Category Archives: भ्रष्‍टाचार

काले धन की वापसी के नाम पर नोटबन्दी – अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए मोदी सरकार का जनता के साथ एक और धोखा!

मोदी सरकार के काले धन की नौटंकी का पर्दा इसी से साफ हो जाता है जब मई 2014 में सत्ता में आने के बाद जून 2014 में ही विदेशों में भेजे जाने वाले पैसे की प्रतिव्यक्ति सीमा 75,000 डॉलर से बढ़ाकर 1,25,000 डॉलर कर दिया और जो अब 2,50,000 डॉलर है। केवल इसी से पिछ्ले 11 महीनों में 30,000 करोड़ धन विदेशों में गया है। विदेशों से काला धन वापस लाने की बात करने और लोगों को दो दिन में जेल भेजने वाली मोदी सरकार के दो साल बीत जाने के बाद भी आलम यह है कि एक व्यक्ति भी जेल नहीं भेजा गया।

पनामा पेपर्स मामला : पूँजीवादी पतन का एक प्रतिनिधि उदाहरण

फ़र्ज़ी कंपनियाँ बनाकर पूरे विश्व के धन-कुबेर किस तरीके से अपनी कमाई को टैक्सों से बचाते हैं, यही इज़हार हुआ है पनामा की एक कंपनी ‘मोसाक फोंसेका’ के बारे में हुए खुलासे से। ये खुलासे इतिहास के इस तरह के सबसे बड़े खुलासे बताए जा रहे हैं क्योंकि कुल दस्तावेज़ों की गिनती 1।15 करोड़ से भी ज़्यादा है । इन खुलासों से इस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था की सड़न नज़र आती है क्योंकि इन खुलासों में कोई एक-आध दर्जन व्यक्तियों मात्र के नाम नहीं है बल्कि पूरे विश्व में फैले इस फ़र्ज़ी कारोबार की कड़ियाँ पूँजीपतियों, राजनेतायों, फ़िल्मी कलाकारों, खिलाड़ियों आदि से जुड़ी हैं ।

सेठों ने डकारे बैंकों के 1.14 लाख करोड़ रुपये

यह रकम कितनी बड़ी है इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अगर ये सारे कर्ज़दार अपना कर्ज़ा लौटा देते तो 2015 में देश में रक्षा, शिक्षा, हाईवे और स्वास्थ्य पर खर्च हुई पूरी राशि का खर्च इसीसे निकल आता। इसमें हैरानी की कोई बात नहीं। पूँजीपतियों के मीडिया में हल्ला मचा-मचाकर लोगों को यह विश्वास दिला दिया जाता है…

“अच्छे दिनों” की असलियत पहचानने में क्या अब भी कोई कसर बाक़ी है?

16 मई को सत्ता में आने के ठीक पहले अपने ख़र्चीले चुनाव प्रचार के दौरान नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भाजपा का नारा था, “बहुत हुई महँगाई की मार–अबकी बार मोदी सरकार!” उस नारे का क्या हुआ? दुनिया भर में तेल की कीमतों में आयी भारी गिरावट के बावजूद पहले तो मोदी सरकार ने उस अनुपात में तेल की कीमतों में कमी नहीं की; और जो थोड़ी-बहुत कमी की थी अब उससे कहीं ज़्यादा बढ़ोत्तरी कर दी है। नतीजतन, हर बुनियादी ज़रूरत की चीज़ महँगी हो गयी है। आम ग़रीब आदमी के लिए दो वक़्त का खाना जुटाना भी मुश्किल हो रहा है। मोदी सरकार का नारा था कि देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कर दिया जायेगा! लेकिन मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही भ्रष्टाचार के अब तक के कीर्तिमानों को ध्वस्त कर दिया! ऐसे तमाम टूटे हुए वायदों की लम्बी सूची तैयार की जा सकती है जो अब चुटकुलों में तब्दील हो चुके हैं और लोग उस पर हँस रहे हैं। नरेन्द्र मोदी के मुँह से “मित्रों…” निकलते ही बच्चों की भी हंसी निकल जाती है। लेकिन यह भी सोचने की बात है कि ऐसे धोखेबाज़, भ्रष्ट मदारियों को देश की जनता ने किस प्रकार चुन लिया?

इस बार अरविन्द केजरीवाल और ‘आम आदमी पार्टी’ वाले ठेका मज़दूरों का मुद्दा क्यों नहीं उठा रहे हैं?

हम मज़दूरों को अपनी वर्ग दृष्टि साफ़ रखनी चाहिए और समझ लेना चाहिए कि केजरीवाल ने हमसे एक बार धोखा किया है और बार-बार धोखा करेगा जबकि भाजपा और कांग्रेस खुले तौर पर हमें ठगते आये हैं! इनके हत्थे चढ़ने की ग़लती करने की बजाय हमें अपना रास्ता ख़ुद बनाना चाहिए। केजरीवाल की राजनीति वह सड़ाँध मारती नाली है जो अन्त में मोदी नामक बड़े गन्दे नाले में जाकर मिलती है!

काले धन की कालिमा और सफ़ेद धन की सफ़ेदी एक छलावा है

मीडिया तथा राजनीतिक पार्टियों द्वारा अकसर यह शोर मचाया जाता है कि अगर विदेशी बैंकों में जमा काला धन भारत लाया जाता है तो इससे देश की ग़रीबी ख़त्म हो जायेगी और जनजीवन ख़ुशहाल हो जायेगा। वैसे तो सरकारों की मंशा को देखते हुए इस बात की कोई सम्भावना नहीं नज़र आती कि इस काले धन को भारत में लाया जा सकेगा। लेकिन यदि यह हो भी जाये तब भी यह उम्मीद करना कि इसका इस्तेमाल जनकल्याण के लिए किया जायेगा, मूर्खता ही होगी। तब भी यह पूँजीपतियों की ही सम्पत्ति बना रहेगा और पूँजीवादी तौर-तरीक़ों के अनुसार ही निवेशित होगा। काला धनधारकों को सज़ा देकर भी काले धन के सृजन की प्रक्रिया को रोका जाना असम्भव है। कुछ काला धन रखने वालों को अगर फ़ाँसी भी दे दी जाये तो काले धन के पैदा होने की प्रक्रिया वहीं पर नहीं रुक जायेगी, पूँजीवादी व्यवस्था में पैदा होने वाली सम्पत्ति लगातार काले तथा सफ़ेद धन में बँटती रहती है और यह प्रक्रिया पूँजीवाद का आन्तरिक गुण है, जिसे क़ानून बनाकर ख़त्म नहीं किया जा सकता है। सम्पत्ति की व्यवस्था के रहते, जिसमें उत्पादन के समस्त साधनों पर मुठ्टीभर लोग काबिज़ हों, राजनीतिक ढाँचे में अगर कुछ पैबन्द लगा भी दिये जायें तो जनता के जीवन में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आयेगा।

केजरीवाल की आर्थिक नीति: जनता के नेता की बौद्धिक कंगाली या जोंकों के सेवक की चालाकी

जब केजरीवाल कहते हैं कि “हमें निजी व्यापार को बढ़ावा देना होगा” तो इसका मतलब होता है कि हमें पूँजीपतियों की लूट को बढ़ावा देना होगा, उनको और खुली छूट देनी पड़ेगी। जब वह कहते हैं कि “सरकार का काम व्यापार के लिए सुरक्षित माहौल देना है” तो वह किन लोगों से सुरक्षा की बात करते हैं? उनका मतलब है इस कारोबार में लूटे जा रहे मेहनतकश लोगों की तरफ़ से इस लूट के खि़लाफ़ और अपने अधिकारों के लिए लड़े जा रहे संघर्षों से सुरक्षा, “कारोबार” शुरू करने के लिए ज़मीनों से बेदखल किये जा रहे किसानों के विद्रोहों से सुरक्षा। केजरीवाल का कहना है कि पूँजीपति ही दौलत और रोज़गार पैदा करते हैं। लेकिन अगर समाज के विज्ञान को समझें तो पूँजीपति नहीं बल्कि श्रम करने वाले लोग हैं जो दौलत पैदा करते हैं, पूँजीपति तो उनकी पैदा की हुई दौलत को हड़प जाते हैं। इसी तरह पूँजीपति रोज़गार देकर लोगों को नहीं पाल रहे, बल्कि वास्तव में मज़दूर वर्ग इन परजीवियों को जिला रहा है।

गहराता आर्थिक संकट, फासीवादी समाधान की ओर बढ़ती पूँजीवादी राजनीति और विकल्प का सवाल

राष्ट्रीय पैमाने पर आज पूँजीपति वर्ग क्या चाहता है? जैसा कि प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक ने एक लेख में कहा है, वह कठोर नवउदारवाद और साफ़-सुथरे नवउदारवाद के बीच विकल्प चुन रहा है। आज पूरी दुनिया में पूँजीपति वर्ग के लिए भ्रष्टाचार पर नियंत्रण एक बड़ा मुद्दा है। ख़ास तौर पर सरकारी भ्रष्टाचार पर नियंत्रण पूँजीपति वर्ग की एक ज़रूरत है। ज़ाहिर है, लुटेरे यह नहीं चाहते कि लूट के उनके माल में दूसरे भी हिस्सा बँटायें। विश्व बैंक से लेकर तमाम अन्तरराष्ट्रीय पूँजीवादी थिंकटैंक भ्रष्टाचार, ख़ासकर सरकारी भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए पिछले कुछ वर्षों में काफी सक्रिय हुए हैं। कई देशों में भ्रष्टाचार के विरुद्ध “सिविल सोसायटी” के आन्दोलनों को वहाँ के पूँजीपति वर्ग का समर्थन है। इसीलिए पूरा मीडिया ‘आप’ की हवा बनाने में लगा रहा है। इसीलिए अन्ना के आन्दोलन के समय से ही टाटा से लेकर किर्लोस्कर तक पूँजीपतियों का एक बड़ा हिस्सा इस आन्दोलन को समर्थन दे रहा था। और इंफोसिस के ऊँचे अफसरों से लेकर विदेशी बैंकों के आला अफसर और डेक्कन एअरलाइंस के मालिक कैप्टन गोपीनाथ जैसे उद्योगपति तक आप पार्टी में शामिल हो रहे हैं। दावोस में विश्व आर्थिक मंच में पहुँचे भारत के कई बड़े उद्योगपतियों ने कहा कि वे ‘आप’ के इरादों का समर्थन करते हैं। मगर अभी पूँजीपति वर्ग के बड़े हिस्से ने अपना दाँव फासिस्ट कठोरता के साथ नवउदारतावादी नीतियाँ लागू करने की बात कर रहे मोदी पर लगाया हुआ है। ‘आप’ अगर एक ब्लॉक के रूप में भी संसद में पहुँच गयी तो सरकारी भ्रष्टाचार पर कुछ नियंत्रण लगाने में मदद करेगी। मगर ज़्यादा सम्भावना इसी बात की है कि यह पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर एक विकल्प नहीं बन सकती और यह आगे चलकर या तो एक दक्षिणपंथी दल के रूप में संसदीय राजनीति में व्यवस्थित हो जायेगी या फिर बिखर जायेगी। इसके बिखरने की स्थिति में इसके सामाजिक समर्थन-आधार का बड़ा भाग हिन्दुत्ववादी फासीवाद के साथ ही जुड़ेगा।

भ्रष्टाचार-मुक्त सन्त पूँजीवाद के भ्रम को फैलाने का बेहद बचकाना और मज़ाकिया प्रयास

जब-जब पूँजीवादी व्यवस्था अपनी नंगई और बेशरमी की हदों का अतिक्रमण करती हैं, तो उसे केजरीवाल और अण्णा हज़ारे जैसे लोगों की ज़रूरत होती है, तो ज़ोर-ज़ोर से खूब गरम दिखने वाली बातें करते हैं, और इस प्रक्रिया में उस मूल चीज़ को सवालों के दायरे से बाहर कर देते हैं, जिस पर वास्तव में सवाल उठाया जाना चाहिए। यानी कि पूरी पूँजीवादी व्यवस्था। आम आदमी पार्टी का घोषणापत्र भी यही काम करता है। यह मार्क्स की उसी उक्ति को सत्यापित करता है जो उन्होंने ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ में कही थी। मार्क्स ने लिखा था कि पूँजीपति वर्ग का एक हिस्सा हमेशा समाज में सुधार और धर्मार्थ कार्य करता है, ताकि पूँजीवादी व्यवस्था बरक़रार रहे।

“बुरे पूँजीवाद” के ख़िलाफ़ “अच्छे पूँजीवाद” की टुटपूँजिया, मध्यवर्गीय चाहत

अरविन्द केजरीवाल और उनके टोपीधारी चेले-चपाटियों की नौटंकी से इस देश की मेहनतकश जनता को कुछ भी नहीं मिलने वाला है। यह एक भ्रम है, एक छलावा है, जिसमें देश का टटपुंजिया और निम्न मध्यवर्ग कुछ समय तक फँसा रह सकता है। लेकिन केजरीवाल एण्ड पार्टी के संसद और विधानसभा के मलकुण्ड में उतरने के बाद यह भ्रम भी समाप्त हो जायेगा। मज़दूर वर्ग तो एक दिन भी इस भ्रम का ख़र्च नहीं उठा सकता है। हर जगह जहाँ मज़दूर दबाये-कुचले जा रहे हैं, सघर्ष कर रहे हैं, लड़ रहे हैं, वे जानते हैं कि केजरीवाल एण्ड पार्टी उनके लिए कुछ भी नहीं करने वाली। यह पढ़े-लिखे, खाते-पीते मध्यवर्ग के लोगों की नेताओं-नौकरशाहों के प्रति शिकायत को दर्ज़ कराने वाली पार्टी है और यह वास्तव में शासक वर्ग के ही दो हिस्सों के बीच देश में पैदा हो रहे अधिशेष के बँटवारे की कुत्ताघसीटी में उच्च मध्यवर्ग के हितों की नुमाइन्दगी कर रही है। मज़दूर वर्ग को इस भ्रम और छलावे में एक पल को भी नहीं पड़ना चाहिए। उसे समझ लेना चाहिए कि उसे बेहतर, अच्छा, भला या सन्त पूँजीवाद नहीं चाहिए (वैसे यह सम्भव भी नहीं है!), उसे पूँजीवाद का विकल्प चाहिए! उसे क्रान्तिकारी लोकस्वराज्य चाहिए!