Category Archives: फ़ासीवाद / साम्‍प्रदायिकता

भीष्म साहनी के उपन्यास ‘तमस’ के अंश

इत्रफ़रोश अभी पूरी तरह से मुड़ नहीं पाया था कि उसने देखा, लड़का पीछे की ओर भागा जा रहा है। उसे फिर भी समझ में नहीं आया कि क्या हुआ है। उसकी इच्छा हुई कि लड़के को आवाज़ देकर बुला ले, लेकिन तभी उसे अपने पैरों पर बहता ख़ून नज़र आया और कमर में कुछ कराहता, कुछ डूबता-सा महसूस हुआ। मीठा-सा दर्द उठा, फिर तेज़ नश्तर-सा दर्द और वह डर के मारे बदहवास हो गया।

न्यायिक व्यवस्था का संकट और फ़ासिस्ट आतंक राज

इस समय जो संकट पैदा हुआ है उसके केन्द्र में जो मामला है वह सीधे अमित शाह और उनके ज़रिए उनके आक़ा नरेन्द्र मोदी से जुड़ा हुआ है। ऐसे में सत्ता तंत्र एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देगा इसे निपटाने में। असन्तुष्ट जजों की कुछ बातें सुन ली जायेंगी, कुछ ऊपरी ‘’सुधार’’ कर दिये जायेंगे और धीरे-धीरे सब फिर पटरी पर आ जायेगा। कुछ लोग चार जजों को जबरन क्रान्तिकारी बनाये दे रहे हैं, या इस संकट को फ़ासिस्टों के अन्त की शुरुआत घोषित किये दे रहे हैं, उन्हें अन्त में निराशा ही हाथ लगेगी।

गौरक्षा का गोरखधन्धा – फ़ासीवाद का असली चेहरा

इस प्रतिबन्ध से मुस्लिम और हिन्दू दोनों ही अपनी आजीविका खो रहे हैं। वैसे तो संघ द्वारा यह प्रचार किया जाता है कि मुस्लिम ही मुख्यतः मांस का सेवन करते हैं, पर विभिन्न राज्यों में मुसलमानों की तुलना में, दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ी जातियों के समुदाय गोमांस ज़्यादा खाते हैं। एनएसएसओ के अनुमान के मुताबिक़, देश में 5.2 करोड़ लोग, मुख्य रूप से दलित और आदिवासी और विभिन्न समुदायों के ग़रीब लोग, गोमांस/भैंस का मांस खाते हैं। साफ़ है कि बीफ़ की खपत के मुद्दे को भी यहाँ वर्ग के आधार पर देखा जाना चाहिए। एक तरफ़ यह क़दम सीधे ग़रीबों को प्रोटीन पोषण के अपेक्षाकृत सस्ते स्रोत से वंचित कर रहा है, वहीं दूसरी ओर सत्ता में बैठे लोगों की मिलीभगत द्वारा समर्थित हिन्दू ब्रिगेड का यह आतंक अभियान, लाखों लोगों की आजीविका और उद्योग को पूरी तरह से मार रहा है।

गुजरात चुनाव और उसके बाद – फासीवाद से निजात पाने के आसान रास्तों का भ्रम छोड़ें और ‍भरपूर ताक़त के साथ असली लड़ाई की तैयारी में जुटें

भाजपा फासीवादी गिरोह यानी संघ परिवार की सिर्फ़ चुनावी शाखा है। किसी चुनाव में हार जाने से संघ परिवार के तमाम संगठन अपना काम करना बन्‍द नहीं कर देते। उनकी विषैली राजनीति लगातार जारी रहती है। सत्ता प्रतिष्‍ठान से लेकर समाज की तमाम संस्‍थाओं में, सेना-पुलिस, न्‍यायपालिका, नौकरशाही से लेकर शिक्षा-संस्‍कृति की संस्‍थाओं तक में उनकी घुसपैठ योजनाबद्ध ढंग से बढ़ती रहती है। 2004 और 2009 की चुनावी हारों के बाद और भी ज्‍़यादा ताक़त के साथ भाजपा की सत्ता में वापसी इसका उदाहरण है।

गौरी लंकेश का आख़िरी सम्पादकीय – फ़र्ज़ी ख़बरों के ज़माने में

हाल ही में पश्चिम बंगाल में जब दंगे हुए तो आरएसएस के लोगों ने दो पोस्टर जारी किये। एक पोस्टर का कैप्शन था, बंगाल जल रहा है, उसमें प्रोपर्टी के जलने की तस्वीर थी। दूसरे फ़ोटो में एक महिला की साड़ी खींची जा रही है और कैप्शन है बंगाल में हिन्दु महिलाओं के साथ अत्याचार हो रहा है। बहुत जल्दी ही इस फ़ोटो का सच सामने आ गया। पहली तस्वीर 2002 के गुजरात दंगों की थी जब मुख्यमन्त्री मोदी ही सरकार में थे। दूसरी तस्वीर भोजपुरी सिनेमा के एक सीन की थी। सिर्फ़ आरएसएस ही नहीं बीजेपी के केन्द्रीय मन्त्री भी ऐसे फ़ेक न्यूज़ फैलाने में माहिर हैं।

पंचकूला हिंसा और राम रहीम परिघटना : एक विश्लेषण

डेरा सच्चा सौदा पहले हरियाणा और पंजाब की राजनीति में कांग्रेस का पक्षधर माना जाता था। फिर कांग्रेस के पराभव के साथ ही इस डेरे ने अपने अन्य राजनीतिक विकल्पों की तलाश और सौदेबाज़ी भी शुरू कर दी। उल्लेखनीय है कि 2014 के लोकसभा चुनावों में डेरा सच्चा सौदा ने अकाली दल उम्मीदवार और सुखवीर सिंह बादल की पत्नी हरसिमरन कौर की जीत में अहम भूमिका निभायी थी। इन चुनावों के दौरान और हरियाणा के विधान सभा चुनावों के दौरान डेरा सच्चा सौदा ने पर्दे के पीछे से अपना पूरा समर्थन भाजपा को दिया था।

जनता में बढ़ते असन्तोष से घबराये भगवा सत्ताधारी

हमने मोदी की जीत के बाद जो भविष्यवाणी की थी वह अक्षरश: सही साबित हो रही है। विदेशों में जमा काला धन की एक पाई भी वापस नहीं आयी है। देश के हर नागरिक के खाते में 15 लाख रुपये आना तो दूर, फूटी कौड़ी भी नहीं आयेगी। नोटबन्‍दी से काला धन कम होने के बजाय उसका एक हिस्‍सा सफ़ेद हो गया और आम लोगों की ईमान की कमाई लुट गयी। निजीकरण की अन्धाधुन्ध मुहिम में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को हड़पकर देशी-विदेशी कम्पनियाँ जमकर छँटनी कर रही हैं।

क्रांतिकारी लोकस्‍वराज्‍य अभियान : भगतसिंह का सपना, आज भी अधूरा, मेहनतकश और नौजवान उसे करेंगे पूरा

सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्रान्ति का यह काम कुछ बहादुर युवा नहीं कर सकते। यह कार्य व्यापक मेहनतकश अवाम की गोलबन्दी और संगठन के बिना नहीं हो सकता है। यह आम जनता की भागीदारी के बिना नहीं हो सकता है। हम विशेषकर नौजवानों का आह्नान करेंगे कि वे इस अभियान से जुड़ें। इतिहास में ठहराव की बर्फ़ हमेशा युवा रक्त की गर्मी से पिघलती है। क्या आज के युवा अपनी इस ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी से मुँह चुरायेंगे?

राष्ट्र सेविका समिति के ज़रिये स्त्रियों को आज्ञाकारी आधुनिक दासियों में बदलने की आरएसएस की कोशिशें

असल में राष्ट्र सेविका समिति आज भी गोलवलकर की किताब ‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ के उन विचारों पर कायम हैं – ”औरतें पूरी तरह माएँ हैं और उन्हें बच्चों के पीछे-पीछे रहना चाहिए।” यानी संघ औरत को इंसान मानने के लिए तैयार नहीं, जिसकी अपनी भी कुछ इच्छाएँ होती हैं। वे भी अपने पैरों पर खड़े होना चाहती हैं, अपनी इच्छा से हँसना और खेलना चाहती हैं। वे भी सपनों के पँख लगाकर जीवन के आकाश में आज़ादी से उड़ना चाहती हैं। लेकिन संघ उनके पँख काटकर उनको पिंजरे में बन्द कर देना चाहता है।

गाय के नाम पर ”गौ-रक्षक” गुण्डों के पिछले दो वर्षों के क़ारनामों पर एक नज़र

इन गौ-गुण्डों को सरकारी शह हासिल है। लगभग सारी ही घटनाओं में पुलिस की भूमिका मूकदर्शक वाली बनी हुई है, कहीं-कहीं पुलिस ख़ुद “दोषियों” को गौ-गुण्डों के हवाले कर रही है। यह पूरा काम पुलिस और तथाकथित गौरक्षा  दलों की मिलीभगत से चल रहा है। कई ऐसे वीडियो भी सामने आये हैं, जहाँ पुलिस वाले इन घटनाओं पर हँसते हुए पाये गये हैं। गौ-रक्षकों के लिए यह एक मुनाफ़े वाला धन्धा भी बन रहा है। अख़बारों में छपे लोगों के विभिन्न बयानों से पता चलता है कि कई स्थानों पर गौ-रक्षकों ने पैसे लेकर “दोषियों” को बरी किया है और अगर आप पैसे नहीं दे सकते तो सज़ा के हक़दार तो हो ही। कई जगह ये तथाकथित गौरक्षक ख़ुद ही गाय बेचते पकड़े गये हैं। इसके साथ ही मुसलमानों पर झूठे मुक़द्दमों का दौर भी शुरू हुआ है। गोवंश हत्या और अस्थायी प्रवास अथवा निर्यात नियमन क़ाूनन, 1995 के तहत सिर्फ़ राजस्थान में 73 मुक़द्दमे दर्ज हुए जो बाद में झूठे साबित हुए।