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सनातन संस्था – फासीवादी सरकार की शह में फलता-फूलता आतंकवाद

आज के आधुनिक समय में सनातन संस्था जैसे संगठन समाज में कैसे ज़्यादा से ज़्यादा प्रभावशाली व ताक़तवर होते जा रहे हैं व उसका समाज पर क्या परिणाम होगा – ये मज़दूर वर्ग की दृष्टि से समझना आज अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आज की व्यवस्था ने आम जनता का जीना दूभर कर दिया है। एक तरफ हम लोग विज्ञान की प्रगति की बातें सुनते हैं तो दूसरी तरफ बहुसंख्यक जनता को बदहाली, गरीबी का जीवन बिताना पड़ता है। बेरोज़गारी दिन-ब-दिन विकराल रूप धारण कर रही है। शिक्षा महँगी होती जा रही है व मूलभूत अधिकारों से जनता को वंचित किया जा रहा है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्राइवेट सेक्टर की घुसपैठ से अच्छी स्वास्थ्य सुविधाओं से समाज का बड़ा हिस्सा वंचित हो गया है। ऐसी समस्याओं की सूची और भी लम्बी बनायी जा सकती है। इन सब परिस्थितियों ने आम जनता के जीवन में एक लगातार कायम करने वाली भयंकर अनिश्चितता कायम की है। आर्थिक जगत में कायम ये अनिश्चितता धीरे-धीरे जीवन के हर कोने-कतरे में प्रवेश कर जाती है और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अभाव में इस अनिश्चितता को मात देने के लिए लोग किसी पारलौकिक शक्ति‍ का सहारा ढूँढ़ते हैं। आम जनता के जीवन की इन समस्याओं को दूर करने के लिए सामाजिक परिस्थिति का बदलना ही सच्चा उपाय होता है और उसके लिए ठोस लड़ाई खड़ी करनी पड़ती है। सही विकल्प के अभाव में आम जनता धार्मिकता, दैववाद, अन्धश्रद्धा के चंगुल में फँस जाती है। सनातन संस्था जैसे संगठनों का आधार इसी पृष्ठभूमि में होता है। ऐसे संगठनों का उद्देश्य लोगों को सही समस्या व उसके सही समाधान से भटकाकर एक भ्रम के जाल में फँसाना होता है। ऐसी संस्थाएँ समाज परिवर्तन की लड़ाई कमज़ोर करती हैं व शासक वर्ग के विचारों के प्रचार-प्रसार से इस व्यवस्था‍ को मज़बूत बनाती है, खासकर फासीवाद के सामाजिक आधार को बढ़ाती है।

महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों का रियलिटी शो

शिवसेना का “शेर” मुसीबत में पड़ गया है और अब तक नहीं सँभल पाया है। जिन्हें मुख्यमन्त्री बना देखने की इच्छा सभी शिवसैनिक पाल रहे थे, वह उद्धव ठाकरे यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि अपना “मराठी स्वाभिमान” बनाये रखें या भाजपा की पूँछ से लटककर सत्ता में हिस्सेदार बनें। पहले, “जहाँ सम्मान नहीं मिलता वहाँ क्यों जायें” कहने के बाद शपथ ग्रहण समारोह में उपस्थित होकर पहले तो उद्धव ठाकरे ने अपनी सहृदयता का परिचय दिया। उसके बाद एक तरफ़ विपक्ष में बैठने की दहाड़ लगा रहे हैं तो दूसरी तरफ़ भाजपा के साथ चर्चा जारी रखने की उदारता को भी वह छोड़ नहीं पा रहे हैं।