Category Archives: बुर्जुआ जनवाद – दमन तंत्र, पुलिस, न्‍यायपालिका

समान नागरिक संहिता पर मज़दूर वर्ग का नज़रिया क्या होना चाहिए?

समान नागरिक संहिता (यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड) का मामला एक बार फिर सुर्ख़ियों में है। गत 9 दिसम्बर को भाजपा नेता किरोड़ी लाल मीना ने राज्यसभा में एक प्राइवेट मेम्बर बिल प्रस्तुत किया जिसमें पूरे देश के स्तर पर समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए एक कमेटी बनाने की बात कही गयी है। इससे पहले नवम्बर-दिसम्बर के विधानसभा चुनावों के पहले गुजरात, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड की भाजपा सरकारों ने भी अपने-अपने राज्यों में समान नागरिक संहिता लाने की मंशा ज़ाहिर की थी। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भाजपा जैसी फ़ासिस्ट पार्टी द्वारा समान नागरिक संहिता की वकालत करने के पीछे विभिन्न धर्म की महिलाओं को बराबरी का दर्जा दिलाने की मंशा नहीं बल्कि उसकी मुस्लिम-विरोधी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीतिक चाल काम कर रही है।

यूएपीए – काला क़ानून और उसका काला इतिहास

हमारे देश का संविधान कहता है कि राज्य हर व्यक्ति के अधिकार की रक्षा करेगा। देश का नागरिक होने की हैसियत से हर व्यक्ति को मूलभूत अधिकार प्राप्त हैं, जिनका हनन होने की सूरत में कोई भी व्यक्ति न्यायालय में गुहार लगा सकता है। पर संविधान में लिखे गये ये शब्द महज़ काग़ज़ी प्रतीत होते हैं। बात करें आज के दौर की तो मौजूदा सरकार धड्डले से हमारे इन अधिकारों को छीनने में लगी है। ज़ाहिर-सी बात है 75 वर्षों से सत्ता में आयी सभी सरकारों ने हमारे अधिकारों को छीनने का काम किया है, पर मोदी सरकार को इसमें महारत हासिल है।

जी.एन. साईबाबा मामले की रोशनी में भारतीय पूँजीवादी न्याय व्यवस्था का सच

उच्चतम न्यायालय ने पिछले महीने अक्टूबर में बम्बई हाई कोर्ट की नागपुर बेंच के फ़ैसले को निलम्बित करते हुए ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के अन्तर्गत दर्ज माओवादियों से तथाकथित सम्बन्ध मामले में जी.एन. साईबाबा समेत पाँच अन्य राजनीतिक कार्यकर्ताओं की रिहाई पर रोक लगा दी। ज्ञात हो कि उच्चतम न्यायालय के इस आदेश से पहले बम्बई हाई कोर्ट ने जी.एन. साईबाबा व अन्य चार लोगों को रिहा करने का फ़ैसला सुनाया था।

बिलकिस बानो बलात्कार और हत्या मामले के 11 अपराधियों की रिहाई : भाजपा और संघ की बेशर्मी की पराकाष्ठा

2002 से लेकर अब तक कुछ मामलों को छोड़कर लगभग सभी मामलों में न्याय का दरवाज़ा खटखटाने वालों को निराशा ही हासिल हुई है। अभी 24 जून 2022 को ज़ाकिया जाफ़री की याचिका ख़ारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को सभी आरोपों से बरी कर दिया। इतिहास के इस काले अध्याय में देश को शर्मसार करने वाला एक और अध्याय जुड़ गया है। 15 अगस्त को बिलकिस बानो बलात्कार और हत्या मामले के 11 अपराधियों को क्षमा दे कर रिहा कर दिया गया। बिलकिस बानो भी गुजरात नरसंहार की शिकार महिला है।

सुप्रीम कोर्ट का गुजरात दंगों पर निर्णय : फ़ासीवादी हुकूमत के दौर में पूँजीवादी न्यायपालिका की नियति का एक उदाहरण

तमाम हत्याओं, साज़िशों और एनकाउण्टर के बाद भी गुजरात दंगों का भूत बार-बार किसी-न-किसी गवाह या मामले के रूप में सामने आ ही जाता था। फ़ासीवाद की पैठ राज्यसत्ता में पहले भी थी लेकिन इस पैठ को अभी और गहरा होना था। 2014 में सत्ता में आने के बाद से यह काम फ़ासीवाद ने तेज़ी से किया है। लगभग सभी महत्वपूर्ण पदों पर संघ के वफ़ादार लोगों को बैठाया गया है। कुछ अपवादों को छोड़कर क्लर्क की भर्ती से लेकर आला अफ़सरों तक की भर्ती सीधे संघ से जुड़े या संघ समर्थकों की होने लगी और हो रही है। मोदी-शाह को अब अपने राजनीतिक ख़तरों से निपटने के लिए पुराने तरीक़ों के मुक़ाबले अब नये तरीक़े ज़्यादा भा रहे हैं। अब सीधे राज्य मशीनरी का इस्तेमाल इनके हाथों में है। पिछले कुछ सालों में जितनी भी राजनीतिक गिरफ़्तारियाँ हुई हैं उनमें से किसी के भी ख़िलाफ़ कोई ठोस सबूत हासिल नहीं हुआ है लेकिन उनकी रिहाई भी नहीं हुई है।

भाजपा के “राष्ट्रवाद” और देशप्रेम की खुलती पोल : अब मज़दूरों-किसानों के बेटे-बेटियों को पूँजीपति वर्ग के “राष्ट्र” की “रक्षा” भी ठेके पर करनी होगी!

‘अग्निपथ’ वास्तव में सैनिक व अर्द्धसैनिक बलों में रोज़गार को ठेका प्रथा के मातहत ला रही है। यह एक प्रकार से ‘फ़िक्स्ड टर्म कॉण्ट्रैक्ट’ जैसी व्यवस्था है, जिससे हम मज़दूर पहले ही परिचित हो चुके हैं और जिसके मातहत एक निश्चित समय के लिए आपको काम पर रखा जाता है, और फिर आपको दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकालकर फेंक दिया जाता है। पहले मज़दूरों की बारी आयी थी, अब सैनिकों की बारी आयी है। जैसा कि एक कवि पास्टर निमोलर ने कहा था, फ़ासीवादी देशप्रेम और “राष्ट्रवाद” की ढपली बजाते हुए अन्तत: किसी को नहीं छोड़ते!

दिल्ली में बुलडोज़र राज

पिछले दिनों दिल्ली के तमाम इलाक़ों में दिल्ली नगरपालिका द्वारा “अतिक्रमण” हटाने के नाम पर आम मेहनतकश आबादी की झुग्गियों पर बुलडोज़र चलाकर उनके घरों को उजाड़ने का काम किया गया। अतिक्रमण हटाना तो बहाना था। असलियत यह थी कि इस पूरे प्रकरण में मुख्यतः मेहनतकश मुस्लिम आबादी को निशाना बनाया गया।

भारतीय राज्यसत्ता द्वारा उत्तर-पूर्व में आफ़्स्पा वाले क्षेत्रों को कम करने के मायने

गुरुवार, 31 मार्च को, जैसे ही केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने ट्विटर पर चमक-दमक और इवेण्ट बनाने की शैली में घोषणा की कि मोदी सरकार ने पूर्वोत्तर में आफ़्स्पा (AFSPA) के तहत क्षेत्रों को कम करने का फ़ैसला किया है वैसे ही मीडिया द्वारा जनता में इसे सनसनीख़ेज़ ख़बर की तरह पेश करते हुए कहा गया कि “आज आधी रात से, असम के पूरे 23 ज़िलों, और आंशिक रूप से असम के एक ज़िले व नागालैण्ड में छह और मणिपुर में छह ज़िलों से आफ़्स्पा को अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा जायेगा” मगर यह भाजपा सरकार का कोई दयालु या हमदर्दी-भरा चेहरा नहीं है, बल्कि इन इलाक़ों से हाल में घटी घटनाओं के बाद लगातार आ रहे जनदबाव की वजह से लिया गया फ़ैसला है जो भाजपा के गले में अटकी हुई हड्डी बन गया था। मगर इस फ़ैसले से भी वहाँ की ज़मीनी स्थिति में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आने वाला है।

दिल्ली की 22,000 आँगनवाड़ी कर्मियों की ऐतिहासिक हड़ताल

दिल्ली स्टेट आँगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन के नेतृत्व में दिल्ली की 22000 आँगनवाड़ीकर्मियों की लड़ाई पिछले 38 दिनों से जारी थी। हड़ताल दिनों-दिन मज़बूत होती देख बौखलाहट में आम आदमी पार्टी व भाजपा ने आपसी सहमति बनाकर उपराज्यपाल के ज़रिए इस अद्वितीय और ऐतिहासिक हड़ताल पर हरियाणा एसेंशियल सर्विसेज़ मेण्टेनेंस एक्ट के ज़रिए छह महीने की रोक लगा दी है।

प्रोजेक्ट पेगासस : पूँजीवादी सत्ता के जनविरोधी निगरानी तंत्र का नया औज़ार

पिछले महीने पूरी दुनिया के राजनीतिक हलक़ों में एक शब्द भ्रमण कर रहा था – पेगासस! ‘प्रोजेक्ट पेगासस’ के खुलासे के बाद न केवल भारत की संसदीय राजनीति में उथल-पुथल पैदा हो गयी बल्कि विश्व के साम्राज्यवादी सरगनाओं तक इसकी आँच पहुँची। यूँ तो वर्ग समाज के अस्तित्व में आने, राजसत्ता के जन्म के साथ ही शोषक-शासक वर्ग द्वारा अपने हितों के मद्देनज़र विकसित किये गये जननिगरानी तंत्र का एक लम्बा इतिहास है। लेकिन वर्ग समाज की सबसे उन्नत अवस्था यानी पूँजीवाद के या वर्तमान ढाँचागत संकट से ग्रस्त पूँजीवाद के दौर में, सूचना तंत्र की स्थूल और सूक्ष्म स्तर पर विराट प्रगति ने राजसत्ता के हाथ में अभूतपूर्व औज़ार सौंप दिया है।