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जोतिबा फुले की क्रान्तिकारी विरासत को जानो!

जोतिबा फुले एक ऐसे समय में पैदा हुए जब हमारा देश उपनिवेशवादी और सामन्ती शोषण के जुए तले पिस रहा था। उस समय दलित व स्त्री उत्पीड़न चरमोत्कर्ष पर था। ऐसे दौर में जोतिबा फुले का पूरा जीवन जाति-उन्मूलन और स्त्रियों की शिक्षा व मुक्ति के लिए समर्पित रहा। आज हम एक फ़ासीवादी दौर में जी रहे हैं जब प्रतिक्रियावादी ताकतें पूरे समाज में हावी हैं तथा तर्क और विज्ञान की हत्या करके पाखण्ड और कूपमण्डूकताओं को स्थापित कर रही हैं। स्त्रियों और दलितों के उत्पीड़न की घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं। शिक्षा कुछ मुट्ठी-भर लोगों की बपौती बनती जा रही है तब जोतिबा फुले की विरासत को याद करना बहुत ज़रूरी हो जाता है

स्त्री मुक्ति आन्दोलन को सुधारवाद, संशोधनवाद, नारीवाद और एनजीओपन्थ की राजनीति से बाहर लाना होगा

स्त्रियाँ आज पूँजीवाद और पूँजीवादी पितृसत्ता की दोहरी गुलामी झेल रही हैं। एक तरफ पूँजीवादी व्यवस्था सस्ती स्त्री-श्रमशक्ति के दोहन के ज़रिये अपना मुनाफ़ा बढ़ा रही है वहीं दूसरी तरफ पूँजीवादी पितृसत्तात्मक मानसिकता ने स्त्रियों को भी एक बिकाऊ माल बनाकर बाज़ार में खड़ा कर दिया है। आज स्त्री सम्मान, बराबरी, न्याय, नारीशक्ति, नारी सशक्तीकरण के कानफोड़ू शोर के पीछे जो असली सवाल छिपा दिया जा रहा है वह यह है कि आज भी समान काम के लिए स्त्रियों को पुरुषों की तुलना में 67 फ़ीसदी मेहनताना ही मिलता है। पीस रेट पर होने वाले काम में अधिकांशतः स्त्रि‍याँ काम करती हैं, जहाँ बेहद कम मेहनताने पर 12 से 14 घण्टे काम कराया जाता हैं। इन्हें कार्यस्थल पर सुरक्षा, बीमा, मेडिकल जैसी कोई सुविधा हासिल नहीं होती है। पूँजीवादी व्यवस्था में स्त्री कार्यबल एक प्रकार की औद्योगिक रिज़र्व सेना का निर्माण करती है। समृद्धि के दौर में, स्त्रियों को बड़े पैमाने पर उद्योगों में काम पर रखा जाता है जैसा कि 70 के दशक तक इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योगों में तेज़ी के दौर में देखा गया। पूँजीपति स्त्रि‍यों के सस्ते श्रम के बूते पुरुष मज़दूरों के वेतन को भी अधिकतम सम्भव स्तर तक कम करने का प्रयत्न करता है।