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मोदी राज में मज़दूरों के ऊपर बढ़ती बेरोज़गारी और महँगाई की मार

मोदी राज में मज़दूरों के ऊपर बढ़ती बेरोज़गारी और महँगाई की मार – लालचन्द्र 2014 में अच्छे दिन के नारे के साथ भाजपा सत्ता में आयी और प्रधानमंत्री मोदी ख़ुद…

संकट में धँसती पूँजीवादी व्यवस्था! संकट का सारा बोझ आम मेहनतकश जनता पर ही पड़ने वाला है!!

बैंकिंग व्यवस्था का संकट पहले की तरह ही बदस्तूर जारी है। बैंकों की स्थिति बेहतर दिखाने के लिए उन्हें छूट दी जा रही है कि वे डूबे क़र्ज़ों को भी एनपीए वर्गीकृत न करें। लघु एवं मध्यम उद्योग, विद्युत क्षेत्र, आदि के लाखों करोड़ रुपये के डूबे क़र्ज़ इसी प्रकार छिपाये जा रहे हैं। लेकिन कुछ समय बाद ये सब एक झटके में ही एनपीए बनेंगे। मोदी द्वारा बड़े ज़ोर-शोर से प्रचारित मुद्रा ऋणों का हाल भी रिज़र्व बैंक की हाल की रिपोर्ट में सामने आ गया है। बेरोज़गारी मिटाने हेतु स्व-रोज़गार को प्रोत्साहित करने वाले क़र्ज़ में होने वाले एनपीए का हाल देखिए : 2015-16 के वर्ष में 597 करोड़ रुपये, 2016-17 के साल में 3790 करोड़ रुपये और 2017-18 के वर्ष में बढ़कर 7277 करोड़ रुपये।

रिज़र्व बैंक और सरकार का टकराव और अर्थव्यवस्था की बिगड़ती हालत

यह बात तो अब बुर्जुआ मीडिया के लिए भी छिपानी नामुमकिन होती जा रही है कि भारत की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था अति-उत्पादन और घटती मुनाफ़ा दर के भँवर में गहरे तक फँस चुकी है। इसका ही असर है कि न सिर्फ़ वित्तीय बाज़ार में भुगतान और ऋण के लिए नक़दी का संकट है बल्कि ख़ुद सरकार की वित्तीय स्थिति संकट में है। एक ओर आम मेहनतकश जनता व मध्य वर्ग पर करों का बोझ बढ़ाते जाने लेकिन पूँजीपतियों से टैक्स वसूली में कमी, दूसरी ओर अनुत्पादक प्रशासनिक ख़र्च फ़ौज-हथियारों पर ख़र्च व पूँजीपतियों को तरह-तरह की छूटों में भारी वृद्धि से पूरे साल के बजट में जितने वित्तीय घाटे (6.24 लाख करोड़ रुपये) का अनुमान था, वर्ष के पहले 7 महीनों में ही उसका 104% घाटा (6.48 लाख करोड़) हो चुका है। वजह – चुनावी साल में ख़र्च तो बढ़ा है, पर टैक्स वसूली अनुमान से बहुत कम है। टैक्स आय 7 महीने में सालाना अनुमान की सिर्फ़ 44% है। वह तो सार्वजनिक क्षेत्र की सम्पत्ति की बिक्री से ग़ैर टैक्स आय अनुमान के 52% तक हो गयी है अन्यथा हालात और भी बदतर होते। स्थिति यह है कि अक्टूबर 18 में सरकारी आय अक्टूबर 17 से भी कम हो गयी है।

प्रधानमन्त्री आवास योजना की हक़ीक़त – दिल्ली के शाहबाद डेरी में 300 झुग्गियों को किया गया ज़मींदोज़!

2019 के चुनाव से पहले जहाँ एक तरफ़ “मन्दिर वहीं बनायेंगे” जैसे साम्प्रदायिक फ़ासीवादी नारों की गूँज सुनायी दे रही है, वहीं 2014 में आयी मोदी सरकार के विकास और “अच्छे दिनों” की सच्चाई हम सबके सामने है। विकास का गुब्बारा फुस्स हो जाने के बाद अब मोदी सरकार धर्म के नाम पर अपनी चुनावी गोटियाँ लाल करने का पुराना संघी फ़ॉर्मूला लेकर मैदान में कूद पड़ी है। न तो मोदी सरकार बेरोज़गारों को रोज़गार दे पायी है, न आम आबादी को महँगाई से निज़ात दिला पायी है और न ही झुग्गीवालों को पक्के मकान दे पायी है। इसीलिए अब इन सभी अहम मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए मन्दिर का सहारा लिया जा रहा है। मोदी सरकार ने 2014 में चुनाव से पहले अपने घोषणापत्र में लिखे झुग्गी की जगह पक्के मकान देने का वायदा तो पूरा नहीं किया, उल्टा 2014 के बाद से दिल्ली के साथ-साथ देश भर में मेहनतकश आबादी के घरों को बेदर्दी से उजाड़ा गया है। हाल ही में 5 नवम्बर 2018 को दिल्ली के शाहबाद डेरी इलाक़े के सैकड़ों झुग्गीवालों के घरों को डीडीए ने ज़मींदोज़ कर दिया। 300 से भी ज़्यादा झुग्गियों को चन्द घण्टों में बिना किसी नोटिस या पूर्वसूचना के अचानक मिट्टी में मिला दिया गया।

हरियाणा रोडवेज़ की 18 दिन चली हड़ताल की समाप्ति पर कुछ विचार बिन्दु

रोडवेज़ के निजीकरण का मतलब है हज़ारों रोज़गारों में कमी करना। केन्द्र सरकार के ही नियम के अनुसार 1 लाख की आबादी के ऊपर 60 सार्वजनिक बसों की सुविधा होनी चाहिए। इस लिहाज़ से हरियाणा की क़रीब 3 करोड़ की आबादी के लिए हरियाणा राज्य परिवहन विभाग के बेड़े में कम से कम 18 हज़ार बसें होनी चाहिए किन्तु फ़िलहाल बसों की संख्या मात्र 4200 है। हम आपके सामने कुछ आँकड़े रख रहे हैं जिससे ‘हरियाणा की शेरनी’ और ‘शान की सवारी’ कही जाने वाली रोडवेज़ की बर्बादी की कहानी आपके सामने ख़ुद-ब-ख़ुद स्पष्ट हो जायेगी। 1992-93 के समय हरियाणा की जनसंख्या 1 करोड़ के आस-पास थी तब हरियाणा परिवहन विभाग की बसों की संख्या 3500 थीं तथा इन पर काम करने वाले कर्मचारियों की संख्या 24 हज़ार थी जबकि अब हरियाणा की आबादी 3 करोड़ के क़रीब है किन्तु बसों की संख्या 4200 है तथा इन पर काम करने वाले कर्मचारियों की संख्या 19 हज़ार ही रह गयी है।

साढ़े चार साल के मोदी राज की कमाई!-ध्वस्त अर्थव्यवस्था, घपले-घोटाले, बेरोज़गारी- महँगाई!

हिटलर के प्रचार मन्त्री गोयबल्स ने एक बार कहा था कि यदि किसी झूठ को सौ बार दोहराओ तो वह सच बन जाता है। यही सारी दुनिया के फासिस्टों के प्रचार का मूलमंत्र है। आज मोदी की इस बात के लिए बड़ी तारीफ़ की जाती है कि वह मीडिया का कुशल इस्तेमाल करने में बहुत माहिर है। लेकिन यह तो तमाम फासिस्टों की ख़ूबी होती है। मोदी को ‘’विकास पुरुष’’ के बतौर पेश करने में लगे मीडिया को कभी यह नहीं दिखायी पड़ता कि गुजरात में मोदी के तीन बार के शासन में मज़दूरों और ग़रीबों की क्या हालत हुई। मेहनतकशों को ऐसे झूठे प्रचारों से भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए। उन्हें यह समझ लेना होगा कि तेज़ विकास की राह पर देश को सरपट दौड़ाने के तमाम दावों का मतलब होता है मज़दूरों की लूट-खसोट में और बढ़ोत्तरी। ऐसे ‘विकास’ के रथ के पहिए हमेशा ही मेहनतकशों और ग़रीबों के ख़ून से लथपथ होते हैं। लेकिन इतिहास इस बात का भी गवाह है कि हर फासिस्ट तानाशाह को धूल में मिलाने का काम भी मज़दूर वर्ग की लौह मुट्ठी ने ही किया है!

ग़रीबों से जानलेवा वसूली और अमीरों को क़र्ज़ माफ़ी का तोहफ़ा

रहा है, वहीं दूसरी ओर क़र्ज़ दे-देकर दिवालिया हुए बैंकों को भाजपा सरकार “बेलआउट पैकेज” के नाम पर जनता से वसूली गयी टैक्स की राशि में से लाखों करोड़ रुपये देने की तैयारी कर रही है। इससे पहले भी सरकार “बेलआउट पैकेज” के नाम पर 88,000 करोड़ रुपये बैंकों को दे चुकी है। ये सारा पैसा मोदी ने चाय बेचकर नहीं कमाया है, जिसे वह अपने आकाओं को लुटा रहा है। ये मेहनतकश जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा है जिसे तरह-तरह के टैक्सों के रूप में हमसे वसूला जाता है। ये पैसा जनकल्याण के नाम पर वसूला जाता है, लेकिन असल में कल्याण इससे पूँजीपतियों का किया जा रहा है। इस पैसे से लोगों के लिए आधुनिक सुविधाओं से लैस अच्छे अस्पताल बन सकते थे और निःशुल्क व अच्छे स्कूल-कॉलेज खुल सकते थे, लेकिन हो उल्टा रहा है। सरकार पैसे की कमी का रोना रोकर रही-सही सुविधाएँ भी छीन रही है।

महिला एवं बाल विकास विभाग में चल रहे भ्रष्टाचार का आँगनवाड़ी महिलाकर्मियों ने दिल्ली में किया पर्दाफ़ाश!

केन्द्र सरकार ने हाल में ही यह घोषणा की है कि आँगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं के मानदेय में क्रमशः 1500 व 750 रुपये की बढ़ोत्तरी की जायेगी! वैसे तो इस देश में शिवाजी की मूर्ति पर 3600 करोड़ व पटेल की मूर्ति पर 3000 करोड़ ख़र्च कर दिये जा रहे हैं, जिसका सीधा मक़सद जातीय वोट बैंक को भुनाना है, उलजुलूल के कामों में अरबों रूपये पानी की तरह बहाये जाते हैं, किन्तु आँगनवाड़ियों में ज़मीनी स्तर पर मेहनत करने वाली कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं को पक्का रोज़गार देने की बजाय या तब तक न्यूनतम वेतन के समान मेहनताना देने की बजाय भुलावे में रखने की कोशिश की जा रही है। मोदी सरकार 28 लाख महिलाकर्मियों के वोटों का आने वाले चुनाव के लिए 1500 और 750 रुपये में मोल-भाव कर रही है!?

मोदी राज में बैंकिंग व वित्तीय सेक्टर के घपले-घोटाले और गहराता आर्थिक संकट

4 लाख करोड़ के और क़र्ज़ एनपीए होने की ओर हैं और इन्हें चुनाव तक किसी तरह खींचना है क्योंकि एनपीए का बढ़ता संकट पूरी बैंकिंग और आर्थिक व्यवस्था में संकट को ओर गहरा करेगा जिसका बोझ हमेशा की तरह मेहनतकश जनता पर ही डाला जाना है। आईएलएफ़एस की योजनाओं के डेढ़ लाख करोड़ के अतिरिक्त इनमें ढाई लाख करोड़ तो सिर्फ़ विद्युत उत्पादन क्षेत्र का है। पूँजीवाद के अतिउत्पादन के संकट की वजह से उद्योग पहले ही 70-72% क्षमता पर काम कर रहे हैंा इससे बिजली की माँग अनुमान के मुक़ाबले कम है, बिजली बिक नहीं पा रही है (निर्यात के बावजूद भी फ़ालतू है), इसलिए लगभग 40 संयन्त्र संकट में हैं। रिज़र्व बैंक के 12 फ़रवरी के सर्कुलर के मुताबिक़ बैंकों को अब तक इनके खि़लाफ़ दिवालिया होने की कार्रवाई शुरू करनी थी, पर उसके बाद इन क़र्ज़ों को एनपीए दिखाना पड़ता जो अभी तक नहीं किया गया है।

बैंक कर्ज दबाए बैठे पूंजीपतियों के खिलाफ मोदी सरकार की ‘सख्त’ कार्रवाई!

मोनेट इस्पात पर 11573 करोड़ रुपये कर्ज़ वसूली का मामला दिवालिया अदालत में था। उसने कम्पनी को इस रकम के 22.41% यानी लगभग 2500 करोड़ में जिंदल स्टील को सौंप दिया यानी शेष 77.59% रकम अब बैंक मेहनतकश जनता से वसूल करेंगे, कुछ न्यूनतम बैलेंस आदि पर शुल्क काटकर, कुछ सरकार हमसे जबरन वसूली कर उन्हें देगी।