Tag Archives: राजकुमार

गुड़गाँव के “मल्टीब्राण्ड” शॉपिंग सेन्टरों की चकाचौंध में गुम होते दुकान मज़दूर

आम तौर पर लोगों का ध्यान इन कामों में लगे मज़दूरों के काम और जिन्दगी के हालात पर नहीं जाता। वास्तव में इन मज़दूरों की स्थिति भी कम्पनियों में 12 से 16 घण्टे काम करने वाले मज़दूरों जैसी ही है। इन सभी सेण्टरों में काम करने वाले यूपी-उत्तराखण्ड-बिहार-बंगाल-उड़ीसा-राजस्थान जैसे कई राज्यों से आने वाले लाखों प्रवासी मज़दूर दो तरह की तानाशाही के बीच काम करते हैं। एक ओर काम को लेकर मैनेजर या मालिक का दबाव लगातार इनके ऊपर बना रहता है और दूसरा जिस मध्य-वर्ग की सेवा के लिये उन्हें काम पर रखा जाता है उसका अमानवीय व्यवहार भी इन्हें ही झेलना पड़ता हैं। दुकानों और रेस्तराँ में ये मज़दूर लगातार काम के दबाव में रहते हैं, लेकिन ग्राहकों के सामने बनावटी खुशी और सेवक के रूप में जाने की इन्हें ट्रेनिंग दी जाती है। ये मज़दूर सिर्फ शारीरिक श्रम ही नहीं बेचते बल्कि मानसिक रूप से अपने व्यक्तित्व और अपनी मानवीय अनुभूतियों को भी पूँजी की भेंट चढ़ाने को मजबूर होते हैं। “आजाद” देश के इन सभी मज़दूरों को जिन्दा रहने के लिये जरूरी है कि किसी मालिक के मुनाफे के लिये मज़दूरी करें।

क्यों ज़रूरी है चुनावी नारों की आड़ में छुपे सच का भण्डाफोड़?

वर्तमान सरकार महँगाई और बेरोज़गारी को नियंत्रित करने में असमर्थ है, अर्थव्यवस्था लगातार नीचे जा रही है, भ्रष्टाचार के नये-नये प्रेत खुलेआम लोगों के सामने आ रहे हैं, और भ्रष्टाचार करने वाले बेशर्मों की तरह खुले घूम रहे हैं। कुछ लोग इस अव्यवस्था के समाधान के लिए नरेन्द्र मोदी को चुनने का समर्थन कर रहे हैं। कुछ लोग मोदी की तुलना अन्धों में काने को राजा बनाने से भी कर रहे हैं। मुख्य रूप से समाज के मध्य वर्ग में यह सोच आज आम धारणा बन चुकी है। लेकिन कांग्रेस या भाजपा, दोनों ही पार्टियों के शासन का इतिहास देखें तो भाजपा में भी उतना ही भ्रष्टाचार है, और वह भी उन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाती है जिन्हें कांग्रेस। वास्तव में दोनो ही मुनाफे के लिये अन्धे हैं, जो पूँजीवाद का मूल मंत्र है, इसलिए इनमें से किसी को काना भी नहीं कहा जा सकता। इतना मान लेने वाले कुछ लोगों का अगला सवाल यह होता है कि फिर अभी क्या करें, किसी को तो चुनना ही पड़ेगा? इस सवाल का जवाब देने से पहले हमें थोड़ा विस्तार से वर्तमान व्यवस्था पर नज़र डालनी होगी।

मक्सिम गोर्की के जन्मदिवस (28 मार्च) पर – एक साहित्यिक परिचय

आज भी, जबकि पूरी दुनिया के मजदूर आन्दोलन ठहराव के शिकार हैं और प्रगति पर प्रतिरोध की स्थिति हावी है, ऐसे में गोर्की के उपन्यास और कहानियाँ पूरी दुनिया की जनता के संघर्षों के लिये अत्यन्त प्रासंगिक हैं। आज भी उनकी रचनायें पूरी दुनिया की मेहनतकश जनता को एक समतावादी समाज के निर्माण के लिये उठ खड़े होने और परिस्थितियों को बदल डालने के लिये संघर्ष करने, एक क्रन्तिकारी इच्छाशक्ति पैदा करने और सर्वहारा वर्ग चेतना को विकसित करने की प्रेरणा देती हैं। गोर्की का साहित्य हमारे मन में वर्तमान समाज में जनता की बदहाल परिस्थितियों के प्रति नफ़रत ही नहीं बल्कि उन परिस्थितियों के विरुद्ध संघर्ष करने और उन्हें बदलने की इच्छा भी पैदा करता है।

भारत में लगातार चौड़ी होती असमानता की खाई और जनता की बर्बादी की कीमत पर हो रहे विकास पर एक नजर ! !

देश में उपभोग करने वाली एक छोटी आबादी को चकाचौंध में डूबाने के लिये और अमेरिका-जापान से लेकर यूरोप तक पूरी दुनिया की पूँजी को मुनाफ़े का बेहतर बाज़ार उपलब्ध कराने के लिये जनता के कई अधिकारों को अप्रत्यक्ष रूप से छीना जा चुका है। इसके कई उदाहरण है कि जगह-जगह शोषण-उत्पीड़न के विरुद्ध और अपने अधिकारों के लिये होने वाले मज़दूर आन्दोलनों और जनता की आवाज को दबाने के लिये पुलिस-प्रशासन का इस्तेमाल अब खुले रूप में किया जा रहा है, कश्मीर से लेकर देश के उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में जनता पर सैन्य शासन के साथ ही अब मज़दूर इलाकों में भी मालिकों के कहने पर पुलिस प्रशासन जब चाहे फ़ासीवादी तरीक़े से मज़दूरों का दमन उत्पीड़न कर आतंक फ़ैलाने से बाज नहीं आती। यह सब इसलिये किया जाता है जिससे कि कुछ अमीर लोगों को देश के विकास का हिस्सेदार बनाया जा सके!

‘ब्राण्डेड’ कपड़ों के उत्पादन में लगे गुड़गाँव के लाखों मज़दूरों की स्थिति की एक झलक

मजदूरों से दवाब में काम करवाने और उन्हें काम न छोड़ने देने के लिये किसी भी कपड़ा कम्पनी में मजदूरों का वेतन समय पर नहीं दिया जाता। ज्यादातर मजदूर छह महीने या एक साल में ठेकेदारों के दबाव और सुपरवाइजरों द्वारा की जाने वाली गाली-गलौज और मारपीट से परेशार होकर कम्पनियाँ बदल देते हैं। मजदूरों को ओवरटाइम ठेकेदारों की मर्जी से करना पड़ता है और ओवर टाइम की जानकारी उसी दिन छुट्टी होने से सिर्फ़ थोड़ा पहले दी जाती है। ओवरटाइम से मना करने पर ठेकेदारों द्वारा गाली-गलौज व मारपीट करना और काम से निकाल देना आम बात है। कभी-कभी ज्यादा काम होने पर कम्पनियाँ अन्दर से ताला लगाकर मजदूरों से तीन से चार शिफ़्टों में लगातार काम करवाती हैं। जिन कम्पनियों में असेम्बली लाईन में कपड़ों की सिलाई और कटाई का काम होता है उनमें सुपरवाइजर लगतार मजदूरों पर नजर रखते हैं, और यदि कोई मजदूर लाइन में काम करने में देर करता है तो उसे काम से निकाल देने की धमकी देकर तेज काम करवाया जाता है। कुछ कम्पनियों में एक लाइन में कटाई, सिलाई, जैसे कामों के लिये 40-50 मजदूर होते हैं जिसके लिये ज्यादा कुशल मजदूरों की आवश्यकता नहीं पड़ती और ज्यादातर ठेके पर रखे जाने वाले मजदूरों से ही लाइन में सिलाई कटाई जैसे काम करवाये जाते हैं। एक मजदूर ने बताया कि औसत रूप में हर मजदूर एक घंटे में 35 कपड़ों पर काम करता है, यानि दो मिनट से भी कम समय में मजदूर एक कपड़े को प्रोसेस करते हैं और लगातार 12 से 16 घण्टे मशीन की तरह लगे रहते हैं।

अपनी तार्किक परिणतियों तक पहुँच गये अण्णा मण्डली और रामदेव के आन्दोलन

पूँजीवाद अपनी आन्तरिक गति से लगातार भ्रष्टाचार पैदा करता रहता है और फिर जब वह सारी सीमाओं को तोड़ने लगता है और व्यवस्था के लिए मुश्किल पैदा करने लगता है तो समय-समय पर उसे नियन्त्रित करने के प्रयास भी इसी व्यवस्था के भीतर से होते हैं। ऐसे में कभी-कभी कोई मसीहा, कोई श्रीमान सुथरा जी (मिस्टर क्लीन) डिर्जेण्ट और पोंछा लेकर पूँजीवाद पर लगे खून और कालिख़ के ध्ब्बों को साफ़ करने में जुट जाते हैं। साम्राज्यवादी पूँजी से संचालित एन.जी.ओ. ”सभ्य समाज” (सिविल सोसायटी) के साथ मिलकर पूँजीवाद की एक सुरक्षा पंक्ति का काम करते हैं। लेकिन वर्तमान में वैश्विक स्तर पर पूँजीवादी व्यवस्था मन्दी की चपेट में है, और आसमान छूती महँगाई और बेरोज़गारी आदि के कारण जन-आन्दोलनों का दबाव लगातार बना हुआ है। ऐसे में इस दबाव को कम करने के लिये सेफ्टी वाल्व का काम करने वाले एन.जी.ओ. अभी व्यवस्था की सुरक्षा पंक्ति की भूमिका नहीं निभा पा रहे हैं। ऐसे में ये आन्दोलन वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटकाने की भूमिका बख़ूबी निभा रहे हैं।

आन्दोलन को थकाकर तोड़ने की पुरानी कहानी फिर दोहरायी जा रही है

मज़दूरों के शोषण-उत्पीड़न की यह सच्चाई उस कम्पनी की है जहाँ एच.एम.एस. पिछले लगभग तीन साल से काम कर रही है और जहाँ मज़दूरों की एक ट्रेड यूनियन भी पंजीकृत है। मज़दूरों के अधिकार लगातार छीने जा रहे है, मज़दूरों में असंतोष लगातार बढ़ रहा है, और एच.एम.एस., एटक, सीटू जैसी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें चुप्पी साधे रहती हैं। लेकिन जब मज़दूरों का दबाव ज्यादा बढ़ जाता है, तब प्रतीकात्मक हड़तालों का सहारा लेकर मज़दूरों के गुस्से को शान्त करने की कोशिश करती हैं। बजाय इसके कि इन आन्दोलनों के माध्यम से वर्तमान व्यवस्था के मज़दूर और जन-विरोधी चरित्र का पर्दाफाश करें और उन्हें व्यापक स्तर पर संगठित करने का प्रयास करें। गुड़गाँव में 20 कम्पनियों में एच.एम.एस. से जुड़ी यूनियनें हैं, जो कभी हरसोरिया जैसे आन्दोलन तो कभी एक दिन के प्रतीकात्मक विरोध जैसी कार्रवाइयाँ करके मज़दूरों के गुस्से पर पानी के छींटे मारने का काम कर रही हैं। अगर एच.एम.एस. अपने साथ जुड़ी सभी यूनियनों को भी मज़दूरों के साझा सवालों पर एक साथ कार्रवाई करने के लिए लामबन्द नहीं कर सकता तो व्यापक मज़दूर एकता के लिए उससे कुछ करने की उम्मीद करना भी बेकार है।

घरेलू मज़दूरों के निरंकुश शोषण पर एक नज़र

सम्पन्न व्यक्तियों के घरों में होने वाले किसी भी अपराध के लिए सबसे पहले घरेलू नौकरों या वहाँ काम करने वाले मज़दूरों पर ही शक़ किया जाता है। पुलिस भी उन्हें ही सबसे पहले पकड़ती है और अपराध क़बूलवाने के लिए पुलिस की बर्बर पिटाई से घरेलू मज़दूरों की मौत के अनगिनत उदाहरण हैं। मालिक भी बेख़ौफ़ अपना हक़ समझते हैं कि अपने घर में काम करने वाले कामगारों के साथ मनमाना सुलूक़ करें। कम उम्र के नौकरों को गर्म लोहे से दागने, बुरी तरह मारने-पीटने और स्त्री मज़दूरों के साथ बदसलूक़ी की घटनाएँ बहुत आम हैं। कुछ महीने पहले एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी द्वारा अपने घर में काम करने वाली एक बच्ची को चोरी के शक़ में यातनाएँ देकर मार डालने की बर्बर घटना अख़बारों में आयी थी।

हरसूर्या हेल्थकेयर, गुड़गाँव के मज़दूरों का संघर्ष और हिन्द मज़दूर सभा की समझौतापरस्ती

पहले चार मज़दूर बाहर थे तो हड़ताल की गयी थी लेकिन फिर सात लोगों को बाहर रखने के मालिक के निर्णय के बाद भी समझौता कर लिया गया! यहाँ तक कि समझौते के बाद एचएमएस के नेताओं ने मज़दूरों से कहा कि आगे क्या करना है उसे वे ख़ुद देख लेंगे और अब मज़दूरों को कुछ करने की ज़रूरत नहीं है। इस पूरे संघर्ष के निचोड़ के तौर पर देखा जाये तो मज़दूरों के हित में एक भी निर्णय नहीं हुआ, उनकी कोई भी माँग पूरी नहीं हुई, और एचएमएस ने मज़दूरों को मालिक का आज्ञाकारी बने रहने की शर्त पर समझौता कर लिया। वह भी तब जबकि मज़दूर जुझारू संघर्ष करने के लिए तैयार थे। आन्दोलन का नेतृत्व कर रही एचएमएस दूसरी फैक्टरियों की अपनी यूनियनों के समर्थन से मज़दूरों के साथ मिलकर संघर्ष को व्यापक बना सकती थी। लेकिन किसी न किसी चुनावी पार्टी से जुड़ी ये सारी बड़ी यूनियनें अब कोई भी जुझारू संघर्ष करने की क्षमता और नीयत दोनों ही खो चुकी हैं।

राजधानी की चमकती इमारतों के निर्माण में : ठेका मजदूरों का नंगा शोषण

उत्पादन और निर्माण कार्य में ठेकाकरण के चलते, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सी.डब्ल्यू.जी. और अन्य निर्माण कार्य में लगे कितने ही ठेका मजदूर विकास की चमक-दमक के खोखले दिखावे के चलते मौत के शिकार हो चुके हैं। एक अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार (टाइम्स ऑॅफ इण्डिया, 23 अक्टूबर, 2010, ”सी.डब्ल्यू.जी. में मरने वालों की संख्या सरकार को नहीं पता!”) सी.डब्ल्यू.जी. के निर्माण कार्य में लगे 70,500 मजदूरों में से 101 मजदूरों की दुर्घटना से मृत्यु हुई, लेकिन किसी के पास, यहाँ तक कि सरकार के पास भी मजदूरों की मृत्यु से सम्बन्धित ”सही आँकड़े” नहीं हैं।