मनी के निर्माण का प्रोग्राम उनके सामने रखा। फ्रांस और इंग्लैण्ड का पूँजीवाद पूँजीपतियों के वैयक्तिक स्वार्थ और अदूरदर्शिता के कारण श्रमजीवी जनता को अपनी ओर उतना खींच नहीं सकता था, इसलिए उन्हें फूँक-फूँककर कदम रखना पड़ता था। उधर जर्मनी पूँजीपतियों के स्वार्थ को आँख से ओझल रखकर राष्ट्रीय महत्त्वाकांक्षा को जबर्दस्त शराब पिला रहा था। दोनों ही तरफ जोंकों के स्वार्थ का सवाल था, और दोनों ही तरफ की जोंके अपने-अपने स्वार्थ के लिए जबर्दस्त तैयारियाँ कर रही थीं।

तीन वर्ष की तैयारी के बाद हिटलर ने जर्मन-स्वाभिमान लौटाने के लिए सबसे पहले कुछ करना चाहा। जापान ने मंचूरिया को हड़पकर दिखला दिया था कि इंग्लैण्ड, फ्रांस और अमेरिका के पूँजीवादी आपस में असहमत और लड़ाई के लिए तैयार नहीं हैं। वह फ्रांस और इंग्लैण्ड के भीतर मतभेदों को भी जानता था और समझता था कि इंग्लैण्ड सिर्फ अपनी पगड़ी बचाना चाहता है। यही समझकर 7 मार्च, 1936 ई- को हिटलर ने जर्मन फौजें राइनलैण्ड में उतार दीं और फ्रांस तथा इंग्लैण्ड मुँह ताकते रह गये। दो बरस चार दिन बाद – जबकि मुसोलिनी अबीसीनिया में इंग्लैण्ड की कलई खोल चुका था – 11 मार्च, 1938 को हिटलर ने आस्ट्रिया को हड़प लिया। बाहर की जोंकें तिलमिला कर रह गयी। लेकिन जर्मन जोंकों की प्यास न इतने से बुझ सकती थी और न जर्मन जनता को चिरकाल तक माखन छोड़ आलू खाने के लिए तैयार रखा जा सकता था। आलू खाने को राजी रखने के लिए न जाने अभी हिटलर को और कितने  काण्ड करने होंगे। 1 अक्टूबर 1938 ई- को हिटलर ने सुडेटेनलैण्ड को चेकोस्लोवाकिया से छीन लिया और 15 मार्च, 1938 ई- को सारी चेकोस्लोवाकिया को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। दुनिया भर की जोंकें अगले युद्ध के लिए जबर्दस्त तैयारियाँ कर चुकी हैं। अगले युद्ध के नर-संहार के सामने पिछला महायुद्ध कोई अस्तित्व नहीं रखेगा। जर्मनी के पास जहाँ अब आठ करोड़ आदमी जोंकों के लिए नये बाजार पर कब्जा करने के वास्ते खून बहाने को तैयार हैं, वहाँ उसने हवाई, सामुद्रिक और स्थानीय युद्धों के लिए भयंकर अस्त्र-शस्त्र तैयार कर रखे हैं। अब उसके हवाई जहाजों की एक चढ़ाई में पौन करोड़ आबादी का लन्दन निर्जन हो सकता है। लड़ाई में मरने वाले सिर्फ सैनिक नहीं रहेंगे, अब तो मरने वालों में अधिक संख्या होगी निरपराध नागरिकों की। कोई बूढ़ों-बच्चों की परवाह नहीं करेगा। सभी जोंकें बड़े जोश के साथ संसार में प्रलय लाने की तैयारियाँ कर रही हैं। जिस वक्त मनुष्य जाति ने अपने भीतर पहली जोंक पैदा की थी, उस वक्त उसे क्या मालूम था कि जोंकें बढ़कर आज उसे यह दिन दिखायेंगी। इसके विनाश के बिना संसार का कल्याण नहीं। जोंको! तुम्हारी क्षय हो!


 

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