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सरकार के दावों की पोल खोलता मनरेगा का केन्द्रीय बजट

किसी भी देश की पूँजीवादी व्यवस्था अपने देश के मज़दूरों को गुमराह करने के लिए तमाम तरह के हथियार इस्तेमाल करती रहती है। उन हथियारों में से एक हथियार आँकड़ों की हेरा-फेरी का भी होता है। ऐसा ही कुछ इस बार भारत के केन्द्रीय बजट में देखने को मिला है। वैसे तो पूरा बजट ही आँकड़ों की हेरा-फेरी से भरा हुआ है। लेकिन यहाँ हम पूरे बजट पर चर्चा करने की बजाय सिर्फ़ मनरेगा के इर्द-गिर्द ही बात करेंगे।

सरकारी स्कूलों को सोचे-समझे तरीक़े से ख़त्म करने की साजि़श

आज भारत के किसी भी राज्य में सरकारी स्कूलों के हालात अच्छे नहीं हैं। वैसे तो देश में सरकारी स्कूलों को ख़त्म करने की योजना 1990 के पहले से ही शुरू हो गयी थी। लेकिन 1990 के दशक की नव उदारवादी नीतियाँ जो देश में लागू हुईं, उसके बाद देश में पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करने वाली किसी भी सरकार के लिए इस मुहिम को आगे बढ़ाना और भी ज़्यादा आसान काम हो गया। अब पूँजी के लिए बाज़ार खोल दिया गया और शिक्षा को भी एक बाज़ारू माल बनाने की पहलक़दमी शुरू हो गयी। अब सरकारी स्कूलों को प्लान तरीक़े से ख़त्म करने के साथ-साथ प्राइवेट स्कूलों को बढ़ावा दिया जाने लगा।

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के हॉस्टल मैस कर्मचारियों का संघर्ष जि़न्दाबाद!

40-40 साल से काम करने वाले ये कर्मचारी आज भी 5-5 हज़ार पर काम करने के लिए मजबूर हैं। इतने सालों के दौरान काम करते-करते बहुत साथियों की मृत्यु भी हो चुकी है और बहुत साथी आज भी यहाँ इतनी कम तनख्वाह पर काम कर रहे हैं। इन मैस कर्मचारियों ने अपनी यूनियन के तहत 2007 में लेबर कोर्ट में केस डाला कि हम इतने दिनों से विश्वविद्यालय में काम कर रहे हैं तो हमें विश्वविद्यालय का कर्मचारी घोषित किया जाये और हमें यहाँ काम पर पक्का किया जाये। अन्ततः 2010 में लेबर कोर्ट ने हॉस्टल मैस कर्मचारियों के हक़ में फ़ैसला सुना दिया।