मारुति सुज़ुकी के मज़दूरों की जुझारू हड़ताल — क़ुछ सवाल

 विशेष संवाददाता 

मारुति उद्योग, मानेसर के 2000 से अधिक मज़दूरों ने पिछले दिनों एक जुझारू लड़ाई लड़ी। उनकी माँगें बेहद न्यायपूर्ण थीं। वे माँग कर रहे थे कि अपनी अलग यूनियन बनाने के उनके क़ानूनी अधिकार को मान्यता दी जाये। मारुति के मैनेजमेण्ट द्वारा मान्यता प्राप्त मारुति उद्योग कामगार यूनियन पूरी तरह मैनेजमेण्ट की गिरफ़्रत में है और वह मानेसर स्थित कारख़ाने के मज़दूरों की माँगों पर ध्यान ही नहीं देती है। भारत सरकार और हरियाणा सरकार के श्रम क़ानूनों के तहत मज़दूरों को अपनी यूनियन बनाने का पूरा हक़ है और जब कारख़ाने के सभी मज़दूर इस माँग के साथ हैं तो इसमें किसी तरह की अड़ंगेबाज़ी बिल्कुल ग़ैरक़ानूनी है। मगर मारुति के मैनेजमेण्ट ने ख़ुद ही गैरक़ानूनी क़दम उठाते हुए यूनियन को मान्यता देने से इंकार कर दिया और हड़ताल को तोड़ने के लिए हर तरह के घटिया हथकण्डे अपनाये। इसमें हरियाणा की कांग्रेस सरकार की उसे खुली मदद मिल रही थी जिसने राज्यभर में पूँजीपतियों की मदद के लिए मज़दूरों का फासिस्ट तरीक़े से दमन करने का बीड़ा उठा रखा है। गुड़गाँव में 2006 में होण्डा के मज़दूरों की पुलिस द्वारा बर्बर पिटाई को कौन भूल सकता है।

maruti manesar june 20114 जून से लेकर 16 जून की रात तक हज़ारों मज़दूर काम बन्द करके गेट के भीतर बैठे रहे। मैनेजमेण्ट ने कारख़ाना परिसर में बिजली और पानी की सप्लाई काट दी और कैण्टीन भी बन्द कर दी। फैक्टरी गेट पर भारी संख्या में पुलिस और मारुति के हथियारबन्द सिक्योरिटी गार्ड तैनात कर दिये गये और मीडिया के लोगों और परिजनों तक को मज़दूरों से मिलने नहीं दिया जा रहा था। लेकिन तमाम कठिनाइयों और बाधाओं के बावजूद मज़दूर डटे रहे। तमाम हथकण्डों और डराने-धमकाने के बावजूद मज़दूर हिम्मत नहीं हारे थे। मगर आख़िरकार 16 जून की आधी रात को उन्हें एक ऐसे समझौते को स्वीकार करना पड़ा जिसमें इतनी लम्बी और कठिन लड़ाई लड़ने के बाद भी वास्तव में उन्हें कुछ भी हासिल नहीं हुआ।

इस समझौते में मज़दूरों की मुख्य माँग यानी अपनी यूनियन की माँग की कोई चर्चा ही नहीं है। जबकि विवाद मैनेजमेण्ट द्वारा मज़दूरों से जबरन इस बात पर दस्तख़त कराने को लेकर शुरू हुआ था कि वे यूनियन नहीं बनायेंगे। एक अन्य माँग ठेका मज़दूरों और अप्रेण्टिस को नियमित करने की माँग का इसमें ज़िक्र भी नहीं है। उल्लेखनीय है कि सैकड़ों की संख्या में ठेका मज़दूर और अप्रेण्टिस भी हड़ताल में शामिल थे। समझौते में इतना हुआ कि हड़ताल के बाद 6 जून को बरख़ास्त किये गये 11 मज़दूरों को वापस ले लिया जायेगा मगर उनके ख़िलाफ जाँच करके अनुशासनात्मक कार्रवाई करने की बात भी जोड़ दी गयी है। 13 दिन की हड़ताल के बदले मज़दूरों का 26 दिन का वेतन कट जायेगा और अगर अगले दो महीने के दौरान वे कोई भी ”अच्छे आचरण, व्यवहार और अनुशासन का पालन नहीं करेंगे” तो और दो दिन की वेतन कटौती की जा सकती है।

समझौता कराने में अहम भूमिका निभाने वाली एटक, सीटू और एचएमएस जैसी केन्द्रीय यूनियनों के नेता और अक्सर ज़रा रैडिकल तेवर अपनाने वाले, निपट अर्थवादी ट्रेड यूनियनवाद के नये मुल्ले एनटीयूआई आदि संगठन इस समझौते को ही मज़दूरों की जीत के रूप में पेश करने में लगे हैं। इसे हार कहें या जीत, इस सवाल को यहीं छोड़कर हम इस बात पर विचार करेंगे कि क्या इसके सिवा और कुछ हो ही नहीं हो सकता था? हम यह भी देखेंगे कि अगर मारुति के मज़दूरों के समर्थन का दावा करने वाली बड़ी यूनियनें अगर ईमानदारी के साथ ढंग से इस लड़ाई को लड़तीं तो क्या-क्या किया जा सकता था? इसी सवाल के जवाब में पहले सवाल का जवाब भी मिल जायेगा।

एटक के गुड़गाँव ज़िले के महासचिव श्री सचदेवा कह रहे हैं कि इसमें मज़दूरों और मैनेजमेण्ट दोनों की जीत हुई है। एटक के राष्ट्रीय महासचिव गुरुदास दासगुप्ता ने तो यहाँ तक कह दिया कि इस आन्दोलन में यूनियन बनाने का कोई मुद्दा ही नहीं था। उन्होंने टीवी पर फरमाया कि मुख्यमन्त्री हुड्डा मज़दूरों के पक्ष में हैं जबकि उसी चैनल की ख़बर के मुताबिक़ हुड्डा ने एक दिन पहले सुज़ुकी कम्पनी के जापानी सीईओ को आश्वासन दिया था कि उनकी सरकार एक कम्पनी में दो यूनियनें बनने की इजाज़त नहीं देगी।

दासगुप्ता जी से कोई पूछे कि अगर यूनियन केवल मज़दूर और श्रम विभाग के बीच का मामला है और मैनेजमेण्ट की इसमें कोई भूमिका ही नहीं होती, तो क्या वजह है कि अकेले गुड़गाँव में ही पिछले कुछ वर्षों के दौरान होने वाले लगभग हर आन्दोलन में यूनियन बनाने के अधिकार का सवाल सबसे प्रमुख मुद्दा बना हुआ है? क्या यही स्थिति लगभग हर औद्योगिक क्षेत्र में नहीं है? क्या मज़दूर इतने भोले हैं कि वे मारुति के मैनेजमेण्ट की इस ज़ुबानी बात पर भरोसा कर लेंगे कि एक बार यूनियन का रजिस्ट्रेशन हो जाये तो मान्यता देने में उसे कोई परेशानी नहीं है? क्या ये वही मैनेजमेण्ट नहीं है जिसने 2000 में गुड़गाँव प्लाण्ट में हड़ताल टूटने के बाद वहाँ की ‘मारुति उद्योग इम्प्लाइज़ यूनियन’ को बरबाद कर अपनी पिट्ठू यूनियन ‘मारुति उद्योग कामगार यूनियन’ बनवायी थी? वैसे पहला सवाल तो यही है कि क्या यह मैनेजमेण्ट यूनियन का रजिस्ट्रेशन ही होने देगा? हुड्डा जी ने जापानी सीईओ को तो आश्वासन दे दिया है कि उनकी सरकार ऐसी नौबत नहीं आने देगी कि एक कम्पनी में दो यूनियनें हो जायें।

दरअसल, इन बड़ी यूनियनों ने कभी भी ईमानदारी से इस संघर्ष का साथ दिया ही नहीं। उन्होंने 5 जून को मारुति के गेट पर एक प्रदर्शन तो किया मगर जैसे ही उन्हें लगा कि मज़दूर लम्बी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हैं वैसे ही वे किनारा कर गये और केवल अख़बारी बयानबाज़ी तक सिमट गये। कई दिन बाद जाकर उन्होंने दो घण्टे की टूलडाउन हड़ताल का नोटिस दिया लेकिन मुख्यमन्त्री के कहने पर उसे दो-दो बार स्थगित किया और फिर 20 जून तक टाल दिया। वे अच्छी तरह जानते थे कि तब तक हड़ताल को ख़त्म करा दिया जायेगा। पूरे गुड़गाँव इलाक़े में मज़दूरों को आन्दोलन के बारे में बताने और उनका समर्थन जुटाने के लिए कुछ नहीं किया गया। एक पर्चा और पोस्टर तक नहीं निकाला गया। गेट मीटिंगें करने की घोषणा बस अख़बार के पन्नों पर ही रह गयी। मारुति और जापान की सुज़ुकी कम्पनी पर तथा हरियाणा सरकार पर जन दबाव बनाने के लिए कोई अभियान नहीं चलाया गया।

अगर ये बड़ी-बड़ी यूनियनें अपनी ताक़त का एक छोटा-सा भी हिस्सा हड़ताल के समर्थन में लगा देतीं और दूसरे कारख़ाने के मज़दूरों को भी उनके पक्ष में गोलबन्द करतीं, बाहर रह गये मारुति की सी शिफ्ट के मज़दूरों को और मज़दूरों के परिवारों को लेकर गेट पर धरना-प्रदर्शन आयोजित करतीं और देश तथा दुनिया के तमाम सामाजिक कार्यकर्ताओं, ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों से कम्पनियों तथा सरकार पर दबाव डालने के लिए अभियान चलातीं तो इसका बहुत अधिक असर होता। तब कम्पनी तथा सरकार के लिए मज़दूरों को इस तरह से दबाकर उनकी कोई भी माँग माने बिना हड़ताल तोड़ देना आसान नहीं होता। गोरखपुर जैसे छोटे से शहर के मज़दूर आन्दोलन का अनुभव इसका गवाह है। बिगुल के इसी अंक में छपी इसकी रिपोर्ट देखें। गुड़गाँव ही नहीं, सारे देश के मज़दूरों से आज यूनियन बनाने का हक़ छीना जा रहा है ताकि मज़दूर अपने शोषण और लूट के ख़िलाफ एक होकर आवाज़ भी न उठा सकें। इसीलिए मारुति के मज़दूरों की लड़ाई हर मज़दूर के हक़ की लड़ाई है। इस बात को अगर ढंग से तमाम मज़दूरों के बीच ले जाया जाता तो इसे एक व्यापक संघर्ष का रूप भी दिया जा सकता था। तब मारुति के मज़दूरों के संघर्ष को भी और ताक़त मिल जाती।

वैसे गुरुदास दासगुप्ता जी से यह भी पूछा जा सकता है कि अपनी पार्टी के तथा सीपीएम आदि वाम पार्टियों के संसद सदस्यों को लेकर आपने मारुति के गेट पर धरना क्यों नहीं दिया? इसका कितना असर होता, यह बताने की ज़रूरत नहीं। आख़िर ये सारे सांसद अपने को मज़दूरों का प्रतिनिधि कहते हैं और लाल झण्डा दिखाकर ही वोटों की कमाई करते हैं। मगर ये सब करना न तो अब इन नक़ली वामपन्थियों के बूते की बात है और न ही उनकी ऐसी नीयत है। मज़दूरों के हितैषी के भेस में ये मज़दूर आन्दोलन के सबसे बड़े ग़द्दार हैं। ये पूँजीपतियों के हितों के रक्षक हैं और पूँजीवाद की दूसरी रक्षापंक्ति की भूमिका संसद से लेकर सड़क तक बख़ूबी निभा रहे हैं।

कई दिनों तक इन्तज़ार करने के बाद, बिगुल मज़दूर दस्ता और उसकी पहल पर बने ‘मारुति सुज़ुकी के आन्दोलन के समर्थन में नागरिक मोर्चा’ ने अपनी ओर से अभियान शुरू भी कर दिया था। दस्ता के कार्यकर्ताओं ने मानेसर और गुड़गाँव में मज़दूरों के बीच सभाएँ करके पर्चे बाँटने शुरू किये थे। इससे बौखलाये मारुति के मैनेजमेण्ट ने सिक्योरिटी गार्डों और गुण्डों को भेजकर कार्यकर्ताओं पर अलियर, मौलाहेड़ा आदि स्थानों पर हमले भी कराये लेकिन इस पर भी इन यूनियनों ने अपनी चुप्पी नहीं तोड़ी। हमने देश भर से और पूरी दुनिया से समर्थन जुटाना भी शुरू कर दिया था। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

हम मारुति के मज़दूरों को इस बहादुराना संघर्ष के लिए सलाम करते हैं और साथ ही अपील करते हैं कि इसके अनुभवों से सबक़ लेकर वे आगे अपने हक़ों की सुरक्षा के लिए कमर कसकर तैयार रहें।

 

मज़दूर बिगुल, मई-जून 2011

 


 

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