इतिहास का एक टुकड़ा

जूलियस फ़्यूचिक

पत्रकार, साहित्य-आलोचक और कम्युनिस्ट नेता जूलियस फ़ूचिक चेकोस्लोवाकिया के क्रान्तिकारी थे। एक कारखाना मजदूर के बेटे फ़्यूचिक ने पन्द्रह-सोलह वर्ष की उम्र से ही मजदूर आन्दोलन और सांस्कृतिक जगत में काम करना शुरू कर दिया। बाद में उन्हें चेकोस्लावाकिया की कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्यपत्र ‘रूद प्रावो’ के सम्पादन की जिम्मेदारी दी गई। चेकोस्लोवाकिया पर नात्सी अधिकार कायम हो जाने के बाद फ़्यूचिक भी एक सच्चे कम्युनिस्ट की तरह फ़ासिज्म की बर्बरता के खिलाफ़ खड़े हुए। जल्दी ही जर्मन फ़ासिस्ट कुत्तों गेस्टापो ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और अनगिनत यातनाएं देने के बाद 8 सितम्बर, 1943 को बर्लिन में गोली मार दी। फ़्यूचिक तब मात्र चालीस वर्ष के थे। यहाँ हम जूलियस फ़्यूचिक की अमर कृति ‘फ़ांसी के तख्ते से’ का एक अंश दे रहे हैं, जो उन्होंने नात्सी जल्लाद के फ़न्दे की छाया में लिखी थी। -सम्पादक

मेरी कोठरी के सामने एक पेटी टँगी है। मेरी पेटी। इस बात का चिद्द कि जल्दी ही मुझे भेजा जायेगा। कभी रात को वे मुझे राइख ले जायेंगे, मुकदमा चलाने के लिए-और फि़र इसी तरह। मेरी जिन्दगी के आखिरी टुकड़े में से समय आखिरी कौर काट लेता है। पांक्राटस के चार सौ ग्यारह दिन आश्चर्यजनक तेजी से बीत गये हैं। अब और कितने दिन बाकी हैं। कैसे दिन और कहाँ बीतेंगे वे

जो भी हो, और कहीं शायद ही मुझे लिखने का मौका मिले। इसलिए यह मेरी आखिरी गवाही है। इतिहास का एक टुकड़ा जिसका प्रत्यक्षतः मैं ही अकेला जिन्दा गवाह हूँ।

जूलियस फ़्यूचिक

जूलियस फ़्यूचिक

फ़रवरी 1941 में उन्होंने चेकोस्लोवाकिया की कम्युनिस्ट पार्टी की पूरी केन्द्रीय समिति को गिरफ्तार कर लिया-और उनसे एक सीढ़ी नीचे के तमाम नेताओं को जो हम लोगों के चले जाने पर मोर्चे की संभाल करने वाले थे। यह कैसे हुआ कि एक ऐसा जबर्दस्त पहाड़ यों अचानक हमारे सिर पर टूट पड़ा, अभी तक इसका रहस्य पूरी तरह नहीं खुल सका है। शायद किसी दिन खुलेगा, जब गेस्टापो के कमीसार पकड़े जायेंगे और उन्हें बोलने के लिए मजबूर किया जायेगा। पेचेक बिल्डिंग के एक ट्रस्टी की हैसियत से मैंने इस भेद को पाने की बहुत कोशिश की लेकिन बेकार। इसमें निश्चय ही किसी जासूस का हाथ है, और हमारी तरफ़ की बेहद लापरवाही तो है ही। दो साल तक सफ़लतापूर्वक छिपे-छिपे काम करने से साथियों की चौकसी जाती रही थी। हमारा गैरकानूनी संगठन हद से ज्यादा फ़ैल गया( नये कार्यकर्ता जिसमें कि अगर कुछ होता तो वे पहली टोली की जगह ले सकते। सेलों का हमारा जाल इतना उलझ गया कि उस पर किसी तरह का नियंत्रण रखना असम्भव हो गया। हमारी पार्टी के केन्द्रीय समिति पर जो हमला हुआ, स्पष्ट ही, बहुत पहले से और बहुत अच्छी तरह उसकी तैयारी की गयी थी। और वह हुआ ठीक उस वक्त जब दुश्मन सोवियत संघ पर हमला करने जा रहा था।

पहले मुझे नहीं मालूम था कि हममें से कितने जाल में फ़ँस गये। पहले की योजना के अनुसार मैं इस बात की प्रतीक्षा करता रहा कि अभी लोग मुझसे संपर्क कायम करने की कोशिश करेंगे, लेकिन वह प्रतीक्षा बेकार थी। एक महीने बाद यह बात बिलकुल साफ़ थी कि कोई बहुत बड़ी घटना हो गयी है और मुझे सिर्फ़ इस बात की प्रतीक्षा करते नहीं बैठे रहना चाहिए कि बाहर का कोई आदमी मुझसे संपर्क कायम करेगा। लिहाजा मैंने भीतर ही संपर्कों की खोज शुरू की, और दूसरों ने भी यही खोज शुरू की।

पहला सदस्य जो मुझे मिला हॉन्ज़ा विसकोचिल था, मध्य बोहमिया के इलाके का अध्यक्ष। उसमें पहल करने की शक्ति बहुत थी और अभी से उसके पास ‘लाल अधिकार’ का प्रकाशन पुनः जल्द से जल्द चालू करने के लिए कुछ सामग्री मौजूद थी जिसमें पार्टी बिना पत्र की न हो जाये। मैंने मुख्य संपादकीय लिखा, लेकिन फि़र हम इस निश्चय पर पहुंचे कि सब सामग्री जिसका बाकी हिस्सा मैंने नहीं देखा था, ‘मई पत्र’ के नाम से छपे, ‘लाल अधिकार’ के नाम से नहीं। दूसरी पार्टियों ने भी नियमित संस्करणों की जगह ऐसे ही जब-तब छपनेवाले पत्र निकाले थे।

बाद के महीनों में कुछ छापेमार कार्रवाई हुई। हमला जबर्दस्त था सही, चोट भी जबर्दस्त थी लेकिन उससे पार्टी मर नहीं सकती थी। सैकड़ों नये काम करनेवालों ने उन कामों को उठा लिया जिन्हें नेता अधूरा छोड़कर चले गये थे, खेत रहे थे। उनके ताजे जोश और लगन की बदौलत पार्टी के बुनियादी संगठन में कोई गड़बड़ी नहीं आने पायी और न पस्तहिम्मती या निष्क्रियता ही घर करने पायी। लेकिन संचालन करने वाली केन्द्रीय शक्ति न थी और छापेमार दलों के काम में डर इस बात का था कि ठीक उस समय जब कि ऐक्यबद्ध, दृढ़, संगठित नेतृत्व की आवश्यकता होगी उस वक्त यह नेतृत्व न मिलेगा-उस वक्त जब कि दुश्मन सोवियत रूस पर हमला करेगा।

मैंने ‘लाल अधिकार’ की एक प्रति में किसी अनुभवी राजनीतिक कार्यकर्ता का हाथ देखा। उसे किसी छापेमार सेल ने प्रकाशित किया था। मुझे कहते हुए अफ़सोस हो रहा है कि मई मत्र का हमारा एक अंक जो निकला था वह कुछ बहुत सफ़ल न रहा था( लेकिन दूसरों ने उसमें इस बात का प्रमाण तो पाया कि सहयोग करने के लिए और भी कोई है। लिहाजा हम दोनों दल एक दूसरे से संपर्क कायम करने की कोशिश में लग गये।

यह वैसा ही था जैसे कोई किसी को एक बहुत घने जंगल में ढूंढे। हमें एक आवाज सुनायी देती और उसकी तलाश में निकल जाते। तब ठीक आवाज बहुत धीमे से एक बिलकुल दूसरी दिशा से आती सुनायी देती। हमको जो भीषण क्षति हुई थी उससे अब पार्टी में सब लोग अत्यन्त सतर्क ओर खूब चौकन्ने थे कि कहीं किसी जाल में न जा फ़ँसें। पहली केन्द्रीय समिति के दो सदस्य जो एक दूसरे को खोज रहे थे उन्हें बहुत इम्तहान पास करने पड़े और बहुत-सी रुकावटें रास्ते से अलग करनी पड़ीं- जो सब उन लोगों की लगायी हुई थीं जिन पर उन्हें विश्वास था कि उनमें से कोई धोखा तो नहीं खेल रहा है। मेरे रास्ते में सबसे बड़ी अड़चन यह कि मैं नहीं जानता था मैं किसे ढूंढ़ रहा हूँ- और न वही जानता था कि केन्द्रीय समिति का कौन सदस्य उससे मिलने की कोशिश कर रहा है।

आखिरकार हमें एक आदमी मिला जो हम दोनों को जानता था और हम दोनों की गारण्टी ले सकता था। वह एक बहुत अच्छा सा नौजवान आदमी था, डाक्टर मिलोश नेडवेड, जो हमारा पहला संदेशवाहक बना। वह मुझे बिलकुल अकस्मात् मिल गया। जून 1941 के दूसरे हफ्ते में मैं बीमार पड़ा और मैंने लिडा को डाक्टर को ढूँढ़कर बाक्सा के घर लाने के लिए कहा जहाँ कि मैं छिपा हुआ था। वह फ़ौरन आया और हमारी बातचीत में उसने बहुत डरते-डरते मुझे बतलाया कि उससे उस आदमी का पता लगाने के लिए कहा गया है जिसने मई पत्र का यह सम्पादकीय लिखा था। उसे इस बात का सपने में भी गुमान न था कि वह आदमी मैं हूँ क्योंकि उधर के तमाम लोगों को इस बात का यकीन था कि मैं पकड़ा गया और शायद खत्म कर दिया गया।

हिटलर ने 22 जून 1941 को सोवियत रूस पर हमला किया। उसी शाम हॉन्जा विस्कोचिल और मैंने एक पर्चा निकाल कर बतलाया कि चेकोस्लावाकिया के लिए उसका क्या मतलब है। 30 जून को आखिरकार मेरी मुलाकात उस आदमी से हुई जिसे मैं इतने दिनों से ढूँढ़ रहा था। वह मेरे दिये हुए पते पर आया क्योंकि वह जानता था कि वह किससे मिलने जा रहा है। मैं अब तक नहीं जानता था कि वह किससे मिलने जा रहा है। मैं अब तक नहीं जानता था कि वह कौन है। ग्रीष्म की रात थी, हवा एकेशिया के फ़ूलों की खुशबू से तर-सचमुच प्रेमी-प्रेमिका के अभिसार की रात। हममें से कोई बोले, इसके पहले हमने खिड़की पर पर्दा गिरा दिया। फि़र मैंने रोशनी जलायी और हम दोनों गले मिले। वह हान्जा जीका था।

फ़रवरी 1941 में पूरी केन्द्रीय समिति नहीं पकड़ी गई थी। एक अकेला सदस्य अब भी बाकी था-जीका। यों तो मैं उसे बहुत दिनों से जानता था और बहुत चाहता था। लेकिन हम लोगों ने एक दूसरे को अच्छी तरह जाना, अब जब संग काम शुरू किया। वह छोटा-सा, गोलमटोल आदमी था, सदा मुस्कुराता रहता, बहुत अच्छा मजाकिया आदमी लेकिन पार्टी के काम में बड़ा दृढ़व्रती, कठोर और क्षमाहीन। जो काम उसे करना है उसके सिवा वह कुछ न जानता न जानना चाहता। अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए उसने अपने सारे सुख-ऐश्वर्य से मुँह मोड़ लिया था। वह जनता को प्यार करता था और जनता उसे प्यार करती थी। लेकिन किसी की गलती को आँख की ओट करके उसने कभी किसी को अपना नहीं बनाया।

कुछ ही मिनटों में हम लोगों ने बातें तय कर लीं। और कुछ ही दिनों में मेरी मुलाकात, नयी केन्द्रीय समिति के एक तीसरे आदमी से हुई जिसके संपर्क में जीका मई के महीने से था, हॉन्जा चेर्नी। वह बहुत ही जोरदार आदमी था, जनता की तरफ़ उसका रुख बहुत ही अच्छा था। वह स्पेन में लड़ा  था, फि़र युद्ध शुरू होने पर फ़ेफ़ड़े में घाव लिये नात्सी जर्मनी पार करके वह देश लौटा था। वह सदा एक सैनिक ही रहा-योग्य, अंडरग्राउंड काम का अच्छा तजुर्बेकार और हमेशा पहल करने वाला।

महीनों के कठिन संघर्ष ने हमको बहुत अच्छा कामरेड बना दिया। अपने स्वभाव और अपनी विशेष शिक्षा-दीक्षा से हम एक दूसरे के पूरक थे। जीका था संगठनकर्ता, यथार्थवादी, छोटी से छोटी बात पर अड़नेवाला, इतना दृढ़ कि चिढ़ होती, और वह कभी लम्बी-चौड़ी बातों के जाल में न फ़ँसता। वह हर रिपोर्ट की गहरी से गहरी छानबीन करता। जब तक कि उसका पूरा महत्व उसकी समझ में न आ जाता, हर प्रस्ताव को हर संभव दिशा से जाँचता और तब दल के हर निर्णय को सहानुभूतिपूर्वक लेकिन दृढ़ता से पूरा करता।

चेर्नी के जिम्मे तोड़फ़ोड़ और सशस्त्र विद्रोह की तैयारियों का काम था। वह फ़ौजी भाषा में सोचता, उसकी आविष्कार-बुद्धि तेज थी, वह बहुत व्यापक रूप में, बड़े पैमाने पर योजना बनाता, अनथक परिश्रम करता और नये लोगों और नये साधनों की खोज में उसे सदा सफ़लता मिलती।

मैं था पत्रकार, राजनीतिक आंदोलनकारी, अपनी सूंघने की शक्ति पर विश्वास करने वाला। कभी कुछ विचित्र-सी बातें कहता, संतुलन और एकता पर बेहद जोर देता।

हमने एक-एक के जिम्मे ये जो काम बाँटे थे, यह असल में जिम्मेदारियाँ बाँटी थीं, काम नहीं। सदा मिलना और सलाह-मशविरा करना कठिन था इसलिए स्वतन्त्र कार्य या निश्चय करने की जरूरत पड़ने पर हम सभी एक दूसरे के विभाग का काम करते और उसके उत्तरदायित्व भी अपने ऊपर लेते। फ़रवरी के महीने में पार्टी पर जो हमला हुआ उसने हमारे सारे संपर्क-सूत्र छिन्न-भिन्न कर दिये, और उन्हें कभी पूरी तरह ठीक नहीं किया जा सका। किसी-किसी क्षेत्र में संगठन आमूल नष्ट कर दिया गया था। दूसरे तैयार हुए थे लेकिन उनसे कोई संपर्क कायम करना नामुमकिन साबित हुआ। इसके पहले कि हम उनसे कोई संपर्क स्थापित कर सकते, बहुत से कारखानों के सेल, कहीं-कहीं तमाम जिले और इलाके के संगठन, महीनों अलग-अलग कार्य करते रहे। हम ज्यादा से ज्यादा उम्मीद यह कर सकते थे कि हमारा केन्द्रीय मुखपत्र उन्हें मिलता रहे और और वे उसमें बतायी हुई सामान्य नीति का पालन करते रहे।

काम करना कठिन था, जबकि हमारे पास रहने के लिए भी जगहें न थीं। अपनी पहले की जगहें हम काम में ला नहीं सकते थे क्योंकि इस बात का पूरा अंदेशा था कि दुश्मन की उस पर हमेशा कड़ी निगाह रहती होगी। पहले हमारे पास पैसा न था और बिना राशन कार्ड के अनाज मिलना मुशकिल होता और राशन कार्ड लेने जाते तो हमारा सारा भेद ही खुल जाता। इन तमाम अड़चनों का सामना हमें उस वक्त करना पड़ा जबकि तैयारी करने और नये सिरे से ढाँचा खड़ा करने का वक्त बीत चुका था, जबकि हमें आगे बढ़कर लड़ाई में बाकायदा हिस्सा लेना था क्योंकि सोवियत रूस पर हमला हो चुका था।

दुश्मन से अन्दरूनी मोर्चे पर लड़ने का काम हमारा है, कारखानों में तोड़-फ़ोड़ की छोटी-मोटी लड़ाइयाँ। केवल अपने बलबूते पर नहीं बल्कि जहां तक संभव हो समूचे चेक राष्ट्र की संगठित शक्ति से। 1939 से 41 तक के तैयारी के सालों में पार्टी छुपकर काम करती रही सिर्फ़ जर्मन पुलिस से ही नहीं बल्कि चेक राष्ट्र से भी। खूनी दमन के बावजूद पार्टी को दुश्मन के खिलाफ़ अपना संगठन मजबूत और सख्त बनाना था, उसमें से त्रुटियां दूर करनी थीं और उसके साथ ही साथ अपने देशवालों का विश्वास भी जीतना था। इसका मतलब था उन लोगों के पास जाना जो किसी पार्टी के न थे; जो भी आजादी के लिए लड़ने को पूरी तरह तैयार हो उससे नाता जोड़ना, समूचे देश को संघर्ष के लिए आह्वान देना और सीधे-सीधे उनसे बातचीत करना जो अब भी सकुचा रहे थे।

सितंबर 1941 के आरंभ तक हम यह तो नहीं कह सकते थे कि हमने अपना टूटा हुआ संगठन फि़र से खड़ा कर लिया है। लेकिन यह हम जरूर कह सकते थे कि अब हमारे पास एक मजबूत अच्छी तरह संगठित कार्यकर्ताओं की टोली थी जो बड़े-बड़े काम उठा सकने की क्षमता अपने में रखती थी। अब पार्टी के प्रचार आन्दोलनों की ओर लोगों का ध्यान खिंचने लगा। तोड़-फ़ोड़ भी बढ़ा, सभी जगह कारखानों में हड़तालें हो रही थीं। सितंबर के अन्त में उन लोगों ने हेड्रिक को हमारे पीछे लगाया।

मार्शल लॉ का पहला दौर हमारे उत्तरोत्तर क्रियाशील होते हुए प्रतिरोध को नहीं तोड़ सका। हाँ, उसने उसकी गति को जरूर कम कर दिया और पार्टी को नये घाव लगाये। सबसे गहरा धक्का प्राग जिले को और युवकों के संगठन को लगा था। हमारे और कई नेता खेत रहे, जो पार्टी के लिए इतने कीमती थे-जान क्रेची, श्टान्ज़ल, मिलोश क्रास्नी और बहुत से और।

लेकिन यह तो हर चोट के बाद पता चलता था कि पार्टी कैसी अमर है। कोई कार्यकर्ता अगर मारा जाता तो लगने को चाहे ऐसा लगता कि कोई उसकी जगह कैसे भर सकेगा, लेकिन उसकी जगह लेने के लिए दो या तीन आ जरूर जाते। नया साल आते-आते फि़र हमारा एक मजबूत संगठन खड़ा हो गया। फ़रवरी 1941 के संगठन की तरह व्यापक वह नहीं था, इसमें संदेह नहीं, लेकिन तो भी दुश्मन की चुनौती कबूल करने की उसमें पूरी ताकत थी, किस्मत का फ़ैसला करने वाली लड़ाई की चुनौती। उस काम में हम सभी लोगों का हाथ था, लेकिन उसका मुख्य श्रेय हॉन्ज़ा जीका को जाता है।

हमारे प्रकाशन-कार्य के प्रमाण कमरों में, तहखानों में, साथियों की गुप्त फ़ाइलों में मिलेंगे, इसलिए उसके बारे में यहाँ बात करना व्यर्थ है।

हमारे अखबार बहुत बिकते थे और बहुत पढ़े जाते थे; केवल पार्टी के सदस्य ही नहीं देश भर के लोग उन्हें पढ़ते थे। वे या तो प्रेस में छापे जाते थे या साइक्लोस्टाइल पर। कई ‘टेकनिकल केन्द्रों’ से,

जो सब एक दूसरे से गुप्त और बिलकुल अलग थे, वे काफ़ी बड़ी संख्या में प्रकाशित होते। प्रकाशन का काम करने वाली कोई टोली यह नहीं जानती थी कि दूसरी टोली में कौन काम करता है या वह कहाँ काम करती है। यह भी कोई नहीं जानता था कि उनके आदेश आदि और लेख कहां से आते हैं। लड़ाई की परिस्थिति के अनुसार जितना तेज काम करना आदमी के लिए मुमकिन था, वे उतना तेज काम करते। उदाहरण के लिए हमने कॉमरेड स्तालिन का 23 फ़रवरी 1942 का फ़ौजी हुक्मनामा छापा और 24 की शाम को अपने पाठकों के हाथ में पहुँचा दिया। छापनेवाले साथियों ने बहुत अच्छा काम किया, वैसे ही जैसे डाक्टरों की टैकनिकल टुकड़ी ने और फ़ुक्स-लॉरेन्ज़ नाम की संस्था ने, जो अपना एक पर्चा निकालती थी जिसका नाम था ‘दुनिया हिटलर के खिलाफ़’। दूसरे पर्चों का ज्यादातर मसाला मैं खुद तैयार करता था, जिससे दूसरे खतरे में न पड़ें। मेरे न रहने पर मेरी जगह लेनेवाला बहुत पहले ही तैयार कर लिया गया था। मेरे पकड़े जाते ही उसने फ़ौरन काम सँभाल लिया, और अब भी कर रहा है।

काम के लिए जितना आसान से आसान ढाँचा हम खड़ा कर सकते थे वह हमने खड़ा किया, जिसमें किसी भी काम में कम से कम लोग फ़ँसें। हमने खबरें लाने ले जाने के उस पेचीदा सिलसिले को खत्म कर दिया, जो फ़रवरी 1941 में हमारी केन्द्रीय समिति को बचा भी न सका, उल्टे विश्वासघात के खतरे को जिसने और बढ़ा दिया। इससे हम सब लोग निजी तौर पर तो ज्यादा खतरे में पड़ गये, लेकिन पार्टी की मशीन अधिक सुरक्षित हो गयी। भविष्य में अगर पार्टी को कोई गहरी चोट लगी भी तो वह उसे अपंग न कर सकेगी, जैसा कि फ़रवरी में हुआ।

इसीलिए जब मैं पकड़ा गया तो केन्द्रीय समिति पूर्ववत कार्य करती रही। मेरी जगह लेनेवाला आदमी मेरी जगह पर पहुँच गया और मेरे निकटतम सहयोगियों को भी अन्तर नहीं पता चला।

हॉन्ज़ा ज़ीका 27 मई 1942 की रात को पकड़ा गया। वह भी बिलकुल अकस्मात्। वह हेड्रिक की हत्या के बाद की पहली रात थी, जब दुश्मन की सारी ताकतें तमाम प्राग में छापे मार रही थीं। वे स्‍ट्रेशोविस के मकान में, जहाँ जीका छुपकर रहता था, घुस गये। उसके कागज-पत्तर सब झूठे नाम से बने-बनाये अपनी जगह पर बिलकुल दुरुस्त थे और अगर उसने वह हरकत न की होती तो मुमकिन था उन्हें कुछ पता भी न चलता। लेकिन चूँकि वह उस नेक परिवार के लोगों की जान खतरे में नहीं डालना चाहता था जिन्होंने उसे शरण दी थी, चुनाँचे उसने दूसरी मंजिल की एक खिड़की से कूदकर भागने की कोशिश की। वह गिरा, उसकी रीढ़ की हड्डी में सख्त चोट आयी और उसे जेल के अस्पताल ले जाया गया। अठारह दिन की तलाशी और फ़ोटो की फ़ाइलों के मिलान के बाद वे साबित कर सके कि वह कौन है और तब वे उसे उस मरती हुई हालत में यातनाएँ देने के लिए पेचेक बिल्डिग ले गये। वहाँ उससे मेरी आखिरी मुलाकात हुई। जब वे लोग मुझे उसके पास ले गये, हम लोगों से हाथ मिलाया और हवा में जैसे किरणें बिखेरता हुआ वह मुस्कुराया,अपनी खुली हुई, बेबाक, मुहब्बत की मुस्कराहट। और कहाः

‘अपनी फि़क्र करना, जूलो!’

उसने मुँह से बस इतनी बात वे सुन सके। उसने एक शब्द और नहीं कहा। मुँह पर कुछ चोटें खाने के बाद वह बेहोश हो गया और दो घंटे में मर गया।

मुझे उसकी गिरफ्तारी की खबर 29 मई को लगी थी। बाहर के लोगों से हमारे संपर्क के माध्यम अच्छी तरह काम कर रहे थे। उनके जरिये हमने अपने अगले कदम, जहाँ तक सम्भव था, तय कर लिये थे। बाद में हॉन्जा चेर्नी ने भी उनकी ताईद की। वह हमारा आखिरी निश्चय था जो हमने संग-संग पार्टी की ओर से लिया था।

हॉन्जा चेर्नी 1942 के ग्रीष्म में पकड़ा गया। लेकिन इस बार अकस्मात् नहीं, जान पोकोर्नी द्वारा भयंकर अनुशासन-भंग के कारण, जान पोकोर्नी जिसका सीधा सम्बन्ध हॉन्जा से था। पोकोर्नी ने टोली के एक जिम्मेदार कार्यकर्ता की तरह आचरण नहीं किया। कई घंटे की यातनाओं के बाद-काफ़ी कठोर यातनाएँ, इसमें सन्देह नहीं, मगर उसने क्या गुलगुले पाने की उम्मीद की थी-वह घबरा उठा और उसने उनको उस मकान का पता बदा दिया जहाँ वह चेर्नी से मिला था। वहाँ से उन्होंने हॉन्जा का पता लगाना शुरू किया और कुछ दिन बाद वह गेस्टापो के हाथ आ गया।

जैसे ही वे उसे अन्दर ले आये, वे मुझे घसीटकर ले गये कि मैं उसे पहचानूँ।

‘तुम इसे जानते हो’

‘नहीं, मैं नहीं जानता।’

न उसने ही माना कि वह मुझे जानता है। इसके बाद उसने किसी भी सवाल का जवाब देने से साफ़ इन्कार कर दिया। उसके पुराने जख्मों ने लम्बी यातना से उसकी रक्षा की। वह जल्दी ही बेहोश हो गया। वे लोग उसे दूसरी बार यातना के लिए ले जायें, इसके पहिले ही हमने उसे अच्छी तरह परिस्थिति समझा दी और उसने उसी के अनुसार कार्य किया।

वे उसके मुँह से कोई बात नहीं निकलवा सके। उन्होंने उसे बहुत दिन तक जेल में रक्खा, इस इंतजार में कि उन्हें कुछ और नयी गवाही मिले तो वे उसका मौन तोड़ें। मगर वे हॉन्जा चेर्नी को तोड़ नहीं सके।

कैद ने उसमें कोई परिवर्तन नहीं किया। वह सदा साहसी, तत्पर और प्रसन्न रहा-दूसरों को भविष्य की ओर इशारा करता हुआ जबकि स्वयं उसके भविष्य का इशारा मौत की तरफ़ था।

अप्रैल के अन्त में वे उसे अचानक पांक्राट्स ले गये। पता नहीं कहाँ। यहाँ पर लोगों के इस तरह से अचानक गायब हो जाने का मतलब बुरा होता है। मुमकिन है कि मेरा ख्याल गलत हो, लेकिन मुझे अब उम्मीद नहीं है कि मैं फि़र हॉन्जा चेर्नी को देखूँगा।

हम सदा मौत को मानकर चलते थे। हम जानते थे कि गेस्टापो के हाथ में पड़ने का मतलब अन्त है। और हमने पकड़े जाने के बाद भी उसी के अनुसार आचरण किया, अपने अन्तःकरण में भी और दूसरों के संग अपने संबंधों में भी।

स्वयं मेरे नाटक का अन्त अब पास है। मैं वह अन्त नहीं लिख सकता क्योंकि मैं अभी नहीं जानता वह क्या होगा। और अब यह नाटक नहीं है, जिन्दगी है।

असलियत की जिन्दगी में तमाशा देखने वाले नहीं होते-तुम सब उसमें हिस्सा लेते हो। अब नाटक के अन्तिम अंक पर पर्दा उठता है। मैं तुम सबको प्यार करता था, दोस्तो। होशियार!

9 जून 1943


 

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