Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

‘एस्मा’ को तत्काल वापस लो! आँगनवाड़ीकर्मियों की माँगों को पूरा करो!!

क़ानूनन तो यह केवल सरकारी कर्मचारियों पर ही लगाया जा सकता है और आँगनवाड़ीकर्मियों को तो सरकार कर्मचारी मानती नहीं है फिर उनपर इसका इस्तेमाल क्या दिखलाता है!? और अगर आँगनवाड़ीकर्मियों द्वारा दी जा रहीं सेवाएँ आवश्यक सेवाएँ हैं, तो फिर उन्हें कर्मचारी का दर्जा क्यों नहीं दिया जा रहा??

कश्मीर के भारतीय औपनिवेशिक क़ब्ज़े पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर

आरएसएस ने पिछले सौ वर्षों में तमाम संस्थानों में अपनी पैठ जमायी है जिसमें न्यायपालिका प्रमुख है। इसने न्यायाधीशों से लेकर तमाम पदों पर अपने लोगों की भर्ती की है जिसके नतीजे के तौर पर आज हमें न्यायपालिका का साम्प्रदायिक चेहरा नज़र आ रहा है। आज संघ ने न्यायपालिका को भी संघ के प्रचार और फ़ासीवादी एजेण्डे को लागू करने का एक औजार बना दिया है। फ़ासीवाद की यह एक चारित्रिक अभिलाक्षणिकता होती है कि वह तमाम सरकारी व गैर सरकारी संस्थानों में अपनी पैठ जमाता है और इनके तहत अपने फ़ासीवादी एजेण्डे को पूरा करता है।

कांस्टेबल चेतन सिंह अकेला नहीं! देश भर में साम्प्रदायिक उन्माद फैलाकर साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ज़ॉम्बीज़ की फ़सल तैयार कर रहा है संघ परिवार

ऐसी रुग्ण साम्प्रदायिक ज़हर से ग्रसित आबादी कैसे पैदा हो रही है? यह समझने की ज़रूरत है कि यह एक दिन में तैयार नहीं होती। बल्कि  इसके लिए पूरा माहौल सालों से तैयार किया जा रहा है। यह अपने आप में इकलौती घटना नहीं है। ऐसी ही साम्प्रदायिक नफ़रत से लैस घटना अभी हाल ही में 24 अगस्त को उत्तरप्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर में घटी है। यह घटना गुरुमंसूरपुर पुलिस थाने के अन्तर्गत आने वाले खुब्बापुर गाँव में हुई जिसमें एक शिक्षिका तृप्ता त्यागी, एक बच्चे को मुस्लिम होने की वजह से सज़ा दे रही थी। इस घटना में वह उस बच्चे को अन्य बच्चों से पिटवाते हुए कह रही है, “मैंने तो घोषणा कर दिया, जितने भी मुसलमान बच्चे हैं, इनके वहाँ चले जाओ।” फिर पीटने वाले बच्चों को डाँटते हुए कह रही है “क्या तुम मार रहे हो? ज़ोर से मारो ना।”

अपराध-सम्बन्धी क़ानूनों में बदलाव के पीछे मोदी सरकार की असल मंशा क्या है?

इन नये क़ानूनों के ज़रिये मोदी सरकार अपनी फ़ासीवादी तानाशाही को एक क़ानूनी जामा पहनाने का काम कर रही है। जन प्रतिरोध के सभी रूपों को कुचल देने की मंशा से ही ये नये जनविरोधी क़ानून तैयार किये गये हैं। साथ ही, इन नये क़ानूनी बदलावों के ज़रिये पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत आने वाले अन्य निकायों जैसे कि न्यायपालिका, नौकरशाही, पुलिस, फ़ौज इत्यादि की भी क़ानूनी रास्ते से नकेल कसने की तैयारी की जा रही हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारतीय फ़ासीवादियों द्वारा लम्बे समय से इन सभी बुर्जुआ संस्थानों के भीतर घुसपैठ जारी थी और आज भी है, जिसके ज़रिये इनके द्वारा अपने लोग हर निकाय में व्यवस्थित तरीक़े से बैठाये भी गये हैं और इसलिए एक हद तक इन सभी निकायों का भीतर से फ़ासीवादीकरण करने में भारतीय फ़ासिस्ट सफल भी रहे हैं। हालाँकि अब क़ानूनी तौर पर भी इन संस्थानों का फ़ासीवादियों द्वारा अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल किये जाने का रास्ते साफ़ किया जा रहा है। लेकिन इन नये बदलावों का सबसे गम्भीर और बुरा प्रभाव इस देश के मज़दूरों और आम मेहनतकाश आबादी पर पड़ने वाला है इसलिए मज़दूर वर्ग को इन बदलावों के निहितार्थ समझने होंगे और अपनी लामबन्दी इसके अनुसार करनी होगी।

“निजता की सुरक्षा” के नाम निजता के उल्लंघन को कानूनी जामा पहनाने वाला नया विधेयक : ‘डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल’  

आपके इण्टरनेट और स्मार्टफ़ोन पर की गयी कोई भी गतिविधि आपके बारे में बहुत कुछ बता सकती है। आपकी इन्हीं गतिविधियों, चाहतों, विचारों, इच्छाओं को डाटा मार्केट में बेच दिया जाता है। आप कुछ ख़रीदना चाहते हैं तो उससे सम्बन्धित विज्ञापन आपको लगातार दिखाये जाते हैं। आप कहीं घूमने की योजना बना रहे हैं तो इससे सम्बन्धित ट्रैवल कम्पनियों के विज्ञापन, एसएमएस आदि आपके स्मार्टफ़ोन में दिखायी देना शुरू हो जाते हैं।

प्रोटेरियल के पुराने ठेका मज़दूरों की हड़ताल की आंशिक जीत और आगे की चुनौतियाँ!

मज़दूरों की यह आंशिक जीत यह दिखाती है कि अपनी वर्गीय एकजुटता और संघर्ष के ज़रिए अपनी माँगों को एक हद तक पूरा करवाया जा सकता है। ऑटोमोबाइल सेक्टर में यही एकजुटता अगर सेक्टर के आधार पर बनायी जाये तो इस सेक्टर में मज़दूर वर्ग अपने तमाम हक़ और अधिकार हासिल कर सकता है। और आज उत्पादन के विकेन्द्रीकरण के साथ मज़दूर वर्ग के संघर्ष के लिए सेक्टरगत यूनियन ही मुख्य रास्ता हैं। साथ ही, हमें यह समझना होगा कि आज ठेका मज़दूरों को अपना स्वतन्त्र संगठन खड़ा करना होगा और अपने माँगों के लिए सेक्टरगत आधार पर संघर्ष करना होगा। ऐसे में ही स्थायी मज़दूरों का संघर्ष भी पुनर्जीवित किया जा सकता है, दलाल यूनियनों को किनारे लगाया जा सकता है और ऑटोमोबाइल मज़दूरों का एक जुझारू आन्दोलन खड़ा किया जा सकता है।

दिल्ली की आँगनवाड़ीकर्मियों का संघर्ष बुर्जुआ न्यायतन्त्र के चेहरे को भी कर रहा बेनक़ाब!

क़ानून की आँखों पर निष्पक्षता की नहीं बल्कि पूँजीपतियों-मालिकों के हितों की पट्टी बँधी हुई है। इस वर्ग-विभाजित समाज में क़ानून और न्यायपालिका का चरित्र और उसकी वचनबद्धता मज़दूरों-मेहनतकशों के पक्ष में हो भी नहीं सकती हैं। हमें इस गफ़लत से बाहर आ जाना चाहिए कि अदालतों में अन्ततोगत्वा न्याय मिलता ही है। न्याय व्यवस्था की आँख मज़दूरों के पक्ष में तभी थोड़ी खुलती है जब सड़कों पर कोई जुझारू संघर्ष लड़ा जा रहा हो। आँगनवाड़ी स्त्री-कामगारों ने अपने आन्दोलन से इस बात को चरितार्थ किया है। आँगनवाड़ीकर्मियों ने व अन्य कामगारों ने जो भी थोड़े-बहुत हक़-अधिकार हासिल किये हैं वो अपने संघर्ष के दम पर ही हासिल किये हैं। बहाली की माँग को लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय में चल रहे संघर्ष को भी गति देने के लिए अपने आन्दोलन को तेज़ करना ही आज एकमात्र रास्ता है।

हर प्रकार के राजनीतिक विरोध को ख़ामोश करने की मोदी-शाह सत्ता की कोशिशें

जनवाद पर होने वाला हर हमला अन्तत: और दूरगामी तौर पर सर्वहारा वर्ग के हितों के विपरीत जाता है और सर्वहारा वर्ग व आम मेहनतकश जनता ही उसकी सबसे ज़्यादा क़ीमत चुकाती है। जब भी हम जनवाद पर होने वाले फ़ासीवादी हमले पर चुप रहते हैं तो हम फ़ासीवादी सत्ता के “दमन के अधिकार” का आम तौर पर वैधता प्रदान कर रहे होते हैं, चाहे हमारा ऐसा इरादा हो या न हो। इसलिए राहुल गाँधी की सदस्यता रद्द होने का प्रश्न हो या फिर जनपक्षधर पत्रकारों, जाति-उन्मूलन कार्यकर्ताओं, कलाकारों-साहित्यकारों के फ़ासीवादी मोदी-शाह सत्ता द्वारा उत्पीड़न का प्रश्न हो, सर्वहारा वर्ग को उसका पुरज़ोर तरीके से विरोध करना चाहिए। लेनिन ने बताया था कि जनवादी अधिकारों पर होने वाले हर हमले का विरोध किये बग़ैर, शोषक-शासक वर्गों व उनकी सत्ता द्वारा दमन-उत्पीड़न की हर घटना पर आवाज़ उठाये बग़ैर, और हर जगह दमित व शोषित लोगों के साथ खड़े हुए बग़ैर, सर्वहारा वर्ग समूची मेहनतकश जनता की अगुवाई करने और उसका हिरावल बनने की क्षमता अर्जित नहीं कर सकता है।

मलियाना हत्याकाण्ड के सभी अभियुक्त बरी – इस देश के इंसाफ़पसन्द लोग ऐसे झूठे फ़ैसलों को कभी स्वीकार नहीं करेंगे!

मलियाना का मामला एक बार फिर हमें याद दिलाता है किसी भी रंग के झण्डे वाली चुनावबाज़ पूँजीवादी पार्टियाँ न तो साम्प्रदायिक दंगों को रोक सकती हैं और न ही उन्हें सज़ा दिला सकती हैं। मेहनतकशों के नेतृत्व वाली क्रान्तिकारी पार्टी की अगुवाई में कड़ा किया गया जनता का आन्दोलन ही इसके लिए दबाव बना सकता है और सच्चे सेक्युलर आधार पर समाज के नवनिर्माण का रास्ता खोल सकता है।

नेल्ली जनसंहार : इतिहास का वह प्रेत आज भी जीवित है

नेल्ली जनसंहार आज़ादी के बाद भारत का पहला इतने बड़े पैमाने का जनसंहार था। यह कोई दंगा नहीं था, बल्कि एक सुनियोजित क़त्लेआम था जिसमें चौदह मुस्लिम गाँवों को घेरकर बच्चों और स्त्रियों सहित निहत्थी मुस्लिम आबादी को संगठित हथियारबन्द भीड़ ने गाजर-मूली की तरह काट डाला था। इसके बाद जो दूसरा बड़ा जनसंहार हुआ, वह 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद पूरे देश में हुआ सिखों का क़त्लेआम था। तीसरा बड़ा क़त्लेआम ‘गुजरात-2002’ का था। यहाँ यह याद दिलाने की ज़रूरत नहीं कि 1989 में आडवाणी की रथयात्रा के समय से लेकर आजतक पूरे देश में मुस्लिम आबादी पर हमलों की घटनाएँ लगातार होती रही हैं और जितने भी दंगे हुए हैं उनमें मुख्यतः उन्हें ही निशाना बनाया गया तथा राज्य मशीनरी भी हमेशा उन्हीं को बलि का बकरा बनाती रही है।