Category Archives: भ्रष्‍टाचार

भ्रष्टाचार आदिम पूँजी संचय का ही एक रूप है

काला धन पैदा होना आदिम पूँजी-संचय का ही एक रूप है। आदिम पूँजी-संचय शुरू से ही क़ानूनी और ग़ैर क़ानूनी, “शरीफ़ाना” और लूटमार वाले – दोनों ही तरीक़ों से होता रहा है। यह पूँजीवाद की बुनियादी कार्यप्रणाली का एक अंग है। काले धन के राजनीतिक अर्थशास्त्र को नहीं समझने के चलते बहुतेरे लोग काला धन और भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ मुहिम चलाने वाले मजमेबाज़ों के लोक-लुभावन नारों के बहकावे में आ जाते हैं और पूँजीवाद से मुक्ति के ऐतिहासिक प्रोजेक्ट को जानने-समझने और उसमें लगने के बजाय इसी बूढे़ ड्रैक्यूला के ख़ून सने जर्जर चोंगे की सफ़ाई और पैबन्दसाज़ी में शामिल हो जाते हैं।

अपनी तार्किक परिणतियों तक पहुँच गये अण्णा मण्डली और रामदेव के आन्दोलन

पूँजीवाद अपनी आन्तरिक गति से लगातार भ्रष्टाचार पैदा करता रहता है और फिर जब वह सारी सीमाओं को तोड़ने लगता है और व्यवस्था के लिए मुश्किल पैदा करने लगता है तो समय-समय पर उसे नियन्त्रित करने के प्रयास भी इसी व्यवस्था के भीतर से होते हैं। ऐसे में कभी-कभी कोई मसीहा, कोई श्रीमान सुथरा जी (मिस्टर क्लीन) डिर्जेण्ट और पोंछा लेकर पूँजीवाद पर लगे खून और कालिख़ के ध्ब्बों को साफ़ करने में जुट जाते हैं। साम्राज्यवादी पूँजी से संचालित एन.जी.ओ. ”सभ्य समाज” (सिविल सोसायटी) के साथ मिलकर पूँजीवाद की एक सुरक्षा पंक्ति का काम करते हैं। लेकिन वर्तमान में वैश्विक स्तर पर पूँजीवादी व्यवस्था मन्दी की चपेट में है, और आसमान छूती महँगाई और बेरोज़गारी आदि के कारण जन-आन्दोलनों का दबाव लगातार बना हुआ है। ऐसे में इस दबाव को कम करने के लिये सेफ्टी वाल्व का काम करने वाले एन.जी.ओ. अभी व्यवस्था की सुरक्षा पंक्ति की भूमिका नहीं निभा पा रहे हैं। ऐसे में ये आन्दोलन वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटकाने की भूमिका बख़ूबी निभा रहे हैं।

राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन घोटाला

देश के ग़रीबों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ बेरोकटोक जारी है। ग़रीब जनता काम और रिहायश की बदतर परिस्थितियों, पौष्टिक भोजन और आराम की कमी के कारण स्वास्थ्य सम्बन्धी गम्भीर समस्याओं का सामना कर रही है। इलाज़ की उचित सुविधाओं तक पहुँच न होने के कारण उनकी स्थिति और गम्भीर हो गयी है। मुनाफ़ाख़ोर पूँजीवादी व्यवस्था से और कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती। जो व्यवस्था ख़ुद ही असाध्य रोगों से ग्रस्त हो वह जनता के रोग कैसे दूर सकती है? लेकिन पूँजीवादी सरकारें जनता में व्यवस्था के प्रति झूठी उम्मीदें पैदा करने की कोशिशें करती रहती हैं। एक ओर उदारीकरण और निजीकरण के दौर में स्वास्थ्य और चिकित्सा को भी बाज़ार में बिकाऊ माल बना दिया गया है, सरकारी अस्पतालों की हालत दिन-ब-दिन ख़राब होती जा रही है। दूसरी ओर, जनता के ग़ुस्से पर पानी के छींटे डालने के लिए कुछ कल्याणकारी योजनाएँ चला दी जाती हैं। 2005 में देश के अठारह राज्यों में शुरू हुआ राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एन.आर.एच.एम) ऐसी ही एक ”महत्वाकांक्षी” योजना थी। लेकिन अफ़सोस, सरकार की यह महत्वाकांक्षा इस व्यवस्था के ही एक असाध्य रोग – भ्रष्टाचार – की बलि चढ़ गयी।

अण्णा हज़ारे का आन्दोलन झूठी उम्मीद जगाता है

यदि कोई सामाजिक क्रान्ति आर्थिक सम्बन्धों में आमूलगामी बदलाव की बात नहीं करती, यदि मुट्ठीभर लोगों का उत्पादन के सभी साधनों पर एकाधिकार बना रहता है और समाज की बहुसंख्यक आबादी महज़ उनके लिए मुनाफ़ा पैदा करने के लिए जीती रहती है तो किसी भी तरह की ऊपरी पैबन्दसाज़ी से भ्रष्टाचार जैसी समस्या दूर नहीं हो सकती। यदि कोई आमूलगामी क्रान्ति उत्पादन के साधनों को मुट्ठीभर मुनाफ़ाख़ोरों के हाथों से छीनकर जनता के हाथों में नहीं देती, परजीवी पूँजी के तमाम गढ़ों, शेयर बाज़ारों आदि पर ताले नहीं लटका देती, भारत जैसे देशों में होने वाली कोई क्रान्ति अगर सारे विदेशी कर्ज़ों को मंसूख़ नहीं करती, सारी विदेशी पूँजी को ज़ब्त करके जनता के हाथों में नहीं सौंप देती, नीचे से ऊपर तक सारे प्रशासकीय ढाँचे को ध्वस्त कर उसका नये सिरे से पुनर्गठन नहीं करती तो न सिर्फ़ समाज में असमानता, अन्याय और अत्याचार बने रहेंगे बल्कि हर स्तर पर वह भ्रष्टाचार भी बना रहेगा जिसे अण्णा हज़ारे और उनकी टीम महज़ एक क़ानून बनाकर दूर करने के दावे कर रही है।

अण्णा हज़ारे जी के नाम कुछ मज़दूर कार्यकर्ताओं की खुली चिट्ठी

भ्रष्टाचार का सामना हम आम ग़रीब लोग अपनी रोज़-रोज़ की ज़िन्दगी में सबसे अधिक करते हैं। कदम-कदम पर छोटे से छोटे काम के लिए जो रिश्वत हमें देनी पड़ती है, वह रकम खाते-पीते लोगों को तो कम लगती है, मगर हमारा जीना मुहाल कर देती है। भ्रष्टाचार केवल कमीशनखोरी और रिश्वतखोरी ही नहीं है। सबसे बड़ा भ्रष्टाचार तो यह है कि करोड़ों मज़दूरों को जो थोड़े बहुत हक़-हकू़क श्रम क़ानूनों के रूप में मिले हुए हैं, वे भी फाइलों में सीमित रह जाते हैं और अब उन्हें भी ज़्यादा से ज़्यादा बेमतलब बनाया जा रहा है। अदालतों से ग़रीबों को न्याय नहीं मिलता। पूँजी की मार से छोटे किसान जगह-ज़मीन से उजाड़कर तबाह कर दिये जाते हैं और यह सब कुछ एकदम क़ानूनी तरीक़े से होता है! जिस देश में 40 प्रतिशत बच्चे और 70 प्रतिशत माँएँ कुपोषित हों, 40 प्रतिशत लोगों का बाँडी मास इण्डेक्स सामान्य से नीचे हो, 18 करोड़ लोग झुग्गियों में रहते हों और 18 करोड़ बेघर हों, वहाँ सत्ता सँभालने के 64 वर्षों बाद भी सरकार यदि जीवन की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने की ज़िम्मेदारी नहीं उठाती (उल्टे उन्हें घोषित तौर पर बाज़ार की शक्तियों के हवाल कर देती हो), तो इससे बड़ा विधिसम्मत सरकारी भ्रष्टाचरण भला और क्या होगा? इससे अधिक अमानवीय ”कानूनी” भ्रष्टाचरण भला और क्या होगा कि मानव विकास सूचकांक में जो देश दुनिया के निर्धनतम देशों की पंगत में (उप सहारा के देशों, बंगलादेश, पाकिस्तान आदि के साथ) बैठा हो, जहाँ 70 प्रतिशत से अधिक आबादी को शौचालय, साफ पानी, सुचारु परिवहन, स्वास्थ्य सेवा तक नसीब न हो, वहाँ संविधान में ”समाजवादी लोकतांत्रिक गणराज्य” होने का उल्लेख होने के बावजूद सरकार ने इन सभी ज़िम्मेदारियों से हाथ खींच लिया हो और समाज से उगाही गयी सारी पूँजी का निवेश पूँजीपति 10 फीसदी आबादी के लिए आलीशान महल, कारों बाइकों-फ्रिज-ए.सी. आदि की असंख्य किस्में, लकदक शाँपिंग माँल और मल्टीप्लेक्स आदि बनाने में कर रहे हों तथा करोड़पतियों-अरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही हो।

नेता, अफसर, जज, मीडियाकर्मी – लूटपाट, कमीशनख़ोरी में कोई पीछे नहीं

मौजूदा नवउदारवादी दौर में तमाम बुर्जुआ जनवादी मूल्यों-आदर्शों के छिलके पूँजीवाद के शरीर से स्वत: उतर गये हैं। सरकार खुले तौर पर पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी के रूप में कार्यरत दीख रही है। कमीशनख़ोरी, दलाली, लेनदेन – सबकुछ पूँजी के ‘खुला खेल फर्रुख़ाबादी’ का हिस्सा मान जाने लगा है। 2010 में घपलों-घोटालों का जो घटाटोप सामने आया है, वह पूँजीवाद के असाध्‍य ढाँचागत आर्थिक संकट और उसके गर्भ से उपजे राजनीतिक-सांस्कृतिक-नैतिक संकट की एक अभिव्यक्ति है, परिणाम है और लक्षण है।

हम अब और तमाशबीन नहीं बने रह सकते! एक ही रास्ता-मज़दूर इंक़लाब! मज़दूर सत्ता!

क्या हम इस बर्बर ग़ुलामी को स्वीकार कर लेंगे? क्या पूरी तरह नग्न हो चुकी पूँजीवादी व्यवस्था को हम अपने आने वाली पीढ़ियों को बर्बाद करने देंगे? क्या हम अपनी ही बर्बादी के तमाशबीन बने रहेंगे? या फिर हम उठ खड़े होंगे और मुनाफे की अन्धी हवस पर टिकी इस मानवद्रोही,आदमख़ोर व्यवस्था को तबाहो-बर्बाद कर देंगे? या फिर हम संगठित होकर इस अन्याय और असमानता का ख़ात्मा करने और न्याय और समानता पर आधारित एक नयी समाजवादी व्यवस्था का निर्माण करने की तैयारियाँ करने में जुट जायेंगे?या फिर हम एक मज़दूर इन्कलाब के लिए एक इन्कलाबी पार्टी के निर्माण में लग जायेंगे?

लोकतन्त्र की लूट में जनता के पैसे से अफसरों की ऐयाशी

जनता को बुनियादी सुविधाएँ मुहैया कराने का सवाल उठता है तो केन्द्र सरकार से लेकर राज्य सरकारें तक धन की कमी का विधवा विलाप शुरू कर देती हैं, लेकिन जनता से उगाहे गये टैक्स के दम पर पलने वाले नेता और नौकरशाही अपनी हरामखोरी और ऐयाशी में कोई कमी नहीं आने देते। इसी का एक ताजातरीन नमूना है पंजाब सरकार द्वारा 2006 में कृषि विविधता के लिए शुरू की गयी परियोजना।

सूचना अधिकार क़ानून बना सरकार के गले की फाँस

अब सूचना अधिकार क़ानून हुक्मरानों के गले की हड्डी बन गया था। पिछली 14 अक्टूबर को दिल्ली में एक सरकारी मीटिंग में इस क़ानून में संशोधन का प्रस्ताव आया और अब सरकार बाक़ायदा इसमें संशोधन करने की राह पर चल पड़ी है। इस संशोधन के बाद किसी भी स्थानीय विभाग का अफ़सर (जिससे सूचना माँगी गई है) इस बात का फ़ैसला करेगा कि माँगी गयी सूचना देनी है या नहीं। अब हम लोग खुद ही यह अच्छी तरह समझ सकते हैं कि ये अफ़सर क्या फ़ैसला करेंगे। सरकार इस संशोधन पर गम्भीरता से विचार कर रही है, सम्भावना यही है कि अब इस क़ानून के पर कुतर दिये जायेंगे।

स्विस बैंकों में जमा 72 लाख करोड़ की काली कमाई पूँजीवादी लूट के सागर में तैरते हिमखण्ड का ऊपरी सिरा भर है

यूँ तो पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की नींव ही मेहनत की कानूनी लूट पर खड़ी की जाती है। यानी पूँजीवादी व्यवस्था में मेहनत करने वाले का हिस्सा कानूनन पूँजीपति की तुलना में नगण्य होता है। लेकिन पूँजीपतियों का पेट इस कानूनी लूट से भी नहीं भरता। लिहाज़ा वे पूँजीवाद के स्वाभाविक लक्षण ‘भ्रष्टाचार’ का सहारा लेकर गैरकानूनी ढंग से भी धन-सम्पदा जमा करते रहते हैं। जनता के लिए सदाचार, ईमानदारी और नैतिकता की दुहाई देकर ख़ुद हर तरह के कदाचार के ज़रिये काले धन के अम्बार और सम्पत्तियों का साम्राज्य खड़ा किया जाता है।