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वज़ीरपुर गरम रोला मज़दूरों की लम्बी हड़ताल के 2 साल होने पर

एकता हवा में नहीं बनती। मज़दूर जब एक साथ खड़े होते हैं तो उन्हें एक करने का काम उनकी यूनियन करती है जिसमें मज़दूरों द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं। मज़दूर अपने बीच से चुनाव करके यूनियन की नेतृत्वकारी समिति का गठन करते हैं जो मज़दूरों के आन्देालन का नेतृत्व करती है। आज दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन ही वज़ीरपुर के मज़दूरों की क्रान्तिकारी यूनियन है जिसका गठन मज़दूरों ने अपने बीच से किया था। इलाक़े में प्रवास के चलते बड़ी संख्या में बाहर से मज़दूर आये हैं और उन्हें भी यूनियन से जोड़कर यूनियन को मज़बूत बनाना होगा।

समाजवादी चीन और पूँजीवादी चीन की दो फैक्टरियों के बीच फर्क

पूँजीवादी देश में फैक्टरियों में निजी हस्तगतीकरण होता है और मज़दूरों के श्रम से पैदा हुआ बेशी मूल्य सीधे मालिक अपनी जेब में रखता है इसलिए इनकी उत्पादन व्यवस्था अधिकतम प्रोडक्शन पर जोर देती है और मज़दूर को मशीन के एक टूकड़े में बदल देती है। उसके बरक्स समाजवाद एक ऐसी व्यवस्था है जो मज़दूरों को उसके जीवन का असली आधार प्रदान करती है। हम आगे इस अंतर को और आगे विस्तारित करेंगे और सिर्फ फैक्टरी स्तर पर ही नहीं बल्कि मज़दूरों के रहने की जगह में, सुविधाओं के ढाँचे के बारे में विस्तार से बात करते हुए समाजवाद और पूँजीवाद के अंतर के बारे में गहनता से समझेंगे। लेकिन एक बात यहाँ जो समझ में आती है कि फैक्टरी फ्लोर के स्तर पर समाजवादी चीन और पूँजीवाद चीन में ज़मीन आसमान का अंतर है। यह हमें समझना होगा कि हमें क्या चाहिए? फोक्स्कोन की फैक्टरी के हालात आज भारत की भी लगभग हर फैक्टरी के हालात हैं। यहाँ भी मैनेजमेंट और मज़दूर के बीच मालिक और गुलाम का सम्बन्ध है न कि किसी समूह के दो सदस्यों सरीखा व्यवहार है। हमें अपनी फैक्टरी के हालातों को बदलना है तो इस मैनेजमेंट को बनाने वाली मुनाफ़ा आधारित व्यवस्था को ही ख़त्म करना होगा।

चीन में आर्थिक संकट और मज़दूर वर्ग

चीन के सामाजिक फासीवादी देश के पूँजीपतियों के लिए जहाँ संकट से बचने के लिए बेल आउट पैकेज दे रहा है वहीँ मज़दूरों को तबाह कर उनसे उनके तमाम अधिकार भी छीन रहा है। चीन में अमीर-गरीब पिछले 10 सालों में बेहद अधिक बढ़ी है। पार्टी के खरबपति “कॉमरेड” और उनकी ऐयाश संतानों का गिरोह व निजी पूँजीपती चीन की सारी संपत्ति का दोहन कर रहे हैं। चीन के सिर्फ 0.4 फीसदी घरानों का 70 फीसदी संपत्ति पर कब्ज़ा है। यह सब राज्य ने मज़दूरों के सस्ते श्रम को लूट कर हासिल किया है। लेकिन मज़दूर वर्ग भी पीछे नहीं हैं और अपने हक़ और मांगों के लिए सड़कों पर उतर रहे हैं। राज्य के दमन के बावजूद भी मज़दूर अपनी आवाज़ उठा रहे हैं। एक तरफ चीन का शासक वर्ग आर्थिक संकट के दौर में मज़दूरों को अधिक रियायतें नहीं दे सकता है और दूसरी तरफ मज़दूरों की ज़िन्दगी पहले से ही नरक में है और अब जब वे सड़कों पर उतरे हैं तो इसी कारण कि उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है। यह इस व्यवस्था का असमाधेय अन्तरविरोध है। इस अन्तरविरोध का समाधान मज़दूर वर्ग अपने पक्ष में सिर्फ तब कर सकता है जब वह मज़दूर वर्ग की पार्टी के अंतर्गत संगठित होकर चीनी शासकों का तख्ता पलट दे वरना संकट के ये कुचक्र चलते रहेंगे और पूँजीवादी व्यवस्था मर-मर कर भी घिसटती रहेगी।

आज की परिस्थिति और आगे का रास्ता

2014 की हड़ताल को एक साल बीत चुका है, जो वेतन में 1500 हमने हासिल किये थे, महँगाई बढ़ने के कारण आज हालत फिर पहले जैसी है। इस परिस्थिति में यूनियन की तरफ़ से मालिकों को न्यूनतम वेतन नोटिस दिये जा चुके हैं। गरम रोला की कुछ फ़ैक्टरियों में इस बार भी वेतन बढ़ा है परन्तु सभी फ़ैक्टरियों में नहीं बढ़ा है। ठण्डा रोला की फ़ैक्टरियों व स्टील लाइन की अन्य फ़ैक्टरी में मालिक दीवाली पर वेतन बढ़ाता है। हमें यह प्रयास करना चाहिए कि सभी मज़दूर एक साथ वेतन वृद्धि व अन्य श्रम क़ानूनों को लागू करवाने को लेकर संघर्ष करें। यानी हमें अपनी लड़ाई को इलाक़ाई और पेशागत आधार पर कायम करना चाहिए। यही ऐसा रामबाण नुस्खा है जो हमारी जीत को सुनिश्चित कर सकता है। यानी माँग सभी पेशे के मज़दूरों की उठायी जाये। पिछले साल की हड़ताल में मुख्यतः गरम रोला के मज़दूरों ने हड़ताल की थी, जिसका समर्थन अन्य सभी मज़दूरों ने किया था जिस कारण से हम हड़ताल को 32 दिन तक चला पाये और आंशिक जीत भी हासिल की। इस बार हमें शुरुआत ही अपनी इलाक़ाई और पेशागत यूनियन के बैनर तले संगठित होकर करनी चाहिए। यानी गरम, ठण्डा, तेज़ाब, तपाई, रिक्शा, प्रेस, पोलिश, शेअरिंग व अन्य स्टील लाइन के मज़दूरों का एक साझा माँगपत्र हमें मालिकों के सामने रखना चाहिए। कोई भी हड़ताल इलाक़ाई और सेक्टरगत आधार पर लड़कर जीती जा सकती है।

‘वज़ीरपुर मज़दूर’ अख़बारः लफ्फ़ाज़ी का नया नमूना

‘वज़ीरपुर मज़दूर’ अखबार मज़दूर अख़बार मज़दूरों को ख़ुद मुक्त करने के नाम पर अन्त में सिर्फ़ इस व्यवस्था के घनचक्कर में ही फँसाये रखना चाहता है। दरअसल ख़ुद को दिमाग़ी मज़दूर बताने वाले ये बुरे बुद्धिजीवी लफ्फ़ाज़ हैं और हमें लेनिन की यह बात गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि लफ्फ़ाज़ मज़दूर वर्ग के सबसे बुरे दुश्मन होते हैं क्योंकि ये मज़दूरों के अपने होने का दावा कर उनमें भीड़ वृत्ति को जागृत करते हैं और आन्दोलन को अंदर से खोखला करते हैं। अभी तक निकले ‘वज़ीरपुर मज़दूर’ के दो अंकों में इन्होंने जमकर लफ्फ़ाज़ी की है। मज़दूरों को इन लफ्फ़ाज़ों को आंदोलन से दूर कर देना चाहिए।

केजरीवाल सरकार को वादों की याद दिलाने दिल्ली सचिवालय पहुँचे ठेका मज़दूरों पर पुलिस का बुरी तरह लाठीचार्ज

शांतिपूर्वक अपनी बात को मुख्यमन्त्री तक ले जाने के इरादे से आये दिल्ली भर के मज़दूरों और आम मेहनतकश जनता को वहशी तरीक़े से पीटा गया। पुलिस के पुरुष कर्मियों ने महिलाओं को बुरी तरह पीटा जिसके कारण अनेक महिलाओं को गंभीर चोटें आयी, एक युवा महिला कार्यकर्ता की टांग टूट गयी और बहुत से लोगों के सर फूट गये। इतने पर भी दिल्ली पुलिस को चैन नहीं आया, रैपिड एक्शन फोर्स और दिल्ली पिुलस ने मिलकर मज़दूरों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा, आँसू गैस के गोले बारिश की तरह बरसाए गये। प्रदर्शन में महिलायें व बच्चे भी शामिल थे मगर पुलिस ने उन्हें भी नहीं बक्शा।

फ़ॉक्सकॉन के मज़दूरों का नारकीय जीवन

चीन की फ़ॉक्सकॉन कम्पनी एप्पल जैसी कम्पनियों के लिए महँगे इलेक्ट्रॉनिक और कम्प्यूटर के साजो-सामान बनाती है। इसके कई कारख़ानों में लगभग 12 लाख मज़दूर काम करते हैं। यहाँ जिस ढंग से मज़दूरों से काम लिया जाता है उसके चलते 2010 से 2014 तक ही में 22 ख़ुदकुशी की घटनाएँ सामने आयीं और कई ऐसी घटनाओं को दबा दिया गया। दुनियाभर में “कम्युनिस्ट” देश के तौर पर जाने वाले चीन का पूँजीवाद इससे ज़्यादा नंगे रूप में ख़ुद को नहीं दिखा सकता था। चीन दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है। परन्तु बाज़ारों में पटे सस्ते चीनी माल चीन के मज़दूरों के हालात नहीं बताते हैं। पर फ़ॉक्सकॉन की घटना पूरे चीन की दुर्दशा बताती है।

नमक की दलदलों में

नमक की दलदलो में 50 डिग्री तापमान में झुलसाती हुयी धूप में मज़दूर घंटो काम करते हैं। काम के आदिम रूप की कल्पना इस से ही की जा सकती है कि एक परिवार को दुसरे परिवार को सन्देश देने के लिए शीशे (रोशनी से) का इस्तेमाल करना पड़ता है। नमक की दलदल नुमा खेत मज़दूरों के तलवों, एडियो, और हथेलियों को छिल देते हैं जिससे नमक मांस में और खून में मिल जाता है। जो नमक मज़दूर अपनी मेहनत से पैदा करते हैं वही उनकी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा अभिशाप बन जाता है। अगरिया मज़दूरों में कहावत है कि उनकी मौत तीन तरह यानी गार्गरिन, टीबी या अंधेपन (नमक के कारण) से होती है। कईं मज़दूर कैंसर या ब्लड प्रेशर की बीमारी से मर जाते हैं। कईं अगरिया मज़दूर जवानी में मर जाते हैं- कच्छ के खरघोडा गाँव की 12000 की आबादी में 500 विधवाएं हैं! नमक के खेतों से मज़दूरों को पीने का पानी लेने के लिए 15-20 किलोमीटर साईकिल चला कर जाना पड़ता है। मौत के बाद भी यह नमक मज़दूरों का पीछा नहीं छोडता है क्योंकि हाथ और पैरों में घूस जाने के कारण मज़दूरों के अंतिम संस्कार के दौरान उनके हाथ और पैर नहीं जलते हैं। इन्हें नमक की ज़मीन में ही दफ़न किया जाता है।

निर्माण क्षेत्र में मन्दी और ईंट भट्ठा मज़दूर

ईंट उत्पादन में भारत दुनिया में दूसरे नम्बर पर है, 250 लाख टन कोयला की खपत के साथ देश भर में एक साल में लगभग 200 अरब ईंटे बनाने वाले इन मज़दूरों की जि़न्दगी नारकीय है। भट्ठा मज़दूर सबसे अमानवीय हालात में काम करने को मजबूर होते हैं। इनमें से अधिकतर मज़दूरों से भट्ठा मालिक गुलामो की तरह काम कराते हैं। देश भर से कईं ऐसी घटनाएँ सामने आयीं हैं जहाँ भट्ठा मालिकों ने मज़दूरों को आग में झोंककर मार दिया। न तो ईंट मज़दूरों के बच्चे पढ़ ही पाते हैं और ज़्यादातर की किस्मत में इसी उद्योग में खपना लिखा होता है। भट्ठों में बिना किसी सुरक्षा साधन या मास्क के 7000-10000 डिग्री तापमान में काम करने से मज़दूर को फेफड़ों से लेकर आँख की बीमारियाँ होती हैं। ज़्यादातर प्रवासी मज़दूर यहाँ बारिश के मौसम को छोड़कर सालभर काम में लगे रहते हैं। बच्चे से लेकर औरतें सभी को ये भट्ठे निगल जाते हैं।

पर्यावरण संरक्षण का खेल

बताने की ज़रूरत नहीं है कि पर्यावरण के विनाश का नुकसान सबसे ज्यादा ग़रीब जनता को ही उठाना पड़ता है। 12-14 घण्टे रोज़ फैक्टरियों में खटते हुए, मुर्गी के दड़बेनुमा और कूड़ेदानों से घिरी असुरक्षित झुग्गियों में रहते हुए, प्रदूषित भूजल का सीधे उपयोग करते हुए, या बाढ़ में कच्चे घरों के बह जाने से होने वाली बरबादी-तबाही को ग़रीब जनता ही झेलती है। अमीरों के पास बड़े-बड़े वातानुकूलित आफिस, वातानुकूलित घर, बाज़ार, स्कूल, गाड़ियाँ हैं, पानी साफ करने के यन्त्र हैं व अन्य सुविधाएँ हैं। सीधी बात यह कि इस पूँजीवादी समाज में तबाही ग़रीब जनता झेलती है और जो वह पैदा करती है उसका उपभोग जोंक रूपी मालिक वर्ग और उसके दलाल करते हैं। पर्यावरण को ख़तरा, जो अन्तत: मानवजाति के लिए ख़तरा है इस पूँजीवादी प्रणाली ने पैदा किया है।