अर्थव्यवस्था का संकट और मज़दूर वर्ग

इस साल के शुरू होते ही चीन का स्टॉक मार्केट धड़ाम से गिर गया और ‘मज़दूर बिगुल’ के पिछले अंक में हमने जो अनुमान लगाया था वह सच निकला कि चीन का आर्थिक संकट का जल्द ही और गहरायेगा जो सारी दुनिया को मन्दी की गर्त में ले उतरेगा। भारत के शेयर बाज़ार के सटोरिये भी घबड़ाये बैठे हुए हैं। मेक इन इण्डिया का भारतीय शेर मज़दूरों का सस्ता ख़ून मुँह में लगाने के बावजूद चलने से पहले ही थक गया है। एक नये संकट के भय से यानी अपने ख़ुद के क़दमों से यह डर रहा है। यह अपने भविष्य को लेकर भयाक्रान्त है। लेकिन पूँजीपति वर्ग इतिहास से चाहकर भी सबक़ नहीं ले सकता है, क्योंकि इतिहास हमारे यानी मज़दूरों के पक्ष में खड़ा है। 1930 की आर्थिक महामन्दी को बुर्जुआ अर्थशास्त्री एक बुरा सपना मानते थे और इसे सूचना क्रान्ति के पहले की एक परिघटना मानते थे। उनका कहना था कि अब ऐसा नहीं होने वाला। परन्तु 1970 के बाद से अर्थव्यवस्था ने जिस तरह पलटी खायी है उसने तमाम चिन्तकों को सोचने पर मजबूर कर दिया। 1970 के बाद से हर नया साल अमीरों के बीच नये-नये आर्थिक संकट से उपजे नये डरों को पैदा करता रहा है। भले ही इस नये साल में भी मज़दूर उजड़ी हुई झुग्गियों में रह रहे हों, काम से निकाले गये, गोलियाँ और लाठियाँ खाते रहे हैं और दूसरी तरफ़ पूँजीपतियों की पार्टियों में डांस चलते रहे, फिर भी वे चिन्तित हैं। दुनियाभर के शासक ड्रोन, हाइड्रोजन बम, मिसाइलों और संगीनों से घिरे होने के बावजूद डरे हुए हैं।

economic-crisisअसल में हर आर्थिक संकट मज़दूरों के जीवन में तबाही लाता है। आर्थिक संकट और उसके बाद मन्दी और अर्थव्यवस्था में ठहराव से बेरोज़गारी और ज़बरदस्त तबाही फैलती है। यह मज़दूरों के बड़े हिस्से को पूँजीवाद के ख़िलाफ़ संगठित होने का मौक़ा देता है। यही वह समय होता है कि जब हम संगठित होकर अपने लुटेरों पर हल्‍ला बोल सकते हैं। परन्तु इसका दूसरा पहलु भी है – आज दुनियाभर के मालिक सिकुड़ते मुनाफ़े और ठहरावग्रस्त व्यवस्था में जान फूँकने के लिए फिर से दुनिया को युद्ध में धकेल रहे हैं और अपने देश के अन्दर मज़दूरों के लिए फ़ैक्टरियों को यातना शिविर बना रहे हैं। इस काम को अंजाम देने के लिए जनता को आपस में बाँटा जाता है और यही पूर्वाधार बनता है फासीवादी उभार का। आर्थिक संकट की ज़हरीली कोख में ही फासीवादी कीड़े पलते हैं। जर्मनी में मज़दूरों, यहूदियों, कम्युनिस्टों के नरसंहार को अंजाम देने वाली नात्सी पार्टी के उभार का आधार आर्थिक संकट के दौर में जर्मनी के पूँजीपतियों का सिकुड़ता हुआ मुनाफ़ा था। यही वह सबसे ज़रूरी सबक़ है जो इतिहास से हमें मिलता है और जो मज़दूर वर्ग को कभी नहीं भूलना चाहिए। यह संकट दोधारी तलवार होता है जहाँ यह क्रान्तिकारी परिस्थिति पैदा करता है वहीं दूसरी तरफ़ यह प्रतिक्रान्तिकारी ताक़तों के उभार को जन्म देता है। यह हमें इस बात को दोहराने के लिए मजबूर करता है कि आज हमारे सामने दो ही विकल्प हैं – समाजवाद या बर्बरता। आज दुनियाभर में दक्षिणपन्थी ताक़तों का उभार इस चुनौती को सीधे हम तक पहुँचा रहा है।

Macau-May-day-2008मार्क्स और एंगेल्स ने 19वीं शताब्दी में ही बताया था कि पूँजीवाद में संकट पैदा होना इसके आन्तरिक अन्तरविरोध के कारण है। सामाजिक उत्पादन और निजी हस्‍तगतीकरण के अन्तरविरोध के कारण यह व्यवस्था ख़ुद अपनी क़ब्र खोदने वाले मज़दूर वर्ग को पैदा करती है। इसी अन्तरविरोध के कारण बाज़ार में अतिउत्पादन की वजह से आर्थिक संकट आता है जो आर्थिक मन्दी के एक लम्बे ठहरावग्रस्त दौर को पैदा करता है। दरअसल तेज़ी, संकट और मन्दी के चक्कर में उलझते हुए ही यह व्यवस्था आगे बढ़ी है। परन्तु यह मन्दी मज़दूर वर्ग के हिस्से में भयंकर तबाही लाती है क्योंकि मालिक और उनकी सरकारें आर्थिक संकट और उसके बाद छाने वाली मन्दी का सारा बोझ मज़दूरों के ऊपर ही डालते हैं। लेकिन 1970 के बाद से तो जैसे विश्व आर्थिक व्यवस्था ने कोई तेज़ी का दौर देखा ही नहीं है – बस एक मन्द-मन्द मन्दी का लम्बा दौर चल रहा है।

पूँजीवाद के अस्तित्व में आने के समय मुनाफ़े की बन्दरबाँट मुक्त व्यापार के ज़रिये होती थी। लेकिन बाज़ार की होड़ में बड़ी मछली द्वारा छोटी मछली को खा जाने के तर्क से आगे चलकर  मुक्त व्यापार इज़ारेदार या एकाधिकारी पूँजीवाद में बदल गया। साम्राज्यवादी व्यवस्था में उत्पादन का संचालन कुछ इज़ारेदार कम्पनियाँ करती हैं। अमेरिका में पूरे देश के उत्पादन का लगभग 90 प्रतिशत महज़ 1 प्रतिशत कम्‍पनियों की फ़ैक्टरियों में पैदा होता है। इस दौर में दुनियाभर में पूँजी का ज़बरदस्त आवागमन होता है और पूरी दुनिया को तमाम बड़े-बड़े ट्रस्ट और कार्टेल अपने मुनाफ़े के लिए बाँट लेती हैं। परन्तु इस दौर में एक बदलाव यह आया है कि आर्थिक संकट पहले मुक्त बाज़ार में देशों के स्थानीय बाज़ार तक सीमित रहता था पर अब उसका चरित्र वैश्विक हो गया है। अब गुड़गाँव की मन्दी का सम्बन्ध चीन के शेयर बाज़ार में उथल-पुथल से हो सकता है।

जर्मनी में फासीवाद का उभार जिन परिस्थितियों में हुआ, उससे आज हमें सबक सीखने की ज़रूरत है। आर्थिक संकट में मज़दूरों के आन्दोलन के तले दबे जर्मन बुर्जुआ वर्ग ने हिटलर की नाज़ी पार्टी को सत्ता में पहुँचाने का रास्‍ता साफ़ किया और हिटलर ने  नस्ली जुनून भड़काकर सत्ता हासिल कर ली। सत्ता में आने के बाद उसने मज़दूरों का बर्बर दमन किया। यूनियनों को तबाह कर दिया गया। 70 लाख यहूदी मौत के घाट उतार दिये गये। दुनिया को युद्ध की आगे में झोंक दिया गया। लेकिन हिटलर के इस  उभार को रोका जा सकता था। आर्थिक संकट पूँजीवादी व्यवस्था का संकट होता है और क्रान्तिकारी ताक़तें मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में जनता को संगठित कर पूँजीवादी व्यवस्था को पलट सकती हैं। 1930 के दौर में आयी मन्दी के बाद और उसके पहले खड़े हुए मज़दूर आन्दोलन पर एक नज़र डालकर इसे समझा जा सकता है। 1930 के बाद अमरीका में मज़दूरों का ज़बरदस्त आन्दोलन खड़ा हुआ। इसने पहली बार अश्वेत मज़दूरों को राजनीतिक परिदृश्य पर श्वेत मज़दूरों के साथ ला खड़ा किया। जहाँ इस संकट में जर्मनी के मज़दूर वर्ग ने ज़बरदस्त कुर्बानियाँ दीं, वहीं समाजवादी रूस के मज़दूर वर्ग का इस मन्दी पर कोई असर नहीं था। भारत में भी 1928 के बाद से ज़बरदस्त मज़दूर आन्दोलन का उभार हुआ। आर्थिक मन्दी के कारण भारत में महँगाई आसमान छूने लगी और ब्रिटिश सरकार के करों के कारण जनता के व्यापक हिस्से में इसके ख़िलाफ़ गुस्सा था। शोलापुर में टेक्स्टाइल की हड़ताल हुई जहाँ मज़दूरों का शोलापुर कम्यून उभरकर आया। लगभग हर औद्योगिक केन्द्र में मज़दूरों का भयंकर आन्दोलन हुआ। गाँधी ने वक़्त की नब्ज़ पकड़ते हुए नमक सत्याग्रह शुरू किया जिसने आर्थिक मन्दी के कारण बढ़ती महँगाई से तंग जनता को सड़कों पर उतार  दिया।

इस आर्थिक मन्दी के साये में जीते वक़्त हमें इतिहास के इन सबकों को ध्यान में रखना होगा। शासक वर्गों ने एक बार फिर फासीवाद का विकल्‍प चुना है। न सिर्फ़ भारत में बल्कि दुनिया के तमाम देशों में दक्षिणपन्थी फासीवादी ताक़तों का उभार हो रहा है। अमेरिका में वैसे तो डेमोक्रेट और रिपब्लिकन पार्टियों में बड़ा अन्तर नहीं है लेकिन रिपब्लिकन पार्टी की ओर से आगामी राष्‍ट्रपति चुनाव का संभावित प्रत्‍याशी डोनाल्ड ट्रम्प निश्चित ही फासीवादी रुख़ रखता है। ब्रिटेन, इटली से लेकर तमाम देशों में श्रम सुधारों के नाम पर मज़दूरों के लिए बने क़ानूनों को ख़त्म किया जा रहा है। वे अपना विकल्प चुन रहे हैं तो हमें भी अपना विकल्प चुनना होगा और मज़दूर क्रान्ति की तैयारियों को तेज़ करना होगा क्योंकि सिर्फ़ यही मज़दूरों की मुक्ति का रास्ता है। 2008 की मन्दी की शुरुआत से ही दुनियाभर में ज़बरदस्त जन आन्दोलन खड़े हुए हैं परन्तु उन्हें समाजवाद से जोड़ने का काम करना आज मज़दूरों के हिरावल हिस्से का सबसे पहला काम है।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2016


 

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