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कॉ. शालिनी की पहली बरसी पर क्रान्तिकारी श्रद्धांजलि

कॉ. शालिनी एक ऐसी कर्मठ, युवा कम्युनिस्ट संगठनकर्ता थीं, जिनके पास अठारह वर्षों के कठिन, चढ़ावों-उतारों भरे राजनीतिक जीवन का समृद्ध अनुभव था। कम्युनिज़्म में अडिग आस्था के साथ उन्होंने एक मज़दूर की तरह खटकर राजनीतिक काम किया। एक व्यापारी और भूस्वामी परिवार की पृष्ठभूमि से आकर, शालिनी ने जिस दृढ़ता के साथ सम्पत्ति-सम्बन्धों से निर्णायक विच्छेद किया और जिस निष्कपटता के साथ कम्युनिस्ट जीवन-मूल्यों को अपनाया, वह आज जैसे समय में दुर्लभ है और अनुकरणीय भी। उन्होंने अपनी अन्तिम घड़ी तक माओ त्से-तुङ के इन शब्दों को सच्चे अर्थ में अपने जीवन में उतारने की कोशिश की: “एक कम्युनिस्ट को किसी भी समय और किसी भी परिस्थिति में अपने निजी हितों को प्रथम स्थान नहीं देना चाहिए; उसे इन्हें अपने राष्ट्र और आम जनता के हितों के मातहत रखना चाहिए। इसलिए स्वार्थीपन, काम में ढिलाई, भ्रष्टाचार, मशहूरी की ख़्वाहिश इत्यादि प्रवृत्तियाँ अत्यन्त घृणास्पद हैं, जबकि निःस्वार्थपन, भरपूर शक्ति से काम करना, जनता के कार्य में तन-मन से जुट जाना और चुपचाप कठोर परिश्रम करते रहना ऐसी भावनाएँ हैं जो इज़्ज़त पाने लायक हैं।”

मज़दूर-मुक्ति के लक्ष्य को समर्पित एक युवा, ऊर्जस्वी जीवन का अन्त

युवा क्रान्तिकारी और जनमुक्ति समर की वैचारिक-सांस्कृतिक बुनियाद खड़ी करने के अनेक क्रान्तिकारी उपक्रमों की एक प्रमुख संगठनकर्ता कॉमरेड शालिनी नहीं रहीं। पिछले 29 मार्च की रात को दिल्ली के धर्मशिला कैंसर अस्पताल में उनका निधन हो गया। वे सिर्फ़ 38 वर्ष की थीं। जनवरी 2013 के दूसरे सप्ताह में लखनऊ में कैंसर होने का पता चलते ही उन्हें इलाज के लिए दिल्ली के धर्मशिला कैंसर अस्पताल लाया गया था, जहाँ डॉक्टरों ने बता दिया था कि पैंक्रियास का कैंसर काफी उन्नत अवस्था में पहुँच चुका है और मेटास्टैसिस शुरू हो चुका है तथा एलोपैथी में इसका पूर्ण इलाज सम्भव नहीं है। वे केवल दर्द से राहत देने और उम्र को लम्बा खींचने के लिए उपचार कर सकते हैं। हालाँकि धर्मशिला कैंसर अस्पताल के डॉक्टरों से बात करके वैकल्पिक उपचार की दो पद्धतियों से भी उनका उपचार साथ-साथ चल रहा था। कॉ. शालिनी शुरू से ही पूरी स्थिति से अवगत थीं और अद्भुत जिजीविषा, साहस और ख़ुशमिज़ाजी के साथ रोग से लड़ रही थीं।