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मज़दूर वर्ग की पार्टी कैसी हो? (दूसरी क़िस्त) – मज़दूर वर्ग की पार्टी का प्रचार क्रान्तिकारी प्रचार होता है

मज़दूर वर्ग की पार्टी का प्रचार क्रान्तिकारी होता है। यह प्रचार मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता से ही निर्धारित होता है। यानी क्रान्तिकारी प्रचार के लिए सही विचार, सही नारे, और सही नीतियाँ आम मेहनतकश जनता के सही विचारों को संकलित कर, उसमें से सही विचारों को छाँटकर, सही विचारों के तत्वों को छाँटकर और उनका सामान्यीकरण करके ही सूत्रबद्ध किये जा सकते हैं। लेनिन बताते हैं कि “मज़दूरों के आम हितों और आकांक्षाओं के आधार पर, ख़ासकर उनके आम संघर्षों के आधार पर, कम्युनिस्ट प्रचार और आन्दोलन की कार्रवाई को इस प्रकार चलाना चाहिए कि वह मज़दूरों के अन्दर जड़ें जमा ले।” यही बात आम मेहनतकश जनता के बीच किये जाने वाले प्रचार के लिए भी सही है।

मज़दूर वर्ग की पार्टी कैसी हो? (पहली क़िस्त) – मज़दूर वर्ग की पार्टी कैसी हो?

हर वर्ग का राजनीतिक प्रतिनिधित्व उसकी राजनीतिक पार्टी या पार्टियाँ करती हैं। भारत में तमाम पार्टियाँ मौजूद हैं जो अलग-अलग वर्ग का समर्थन करती हैं या शासक वर्ग के किसी हिस्से के हितों की हिफ़ाज़त करती हैं। भाजपा और कांग्रेस मूलत: और मुख्यत: बड़े पूँजीपतियों के वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं। ये दोनों पार्टियाँ भारत की बड़ी वित्तीय-औद्योगिक पूँजी के हितों को प्रमुखता से उठाती हैं।
वहीं तृणमूल कांग्रेस, राजद, जदयू, अन्नाद्रमुक और द्रमुक से लेकर तमाम पार्टियाँ मँझोले व क्षेत्रीय बुर्जुआ वर्ग और/या धनी किसानों-कुलकों की प्रतिनिधि हैं, जो कि बड़े पूँजीपति वर्ग से देशभर में विनियोजित हो रहे बेशी मूल्य में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने की जद्दोजहद करते रहते हैं।

क्यूबा में साम्राज्यवादी दख़ल का विरोध करो!

जुलाई से ही क्यूबा में विपक्ष के नेताओं के आह्वान पर हज़ारों लोगों के सड़कों पर उतरने की ख़बरें आ रही हैं। बिजली कटौती, खाद्य सामग्री का महँगा होना व कोरोना के नये संस्करण के चलते बीमारी का फैलना प्रमुख कारण थे जिनके ख़िलाफ़ आम जनता में रोष है। परन्तु जब इसके साथ ही अमेरिका के सारे मीडिया चैनल और अख़बार ‘क्यूबा की मदद करो’ और इन आन्दोलनों को ‘जनवाद की बहाली’ बताने का आन्दोलन बताने लगते हैं तो समझ में आता है कि दाल में कुछ काला है!

वज़ीरपुर के मज़दूर आन्‍दोलन को पुन: संगठित करने की चुनौतियाँ

22 अगस्त को सी-60/3 फ़ैक्टरी में पॉलिश के कारख़ाने में छत गिरने से एक मज़दूर की मौत हो गयी। सोनू नाम का यह मज़दूर वज़ीरपुर की झुग्गियों में रहता था। मलबे के नीचे दबने के कारण सोनू की तत्काल मौत हो गयी, हादसा होने के बाद फ़ैक्टरी पर पुलिस पहुँची और पोस्टमार्टम के लिए मज़दूर के मृत शरीर को बाबू जगजीवन राम अस्पताल में ले गयी। मुनाफ़े की हवस में पगलाये मालिक की फ़ैक्टरी को जर्जर भवन में चलाने के कारण एक बार फिर एक और मज़दूर को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा।

मज़दूर आन्दोलन में नौसिखियापन और जुझारू अर्थवाद की प्रवृत्ति से लड़ना होगा

हाल ही में दिल्ली से लगे कुण्डली औद्योगिक क्षेत्र में ‘मज़दूर अधिकार संगठन’ के कार्यकर्ता नौदीप कौर और शिवकुमार को हरियाणा पुलिस ने गिरफ़्तार किया और उनका हिरासत के दौरान भयानक दमन किया गया। नौदीप कौर को न सिर्फ़ बेरहमी से पीटा गया बल्कि पुरुष पुलिस वालों द्वारा उनके गुप्तांगों पर प्रहार किया गया। शिवकुमार को पुलिस ने गैर क़ानूनी तरीके से हिरासत में रखकर पीटा और गिरफ़्तारी के लम्बे समय बाद काफ़ी विरोध होने पर उनकी मेडिकल जाँच करायी गयी। शिवकुमार के पैरों के नाखून तक नीले पड़ गये हैं।

गहरी आर्थिक मन्दी के सही कारण को पहचानो

मन्दी के कारण मज़दूरों की नौकरी छूट रही है, बेरोज़गारी और महँगाई बढ़ी है, परन्तु सरकार अपना पूरा ज़ोर लगा रही है कि पूँजीपतियों में निराशा न हो। मज़दूरों के लिए सरकार कोई नीति नहीं ला रही है। मोदी ने 15 अगस्त को मनमोहन सिंह की यह बात ही दोहरा दी है कि अमीरों को और अमीर बनाइये, उनकी जूठन से ग़रीबों के जीवन में भी समृद्धि आयेगी। हम यह जानते हैं कि समृद्धि नीचे से ऊपर ही जाती है, न कि ऊपर से नीचे की ओर।

गम्भीर आर्थिक संकट में धँसती भारतीय अर्थव्यवस्था

देश में आर्थिक मन्दी की आहट अब शोर में तब्दील हो चुकी है। इस मन्दी का ख़ास तौर पर ऑटोमोबाइल सेक्टर में प्रभाव दिख रहा है। इस सेक्टर में मदर कम्पनियों से लेकर वेण्डर कम्पनियों तक में उत्पादन ठप्प पड़ा है। मारुति से लेकर होण्डा तक में शटडाउन चल रहा है, छोटे वर्कशॉप भी बन्द हो रहे हैं। देश-भर में ऑटोमोबाइल कम्पनियों के 300 से ज़्यादा शोरूम बन्द हो चुके हैं। क़रीब 52 हज़ार करोड़ रुपये मूल्य की 35 लाख अनबिकी कारें और दोपहिया वाहन पड़े सड़ रहे हैं। इसके कारण न सिर्फ़ ठेका मज़दूरों को काम से निकालने का नया दौर शुरू हो रहा है बल्कि पक्के मज़दूरों को भी कम्पनियों से निकालने की तैयारी हो रही है।

देश-भर में 8-9 जनवरी को हुई आम हड़ताल से मज़दूरों ने क्या पाया? इस हड़ताल से क्या सबक़ निकलता है?

जहाँ तक केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की बात है तो इनसे पुछा जाये कि एकदिनी हड़ताल करने वाली इन यूनियनों की आका पार्टियाँ संसद विधानसभा में मज़दूर विरोधी क़ानून पारित होते समय क्यों चुप्पी मारकर बैठी रहती हैं? जब पहले से ही लचर श्रम क़ानूनों को और भी कमज़ोर करने के संशोधन संसद में पारित किये जा रहे होते हैं, तब ये ट्रेड यूनियनें और इनकी राजनीतिक पार्टियाँ कुम्भकर्ण की नींद सोये होते हैं। सोचने की बात है कि सीपीआई और सीपीएम जैसे संसदीय वामपन्थियों समेत सभी चुनावी पार्टियाँ संसद और वि‍धानसभाओं में हमेशा मज़दूर विरोधी नीतियाँ बनाती आयी हैं, तो फिर इनसे जुड़ी ट्रेड यूनियनें मज़दूरों के हक़ों के लिए कैसे लड़ सकती हैं?

फासीवादियों का प्रचार तन्त्र

फासीवादी तकनोलोजी का इस्तेमाल करने में भी अव्वल होते हैं, गोएबल्स से सीख लेते हुए आज ये लोग टेलीविजन पर मीडिया के बड़े हिस्से में अपना प्रभुत्व क़ायम करे बैठे हैं। अख़बारों के ज़रिये लगातार मोदी का चेहरा, पेट्रोल पम्पों और बस स्टॉप से लेकर तमाम बसों पर मोदी और भाजपा के नारे सबसे अधिक चमकते हैं। फि़ल्मों में संघ की विचारधारा को घोल कर पेश किया जाता है, ‘बजरंगी भाईजान’ और ‘ज़ोर लगाकर हईसा’ व तमाम फि़ल्मों में सीधे संघ की तारीफ़ आ जाती है। रेडियो पर ‘मन की बात’ के ज़रिये व्यवस्थित प्रचार करने में भी ये अव्वल हैं। सोशल मीडिया के हर रूप में यानी फे़सबुक, ट्विटर और व्हाट्सप्प के विराट तन्त्र का भी ये इस समय अधिकतम इस्तेमाल कर रहे हैं। अफ़वाह फैलाने में और अपने प्रचार को लगातार इन माध्यमों से लोगों तक  संघ के तमाम हिस्सों द्वारा पहुँचाया जा रहा है।

नरेन्द्र मोदी – यानी झूठ बोलने की मशीन के नये कारनामे

नरेन्द्र मोदी की मूर्खता का कारण उनका टटपुँजिया वर्ग चरित्र है और गली-कूचों में चलने वाली इस राजनीति में पारंगत प्रचारक, जिसे गुण्डई भी पढ़ सकते हैं, की बोली है जिसे वे प्रधानमन्त्री पद से बोलने लगते हैं। यह टटपुँजिया वर्ग चरित्र उनकी कई अभिव्यक्तियों में झलक जाता है, मसलन कैमरा देखते ही उनकी भाव-भंगिमा में ख़ास कि़स्म का बदलाव आता है, शायद शरीर में सिहरन भी होती हो जिस वजह से अक्सर अख़बारों में आये फ़ोटो में उनका चेहरा कैमरे की तरफ़ होता है।