गुड़गाँव के “मल्टीब्राण्ड” शॉपिंग सेन्टरों की चकाचौंध में गुम होते दुकान मज़दूर

राजकुमार

गुड़गाँव की बात होते ही लोगों की आँखों के सामने देश के औद्योगिक केन्द्र के रूप में विकासमान एक शहर की तस्वीर घूमने लगती है। कोई व्यक्ति जब यहाँ आता है तो उसका सामना सबसे पहले बड़ी-बड़ी इमारतों, मल्टी-ब्राण्ड मालों और आईटी, साफ़्टवेयर और आटोमोबाइल जैसी कम्पनियों की बड़ी-बड़ी इमारतों से होता है। यह तस्वीर उस गुड़गाँव की है जिसे भारत में औद्योगिक विकास के केन्द्र के रूप में टीवी अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में दिखाया जाता है, या राजमार्ग संख्या आठ से गाड़ियों या बसों में बैठ कर गुजरने वाले लोगों को दिखता है। इस गुड़गाँव के बीच एक दूसरा गुड़गाँव भी है, जो इस पहले गुड़गाँव की चमक-दमक के पीछे सभी की नजरों से ओझल होकर अंधेरे में छुपा हुआ है। इन सभी इमारतों को बनाने वाले मज़दूरों से लेकर इनके रख-रखाव और इनमें काम करने वालों को सर्विस देने के लिये लाखों मज़दूर यहाँ काम करते हैं। हर दिन सुबह और शाम इस दूसरे गुड़गाँव की एक झलक हर औद्योगिक क्षेत्र की गलियों में और कापसहेड़ा, मौलाहेड़ा, राजीव चौक, मानेसर जैसी मज़दूर बस्तियों के आस-पास के इलाकों में मज़दूरों के मेले के रूप में देखी जा सकती है। इस गुड़गाँव में रहने वाले लाखों मज़दूर पहले गुड़गाँव की चमक-दमक के लिये जरूरी सारी सुख-सुविधायें उपलब्ध कराते है और देश की जीडीपी को बढ़ाने के लिये दिन रात अमानवीय परिस्थितियों में काम करते हैं। वास्तव में गुड़गाँव की चमक-दमक का बोझ इस दूसरे गुड़गाँव में रहने वाले मज़दूरों के कन्धों पर रखकर ढोया जा रहा है, जो कि इस शहर में रहने वाले मध्य-वर्ग की सुविधाओं के लिए और देश की औद्योगिक प्रगति के लिये धमनियों में रक्त के संचार की तरह दिन-रात काम में लगे रहते हैं।

malls cleaning salesman gurgaon

पूरा बाजार देशी-विदेशी विलासिता के सामानों से पटा हुआ है और मध्यवर्ग के बीच इन सामानों को बेचने के लिये कई शापिंग सेन्टर यहाँ लगातार खुल रहे हैं। दुनिया के करोड़ों मज़दूरों द्वारा नारकीय हालात में काम करके पैदा किया गया विलासिता का यह सामान इन शापिंग मालों की “सुन्दरता” बढ़ाने के लिए सजा-धजा कर प्रदर्शन के लिए रखा जाता है। गुड़गाँव जैसे शहरों में रहने वाले मध्यवर्ग की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए इन इलाकों के कोने-कोने में मल्टीनेशनल ब्राण्ड के शापिंग सेण्टर, जैसे बिग-बाजार, रिलायंस, विशाल और , ‘कैफे कॉफी डे’, पिज्जा हट और शराब के ठेके, खाने के रेस्टोरेंट सहित कई छोटी-छोटी दुकानें खुल रही हैं। गुड़गाँव की एक विशेषता यह है कि यहाँ चिकित्सालय या पुस्तकालय ढूँढ़ने पर भी मुश्किल से मिलते हैं, लेकिन शराब के ठेके हर गली-नुक्कड़ से लेकर शापिंग मालों तक मौजूद हैं। इसी को पूरी दुनिया में देश के विकास की तस्वीर के रूप में दिखाया जाता है। जो किसी को नहीं दिखाया जाता वह यह कि इन सभी दुकानों में मज़दूरों की एक बड़ी आबादी सेवा कार्यों में लगी है जो अत्यन्त दयनीय स्थिति में अपना गुजारा कर रही है। इनमें समान को घरों में पहुँचाने वाले, दुकानों में मदद करने वाले, रेस्तराओं में खाना बनाने और परोसने वाले से लेकर अनेक सर्विस कार्य करने वाले असंगठित और अकुशल मज़दूर शामिल हैं। बड़े-बड़े रिटेल स्टोरों के साथ अपना व्यापार करने वाले कुछ छोटे क्षेत्रीय व्यापारी भी अपनी दुकानों में काम के लिए मज़दूरों को रखते हैं, और इन मज़दूरों की काम की परिस्थितियां भी लगभग बड़े-बड़े ब्राण्डों की दुकानों में काम करने वाले मज़दूरों जैसी ही होती है, फर्क सिर्फ इतना है कि इनमें मालिक भी उनके साथ देखभाल करता है। जैसे-जैसे पूँजी का विस्तार हो रहा है और मल्टी ब्राण्ड किराना सेण्टर खुल रहे हैं इन सभी छोटी दुकानों का भविष्य भी अपने अन्त की ओर बढ़ रहा है। ध्यान देने वाली बात यह है कि मध्य-वर्ग को सुविधायें देने के काम में लगे मज़दूर स्वयं उस सामान को कभी इस्तेमाल नहीं कर सकते जो इन शापिंग सेण्टरों में बेचा जाता है।

आम तौर पर लोगों का ध्यान इन कामों में लगे मज़दूरों के काम और जिन्दगी के हालात पर नहीं जाता। वास्तव में इन मज़दूरों की स्थिति भी कम्पनियों में 12 से 16 घण्टे काम करने वाले मज़दूरों जैसी ही है। इन सभी सेण्टरों में काम करने वाले यूपी-उत्तराखण्ड-बिहार-बंगाल-उड़ीसा-राजस्थान जैसे कई राज्यों से आने वाले लाखों प्रवासी मज़दूर दो तरह की तानाशाही के बीच काम करते हैं। एक ओर काम को लेकर मैनेजर या मालिक का दबाव लगातार इनके ऊपर बना रहता है और दूसरा जिस मध्य-वर्ग की सेवा के लिये उन्हें काम पर रखा जाता है उसका अमानवीय व्यवहार भी इन्हें ही झेलना पड़ता हैं। दुकानों और रेस्तराँ में ये मज़दूर लगातार काम के दबाव में रहते हैं, लेकिन ग्राहकों के सामने बनावटी खुशी और सेवक के रूप में जाने की इन्हें ट्रेनिंग दी जाती है। ये मज़दूर सिर्फ शारीरिक श्रम ही नहीं बेचते बल्कि मानसिक रूप से अपने व्यक्तित्व और अपनी मानवीय अनुभूतियों को भी पूँजी की भेंट चढ़ाने को मजबूर होते हैं। “आजाद” देश के इन सभी मज़दूरों को जिन्दा रहने के लिये जरूरी है कि किसी मालिक के मुनाफे के लिये मज़दूरी करें।

कुछ दुकानों में काम करने वाले मज़दूरों से बात करने पर वे बताते हैं कि वे सप्ताह के सातों दिन 13 से 14 घण्टे काम करते हैं, और उन्हें महीने की 4 से 6 हजार रुपये मज़दूरी मिलती है। इन मज़दूरों को बीमार होने या त्यौहारों पर कोई छुट्टी नहीं मिलती, बल्कि त्यौहारों के दौरान इन पर काम का बोझ और बढ़ जाता है। इन्हें कई बार लगातार हर दिन 18 से 20 घण्टों तक ओवरटाइम करना पड़ता है ताकि त्यौहारों के दौरान खरीददारी पर टूट पड़ने वाले मध्य-वर्ग की जरूरत पूरी की जा सके। इन सभी मज़दूरों को छुट्टी अपनी मज़दूरी कटवाकर ही मिलती है। 24 घण्टे चलने वाली कुछ दुकानों में किसी भी मज़दूर को कभी भी ओवरटाइम के लिये रोक लिया जाता है, जो उसे बिना किसी शर्त के करना पड़ता है। इन सभी दुकानों में मज़दूरों को मनमानी शर्तों पर ठेके पर रखा जाता है और कोई भी श्रम कानून इनके लिए लागू नहीं होता। मालिक कभी भी इन्हें बिना शर्त काम से निकाल सकता है। मध्य-वर्ग के खाए-अघाये ग्राहकों की सुविधा की कीमत भी इन मज़दूरों को चुकानी पड़ती है। डोमिनोज और पिज्जा-हट जैसी दुकानें अपने ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए 30 मिनट में डिलीवरी या फ्री-डिलीवरी के जो दावे करती हैं उसका बोझ भी मज़दूरों के ऊपर ही पड़ता है, क्योंकि यदि डिलीवरी में थोड़ी भी देर हो जाती है तो डिलीवरी करने वाले मज़दूर की मज़दूरी काट ली जाती है। ऐसी स्थिति में इन डिलीवरी करने वालों पर लगातार एक मनौवैज्ञानिक दबाव बना रहता है।

कई मज़दूरों से बात करने पर पता चला कि इनमें से ज़्यादातर नौजवान हैं, जो पहले किसी न किसी कम्पनी में काम कर चुके हैं, लेकिन वहाँ काम के दबाव और काम की अमानवीय परिस्थितियों के कारण उसे छोड़ कर बेहतर काम की तलाश में यहाँ आए। कई मज़दूरों का कहना था कि कारखानों में लगातार एक साल काम करना उनके लिये सम्भव नहीं होता तो वे साल में कुछ दिन कभी रिक्शा चलाते हैं तो कभी इन सेवा कामों में अपनी किस्मत आजमाते हैं। लेकिन कुछ दिन काम करने के बाद उन्हें इसकी सच्चाई भी पता चल जाती है और फिर कहीं काम तलाश करने के लिये निकल पड़ते हैं। श्रम विभाग का कोई अधिकारी कभी इन मज़दूरों की हालात का जायजा लेने नहीं आता। किसी राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन का आधार इन मज़दूरों के बीच नहीं है। जानकारी का कोई स्रोत इनके सामने नहीं है। ज़्यादातर मज़दूर अपने अधिकारों के बारे में भी नहीं जानते और न ही इन्हें इतिहास के मज़दूर आन्दोलनों और मज़दूरों के संघर्षों के बारे में कुछ पता है।

पूरी दुनिया में आज क्या चल रहा है और सरकारें उनके “उद्धार” के लिये क्या-क्या कर चुकी है, और क्या और करने जा रही है, इन सबकी जानकारी से बेखबर ये मज़दूर सिर्फ दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए लगातर 12 से 16 घण्टे काम में लगे रहते हैं। इनके पास न ही सोचने का कोई वक्त होता है और न अपने परिवार के साथ बिताने के लिए समय। लगातार बढ़ रहे मध्य-वर्ग के बाजार में देश-विदेश की काम्पनियों में पैदा होने वाले विलासिता के सामान को बेचने के लिए और देश की “तरक्की” में चार-चाँद लगाने के लिए ये मज़दूर इंसानों की तरह नहीं बल्कि मशीनों की तरह काम में लगे हुए हैं। हर शहर में एक बड़ी आबादी होने के बावजूद किसी का ध्यान इनके अस्तित्व की ओर नहीं जाता। गुड़गाँव में काम पर लगे लाखों मज़दूरों की जिन्दगी की यह एक छोटी सी झलक भर है। वास्तव में कपड़ा बनाने से लेकर कारें बनाने तक अनेक उद्योगों में काम पर लगे अनेक मज़दूर यहाँ अमानवीय परिस्थितियों में काम करते हैं जिन्हें पूँजीवादी व्यवस्था में बिना किसी “भ्रष्टाचार” के सारे अधिकारों से बेदखल करके अंधेरी गन्दी बस्तियों में काम करते रहने के लिये धकेल दिया गया है।

एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 90 फीसदी से अधिक लोगों का मासिक खर्च 4500 रु. से कम है। देश की इस 90 फीसदी आबादी को अपनी आमदनी किन परिस्थितियों में काम करके हासिल करती है इसका अन्दाज इन मज़दूरों को देख कर लगाया जा सकता है (द हिन्दू, 14 जुलाई 2013)। कोई भी राजनीतिक पार्टी इन काम करने वालों की स्थिति के कारणों पर बात नहीं करती। इस अमानवीय असमानता और मज़दूरों के शोषण पर चल रही पूरी पूँजीवादी व्यवस्था में हो रहे इस खुले भ्रष्टाचार का विरोध न तो केजरीवाल जैसे लोग करते हैं जो स्वयं को “आम आदमी” का नेता कहते हैं, और न ही कोई और संसदीय राजनीतिक पार्टी। चाहे कांग्रेस हो या बीजेपी हो सभी के शासन में देश के “विकास” से सापेक्ष इन 90 फीसदी लोगों की बर्बादी में  इजाफा ही हुआ है। आजकल हिन्दूवादी कट्टरपन्थी राजनीति की मुखिया बीजेपी मोदी के “विकास” के नाम पर भ्रामक प्रचार कर और देश में एक साम्प्रदायिक माहौल बनाकर जनता को मूल मुद्दों से भटकाकर समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रही है, जिसका मुख्य उद्देश्य है पूँजीवाद को खुले दमन का विकल्प देना जो आने वाले समय में घोर गरीबी और बर्बादी में जीने वाले मज़दूरों द्वारा उठाई जाने वाली न्याय की आवाज को कुचलने के काम आएगा। देश में चलने वाले कई गैर सरकारी संगठन (NGO) भी कभी मज़दूरों की इन अमानवीय परिस्थितियों पर कोई सवाल नहीं उठने, बल्कि वास्तव में इनका अस्तित्व ही इसलिये है कि पूँजीवाद में जो आम मेहनतकश जनता बर्बाद होती है उसे कुछ सुधार कार्य करते हुये लोगों को शान्त बनाये रखें। मज़दूरों को यह सच्चाई समझनी होगी कि सभी संसदीय पार्टियाँ उनके लिये नहीं, बल्कि देशी-विदेशी बैंकरों, पूँजीवादी ठेकेदारों, उद्योगपतियों और दलालों की पार्टियाँ हैं, जो मज़दूरों की मेहनत से बने पूरे देश के सभी संसाधनों पर सरकार की मदद से अपने अधिकार को बनाये हुए है। संविधान के पन्नों में समाज को बनाने और चलाने वाली इस मेहनतकश आबादी को “समानता का अधिकार” मिला हुआ है, लेकिन इनके पास कोई सम्पत्ति नहीं है, और यदि है तो एक छोटा सा जमीन का टुकड़ा, जिसके कारण पूरे देश की यह आबादी आर्थिक रूप से पूरी तरह से पूँजीपतियों-ठेकेदारों के यहाँ उनकी मनमानी शर्तों पर अपना श्रम बेचने को मजबूर हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था के रहते इन मज़दूरों की स्थिति में कोई सुधार सम्भव है? आज जरूरी है कि ये सारे मज़दूर नये सिरे से एक व्यापक आर्थिक राजनीतिक और सामाजिक बदलाव के लिये संगठित होकर पूँजीवादी शोषण दमन-उत्पीड़न के विरूद्ध एक विकल्प खड़ा करने के लिये आगे आएँ।

 

मज़दूर बिगुलनवम्‍बर  2013

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