मारुति सुज़ुकी के मैनेजमेण्ट ने मज़दूर नेताओं को प्रताड़ित करने और उकसावेबाज़ी की घटिया तिकड़में शुरू कीं
मज़दूरों को एकजुट रहकर मैनेजमेण्ट की चालों को नाकाम करना होगा

बिगुल संवाददाता

मारुति सुज़ुकी कम्पनी के मानेसर स्थित कारख़ाने के 2000 से अधिक मज़दूरों की जुझारू हड़ताल के बारे में ‘बिगुल’ के पाठकों ने मई-जून अंक में पढ़ा होगा। हमने उस रिपोर्ट में सवाल उठाया था कि इतनी जुझारू और एकजुट हड़ताल के बावजूद मज़दूरों को बिना कुछ हासिल किये पीछे क्यों हटना पड़ा। हमने उस रिपोर्ट में चर्चा की थी कि अगर मारुति के मज़दूरों को बाहर से समर्थन दे रही बड़ी-बड़ी यूनियनें ईमानदारी से चाहतीं तो इस हड़ताल को गुड़गाँव क्षेत्र के मज़दूरों के बुनियादी मुद्दों पर व्यापक साझा संघर्ष का रूप दिया जा सकता था और मैनेजमेण्ट तथा सरकार पर दबाव बनाया जा सकता था।

सिर्फ मानेसर में ही करीब एक लाख मज़दूर मारुति के मज़दूरों से भी बुरी स्थितियों में काम करते हैं। गुड़गाँव और आसपास के ऑटोमोबाइल उद्योगों की पूरी बेल्ट में लाखों युवा मज़दूर बेहद कठिन हालात में काम करते हैं और उनका असन्तोष बार-बार सतह पर आता रहा है। मारुति के मज़दूरों की मुख्य माँग यानी अपनी स्वतंत्र यूनियन गठित करने की माँग इस इलाक़े के अधिकांश कारख़ानों की सामान्य माँग रही है। अगर इन मुद्दों को लेकर व्यापक सम्पर्क किया गया होता तो मारुति के मज़दूरों की लड़ाई को इलाक़े की व्यापक मज़दूर आबादी से जोड़ा जा सकता था। पिछले वर्ष चीन में ऑटोमोबाइल उद्योग के मज़दूरों की सफल हड़ताल इस बात का उदाहरण है कि एकजुट संघर्ष का क्या असर होता है।

एटक, सीटू और एचएमएस जैसी बड़ी यूनियनों की तो ऐसा करने की मंशा ही नहीं थी मगर ख़ुद मारुति के अगुआ मज़दूर भी इस बात के महत्व को नहीं समझ सके। हमने पिछले अंक में इस बात के लिए आगाह भी किया था कि मज़दूरों को भोलेपन के साथ मारुति के मैनेजमेण्ट की इस जुबानी बात पर भरोसा नहीं करना चाहिए एक बार यूनियन का रजिस्ट्रेशन हो जाये तो मान्यता देने में उसे कोई परेशानी नहीं है। आख़िर यह वही मैनेजमेण्ट है जिसने 2000 में गुड़गाँव प्लाण्ट में हड़ताल टूटने के बाद वहाँ की ‘मारुति उद्योग इंप्लाइज़ यूनियन’ को बरबाद कर अपनी पिट्ठू यूनियन ‘मारुति उद्योग कामगार यूनियन’ बनवायी थी। ज़्यादा सम्भावना इसी बात की है कि यह मैनेजमेण्ट यूनियन का रजिस्ट्रेशन ही नहीं होने देगा। मुख्यमंत्री हुड्डा ने सुज़ुकी कम्पनी के जापानी सीईओ को आश्वासन दिया हुआ है कि उनकी सरकार ऐसी नौबत नहीं आने देगी कि एक कम्पनी में दो यूनियनें हो जायें। मैनेजमेण्ट ने हड़ताल के नेताओं पर जाँच की तलवार लटका ही रखी है। इसके बावजूद मज़दूर चीज़ों को हल्केपन से लेते रहे और मैनेजमेण्ट, श्रम विभाग तथा बड़ी यूनियनों के नेताओं के आश्वासनों पर भरोसा करके बैठे रहे।

पिछले महीने मैनेजमेण्ट ने अधिकांश मज़दूरों के बहिष्कार के बावजूद अपनी पिट्ठू यूनियन का चुनाव कराया और फिर उसके कुछ दिन बाद सुपरवाइज़र के साथ कहासुनी को लेकर यूनियन के 6 अगुआ मज़दूरों को निष्कासित कर दिया। मज़दूरों के व्यापक विरोध के बाद विज़िटर पास बनाकर उन्हें फैक्ट्री के भीतर आने दिया गया लेकिन मसला अभी हल नहीं हुआ है। कम्पनी ने निजी सिक्योरिटी कम्पनी से बाउंसर बुलवाकर जगह-जगह तैनात कर रखे हैं। ज़ाहिर है कि मैनेजमेण्ट मज़दूरों को उकसाने के बहाने ढूँढ़ रहा है ताकि उसे बहाना बनाकर उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई की जा सके। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि 16 जून को हुए समझौते के मुताबिक दो महीने के भीतर मज़दूरों की ओर से कोई भी “अनुशासनहीनता” होने पर उनका 2-2 दिन का वेतन काटा जा सकता है। दरअसल, यह मैनेजमेण्ट की सोची-समझी तिकड़म है जिसके सहारे वह धीरे-धीरे मज़दूरों का मनोबल गिराना चाहता है और उनमें फूट डालना चाहता है।

मारुति के मज़दूरों को इसे हल्के तौर पर न लेकर अपनी एकजुटता बनाये रखनी चाहिए और मैनेजमेण्ट की चालों में न आकर यूनियन के रजिस्ट्रेशन के लिए श्रम विभाग पर दबाव डालते रहना चाहिए। साथ ही, उन्हें अपने कारख़ाने के दायरे से बाहर गुड़गाँव के अन्य कारख़ानों के मज़दूरों और दुनिया भर में ऑटोमोबाइल उद्योग के मज़दूरों के साथ संवाद और एकजुटता की कोशिशें तेज़ कर देनी चाहिए।

 

 

मज़दूर बिगुल, जूलाई 2011

 


 

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