बेरोज़गारी की विकराल स्थिति और सरकारी जुमलेबाज़ियाँ व झूठ
रोज़गार गारण्टी क़ानून के लिए एक जुझारू और व्यापक जनान्दोलन खड़ा करना होगा

काम का अधिकार वास्तव में जीने का अधिकार है। अगर आपके पास पक्का रोज़गार नहीं है, तो आपका जीवन आर्थिक और सामाजिक रूप से असुरक्षित है। देश में आज बेरोज़गारी की हालत चार दशकों में सबसे ख़राब है। एक ओर सरकार और उसका ज़रख़रीद कॉरपोरेट मीडिया अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर पर तालियाँ बजा रहे हैं, तो दूसरी ओर देश के आम मेहनतकश लोग बेरोज़गारी के कारण ख़ाली थालियाँ बजा रहे हैं।

सरकारी आँकड़ों के पैमाने और उनको जुटाने का तरीक़ा जानबूझकर ऐसा बनाया गया है कि बेरोज़गारी को कम करके दिखलाया जा सके। इसके बावजूद राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की हाल की रिपेार्ट के अनुसार देश में इस समय बेरोज़गारी दर पिछले 45 साल का रिकॉर्ड तोड़कर 6.1 प्रतिशत हो चुकी है। रोज़गारशुदा लोगों में भी 93 प्रतिशत लोग ठेका, दिहाड़ी, कैज़ुअल कामगारों के रूप में काम कर रहे हैं। इन मज़दूरों और कर्मचारियों को रोज़गार की कोई सुरक्षा प्राप्त नहीं है। इनके मालिक (जिनमें सरकारी विभाग भी शामिल हैं) इन्हें कभी भी काम से बाहर कर सकते हैं। क्या माना जा सकता है कि इन लोगों के पास सुरक्षित रोज़गार है? नहीं! लेकिन जिस सरकार के नेता पकौड़ा तलने, पान-गुटखा बेचने को रोज़गार बताते हों, उससे यह उम्मीद करना बेकार है कि वह रोज़गार की सच्चाई को स्वीकार करे।

सच्चाई यह है कि हमारे समाज में आज बेरोज़गारी विकराल रूप धारण कर चुकी है। देश के करोड़ों बेरोज़गारों में से अनेक चौतरफ़ा निराशा का शिकार होकर आत्महत्या करने की ओर धकेल दिये जाते हैं। लेकिन जो आत्महत्या नहीं करते, वे सब कैसे जीते हैं? वे कभी एक तो कभी दूसरा छोटा-मोटा काम करके किसी तरह ग़रीबी, कुपोषण और भुखमरी के हालात में जीते रहते हैं; कोई अमीरज़ादों की कालोनियों में गाड़ि‍याँ धोता है, कोई फुटपाथ पर चादर बिछाकर गुटखा-सिगरेट बेचता है, तो कोई घरों में अख़बार डालने लगता है, या सुबह से रात तक शहर के चक्कर लगाते हुए घरों-दफ़्तरों में पैकेट और खाना पहुँचाता है। ज़ाहिर है कि जीविका कमाने के ये प्रयास उन्हें ग़रीबी, कुपोषण, अशिक्षा, भुखमरी और बीमारी के हालात में मुश्किल से जीवित भर रख पाते हैं। क्या इसे रोज़गार कहा जा सकता है? नहीं! रोज़गार का अर्थ है पक्के काम की गारण्टी जो आपको एक इंसानी ज़ि‍न्दगी दे सकते, इज़्ज़त के साथ सिर उठाकर जीने का अधिकार दे सके, अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा, दवा-इलाज और आवास का अधिकार दे सके। यदि रोज़गार की इस परिभाषा को लागू करें तो देश के क़रीब 28 से 30 करोड़ लोग या तो सीधे-सीधे बेरोज़गार हैं, या फिर अर्द्धबेरोज़गार हैं। क्या बेरोज़गारी कोई प्राकृतिक आपदा है, जिसे रोका नहीं जा सकता है? नहीं। तो फिर बेरोज़गारी के लिए जि़म्मेदार कौन है? आख़ि‍र समाज में बेरोज़गारी का कारण क्या है? क्या बेरोज़गारी की समस्या का कोई समाधान सम्भव है? अगर हाँ, तो फिर वह समाधान क्या है?

बेरोज़गारी की भयावह तस्वीर : सरकारी व ग़ैर-सरकारी संस्थाओं के आँकड़ों के आईने में

अब यह बिल्कुल साफ़ हो चुका है कि मोदी सरकार ने बेरोज़गारी के तमाम आँकड़ों को दबाने का प्रयास किया है। पहले उसने लेबर ब्यूरो के रोज़गार सर्वेक्षण पर रोक लगा दी; फिर अभी हाल में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के बेरोज़गारी के आँकड़ों को प्रकाशित करने से तरह-तरह के बहाने करके इंकार कर दिया, जिसके विरोध में राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के दो शीर्ष विशेषज्ञों ने इस्तीफ़ा भी दे दिया। लेकिन बेरोज़गारी की हालत इतनी ख़राब है कि आँकड़ों की तमाम बाजीगरी और झूठ-फ़रेब के बावजूद कुछ आँकड़े सामने आ ही जाते हैं। आइए राष्ट्रीय स्तर के इन आँकड़ों पर एक निगाह डालते हैं।

आख़ि‍री उपलब्ध सरकारी आँकड़े 2011-12 और 2016-17 के बीच के हैं। इस पूरे दौर में बेरोज़गारी तेज़ी से बढ़ी है। विशेष तौर पर, 2016 के बाद, यानी नोटबन्दी और जीएसटी के लागू होने के बाद से बेरोज़गारी में तीव्र बढ़ोत्तरी हुई है। न सिर्फ़ औपचारिक क्षेत्र के रोज़गारों में भारी कमी आयी है, बल्कि अनौपचारिक क्षेत्र के रोज़गार भी घटे हैं, जिसमें पकौड़ा तलने वाले, पान बेचने वाले, ऑटो चलाने वाले आदि भी शामिल हैं! सबसे ज़्यादा कमी स्त्रियों के रोज़गार में आयी है। उन्हें जो रोज़गार मिले भी हैं, वे सबसे असुरक्षित, कम मज़दूरी वाले, और घरेलू उद्योग जैसे क्षेत्रों में मिले हैं, जिन्हें सही मायने में रोज़गार कहा भी नहीं जा सकता है। हमारे देश में खुली बेरोज़गारी दर तो हमेशा से कम दिखायी जाती रही है, जिसका कारण यह है कि हमारे देश में बेरोज़गारी से सामाजिक सुरक्षा हेतु कोई बेरोज़गारी लाभ जैसी व्यवस्था ही नहीं है। यही कारण है कि एक बहुत बड़ी बेरोज़गार आबादी कुछ न कुछ काम करके एक-दो वक़्त की रोटी का इन्तज़ाम करने को मजबूर है, जैसे, गाड़ि‍याँ धोना, बीड़ी-सिगरेट-मसाला बेचना, रेड लाइट पर गाड़ी के शीशे साफ़ करना, कूड़ा बटोरना, छोटी-मोटी चीज़ों की फे़री लगाना आदि। ये किसी भी तरह रोज़गार नहीं है।

देश की अर्थव्यवस्था के विभिन्न तरह के आँकड़े इकट्ठा करने वाली एक अन्य सापेक्षिक रूप से विश्वसनीय संस्था है ‘सेण्टर फ़ॉर मॉनीटरिंग इण्डियन इकॉनमी’ (सीएमआईई)। इसके कुछ आँकड़ों पर निगाह डालते हैं। नवम्बर 2016 तक कुल रोज़गारशुदा लोगों की तादाद भारत में 40.6 करोड़ थी। यह नोटबन्दी के प्रभाव के कारण दिसम्बर 2018 में 39.7 करोड़ रह गयी। यानी कि नौकरियों की संख्या में शुद्ध रूप से आयी कमी क़रीब 1 करोड़ की थी। वैसे विभिन्न रिपोर्टें बताती हैं कि नोटबन्दी के कारण कुल 2 करोड़ से ज़्यादा लोगों के काम-धन्धे छूट गये। इस आँकड़े की गम्भीरता तब समझ में आती है जबकि हम यह भी ध्यान में रखें कि हमारे देश में हर वर्ष क़रीब 1.3 करोड़ नये लोग श्रम बाज़ार में प्रवेश करते हैं। अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के ‘सेण्टर फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेण्ट’ के अनुसार समूची बेरोज़गार आबादी में 60 प्रतिशत लोगों की उम्र 15 से 29 वर्ष के बीच है, जबकि इस आयु समूह के लोगों का देश की कुल आबादी में हिस्सा मात्र 30 प्रतिशत है। इससे समझा जा सकता है कि नौजवानों के बीच बेरोज़गारी की हालत कितनी गम्भीर है। ध्यान रखें कि इन तमाम रिपोर्टों में बेरोज़गार उन्हें कहा गया है जो कि नौकरी की तलाश में हैं, लेकिन पिछले छह माह से उनके पास कोई काम नहीं है। सीएमआईई का कहना है कि इस परिभाषा के अनुसार दिसम्बर 2018 में बेरोज़गारी दर 7.4 प्रतिशत तक पहुँच चुकी थी।

लेबर ब्यूरो के आख़ि‍री आँकड़े के अनुसार, 2014 और 2016 के बीच 15 वर्ष से अधिक आयु वाले 37.4 लाख लोगों ने रोज़गार खोया। ये आँकड़े जिन आठ सेक्टरों के बारे में थे, उनमें से केवल एक सेक्टर यानी ख़ुदरा व थोक व्यापार के सेक्टर में नौकरियों की संख्या में हल्की वृद्धि हुई, बाक़ी सभी में घटी। हम जानते हैं कि ख़ुदरा व थोक व्यापार में मिलने वाला काम किस तरह का होता है। यह सबसे कम वेतन वाला सबसे असुरक्षित कि़स्म का काम होता है जो कि लोग आमतौर पर तब करते हैं जबकि उन्हें कोई और विकल्प नहीं मिलता। कुल मिलाकर मोदी सरकार के पहले दो वर्षों में ही क़रीब 37.4 लाख लोग नौकरियों से हाथ धो बैठे थे। लेबर ब्यूरो की इसके बाद की रिपोर्ट को मोदी सरकार ने दबा दिया और इसके आगे के सर्वेक्षणों को भी रोक दिया।

मोदी सरकार ने एनएसएसओ के सावधिक श्रम शक्ति सर्वेक्षण को तो जारी रहने दिया लेकिन उसके भी आख़ि‍री सर्वेक्षण की रपट को मोदी सरकार ने दबा दिया, हालाँकि वह रिपोर्ट लीक हो गयी। इसी रिपोर्ट से यह पता चला कि देश में बेरोज़गारी पिछले पाँच दशकों के चरम पर है। यह छह प्रतिशत को भी पार कर चुकी है। ग्रामीण युवाओं में बेरोज़गारी की दर 2004-05 के 3.9 प्रतिशत से बढ़कर 2017-18 में 17.4 प्रतिशत पहुँच चुकी है। ग्रामीण युवतियों में इसी दौरान बेरोज़गारी दर 4.2 प्रतिशत से बढ़कर 13.6 प्रतिशत पहुँच चुकी है। इसी दौर में शहरी युवाओं के बीच बेरोज़गारी की दर 8.8 प्रतिशत से बढ़कर 18.7 प्रतिशत और शहरी युवतियों में यह 14.9 प्रतिशत से बढ़कर 27.2 प्रतिशत पहुँच चुकी है।

स्थायी और पक्के रोज़गार लगातार घट रहे हैं। मोदी सरकार के कार्यकाल में ही केन्द्रीय सरकार के कर्मचारियों की संख्या में 75,231 की कमी आयी। इसके अलावा, देशभर में लगभग 25 लाख सरकारी पद ख़ाली हैं जिनमें प्राइमरी से लेकर विश्वविद्यालय तक के शिक्षकों के ही क़रीब 10 लाख पद हैं। स्त्रियों के रोज़गार में आयी कमी मोदी सरकार के कार्यकाल की एक अन्य ख़ासियत है। शहरों में 18 से 25 वर्ष की औरतों के बीच बेरोज़गारी दर 30 प्रतिशत के क़रीब पहुँच रही है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार, भारत में अभी केवल 3.1 करोड़ बेरोज़गार हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि यदि किसी व्यक्ति के पास आँकड़े जुटाते समय पिछले एक वर्ष में एक माह का किसी भी तरह का रोज़गार रहा हो, तो उसे बेरोज़गार नहीं माना जाता है! यानी चाहे आप पिछले ग्यारह महीने से ख़ाली बैठे हों, लेकिन अगर 11 महीने पहले आपके पास 30 दिनों तक कोई रोज़गार था तो आपको बेरोज़गार नहीं माना जायेगा! इसी तरह से हमारे देश की सरकारें अपनी नाकामियों को छिपाती हैं। अब ज़रा कुछ और आँकड़ों पर ग़ौर करें : देश के 77 प्रतिशत परिवारों के पास कोई नियमित रोज़गार वाला सदस्य नहीं है और 67 प्रतिशत परिवारों की प्रति माह आमदनी 11 हज़ार रुपये से कम है। भारत के 49 करोड़ से भी ज़्यादा मज़दूरों में से 94 प्रतिशत ठेका, दिहाड़ी या कैज़ुअल के तौर पर काम करते हैं, जिनके पास कोई पक्का रोज़गार नहीं और इनमें से बहुतेरे लोग हर साल काफ़ी समय तक काम छूटने के कारण ठेला लगाने, फेरी लगाने, रिक्शा चलाने जैसे काम करने के लिए मजबूर होते हैं जिनसे बमुश्किल वे अपना और परिवार का पेट भर पाते हैं। इन सभी आँकड़ों को ध्यान में लें, तो बेरोज़गारों और अर्द्धबेरोज़गारों की तादाद 25 करोड़ से ज़्यादा ही बैठेगी। लगातार बेरोज़गारी का सामने करने वालों की तादाद भी 10 करोड़ से कम नहीं होगी।

ज़ाहिर है, केवल ख़ाली सरकारी पदों को भरने से समस्या का समाधान नहीं होगा, लेकिन तात्कालिक तौर पर यह भी एक बड़ा क़दम होगा। देश में क़रीब 25 लाख सरकारी पद ख़ाली पड़े हैं, जिनमें से 4.2 लाख केन्द्र सरकार में हैं। पुलिस विभाग में कुल 5.49 लाख पद, प्राइमरी अध्यापकों के 5.23 लाख पद, 2.36 लाख आँगनवाड़ी कर्मियों के पद, रेलवे में सुरक्षा से जुड़े 2.23 लाख पद, डॉक्टरों व स्वास्थ्यकर्मियों के क़रीब 41 हज़ार पद, डाक विभाग में 49 हज़ार पद, आयकर विभाग में 32 हज़ार पद, गृह मन्त्रालय में 78 हज़ार पद ख़ाली हैं। इतने पद भी तब ख़ाली हैं जब अनेक सरकारी विभागों में बड़े पैमाने पर पद ही ख़त्म कर दिये गये हैं। इसमें सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योग भी शामिल नहीं हैं। यह केवल एक छोटी-सी तस्वीर है यह दिखलाने के लिए कि यदि सरकार बेरोज़गारी समाप्त करने के लिए ज़रा भी गम्भीर होती तो कम-से-कम सबसे पहले इन रिक्तियों को ही भर देती।

आख़ि‍र क्यों है बेरोज़गारी?

आज दुनिया के सभी देशों में बेरोज़गारी है। कहीं कम है तो कहीं ज़्यादा है। जहाँ सबसे कम है, वे ऐसे साम्राज्यवादी देश हैं जो बाक़ी दुनिया में अपनी लूट के बूते अपने देश में व्यापक कल्याणकारी योजनाएँ लागू करते हैं, जिसके कारण वहाँ बेरोज़गारी कम है। लेकिन वहाँ बेरोज़गारी इसीलिए कम है क्योंकि उन देशों में भारी बेरोज़गारी है, जिनकी जनता को ये देश लूटते हैं। लेकिन अमेरिका, जापान और स्वीडन जैसे उन्नत पूँजीवादी देशों में भी बेरोज़गारी की समस्या मौजूद है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार दुनिया में बेरोज़गारों की तादाद पिछले चार वर्षों में ही 20 करोड़ से बढ़कर 22 करोड़ के क़रीब पहुँच रही है। आख़ि‍र इसका कारण क्या है?

इसका ढाँचागत कारण है आज दुनिया के सभी देशों में क़ायम मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था। जिस सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के केन्द्र में समाज के लोगों की ज़रूरतों को पूरा करना नहीं होता, बल्कि मुट्ठीभर मालिकों और पूँजीपतियों के मुनाफ़े़ को सुनिश्चित करना होता है, उस व्यवस्था में बेकारी होना लाि‍ज़‍मी है। क्योंकि ऐसी हर व्यवस्था प्रतिस्पर्द्धा पर टिकी होती है। तमाम कम्पनियाँ, पूँजीपति घराने और मालिकान बाज़ार में अपने उत्पाद को कम से कम क़ीमत पर बेचने की होड़ में लगे होते हैं। उत्पादों की क़ीमत कम से कम कैसे की जा सकती है? प्रति-इकाई लागत कम करके। प्रति-इकाई लागत कम से कम कैसे की जा सकती है? मज़दूरों की उत्पादकता बढ़ाकर और मज़दूरी को घटाकर। उत्पादकता को कैसे बढ़ाया जा सकता है? नयी तकनोलॉजी और मशीनें लाकर जिससे कम मज़दूरों से पहले से ज़्यादा उत्पादन करवाया जा सकता है। ऐसे में, अपवादस्वरूप आर्थिक तेज़ी और विस्तार के दौरों को छोड़ दिया जाये, तो काम में लगे मज़दूरों की संख्या में गिरावट आती है। विस्तार के दौरों में भी प्रति मशीन श्रमिक की दर गिरती ही रहती है। नतीजा होता है समाज में बेरोज़गार कामगारों की संख्या में बढ़ोत्तरी, चाहे वे शारीरिक श्रम करते हों या बौद्धिक श्रम। जब समाज में बेरोज़गारों की संख्या बढ़ती है, तो मालिक वर्ग मज़दूरों से कम-से-कम मज़दूरी पर काम लेने का प्रयास करता है, क्योंकि सड़कों पर बेरोज़गारों की संख्या बढ़ने के साथ नौकरीशुदा कामगारों की स्थिति भी ख़राब होती जाती है। सिर पर लटकती बेरोज़गारी की तलवार के कारण उनके मोलभाव की क्षमता घट जाती है। यानी मुनाफ़ाकेन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था एक ऐसी अराजकतापूर्ण व्यवस्था है जो कि स्वाभाविक रूप से बेरोज़गारी और बेकारी को पैदा करती है। किन्हीं पूँजीपतियों, राजनीतिज्ञों या नौकरशाहों की सदिच्छा से यह स्थिति नहीं बदल सकती है। जब तक कि पूँजीवादी व्यवस्था है, तब तक किसी भी प्रकार का कल्याणकारी राज्य या नीतियाँ बेरोज़गारी को पूरी तरह समाप्त नहीं कर सकतीं। क्योंकि सभी चुनावबाज़ पार्टियाँ, जिनमें तथाकथित वामपन्थी दल भी शामिल हैं, बड़े, मँझोले या छोटे पूँजीपति वर्ग की ही सेवा करती हैं, उन्हीं के चन्दों के बूते चुनाव लड़ती हैं और उन्हीं के हितों के अनुसार नीतियाँ बनाती हैं या उनका समर्थन करती हैं। यदि कोई भी कल्याणकारी नीति बेरोज़गारी को समाप्त या कम करने का प्रयास करती है, तो पूँजीपति वर्ग उसका विरोध करता है। क्योंकि इससे औसत मज़दूरी बढ़ाने के लिए दबाव बनता है। औसत मज़दूरी बढ़ने का अर्थ है कि पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े़ की औसत दर में गिरावट आ सकती है। यही कारण है कि पूँजीपति वर्ग बेरोज़गारी से सामाजिक सुरक्षा देने वाली किसी भी नीति का विरोध करता है और उसे सरकारी फ़ि‍ज़ूलख़र्ची क़रार देता है, हालाँकि जनता के ही धन से ख़ुद पूँजीपतियों को जब सस्ते क़र्ज़, क़र्ज़-माफ़ी, कर छूट आदि के रूप में खरबों की सौगात मिलती है तो उसे कोई तकलीफ़ नहीं होती! मिसाल के तौर पर, इस बात के आँकड़े मौजूद हैं कि 2006 से 2010 तक मनरेगा के कारण (जो कि स्वयं एक बेहद कमज़ोर क़ानून है) ग्रामीण औसत मज़दूरी में बढ़ोत्तरी हुई। न सिर्फ़ ग्रामीण धनी किसानों, फ़ार्मरों व एग्रो-बिज़नेस वालों ने इसका विरोध किया, बल्कि गाँव से शहर की ओर प्रवास की दर में भी मामूली गिरावट आयी जिसके कारण उद्योगपति वर्ग के लिए बेरोज़गारों की रिज़र्व आर्मी में कमी आयी और उसने भी इस योजना का विरोध किया। यही कारण है कि स्वयं यूपीए की सरकार ने ही 2011 से मनरेगा को अधिक से अधिक निष्प्रभावी बनाने के लिए हर सम्भव प्रयास किये। सभी चुनावबाज़ पार्टियाँ चूँकि बड़े पूँजीपति वर्ग की ही सेवा करती हैं, इसलिए वे सरकार में रहने पर ऐसी नीतियाँ बनाने से बचती हैं, जो किसी भी रूप में पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े़ की औसत दर पर कोई नकारात्मक प्रभाव डाले।

बेरोज़गारी की समस्या का स्थायी समाधान क्या है?

बेरोज़गारी की समस्या का स्थायी समाधान है मुनाफ़ा-केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था की जगह समाज-केन्द्रित समाजवादी व्यवस्था। ऐसी व्यवस्था मेहनतकश जनसमुदायों की जन पहलक़दमी और जनान्दोलनों के रास्ते से आगे बढ़ते हुए समाज के क्रान्तिकारी पुनर्गठन के ज़रिये ही सम्भव है। मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था में बेरोज़गारी की समस्या का कोई स्थायी समाधान सम्भव नहीं है, उल्टे यह समस्या बढ़ती ही जायेगी।

नयी समाजवादी व्यवस्था में राज्यसत्ता पर देश के मेहनतकश वर्गों का क़ब्ज़ा होगा, जो स्वयं अपनी क्रान्तिकारी पंचायतों/कमेटियों/कम्यूनों में संगठित होगा। इन संस्थाओं का एक पिरामिडीय ढाँचा होगा जो कि नीचे से लेकर राष्ट्रीय पंचायत तक जायेगा। किसी भी चुने गये प्रतिनिधि को कभी भी वापस बुलाने का हक़ जनता को होगा। चूँकि निर्वाचन मण्डल बेहद छोटे और आसानी से सँभालने योग्य होंगे, इसलिए सच्चे मायने में “वापस बुलाने के अधिकार” को लागू किया जा सकेगा। तब सही मायने में राज्यसत्ता पर मेहनतकश जनता का क़ब्ज़ा होगा। हर व्यक्ति के लिए काम करना अनिवार्य होगा और बिना काम किये किसी को भी रोटी खाने का हक़ नहीं होगा। एक ऐसी व्यवस्था में ही बेरोज़गारी दूर हो सकती है, क्योंकि सभी बैंकों, उद्योगों, खानों-खदानों का राष्ट्रीकरण कर दिया जायेगा, सभी बड़े फ़ार्मों को राजकीय फ़ार्मों में तब्दील कर दिया जायेगा, सभी खेतों को सहकारी या सामूहिक फ़ार्मों में तब्दील कर दिया जायेगा। समूचे उत्पादन का राष्ट्रीय योजना के तहत संचालन होगा, जिसका मक़सद होगा समाज की सभी आवश्यकताओं का सही आकलन करके उसके अनुसार समूचे राष्ट्रीय उत्पादन को संगठित करना। केवल एक ऐसी व्यवस्था में सभी लोगों को रोज़गार मुहैया कराया जा सकता है। चूँकि निजी मुनाफ़ा मक़सद नहीं होगा, इसलिए उन्नत से उन्नत तकनोलॉजी लोगों के काम के घण्टों को कम करेगी और उनके काम को आसान बनायेगी, न कि उन्हें सड़कों पर खदेड़कर बेकार करेगी। तब मनुष्य तकनोलॉजी को नियन्त्रित करेगा, न कि मुनाफ़े की अन्धी हवस के कारण तकनोलॉजी से नियन्त्रित होगा। समाज की बढ़ती उत्पादकता के साथ काम के घण्टे कम होते जाने चाहिए। लेकिन आज उन्नत तकनोलॉजी आने के साथ काम के घण्टे बढ़ते जा रहे हैं और काम अधिक से अधिक भारी और उबाऊ होता जा रहा है। एक ओर करोड़ों मज़दूर 12-14 घण्टे खटते रहते हैं, दूसरी ओर करोड़ों लोग काम की तलाश में भटकते रहते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि उत्पादन का मक़सद समाज की ज़रूरतों को पूरा करना नहीं बल्कि सबसे अमीर 5-6 प्रतिशत लोगों का निजी मुनाफ़ा सुरक्षित करना है।

निश्चित तौर पर, ऐसी नयी व्यवस्था निर्मित करना कोई आसान काम नहीं होगा। सामाजिक समस्याओं के स्थायी समाधान के रास्ते शायद ही कभी आसान होते हैं। लेकिन बेरोज़गारी की समस्या के स्थायी ठोस समाधान का यही रास्ता है। निश्चित तौर पर यह एक लम्बी लड़ाई है जिसके लिए देश में मेहनतकश वर्गों (यानी अपनी श्रमशक्ति बेचकर रोटी खाने वाला हर मनुष्य है, चाहे वह शारीरिक श्रम करता हो या मानसिक श्रम) की नयी क्रान्तिकारी पार्टी खड़ा करना, क्रान्तिकारी जनान्दोलन खड़ा करना और व्यवस्था के क्रान्तिकारी परिवर्तन तक जाना होगा। यह दो-चार वर्षों का काम नहीं है, बल्कि लम्बी लड़ाई है।

बेरोज़गारी की समस्या के विरुद्ध तात्कालिक संघर्ष का रास्ता क्या है?

बेरोज़गारी को जड़ से ख़त्म करने के दूरगामी लक्ष्य के इन्तज़ार में अगर हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे, तो व्यवस्था–परिवर्तन का क्रान्तिकारी संघर्ष खड़ा ही नहीं किया जा सकेगा। यह दूरगामी संघर्ष भी कई तात्कालिक संघर्षों की सीढि़यों से चढ़कर ही आगे बढ़ सकता है। ये तात्कालिक संघर्ष किन मुद्दों पर होंगे? सभी को समान एवं नि:शुल्क शिक्षा के अधिकार के सवाल पर, आवास के अधिकार के सवाल पर, सार्वभौमिक स्वास्थ्य सुविधाओं के अधिकार के सवाल पर, श्रम क़ानूनों को मज़दूरों के हक़ में बेहतर बनाने और उनके सही अमल के सवाल पर, और ऐसे अनेक सवालों पर। लेकिन इनमें से भी सम्भवत: सबसे महत्वपूर्ण है ‘काम के अधिकार’ का सवाल यानी रोज़गार गारण्टी का सवाल। पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर रोज़गार की क़ानूनी गारण्टी का हक़ माँगना रोज़गार के अधिकार की लड़ाई का सबसे अहम हिस्सा है।

मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर ही बेरोज़गारी से निपटने के लिए तमाम क़दम उठाये जा सकते हैं, जिससे बेरोज़गारी समाप्त तो नहीं हो जायेगी, लेकिन उसमें निश्चित तौर पर कमी आयेगी। ज़ाहिरा तौर पर, ऐसे क़दम कोई पूँजीवादी सरकार अपने आप नहीं उठायेगी, उस पर जनता का दबाव बनाना होगा।

पहला नीतिगत क़दम है सामाजिक सुरक्षा और जनकल्याण की व्यापक योजनाओं को अमल में लाना। मिसाल के तौर पर सभी नागरिकों को मौजूदा स्तर पर स्कूली शिक्षा मुहैया कराने के लिए कम से कम 10 लाख नये शिक्षकों की आवश्यकता है। यदि शिक्षा के स्तर को और ऊँचा किया जाये तो यह संख्या और भी ज़्यादा होगी। यदि सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखरेख की व्यवस्था को लागू किया जाये, तो न सिर्फ़ क़रीब 2.5 लाख बेरोज़गार डॉक्टरों, 2 लाख नर्सों व मिडवाइफ़ों, और लाखों अन्य स्वास्थ्यकर्मियों को नौकरियाँ मिल सकती हैं, बल्कि लाखों अन्य डॉक्टरों, नर्सों, स्वास्थ्यकर्मियों की आवश्यकता पैदा होगी। यदि उच्चतर शिक्षा की बात करें तो केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के 40 प्रतिशत पद ख़ाली हैं। वह भी तब जबकि भारत में 12वीं पास बच्चों का केवल 7 प्रतिशत ही उच्चतर शिक्षा तक पहुँच पाता है। इसमें भी यदि हम कुछ कुलीन विश्वविद्यालयों व कॉलेजों को छोड़ दें तो किसी भी मानक से अधिकांश संस्थानों को विश्वविद्यालय या कॉलेज कहा ही नहीं जा सकता है। यदि हम भारत में सभी बारहवीं पास बच्चों को किसी न किसी विषय या कुशलता में स्तरीय उच्चतर शिक्षा का हक़ मुहैया करायें, तो सोचें कि कितने रोज़गार पैदा होंगे। यदि सरकार सभी कामगारों को राजकीय आवास का अधिकार मुहैया कराये, तो इतने आवासों के निर्माण की आवश्यकता पड़ेगी, कि लाखों लोगों को रोज़गार मिलेगा। अगर अमीरों की फ़र्राटेदार गाड़ियों और पूँजीपतियों के ट्रकों के दौड़ने के लिए चन्द एक्सप्रेसवे बनाने के बजाय पूरे देश के गाँव-गाँव तक सड़कों का जाल बिछाया जाये, पुल बनाये जायें, स्कूल और अस्पताल बनाये जायें, अनाज के सुरक्षित भण्डारण की व्यवस्था की जाये, बच्चों, बुजुर्गों, अशक्त लोगों की उचित देखभाल के सारे इन्तज़ाम किये जायें तो लाखों नये रोज़गार पैदा होंगे। इतना करने के लिए तो समाजवाद की आवश्यकता नहीं है।

हालाँकि मीडिया से लेकर मध्यवर्ग तक निजीकरण का शोर मचाते रहते हैं, लेकिन हक़ीक़त यह है कि हमारे देश में प्रति 100 व्यक्ति सरकारी रोज़गार में लगे लोगों की संख्या औसतन 2 से भी कम है। अमेरिका में यह 5 है, यूरोप में औसतन 6 और स्कैण्डिनेवियन देशों (नार्वे, स्वीडन, फि़नलैण्ड, डेनमार्क) में 10 से 13 तक है। मन्दी के दौर में इन देशों में भी सरकारें इन नीतियों को समाप्त कर रही हैं, जिनका जनता पुरज़ोर विरोध भी कर रही है, मगर फिर भी वहाँ हमारे देश से कहीं बेहतर स्थिति है।

इन सभी सामाजिक सुरक्षा नीतियों में से सबसे अहम है सार्वभौमिक रोज़गार गारण्टी योजना। ऐसी योजना के लिए विशिष्ट क़ानून बनाया जाना चाहिए, जिसके अनुसार, यदि सरकार किसी काम करने योग्य और काम करने को इच्छुक समर्थ शरीर व मस्तिष्क के व्यक्ति को रोज़गार मुहैया नहीं करा सकती, तो उसे जीवनयापन योग्य बेरोज़गारी भत्ता देना होगा। यदि सरकार ग्रामीण बेरोज़गारों के लिए मनरेगा के तहत स्वीकार कर सकती है कि कम-से-कम 100 दिनों का रोज़गार देना उसकी ज़ि‍म्मेदारी है, तो समूचे भारत के सभी नागरिकों के लिए वह साल भर के पक्के रोज़गार की ज़ि‍म्मेदारी स्वीकार क्यों नहीं कर सकती है? 100 दिन का रोज़गार कोई रोज़गार नहीं है; यह एक कि़स्म की अनियमित बेगारी है क्योंकि इसके लिए सरकार अलग-अलग राज्यों में 165 से लेकर 203 रुपये दिहाड़ी दे रही है, जो कि स्वयं सरकार द्वारा तय राष्ट्रीय फ़्लोर लेवल न्यूनतम मज़दूरी से भी कम है। दूसरी बात, यदि शहरों में बेरोज़गारी की दर गाँवों से ज़्यादा है, तो सरकार को पूरे देश के लिए सार्वभौमिक रोज़गार गारण्टी क़ानून बनाना चाहिए जो कि सभी को साल भर के रोज़गार, आठ घण्टे के कार्यदिवस, न्यूनतम मज़दूरी की गारण्टी देता हो और ऐसा न करने की सूरत में गुज़ारे-लायक़ बेरोज़गारी भत्ता देता हो।

निश्चित तौर पर, ऐसा क़ानून बन जाने के बाद भी लड़ाई समाप्त नहीं होगी। हम अपने देश की राज्यसत्ता, उसकी सरकारों और नौकरशाही को तो जानते ही हैं। तमाम क़ानून मोटे-मोटे पोथों में पड़े सड़ते रहते हैं और उन्हें लागू करना तो दूर उनका कोई नामलेवा भी नहीं होता। श्रम क़ानून इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं। फिर भी रोज़गार गारण्टी क़ानून के लिए लड़ना अत्यावश्यक है, वैसे ही, जैसे जब श्रम क़ानून नहीं थे तो श्रम क़ानूनों के लिए लड़ना भी मज़दूर वर्ग के लिए आवश्यक था। इन क़ानूनों के बाद इनके कार्यान्वयन के लिए भी मज़दूर वर्ग को लड़ना पड़ा और आज भी लड़ना पड़ रहा है। साथ ही, पुराने पड़ चुके क़ानूनों को मज़दूर वर्ग के पक्ष में बदलवाने के लिए भी मज़दूर वर्ग को लड़ना पड़ता है। लेकिन इसके बावजूद इन क़ानूनों का बनना मज़दूर वर्ग के लिए एक आगे बढ़ा हुआ क़दम है। यह मज़दूर वर्ग को लड़ने के लिए सुपरिभाषित मध्यवर्ती माँगों का एक एजेण्डा और चार्टर देता है, जिस पर कि व्यापक मज़दूर वर्ग को गोलबन्द और संगठित किया जा सकता है। जो मध्यवर्ती माँगों को ठोस रूप नहीं देते, राज्यसत्ता से उन माँगों के लिए संघर्ष नहीं करते और किसी अन्तिम निर्णायक संघर्ष के इन्तज़ार में बैठे रहते हैं, वे न तो फ़ौरी संघर्ष की महत्ता को समझते हैं और न ही दूरगामी संघर्ष के साथ इसके रिश्ते को। रोज़गार के मसले पर भी ‘काम के हक़’ के क़ानून की माँग सबसे महत्वपूर्ण है, जैसी कि 1848 में पेरिस के मज़दूरों और आम मेहनतकशों ने की थी और उसके बाद दुनिया में मेहनतकश वर्गों और छात्रों-युवाओं ने अपने सभी आन्दोलनों में की है। निश्चित तौर पर, ऐसे क़ानून का बनना संघर्ष का मात्र एक चरण होगा, न कि रोज़गार के हक़ की लड़ाई का अन्त। यह नये स्तर के नये संघर्षों की ज़मीन तैयार करने के लिए अनिवार्य है।

क्या रोज़गार गारण्टी क़ानून लागू करने के लिए सरकार के पास धन की कमी है?

कुछ लोग कह सकते हैं कि सरकार इतना कैसे करेगी, उसके पास तो पैसा ही नहीं है। आइए इस तर्क पर भी आँकड़ों की रोशनी में बात कर लेते हैं, क्यों कांग्रेस की सरकार हो या भाजपा की या किसी तीसरे मोर्चे की, सभी सरकारें जनता के पक्ष में किसी भी क़ानून या योजना के प्रस्ताव पर ही अपनी फटी जेबें दिखाने का नाटक शुरू कर देती हैं। असलियत क्या है?

देश में पूँजीपतियों को कर छूट, सस्ती बिजली, ज़मीन, पानी, कच्चे माल और क़र्ज़ माफ़ी के कारण सरकार को हर वर्ष 70 हज़ार करोड़ रुपये का घाटा होता है। अभी इसमें हम टैक्स चोरी को जोड़ भी नहीं रहे हैं। कारपोरेट टैक्स 30 प्रतिशत है। लेकिन कोई भी कारपोरेट घराना इस दर से टैक्स नहीं देता है। मिसाल के तौर पर, अम्बानी की रिलायंस इण्डस्ट्रीज़ 10 प्रतिशत से भी कम दर पर टैक्स देती है। टैक्स चोरी की रक़म भी लाखों करोड़ रुपये में बैठती है। कारपोरेट घरानों पर बैंकों का क़र्ज़ जिसे मोदी सरकार ने एक प्रकार से माफ़ ही कर दिया है, वह क़रीब 10 लाख करोड़ के है। हर वर्ष सकल घरेलू उत्पाद का क़रीब 7 प्रतिशत कारपोरेट घरानों को करों और तमाम शुल्कों से छूट और रियायत में चला जाता है। अगर केवल इतना कर दिया जाये कि इन सबकी वसूली की जाये, सभी टैक्स दरों को पूर्ण रूप से लागू किया जाये, पूँजीपतियों को हर प्रकार की छूट बन्द की जाये तो भी ये सामाजिक सुरक्षा नीतियाँ और रोज़गार गारण्टी क़ानून लागू किया जा सकता है। स्वयं सरकार की बनायी विजय केलकर समिति ने अपनी रपट में सुझाव दिया था कि सरकार कारपोरेट टैक्स कम करे लेकिन बड़े पूँजीपतियों को हर प्रकार की छूट, रियायत या राहत देना बन्द कर दे, तो भी सरकारी घाटा समाप्त हो जायेगा और तमाम सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को लागू किया जा सकेगा।

क्या किसी भी चुनावबाज़ पार्टी की सरकार ऐसा करेगी?

चाहे कांग्रेस-नीत गठबन्धन की सरकार हो, भाजपा-नीत गठबन्धन की सरकार हो या किसी तीसरे महागठबन्धन की सरकार हो, कोई भी अपने आप ऐसा कोई रोज़गार गारण्टी क़ानून या सामाजिक सुरक्षा कवर की नीति नहीं बनायेगी। क्योंकि ऐसे क़ानून और नीति बनने और उसके आंशिक तौर पर भी लागू होने पर देश में औसत मज़दूरी में वृद्धि होती है, जैसा कि मनरेगा का 2010 तक का अनुभव बताता है। इससे कारपोरेट घरानों और पूँजीपतियों की मोलभाव की क्षमता कम होगी और कामगारों और मज़दूरों की मोलभाव की क्षमता बढ़ेगी। इसके कारण, पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े़ की औसत दर में कमी आयेगी और पूँजीपति वर्ग वैश्विक मन्दी के दौर में ऐसा क़तई नहीं चाहेगा। भारत के पूँजीपति घराने यह शिकायत करेंगे कि विश्व बाज़ार में वे प्रतिस्पर्द्धा में पिछड़ जायेंगे, उनके निर्यात महँगे हो जायेंगे, देश में विदेशी पूँजी निवेश घट जायेगा, आदि-आदि। ज़ाहिर है, इसमें जनता का कोई घाटा नहीं होगा, हाँ, भारत के धनाढ्य वर्ग की ऐयाशी में कुछ कमी ज़रूर आ जायेगी। लेकिन क्या कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, माकपा, भाकपा जैसी पार्टियाँ या उनकी सरकारें ऐसी नीति का समर्थन करेंगी? नहीं! क्योंकि ये सभी चुनावबाज़ पार्टियाँ पूँजीपति वर्ग के ही किसी न किसी हिस्से के चन्दों, सहयोग और समर्थन पर खड़ी हैं और इनका काम ही इसी वर्ग के किसी न किसी हिस्से के हित में नीतियाँ बनाना है।

ऐसे में, अपने से तो इन पार्टियों की सरकारें रोज़गार गारण्टी देने से रहीं। चुनाव हारने के डर से मोदी सरकार तमाम उपहार देने की झूठी घोषणाएँ कर रही है, कांग्रेस की राज्य सरकारों ने किसानों को लुभाने के लिए ऋण माफ़ी करने का ऐलान कर दिया, तमाम अन्य सरकारें भी साड़ी, चावल, लैपटॉप, मोबाइल, साइकिल आदि बाँटती रही हैं, लेकिन कोई भी रोज़गार की गारण्टी देने की बात नहीं करता।

लेकिन यदि देश में एक व्यापक और जुझारू जनान्दोलन खड़ा किया जाये जो कि रोज़गार गारण्टी क़ानून की माँग के लिए सड़कों पर लम्बी लड़ाई लड़ने को तैयार हो, तो सरकार को रोज़गार गारण्टी क़ानून बनवाने और पारित कराने के लिए मजबूर किया जा सकता है। संसद में इसका विरोध करने वाला ख़ुद ही जनता के बीच नंगा हो जायेगा। लेकिन ऐसी स्थिति पैदा करने के लिए देश भर में रोज़गार गारण्टी क़ानून के सवाल पर एक ज़बरदस्त आन्दोलन खड़ा करना होगा और लम्बे समय तक उसे चलाने की तैयारी करनी होगी।

‘बसनेगा’ अभियान क्यों?

‘भगतसिंह राष्ट्रीय रोज़गार गारण्टी क़ानून (बसनेगा) अभियान’ एक ऐसा ही अभियान है, जो पिछले एक वर्ष से देश के कई हिस्सों में जारी है। इस अभियान का मक़सद है देश भर में रोज़गार गारण्टी अधिनियम के लिए एक ज़बरदस्त और जुझारू आन्दोलन खड़ा करना। इसकी मुख्य माँगें हैं संविधान में संशोधन करके रोज़गार के अधिकार को मूलभूत अधिकारों में शामिल किया जाये; देश के हरेक काम करने योग्य नागरिक को पक्के रोज़गार की गारण्टी के लिए राष्ट्रीय रोज़गार गारण्टी क़ानून बनाया जाये, जिसके मातहत यह प्रावधान हो कि यदि सरकार किसी नागरिक को पक्का रोज़गार नहीं दे सकती है, तो उसे दस हज़ार रुपये प्रति माह बेरोज़गारी भत्ता दे; न्यूनतम मज़दूरी बीस हज़ार रुपये प्रति माह सुनिश्चित की जाये; ठेका प्रथा पर पूर्ण रोक लगायी जाये; सभी सरकारी रिक्त पदों को तत्काल भरा जाये; और सभी श्रम क़ानूनों को तत्काल लागू किया जाये। पिछले वर्ष, यानी 2018 में 25 मार्च को क़रीब चार हज़ार मज़दूर, कर्मचारी, छात्र, युवा और स्त्रियाँ जन्तर-मन्तर पर बसनेगा अभियान के तहत पहली रोज़गार अधिकार रैली में इकट्ठा हुए थे और प्रधानमन्त्री के नाम अपना माँगपत्रक सौंपा था। इस पहले प्रदर्शन में मोदी सरकार को यह चेतावनी दी गयी थी कि यदि वह रोज़गार गारण्टी अधिनियम पारित नहीं करवाती तो भाजपा और उसके मित्र दलों का पूर्ण बहिष्कार किया जायेगा। यह पहला पड़ाव था। ठीक एक वर्ष बाद, फिर से 3 मार्च को पहले से भी कहीं ज़्यादा तादाद में हज़ारों मज़दूर, कर्मचारी, महिलाएँ, छात्र और नौजवान अपने माँगपत्रक को लेकर रामलीला मैदान से संसद मार्ग तक दूसरी रोज़गार अधिकार रैली कर रहे हैं, जो संसद मार्ग पर रोज़गार अधिकार संसद में बदल जायेगी।

बसनेगा अभियान का मक़सद है ‘भगतसिंह राष्ट्रीय रोज़गार गारण्टी क़ानून’ बनवाना और रोज़गार गारण्टी के क़ानूनी हक़ को हासिल करना। इसके लिए बसनेगा अभियान की संयोजन समिति ऐसे क़ानून का एक मसौदा भी तैयार कर रही है जिसे सभी पार्टियों के समक्ष पेश किया जायेगा और पब्लिक डोमेन में उसे उपलब्ध कराया जायेगा। ऐसा क़ानून बनना रोज़गार के हक़ की लम्बी लड़ाई की एक अहम मंजि़ल होगा। लेकिन इस लड़ाई का अन्त नहीं होगा। उसके बाद इस क़ानून को सही ढंग से लागू करवाने और उसकी सार्वजनिक निगरानी की व्यवस्था बनवाने का संघर्ष भी करना होगा। लेकिन इतना ज़रूर है कि ऐसे क़ानून का निर्माण काम के हक़ के संघर्ष को एक अगली मंजि़ल में ले जाने की ज़मीन तैयार करेगा, इसके लिए व्यापक मेहनतकश जनसमुदाय, छात्रों, युवाओं और महिलाओं को एकजुट, गोलबन्द और संगठित करने का आधार तैयार करेगा।

 

 

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2019


 

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