Category Archives: स्त्री-प्रश्न

उत्तराखण्ड समान नागरिकता क़ानून: अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने वाला और नागरिकों के निजी जीवन में राज्यसत्ता की दखलन्दाज़ी बढ़ाने वाला पितृसत्तात्मक फ़ासीवादी क़ानून

इस क़ानून के समर्थकों का दावा है कि यह महिलाओं के सशक्तीकरण की दिशा में उठाया गया क़दम है, जबकि सच्चाई यह है कि इस क़ानून के तमाम प्रावधान ऐसे हैं जो स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार नहीं देते हैं और पितृसत्तात्मक समाज को स्त्रियों की यौनिकता, उनकी निजता को नियन्त्रित करने का खुला मौक़ा देते हैं। इस क़ानून के सबसे ख़तरनाक प्रावधान ‘लिव-इन’ से जुड़े हैं जो राज्यसत्ता व समाज के रूढ़िवादी तत्वों को लोगों के निजी जीवन में दखलन्दाज़ी करने का पूरा अधिकार देते हैं। इन प्रावधानों की वजह से अन्तरधार्मिक व अन्तरजातीय सम्बन्धों पर पहरेदारी और सख़्त हो जायेगी। इन तमाम प्रतिगामी प्रावधानों को देखते हुए इस बात में शक की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती है कि यह अल्पसंख्यक-विरोधी एवं स्त्री-विरोधी क़ानून आज के दौर में फ़ासीवादी शासन को क़ायम रखने का औज़ार है। इसमें क़तई आश्चर्य की बात नहीं है कि भाजपा शासित मध्य प्रदेश व गुजरात की सरकारों ने भी इस प्रकार के क़ानून बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है।

महिला आरक्षण बिल पर सर्वहारावर्गीय नज़रिया क्या हो?

एक वर्ग-विभाजित समाज में अलग-अलग वर्गों से आने वाली स्त्रियों के हित कभी एक नहीं हो सकते। हम देख चुके हैं कि स्त्रियों के साथ होने वाले भयंकर अपराधों तक के मामले में शासक वर्ग से आने वाली स्त्रियों और उनकी चाटुकारी करने वाले स्त्रियों के तबके ने अपना मुँह कभी खोला हो! सिर्फ़ औरत होना ही अपने आप में प्रगतिशील होना नहीं है जो कई अस्मितावादियों को लगता है। पूँजीवादी पितृसत्तात्मक समाज में शासक वर्ग से आने वाली औरतें अपने ही वर्ग हितों की रक्षा करती हैं और उन्हीं पितृसत्तात्मक मूल्य-मान्यताओं को स्थापित करने का काम करती हैं जो स्त्रियों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाती हैं।

स्त्री मुक्ति लीग, मुम्बई ने पूँजीवादी पितृसत्ता के खिलाफ आवाज़ बुलन्द करते हुए किया ‘मुक्ति के स्वर’ पुस्तकालय का उद्घाटन

पुस्तकालय के उद्घाटन के अवसर पर एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस मौक़े पर स्त्री मुक्ति संघर्ष में शामिल क्लारा ज़ेटकिन, रोज़ा लक्ज़मबर्ग, सावित्रीबाई फुले, फ़ातिमा बी शेख, प्रीतिलता वाड्डेदार, दुर्गा भाभी के साथ-साथ साथी मीनाक्षी और साथी शालिनी जैसी क्रान्तिकारी स्त्रियों की तस्वीरों के साथ ‘स्त्री मुक्ति का रास्ता, इंक़लाब का रास्ता‘, ‘जीना है तो लड़ना होगा, मार्ग मुक्ति का गढ़ना होगा’, ‘पूँजीवादी पितृसत्ता मुर्दाबाद’ जैसे नारे लगाते हुए रैली निकाली गयी और ‘औरत’ नाटक का मंचन किया गया।

भाजपा के ‘लव जिहाद’ की नौटंकी की सच्चाई

आपको पता ही होगा कि भाजपा पिछले कई वर्षों से ‘लव जिहाद’ को लेकर दंगे-फ़साद और हत्याएँ करवाती रही है। यह ‘लव जिहाद’ क्या है? अगर किसी मुसलमान पुरुष की किसी हिन्दू स्त्री से शादी होती है, तो उसे भाजपा वाले ‘लव जिहाद’ बोलते हैं। अगर इसका उल्टा हो, यानी अगर हिन्दू पुरुष मुसलमान स्त्री से शादी कर ले, तो भाजपा वाले उसे ‘प्रेम धर्मयुद्ध’ नहीं बोलते। युद्ध या जिहाद इलाके, सम्पत्ति, देश जीतने के लिए होते हैं। तो फिर इस ‘लव जिहाद’ शब्द का मतलब क्या हुआ? परायी धर्म की स्त्री को जीतना! मानो स्त्री ज़मीन-जायदाद, इमारत, सम्पत्ति या ऐसी कोई चीज़ हो! प्यार करना सभी का स्वाभाविक अधिकार है। यदि कोई स्त्री अलग धर्म के पुरुष से प्यार करती है, तो यह उसका व्यक्तिगत मसला है। स्त्री किसी धार्मिक समुदाय की सम्पत्ति नहीं है और न ही उस धार्मिक समुदाय का “सम्मान” या “प्रतिष्ठा” स्त्री की देह या उसकी योनि में समायी होती है। अगर किसी को ऐसा लगता है, तब तो कहना होगा कि ऐसा सोचने वाले व्यक्ति को अपने धार्मिक समुदाय की “प्रतिष्ठा” या “सम्मान” या “इज़्ज़त” की सोच के बारे में सोचना पड़ेगा कि यह कैसा समुदाय है जिसकी इज़्ज़त, प्रतिष्ठा या सम्मान किसी गुप्तांग में समाया हुआ हो!

ईरान में सत्ता-विरोधी जन आन्दोलन के तीन माह : संक्षिप्त रिपोर्ट

सितम्बर माह में ईरान के गश्त-ए-एरशाद द्वारा महसा अमीनी की बर्बर हत्या के बाद से पूरे देश में लोग सड़कों पर उतरकर हिजाब क़ानून व अन्य महिला-विरोधी क़ानूनों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे हैं, तथा इनकी बर्ख़ास्तगी की माँग कर रहे हैं। 100 दिन से भी ज़्यादा का समय बीत जाने के बाद भी लोग लगातार इन प्रदर्शनों में भागीदारी कर रहे हैं। ज्ञात हो कि वर्ष 1979 में कट्टरपन्थी इस्लामी शासन के सत्ता में क़ाबिज़ होने के उपरान्त से ईरान में महिलाओं (चाहे किसी भी धर्म से सम्बन्धित हों) के लिए हिजाब पहनना ज़रूरी है। इसका पालन हो, ऐसा पुख़्ता करने के लिए एक विशेष पुलिस बल भी तैनात है, जिसे गश्त-ए-एरशाद कहा जाता है।

आज़ाद ज़िन्दगी के लिए ज़ालिम इस्लामी कट्टरपन्थी पूँजीवादी निज़ाम के ख़िलाफ़ ईरान की औरतों की बग़ावत

गत 16 सितम्बर को ईरान की राजधानी तेहरान में महसा अमीनी नामक कुर्द मूल की 22 वर्षीय ईरानी युवती की मौत के बाद शुरू हुआ आन्दोलन सत्ता के बर्बर दमन के बावजूद जारी है। ग़ौरतलब है कि महसा को 13 सितम्बर को ईरान की कुख्यात नैतिकता पुलिस ने इस आरोप में गिरफ़्तार करके हिरासत में लिया था कि उसने सही ढंग से हिजाब नहीं पहना था और उसके बाल दिख रहे थे। हिरासत में उसको दी गयी यंत्रणा की वजह से वह कोमा में चली गयी और तीन दिन बाद उसकी मौत हो गयी।

पितृसत्ता के ख़िलाफ़ कोई भी लड़ाई पूँजीवाद विरोधी लड़ाई से अलग रहकर सफल नहीं हो सकती!

इस बार 8 मार्च को अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के 111 साल पूरे हो जायेंगे। यह दिन बेशक स्त्रियों की मुक्ति के प्रतीक दिवस के रूप में मनाया जाता है परन्तु जिस प्रकार बुर्जुआ संस्थानों द्वारा इस दिन को सिर्फ़ एक रस्मी कवायद तक सीमित कर दिया गया है, जिस प्रकार स्त्री आन्दोलन को सिर्फ़ मध्यवर्गीय दायरे तक सीमित कर दिया गया है, जिस प्रकार इस दिन को उसकी क्रान्तिकारी विरासत से धूमिल किया जा रहा है और जिस प्रकार उसे उसके इतिहास से काटा जा रहा है, ऐसे में ज़रूरी है कि हम यह जानें कि कैसे स्त्री मज़दूरों के संघर्षों को याद करते हुए अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की शुरुआत हुई थी।