उत्‍तर प्रदेश में आतंक के राज्‍य को क़ानूनी जामा पहनाने के लिए आया काला क़ानून

– अमित

एक ऐसी संस्था की कल्पना करें जो जब चाहे शक के आधार पर किसी को भी गिरफ़्तार कर सकती है; जिसको गिरफ़्तारी के लिए किसी वारण्ट या मजिस्ट्रेट की अनुमति की ज़रूरत नहीं है; जिसका हर सदस्य हर समय ड्यूटी पर माना जाएगा; जिसका ‘कोई भी सदस्य’ किसी भी समय किसी को भी गिरफ़्तार कर सकता है; जिसके ख़िलाफ़ सरकार की इजाज़त के बिना अदालत भी किसी मामले को संज्ञान में नहीं ले सकती है; जिसकी सेवाएँ कोई निजी संस्था भी ले सकती है। ये बातें सुनकर आपको कुख़्यात फ़ासिस्ट संस्था गेस्टापो की याद आ सकती है, लेकिन हम गेस्टापो की बात नहीं कर रहे हैं। हम बात कर रहे हैं ‘उत्तर प्रदेश विशेष सुरक्षा बल (यूपीएसएसएफ़)’ की, जिसका गठन उत्तर प्रदेश की योगी सरकार करने जा रही है।
2 अगस्त को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा ‘उत्तर प्रदेश विशेष सुरक्षा बल एक्ट, 2020’ के तहत ‘उत्तर प्रदेश विशेष सुरक्षा बल (यूपीएसएसएफ़)’ के गठन की अधिसूचना जारी की गयी। इस अधिसूचना की धारा दस के अनुसार, किसी कर्मचारी को अपना कार्य करने से रोकने, परिसरों की सम्पत्ति को नुक़सान पहुँचाने, किसी परिसर में काम करने वाले कर्मचारी के जीवन को ख़तरा पैदा करने आदि की आशंका के आधार पर ही उठाया जा सकता है। इसी अधिसूचना में आगे कहा गया है कि ऐसे किसी भी व्यक्ति को बिना वारण्ट गिरफ़्तार करने, उसके घर की तलाशी लेने आदि का अधिकार इस बल के पास है। ज़ाहिर है कि जो बातें ऊपर लिखी गयी हैं, ये वही आरोप हैं जो आम तौर पर किसी भी जनान्दोलन को कुचलने, उसमें शामिल लोगों को गिरफ़्तार करने पर लगाये जाते हैं। पिछले दिनों सीएए-एनआरसी-विरोधी आन्दोलन के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने इसी तरह के आरोप लगाकर जगह-जगह आन्दोलन में शामिल होने वाले लोगों को नोटिस भेजना और उनकी सम्पत्ति की कुर्की करके नीलाम करवाना शुरु कर दिया। वारण्ट तो पहले भी देश की बहुत बड़ी आबादी के लिए फ़िल्मों में देखी गयी चीज़ थी, लेकिन अब इन सबको क़ानूनी जामा पहनाया जा रहा है। ऊपर से इस काले क़ानून में एक और ख़तरनाक प्रावधान यह है कि प्राइवेट कम्पनियाँ भी पैसे देकर एसएसएफ़ की सेवाएँ ले सकेंगी। यानी राज्य सरकार ही नहीं, बल्कि कोई निजी कम्पनी भी अपने विरोधियों पर जब चाहे छापे डलवा सकती है और उन्हें गिरफ़्तार करवा सकती है।
जैसे-जैसे पूँजीवादी व्यवस्था अपने भयंकर संकट के दलदल में और गहरे धँसते जा रही है, वैसे-वैसे इसका असली चरित्र और ज़्यादा उजागर होता जा रहा है। देखा जाये तो भारतीय राज्य ने अपने नागरिकों पर डण्डा चलाने में कभी भी अपने ही द्वारा बनाए गए नियम-क़ानूनों की परवाह नहीं की। पुलिस मशीनरी के अलावा बीएसएफ़, सीआरपीएफ़, आरएएफ़ जैसे अर्द्धसैनिक बलों का ताना-बाना राज्यसत्ता के नाख़ून और बघनख़ के रूप में पहले से ही मौजूद हैं जिनका कथित तौर पर आन्तरिक सुरक्षा के लिए इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन इनका मुख्य काम जनान्दोलनों को कुचलना और आम जनता में दहशत पैदा करना है। लेकिन उत्तर प्रदेश की योगी सरकार इससे भी चार क़दम आगे बढ़कर यूपीएसएसएफ़ का गठन करने जा रही है, जिसके पास असीमित अधिकार हैं।
आज़ादी के बाद से भारत के सत्ताधारी भूरे साहबों ने अपने अंग्रेज़ पुरखों की परम्परा को और आगे बढ़ाने का काम किया। आज़ादी के तुरन्त बाद तेलंगाना में अपने ही नागरिकों के ख़िलाफ़ सेना उतारकर आने वाले दिनों का साफ़ संकेत दे दिया गया था। उसके बाद से पंतनगर, हाशिमपुरा, भवानीपुर, तूतीकोरि‍न जैसे हत्याकाण्डों की फ़ेहरिस्त बहुत लम्बी है। कश्मीर और उत्तर-पूर्व के राज्यों में आर्म्ड फ़ोर्सेज स्पेशल पॉवर्स एक्ट (अफ़स्पा) जैसे क़ानून पहले से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सच्चाई उजागर करने के लिए काफ़ी थे।
उत्तर प्रदेश में पुलिस को पहले भी किसी तरह की क़ानूनी प्रक्रिया, मजिस्ट्रेट, कोर्ट-कचहरी के झंझट में पड़ने की ज़रूरत नहीं थी। मार्च 2017 से लेकर जुलाई 2020 के बीच प्रदेश में छः हज़ार से ज़्यादा एनकाउण्टर हो चुके हैं। झटपट न्याय देने के नाम पर आम जनता के बीच में एक ट्रेण्ड को स्थापित किया जा रहा है। मॉब-लिंचिंग के अपराधियों को माला पहनाने वाली पार्टी की सरकार ने अपराधियों पर कार्रवाई के नाम पर लोगों के घर ढहाने, दूर-दराज़ के रिश्तेदारों-परिचितों तक पर ‘सख़्त कार्रवाई’ करते हुए आने वाले समय में हर तरह के कृत्य को न्यायोचित ठहराने की ज़मीन तैयार कर रही है।
पहले से मौजूद यूएपीए, एनएसए, टाडा, पोटा जैसे क़ानूनों का इस्तेमाल किस तरह से किया जाता है, यह हाल ही में डॉ. कफ़ील के मामले में देखा जा चुका है। जो सरकार कुलदीप सिंह सेंगर जैसे अपराधी को बचाने की हरसम्भव कोशिश करती है, चिन्मयानन्द जैसे अपराधी को बचाने के लिए जी-जान लगा देती है, वह अगर विशेष सुरक्षा बल का गठन कर रही है तो समझा जा सकता है कि उसके निशाने पर कौन-से “अपराधी” हैं।
सरकार की ओर से तर्क दिया जा रहा है कि इस फ़ोर्स का गठन महत्वपूर्ण संस्थानों और इमारतों आदि की सुरक्षा के लिए किया जा रहा है, लेकिन यह तर्क लोगों की आँखों में धूल झोंकने की एक हास्यास्पद कोशिश है। इस काम के लिए सीआईएसएफ़ जैसी फ़ोर्स देश में पहले से मौजूद है और इमारतों की सुरक्षा के लिए ऐसी शक्तियों की क़तई ज़रूरत नहीं है। इसे मुख्यमंत्री आदित्यनाथ का “ड्रीम प्रोजेक्ट” बताया जा रहा है। जिस सरकार के मुखिया का सपना अपने राज्य के नागरिकों के बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकार भी छीन लेना हो, वह सरकार कभी भी जनहितैषी नहीं हो सकती।
वास्तव में पूरे देश में आज फ़ासिस्ट ताक़तों का नंगा नाच चल रहा है। व्यवस्था का हर खम्भा आज फ़ासिस्ट ताक़तों की जेब में है। देश भर में जनपक्षधर बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं की फ़र्ज़ी गिरफ़्तारियाँ हो रही हैं। दिल्ली में दंगें कराने वाले असली अपराधी छुट्टा घूम रहे हैं और लोगों को एकजुट करने वाले, सामाजिक कार्यकर्ताओं पर फ़र्ज़ी मुक़दमे लगाए जा रहे हैं। लेकिन इतिहास गवाह रहा है कि हथियारों के बड़े-बड़े जखीरे जनता के समुद्र में डूब जाते हैं। मेहनतकश जनता की ताक़त के संगठित होने पर इन फ़ासिस्टों का भी वही हश्र होगा जो अतीत में हिटलर और मुसोलिनी का हुआ था।

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2020


 

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