गम्भीर आर्थिक संकट में धँसती भारतीय अर्थव्यवस्था
संकट टालने के तमाम सरकारी उपाय महज़ जनता पर बोझ ही बढ़ायेंगे
आर्थिक मन्दी के कुचक्र का समाधान मज़दूरों-मेहनतकशों की सत्ता है!

सनी सिंह

देश में आर्थिक मन्दी की आहट अब शोर में तब्दील हो चुकी है। इस मन्दी का ख़ास तौर पर ऑटोमोबाइल सेक्टर में प्रभाव दिख रहा है। इस सेक्टर में मदर कम्पनियों से लेकर वेण्डर कम्पनियों तक में उत्पादन ठप्प पड़ा है। मारुति से लेकर होण्डा तक में शटडाउन चल रहा है, छोटे वर्कशॉप भी बन्द हो रहे हैं। देश-भर में ऑटोमोबाइल कम्पनियों के 300 से ज़्यादा शोरूम बन्द हो चुके हैं। क़रीब 52 हज़ार करोड़ रुपये मूल्य की 35 लाख अनबिकी कारें और दोपहिया वाहन पड़े सड़ रहे हैं। इसके कारण न सिर्फ़ ठेका मज़दूरों को काम से निकालने का नया दौर शुरू हो रहा है बल्कि पक्के मज़दूरों को भी कम्पनियों से निकालने की तैयारी हो रही है। पिछले दो-तीन सालों में क्लोज़र और पार्शियल क्लोज़र के नाम पर ठेका और पक्के मज़दूरों को काम से निकाला गया है। मन्दी का असर गुड़गाँव-मानेसर-धारूहेड़ा की औद्योगिक पट्टी पर ही नहीं बल्कि हर उस उद्योग पर पड़ रहा है जो ऑटोमोबाइल की मदर या वेण्डर कम्पनियों के लिए उत्पादन करता था। आम तौर पर पूरा उद्योग जगत मन्दी की चपेट में आ गया है। औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर घटकर मार्च 2019 में 0.1 प्रतिशत तक आ गयी। अर्थव्यवस्था में 2018 से जो गम्भीर वित्तीय मन्दी मौजूद थी, वह हर उद्योग में फैल रही है।

इस मन्दी की चपेट में फ़िलहाल गाड़ियाँ, मकान और छोटे उद्यम आये हैं। इसके पीछे असल कारण ग़ैर-बैंकीय वित्तीय कम्पनियों (नॉन बैंकिंग फ़ाइनेंस कम्पनी, एनबीएफ़सी) का संकट है जो कि मुख्यत: इन तीनों ही क्षेत्रों में ॠण देने का काम करती थीं। कारपोरेट घरानों द्वारा बैंकों से लिये गये क़र्ज़ों को चुका नहीं पाने के कारण यह संकट गम्भीर रूप में सामने आया। लोग इसे बैंकों के एनपीए (नॉन परफ़ोर्मिंग एसेट्स) के संकट के रूप में जानते हैं। पिछले चन्द वर्षों में एनपीए के बोझ तले दबे बैंकों की कमर ही टूट गयी थी। मोदी सरकार ने 2017 में सरकारी बैंकों को 2.1 लाख करोड़ की भारी सहायता दी थी, लेकिन दो साल के अन्दर ही यह सारी रक़म पचाकर भी बैंकों की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ और अब उन्हें फिर से सरकारी ख़ज़ाने से 70,000 करोड़ रुपये दे दिये गये हैं। इसी बीच आईएल एण्ड एफ़एस कम्पनी के दिवालिया होने के क़गार पर पहुँच जाने के साथ ही संकट की दूसरी गम्भीर चेतावनी सामने आयी। आईएल एण्ड एफ़एस, यानी इन्फ्रास्ट्रक्चर लीज़िंग एण्ड फ़ाइनेंस सर्विसेज़ देश की बड़ी ग़ैर-बैंकीय वित्तीय कम्पनी है जिसमें भारतीय बीमा निगम के अलावा जापान और अबू धाबी की कम्पनियों की पूँजी लगी है। सरकार ने आईएल एण्ड एफ़एस को अपने हाथों में लेकर ऋणधारकों को आश्वासन दिया कि देर-सबेर उनका उधार चुकाया जायेगा। इस तरह सरकार ने व्यवस्था पर मँडरा रहे आसन्न संकट को कुछ समय के लिए टाल दिया। इस दौरान इस कम्पनी पर क़रीब 91,000 करोड़ का क़र्ज़ हो गया था जो यह चुकाने में असमर्थ थी। आईएल एण्ड एफ़एस को तो सरकार ने बचा लिया, परन्तु इस साल फिर कई ग़ैर-बैंकीय वित्तीय कम्पनियाँ बर्बादी की क़गार पर खड़ी हैं। इसमें सबसे प्रमुख डी.एच.एफ.एल. (दीवान हाउसिंग फ़ाइनेंस लिमिटेड) है। ग़ैर-बैंकीय वित्तीय कम्पनी (एनबीएफ़सी) बिचौलिया कम्पनी होती है, जो म्युचअल फ़ण्ड, बैंक, बीमा कम्पनियों से ऋण लेती है और ऊँची दरों पर वाहन, रियल स्टेट व अन्य कामों के लिए ऋण देती है। इन कम्पनियों के संकट में फँसने से, हर क्षेत्र में (इनसे ऋण लेने वालों और इनको ऋण देने वालों, दोनों में) संकट फैल रहा है।

अनेक आर्थिक विश्लेषकों ने आसन्न आर्थिक संकट की ओर इशारा किया है। हालाँकि चुनाव से पहले तक ऐसी ख़बरों को सीधे झुठला रही सरकार ने अब दूसरा रुख़ अपनाया है और अब वे दावा कर रहे हैं कि आने वाले समय में अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जायेगी। 5 जुलाई को पेश किये बजट में सरकार ने एनपीए के बोझ तले दबे बैंकों को उबारने के लिए 70,000 करोड़ रुपये देने का वायदा किया है और कहा है कि विभिन्न पब्लिक सेक्टर बैंक एनबीएफ़सी कम्पनियों की एक लाख करोड़ की परिसम्पत्तियाँ ख़रीदकर उनका क़र्ज़ उतारने में मदद करेंगे। सरकार ने यह भी कहा है कि इसके लिए 6 महीने तक किसी भी नुक़सान के दस प्रतिशत का भुगतान वह करेगी। वहीं एनबीएफ़सी को नया ऋण मिलता रहे इसके लिए भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) को 1.34 लाख करोड़ रुपये के साथ तैयार रहने को कहा गया है। इसके बाद भी अगर कोई कम्पनी बर्बाद होने की क़गार पर पहुँचेगी तो आरबीआई तुरन्त कार्रवाई कर ज़रूरी क़दम उठायेगा। जनता के पैसे से पूँजीपतियों का संकट दूर करना – आख़िर इसीलिए तो पूँजीपतियों ने इस सरकार को सत्ता में पहुँचाने के लिए अपनी तिजोरियाँ खोल दी थीं! दूसरी तरफ़ छोटे उद्योगों को बचाने के लिए सरकार श्रम क़ानूनों को और कमज़ोर कर रही है, ताकि वे मज़दूरों का ज़्यादा से ज़्यादा शोषण कर सकें। साथ में पेट्रोल-डीज़ल से लेकर विभिन्न वस्तुओं पर टैक्स बढ़ाकर जनता पर और अधिक बोझ डाला है, ताकि उससे हुई वसूली से पूँजीपतियों को छूटें दी जा सकें। बजट से एक दिन पहले देश की जनता को मूर्ख बनाते हुए आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट में कहा गया कि सरकार के चुस्त नेतृत्व में जल्द ही व्यवस्था कुलाँचे भरने लगेगी। पिछले पाँच साल में अर्थव्यवस्था की कमर तोड़कर भी लगातार झूठ बोलते रहने वाली सरकार से कोई और उम्मीद भी नहीं की जा सकती। और-तो-और, मोदी सरकार के पिछले प्रमुख आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रमण्यम ने भी कह दिया है कि पिछले पाँच साल में दिये गये जीडीपी के आँकड़ें बढ़ाचढ़ा कर पेश किये गये थे और असल जीडीपी 2.5 प्रतिशत कम हो सकती है।

मौजूदा मन्दी के गहराने के साथ उसी तरह का गम्भीर संकट बनने के लक्षण दिख रहे हैं, जिसे सबप्राइम संकट कहा जाता है, जिसके बाद अमेरिका में 2008 का भीषण वित्तीय संकट सामने आया था। मौजूदा मन्दी के केन्द्र में गै़र-बैंकीय वित्तीय कम्पनियों (एनबीएफ़सी) का संकट है। इस संकट की शुरुआत रियल स्टेट सेक्टर से हुई और कई गै़र-बैंकीय वित्तीय कम्पनियाँ जिन्होंने पिछले साल बिल्डरों को ऋण दिया था, वे दिवालिया हो रही हैं। पिछले साल आधारभूत उद्योगों को क़र्ज़ देने वाली ग़ैर-बैंकीय वित्तीय कम्पनी आईएल एण्ड एफ़एस  दिवालिया होने के क़गार पर पहुँच गयी। सरकार ने इस कम्पनी को दिवालिया होने से बचा लिया, परन्तु यह तो एक लक्षण था और सरकार ने इस लक्षण की दवाई दे दी। मगर बीमारी तो मौजूद रही। इस साल वित्तीय संकट पहले से अधिक विकराल रूप लेकर आया है। ज़्यादातर ग़ैर-बैंकीय वित्तीय कम्पनियों के स्टॉक औंधे मुँह गिर रहे हैं। रिलायंस कैपिटल से लेकर डीएचएफ़एल सरीखी कम्पनियाँ सभी संकट में हैं। यह किस कारण हुआ? पिछले कुछ सालों में जैसे ही कई बड़ी कम्पनियों के क़र्ज़ नॉन परफ़ॉरमिंग एसेट घोषित हुए, बैंकों द्वारा क़र्ज़ देना मुश्किल हो गया क्योंकि ऐसी एक-दो और बड़ी लेनदारी डूबती तो बैंक भी डूब सकते थे। देश के बैंकों का एनपीए दस लाख करोड़ के आँकडे को छू चुका है। ऐसे में तमाम रियल स्टेट वालों ने निर्माण कार्यों हेतु गै़र-बैंकीय वित्तीय कम्पनियों से क़र्ज़ लेना शुरू किया, क्योंकि वहाँ क्रेडिट हिस्ट्री ख़राब होने पर भी ऊँची ब्याज़ दरों पर क़र्ज़ मिल जाता है। ये कम्पनियाँ म्युचुअल फ़ण्ड, बैंक, बीमा कम्पनी आदि से उधार लेकर बिल्डरों को, छोटी कम्पनियों को और आम ग्राहकों को वाहन आदि के लिए बढ़ी हुई दरों पर क़र्ज़ देती हैं। ऋण लेना और उसे अधिक दर पर छोटे ऋण के रूप में बेच देना, इन कम्पनियों का यही काम है। उधर रियल स्टेट उद्योग में बिल्डरों के मकानों को ख़रीदार नहीं मिल रहे थे, परन्तु ऋण मिलता रहे इसके लिए क़ीमतें ऊँची ही रखी गयीं। रियल स्टेट में बढ़ी क़ीमतों द्वारा फुलाया गया यह गुब्बारा आख़‍िरकार फूट गया। बिक्री न होने के कारण ज़्यादातर बिल्डर लोन चुका पाने में असफल रहे और इस कारण ग़ैर-बैंकीय वित्तीय संस्थान भी अपने ऋणों को चुकाने में असफल हुए और इस क्रम में ये कम्पनियाँ औंधे मुँह गिरने लगीं। इन कम्पनियों से ऋण लेकर वाहन आदि की ख़रीदारी करने वाली आबादी का बड़ा हिस्सा भी आर्थिक संकट के चलते क़र्ज़ लेकर ख़रीदारी नहीं कर पा रहा है। ऐसे में, यह वित्तीय संकट अब पूरी अर्थव्यवस्था में फैल रहा है जो फ़िलहाल गहराती मन्दी के रूप में प्रकट हो रहा है। यह पूरी व्यवस्था के संकट में तब्दील होगा या सरकार इसे फ़िलहाल टालकर आने वाले समय में इससे भयंकर संकट को न्यौता देगी यह तो वक़्त ही बतायेगा, परन्तु इतना तय है कि आने वाले समय में भारत की अर्थव्यवस्था औंधे मुँह गिरने वाली है। हर संकट की तरह यह अतिउत्पादन का संकट है। लेकिन यह अतिउत्पादन भी सापेक्षिक अतिउत्पादन होता है व इसके पीछे मूल कारण मुनाफे़ की गिरती दर की प्रवृत्ति है, इस पर हम आगे विस्तार से बात करेंगे।

इस मन्दी के असल कारण तक पहुँचने से पहले जो बात हमें समझनी होगी वह यह है कि मन्दी और संकट का पूरा बोझ सरकार और पूँजीपति आम जनता और मज़दूरों पर डालते हैं। आज करोड़ों मज़दूर बेरोज़गार घूम रहे हैं। जो काम पर लगा है, चाहे वह ठेका मज़दूर हो या परमानेण्ट मज़दूर, उस पर भी छँटनी की तलवार लटकी हुई है। उधर गाँव में भी ग़रीब किसानों की हालत ख़राब है। सरकार से कोई उम्मीद पालना आज के दौर में मूर्खता ही होगी। यह सरकार पूँजीपतियों के लिए देश को लूटने के लिए ही सत्ता में पहुँची है। भाजपा को इस चुनाव में बड़े पूँजीपति घरानों ने जमकर पैसा दिया। इनकी बदौलत ही पूरे चुनाव के कुल 55 हज़ार करोड़ के ख़र्चे में अकेले भाजपा ने 27 हज़ार करोड़ रुपये ख़र्च किये। नयी सरकार ने आते ही हायर एण्ड फ़ायर की नीति को ‘मज़दूरों के हितों’ में लागू करने की बात कही और मालिकों को जब चाहे तब मज़दूरों को काम से निकालने की इजाज़त दे दी। इन्होंने ईएसआई के मद में पूँजीपतियों द्वारा दिये जाने वाले मद को 6.5 प्रतिशत से घटाकर 4 प्रतिशत कर दिया है। साफ़ है कि मज़दूरों को ख़ुद लड़कर ही अपने हितों की रक्षा करनी होगी। परन्तु इस लड़ाई का दीर्घकालिक और तात्कालिक लक्ष्य क्या हो इसे समझने के लिए हमें आर्थिक मन्दी के पीछे छिपे कारणों को समझना होगा जो कि सरकार व तमाम मीडिया संस्थानों की शब्दावली में कहीं खो जाता है। हमने ऊपर ज़िक्र किया कि जो संकट भारत की अर्थव्यवस्था पर मँडरा रहा है, वह अतिउत्पादन का संकट है। अतिउत्पादन संकट कैसे बन जाता है? जब लोग भूख से मर रहे हों, लोगों के पास रहने को घर न हो, पीने का पानी न हो तो अतिउत्पादन कैसे?

आर्थिक मन्दी के पीछे क्या कारण है?

मौजूदा मन्दी के पीछे सबसे बड़े कारण में गै़र-वित्तीय बैंकीय संस्थाओं का धराशायी होना है। लेकिन हमने ऊपर देखा कि यह रियल स्टेट में अतिउत्पादन के रूप में प्रकट हुआ है। मन्दी और वित्तीय संकट के पीछे कारण अतिउत्पादन है, परन्तु यह असल कारण नहीं है, असल कारण मुनाफे़ की दर का गिरना है। तो हमें यह समझना होगा कि मुनाफे़ की दर गिरने का क्या मतलब है और इस कारण अतिउत्पादन क्यों होता है और अन्त में इससे संकट कैसे पैदा होता है। इसे समझने के लिए उत्पादन की प्रक्रिया को समझना होगा।

पूँजीवाद में उत्पादन के साधनों और परिस्थितियों का मालिकाना पूँजीपति वर्ग के पास होता है और मज़दूर उजरत (मज़दूरी) के बदले पूँजीपति के यहाँ खटता है। हर फै़क्टरी मालिक उत्पादन के लिए पूँजी लगाता है जिसका एक हिस्सा मज़दूरी पर ख़र्च होता है तो दूसरा हिस्सा कच्चे माल, ईंधन और मशीनरी पर ख़र्च होता है। सभी फै़क्टरी मालिक एक-दूसरे के साथ मिलकर उत्पादन नहीं करते हैं बल्कि एक-दूसरे को खदेड़कर बाज़ार में अपना माल अधिक मुनाफ़े पर बेचना चाहते हैं। मुनाफ़ा यानी जितनी लागत है उससे ज़्यादा पर बिक्री होनी चाहिए। जैसा हमने ऊपर बताया कि माल उत्पादन में दो तरह की लागत होती है – पहली मज़दूरी और दूसरी कच्चे माल व मशीनरी आदि की। मज़दूर की मेहनत ही उत्पादित माल में बेशी मूल्य पैदा करती है। बाक़ी कच्चे माल और मशीनरी की घिसावट की लागत पक्के माल में ज्यों की त्यों स्थानान्तरित हो जाती है। पूँजीपति मज़दूर को उसकी मेहनत का भुगतान नहीं करता है, बल्कि बस इतना भुगतान करता है जिससे वह अपनी मेहनत करने की क्षमता (यानी श्रम शक्ति) के लिए ज़रूरी संसाधनों और आने वाली मज़दूर पीढ़ी को ज़िन्दा रखने लायक संसाधनों को ख़रीद सके। बाक़ी हिस्सा पूँजीपति अपनी जेब में रखता है। यह हिस्सा जो वह अपनी जेब में रखता है, वह बेशी मूल्य कहलाता है और इसी से पूँजीपति का मुनाफ़ा आता है। मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए उसे मज़दूर से अधिक बेशी मूल्य लूटना होगा। फै़क्टरी मालिक इसके लिए पहले तो मज़दूर के काम के घण्टे बढ़ाता है या काम की सघनता बढ़ाता है। परन्तु सभी पूँजीपति यही करते हैं और दिन में 24 घण्टे ही होते हैं, जिससे ज़्यादा मज़दूर को नहीं लूटा जा सकता है। श्रम की सघनता की भी एक सीमा होती है जिससे ज़्यादा मज़दूर को नहीं खटाया जा सकता है। इसलिए पूँजीपति मज़दूर  को लूटने के और भी तरीक़े निकालते हैं। मुनाफ़ा निचोड़ने के लिए उन्नत मशीनरी लगायी जाती है जिससे मज़दूर की उत्पादकता बढ़ जाती है। यानी पहले जितना काम करने में एक मज़दूर को 12 घण्टा लगता था अब उसे मज़दूर 2 घण्टे में ही कर लेता है। इस प्रकार उत्पादन की प्रक्रिया में अब एक मज़दूर पहले से ज़्यादा माल पैदा करता है। मशीनीकरण के कारण प्रति इकाई माल का मूल्य कम हो जाता है। परन्तु बाज़ार में इस माल की क़ीमत ज़्यादा होती है। यह पूँजीपति अपने माल को उन्नत मशीनरी के कारण उनके असल मूल्य से ज़्यादा में बेचता है मगर मज़दूर का वेतन नहीं बढ़ाता है। यहाँ वह पूँजीपति मज़दूर का अधिक शोषण करता है। परन्तु यह एक अस्थाई परिघटना है। एक पूँजीपति द्वारा मशीनीकरण अन्य मालिकों को भी मशीनीकरण करने पर मजबूर करता है। और यह प्रक्रिया लगातार सभी सेक्टरों में दोहरायी जाती है। इससे मज़दूर के बेशी मूल्य की लूट बन्द नहीं होती है बल्कि मशीनीकरण की वजह से जीने के लिए आवश्यक माल सस्ता होने की वजह से मज़दूर के आवश्यक श्रम काल का मूल्य भी घट जाता है व पूँजीपति के लिए कम मज़दूरी पर मज़दूर को लूटना सम्भव हो जाता है।

यहाँ आकर पूँजीवाद अपने ही अन्तरविरोध में उलझ जाता है। लगातार बढ़ते मशीनीकरण की वजह से मुनाफ़े की दर भी घटने लगती है। यह कैसे होता है? लागत पूँजी में जैसे-जैसे मशीनरी का हिस्सा बढ़ता जाता है, उसकी तुलना में कुल लागत में मज़दूरी की लागत घटती जाती है। इसी के साथ मुनाफ़े की दर गिरती चली जाती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मुनाफ़ा कच्चे माल या मशीन की लागत, जिसे मार्क्सवादी अर्थशास्त्र में स्थिर पूँजी कहते हैं, से नहीं बल्कि मज़दूर की मेहनत से पैदा होता है, क्योंकि पूँजीपति मज़दूर को उसकी मेहनत का मूल्य नहीं बल्कि केवल मेहनत करने की क्षमता का मूल्य देता है। मज़दूर की मेहनत ही होती है जो उत्पादित माल में बेशी मूल्य पैदा करती है बाक़ी कच्चे माल और मशीनरी की घिसावट की लागत पक्के माल में ज्यों की त्यों स्थानान्तरित होती है। पूँजीपति मज़दूर को केवल उतना भुगतान करता है जिससे कि मज़दूर मुश्किल से अपने जीवन की शर्तें पूरी कर पाये और बाक़ी हिस्सा अपनी जेब में रख लेता है। जैसा हमने ऊपर भी ज़िक्र किया, यह बाक़ी हिस्सा ही पूँजीपति का मुनाफ़ा बनता है। मज़दूर की मज़दूरी को मार्क्सवादी अर्थशास्त्र में परिवर्तनशील पूँजी कहते है क्योंकि यह उत्पादन की प्रक्रिया में परिवर्तित होकर बेशी मूल्य पैदा करती है। मुनाफ़े की दर इससे तय होती है कि कुल लागत में मज़दूरी से पैदा होने वाले बेशी मूल्य का प्रतिशत कितना है। मशीनीकरण बढ़ने से पूँजीपति मज़दूर से अधिक बेशी मूल्य लूटता है। परन्तु कुल लागत में मशीनीकरण व कच्चे माल आदि पर लगने वाली लागत यानी स्थिर पूँजी बेशी मूल्य के मुक़ाबले अधिक बढ़ती है। इसे गणितीय सूत्र में (बेशी मूल्य)*100/(स्थिर पूँजी + परिवर्तनशील पूँजी) के रूप में पेश किया जाता है। इस सूत्र से समझा जा सकता है कि अगर स्थिर पूँजी बेशी मूल्य के मुक़ाबले अधिक बढे़गी तो कुल मुनाफ़ा गिरेगा (हम यहाँ आसानी के लिए परिवर्तनशील पूँजी को अपरिवर्तित मानते हैं)। अत: मशीनीकरण से अन्तत: मुनाफे़ की दर गिरती है। उत्पादन को लगातार विस्तारित कर पूँजीपति कुल मुनाफे़ को बढ़ाने का प्रयास करता है। परन्तु यह करने की प्रक्रिया में अन्तत: फिर मुनाफे़ की दर गिर जाती है। पूँजीपति अपने मुनाफ़े को बचाने के प्रयास में मज़दूरों का शोषण बढ़ाते हैं। पूँजीपति मुनाफ़े को बचाने के लिए मज़दूर की आय भी कम करते हैं, छँटनी और तालाबन्दी शुरू होती है। परन्तु यह सब भी अन्तत: बेकार जाता है और कुल उत्पादन अधिक विस्तारित नहीं हो पाता है। इतना अधिक पैदा हो जाता है कि वह बेचा नहीं जा सकता है। पूरी व्यवस्था ही संकट के भँवर में उलझ जाती है। रियल स्टेट और गै़र-बैंकीय वित्तीय संस्थाओं से लेकर ऑटोमोबाइल सेक्टर तक मौजूदा दौर में यही हो रहा है। इसके पीछे व्यवस्था में अधिक लूटने के क्रम में मुनाफ़े की दर गिरते जाना है। मुनाफ़े की गिरती दर पूँजीवादी व्यवस्था का ऐसा नियम है जो इसे बार-बार संकट के मुहाने पर ला खड़ा करता है। इस बात से ऊपर उठाये प्रश्न का जवाब भी मिल जाता है कि इसे अतिउत्पादन क्यों कहें जबकि लोग भूखे हैं, बेघर हैं। बाज़ार में पड़ा हुआ माल नहीं बिकने का कारण यह नहीं होता कि लोगों को उसकी ज़रूरत नहीं है बल्कि इसलिए नहीं बिकता है क्योंकि यह मुनाफ़ा नहीं कमा सकता है। यह अतिउत्पादन इस अर्थ में सापेक्षित अतिउत्पादन होता है। इसका मूल कारण यह है कि पूँजीवाद में उत्पादन मुनाफे़ के लिए होता है, समाज की ज़रूरत पूरा करने के लिए नहीं। यह एक कुचक्र होता है, क्योंकि मज़दूर के काम करते रहने की शर्त ही उसे काम से बाहर निकाल देती है। मज़दूर जितना अधिक पैदा करता है, वही उसके और ‘न पैदा करने की’ परिस्थिति पैदा करता है। और इस प्रकार एक गोल चक्कर में मज़दूर फँसा रहता है। मौजूदा दौर में संकट और मन्दी का चक्र पहले से बिल्कुल अलग है। पहले मन्दी के बाद तेज़ी का दौर आता था जिसके बाद अचानक धड़ाम से होने वाली गिरावट संकट की घोषणा करती थी। परन्तु 1970 के दशक से तेज़ी का दौर नहीं आया है। पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था में एक मन्द-मन्द मन्दी हमेशा मौजूद रहती है जो बीच-बीच में गहरे आर्थिक संकट में तब्दील हो जाती है।

आर्थिक मन्दी और संकट के कुचक्र का समाधान मज़दूरों-मेहनतकशों की सत्ता है!

मज़दूरों के नेता और सिद्धान्तकार मार्क्स और एंगेल्स ने पूँजीवाद में पैदा होने वाले संकटों के बारे में लिखा था कि “इन संकटों के समय एक महामारी फट पड़ती है जो पिछले तमाम युगों में एक बिल्कुल बेतुकी बात समझी जाती – अर्थात अति उत्पादन की महामारी। समाज अचानक अपने को क्षणिक बर्बरता की अवस्था में लौटा हुआ पाता है; ऐसा लगता है कि जीवन-निर्वाह के तमाम साधनों को किसी अकाल या सर्वनाशी  विश्व-युद्ध ने एकबारगी ख़त्म कर दिया है; उद्योग और वाणिज्य नष्ट हो गये मालूम होते हैं। और यह सब क्यों? इसलिए कि समाज में सभ्यता का, जीवन निर्वाह के साधनों का, उद्योग और वाणिज्य का आधिक्य हो गया है।” (मार्क्स और एंगेल्स, कम्युनिस्ट घोषणापत्र)

दरअसल आर्थिक संकट जिस टकराव की उपज है और जो परदे के पीछे इस व्यवस्था में लगातार मौजूद रहता है वह अपने आप में मुनाफ़ा आधारित समाज का अन्तरविरोध है। सुई से लेकर जहाज़ तक मज़दूर वर्ग पैदा करता है, परन्तु जो कुछ भी पैदा होता है उस पर मालिकाना पूँजीपति का होता है। जैसे ऑटोमोबाइल सेक्टर में बन रही गाड़ियाँ या गारमेण्ट सेक्टर में बन रहे कपड़े, इन उद्योग के मालिकों के होते हैं और मज़दूर को पूँजीपति महज़ ज़िन्दा रहने योग्य वेतन देकर लूट को जारी रखता है। दूसरा यह उत्पादन भयंकर अराजकता को जन्म देता है, क्योंकि मुनाफ़ा कमाने के लिए सभी पूँजीपति गलाकाटू प्रतिस्पर्धा में उतरते हैं। एक तरफ़ फै़क्टरी में ज़बर्दस्त अनुशासन होता है तो पूरे समाज के पैमाने पर उत्पादन में अराजकता होती है। यह ऐसे कुचक्र को जन्म देती है, जिसे पूँजीवाद के दायरे में रहकर नहीं तोड़ा जा सकता है। इस कुचक्र को तोड़ने का एकमात्र तरीक़ा मुनाफ़ा आधारित समाज को ख़त्म कर एक ऐसी व्यवस्था की स्थापना है जिसमें पूरे उत्पादन का सामूहिक मालिकाना हो और लोगों की मेहनत के अनुसार बँटवारा हो। ऐसी व्यवस्था को हासिल करने का काम मौजूदा व्यवस्था का आमूलचूल परिवर्तन कर मज़दूरों-मेहनतकशों की सत्ता क़ायम करके ही हो सकता है।

इस दौर में तात्कालिक कार्यभार क्या है?

आमूलचूल परिवर्तन यानी क्रान्ति के लिए मज़दूरों को अपनी क्रान्तिकारी पार्टी के नेतृत्व में वर्ग के रूप में संगठित होना होगा। इस पार्टी को मज़दूरों के तात्कालिक मुद्दों पर संघर्ष छेड़कर और दीर्घकालिक मक़सद हासिल करने के लिए अभी से काम में जुट जाना होगा। आर्थिक संकट का बोझ हरहमेशा पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग पर डालता है और अगर मज़दूर वर्ग संगठित होकर संघर्ष न करे तो वह इस संकट के सबसे बुरे नतीजे भुगतता है। यह बेरोज़गारी और छमाही व दिहाड़ी पर मज़दूरों को खटाने व मज़दूरों के हर हक़ पर हमले के रूप में सामने आ रहा है। मज़दूरों की क्रान्तिकारी यूनियनें खड़ी करके ही इस चुनौती का सामना किया जा सकता है। आज मज़दूरों को पूरे सेक्टर में छोटी-छोटी वर्कशॉप से लेकर मदर कम्पनी तक में बिखरा दिया गया है जबकि सभी कम्पनियों में कार्यरत मज़दूरों की माँगें एक हैं। एक कम्पनी गेट में औसतन 20-30 मज़दूर हैं, इससे ज़ाहिर है कि एक फै़क्टरी का संघर्ष अकेले नहीं जीता जा सकता है। एक कम्पनी के मज़दूरों के ऊपर मालिकान के हमले के जवाब में सेक्टरगत आधार पर चक्का जाम करके ही मालिकों को झुकाया जा सकता है। दूसरा, हमें इलाक़ाई आधार पर यूनियनों में संगठित होना होगा क्योंकि एक इलाक़े की बस्तियों और लॉजों में रहने वाली व्यापक मज़दूर आबादी को संगठित कर पाना आज सम्भव है जो फै़क्टरी गेट पर मुश्किल है। इसका मक़सद फ़ैक्टरी गेट पर एकता क़ायम करना ही है। इसलिए हमें सेक्टरगत यूनियनों के साथ इलाक़ाई आधार पर भी यूनियनें बनानी होंगी। सेक्टरगत और इलाक़ाई एकता क़ायम करके ही हम ठेका प्रथा, श्रम क़ानूनों पर हमलों, यूनियन के अधिकार पर हमलों का जवाब दे सकते हैं। पिछले एक दशक में बैंगलोर की गारमेण्ट वर्करों की जीत, वज़ीरपुर और बादाम मज़दूरों के संघर्षों की सेक्टरगत और इलाक़ाई आधार पर क़ायम एकता के दम पर हासिल जीत और दूसरी तरफ़ कारख़ाना आधारित मारुति, होण्डा, ओमैक्स, हीरो से लेकर डाइकिन के आन्दोलनों के जुझारू संघर्षों के बावजूद उनकी हार, इस बात को दिखाती है कि केवल कारख़ाना आधारित संघर्ष के द्वारा जीतना बेहद मुश्किल हो गया है।

 

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2019


 

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