कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (सोलहवीं किश्त)
राज्य के नीति निदेशक सिद्धान्त: खोखले सिद्धान्त, नंगी सच्चाइयाँ

आनंद सिंह

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मूलभूत अधिकारों की चर्चा के दौरान हमने देखा कि भारतीय संविधान नागरिकों को एक इन्सानी ज़िन्दगी जीने के लिए ज़रूरी बेहद बुनियादी सामाजिक और आर्थिक अधिकारों तक की भी कोई गारण्टी नहीं देता। संविधान के भाग तीन में उल्लिखित मूलभूत अधिकारों का चरित्र मुख्यतः राजनीतिक है। सामाजिक और आर्थिक अधिकारों से जुड़े कुछ प्रावधान संविधान के भाग चार में (अनु. 36 से अनु. 51 तक) राज्य के नीति निदेशक सिद्धान्त शीर्षक के तहत मौजूद हैं। संविधान निर्माताओं को राज्य के नीति निदेशक सिद्धान्तों को संविधान में डालने की प्रेरणा आयरलैण्ड के संविधान से मिली थी। परन्तु इन सिद्धान्तों का खोखलापन इस बात से ही ज़ाहिर हो जाता है कि ये राज्य के लिए विधिक रूप से बाध्यताकारी नहीं हैं। संविधान के चौथे भाग में ही अनु. 37 में स्पष्ट रूप से यह लिखा है कि इस भाग में मौजूद प्रावधान किसी न्यायालय में प्रवर्तनीय नहीं होंगे। इन अधिकारों को लागू करवाने के लिए संविधान में न तो कोई समयसीमा लिखी है और न ही कोई ज़रिया। हालाँकि अनु. 37 में यह भी लिखा है कि ये सिद्धान्त देश के शासन में मूलभूत हैं और कानून बनाने में इन सिद्धान्तों को लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा, परन्तु संविधान इस बात पर मौन है कि यदि राज्य इस कर्तव्य से मुकर जाये (जैसा कि भारतीय राज्य बेशर्मी से मुकर चुका है), तो क्या किया जाये!

संविधान के निर्माता कहे जाने वाले डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर ने नीति निदेशक सिद्धान्तों पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि हालाँकि ये सिद्धान्त किसी अदालत में प्रवर्तनीय नहीं हैं, फिर भी ये महत्वपूर्ण इसलिए हैं क्योंकि ये जनता की अदालत में प्रवर्तनीय हैं। उनका यह सोचना था कि कोई भी सरकार इन सिद्धान्तों को दरकिनार नहीं कर सकती क्योंकि यदि वह ऐसा करेगी तो जनता अगले चुनावों में उसे गिरा देगी। स्पष्ट है कि बुर्जुआ लोकतन्त्र के बारे में अम्बेडकर इस गफ़लत के शिकार थे कि यह वास्तव में जनता का शासन होता है। संविधान लागू होने के 63 साल बाद भी आलम यह है कि इन नीति निदेशक सिद्धान्तों का पालन होना तो दूर, भारतीय राज्य इनसे पल्ला झाड़ रहा है। पिछले दो दशकों से जारी नव-उदारवादी नीतियों के दौर में, जिन पर कमोबेश सभी चुनावी पार्टियों की आम-सहमति है, तो ये सिद्धान्त और भी ज़्यादा खोखले और पाखण्डपूर्ण लगते जा रहे हैं।

आइये, अब इन नीति निदेशक सिद्धान्तों की तफ़सीलों में जाते हैं। संविधान के अनु. 39 में राज्य द्वारा अनुसरणीय कुछ नीति सिद्धान्त उल्लिखित हैं। इनमें अनु. 39(ख) और अनु. 39(ग) को सामाजिक और आर्थिक लोकतन्त्र स्थापित करने में सबसे अहम माना जाता है। अनु. 39(ख) कहता है कि राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करेगा कि समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियन्त्रण इस प्रकार बँटा हो जिससे सामूहिक हित का सर्वोत्तम रूप से साधन हो। अनु. 39(ग) कहता है कि आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन और उत्पादन-साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकेन्द्रण न हो। आइये, इन दो अहम नीति निदेशक सिद्धान्तों की रोशनी में भारतीय राज्य के प्रदर्शन की पड़ताल करें। संविधान लागू होने के छह दशक से भी ज़्यादा का समय बीत जाने पर भारत में ग़रीबों की संख्या अफ्रीका के 26 देशों को मिलाकर भी वहाँ के कुल ग़रीबों की संख्या से ज़्यादा है। दूसरी ओर धन पशुओं की संख्या में दुनिया में सबसे ज़्यादा तरक्की करने वाले देशों में भारत का नाम अग्रिम पंक्तियों में लिया जाता है। इससे तो यही साबित होता है कि भौतिक संसाधनों का स्वामित्व सामूहिक हितों की बजाय बस धनिकों के हितों में हो रहा है और धन तथा उत्पादन-साधनों का संकेन्द्रण हो रहा है। यही नहीं पिछले दो दशकों में यह संकेन्द्रण और भी तेजी से बढ़ा है। एक आँकड़े के मुताबिक नव-उदारवादी नीतियों के लागू होने के बाद से नीचे की दस फ़ीसदी आबादी और ऊपर की दस फ़ीसदी आबादी की आय के बीच का फ़र्क दो गुना बढ़ा है। हाल के दिनों में आयी कई रिपोर्टों में यह निर्विवाद रूप से सामने आया है कि आय में असमानता दर्शाने वाले गिनी गुणांक में वृद्धि हो रही है, यानी असमानता बढ़ रही है। ऐसे में यह स्पष्ट है कि नव-उदारवादी नीतियाँ नीति निदेशक सिद्धान्तों का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन कर रही हैं। परन्तु न सिर्फ़ सभी चुनावी पार्टियाँ बल्कि भारतीय बुर्जुआ लोकतन्त्र के अन्धकार भरे परिदृश्य में उम्मीद की आख़िरी किरण कही जाने वाली न्यायपालिका ने भी नव-उदारवादी नीतियों को बेशर्मी से बेरोकटोक आगे बढ़ाया है। ऐसे में क्या यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि ये सिद्धान्त धोखाधड़ी की मिसाल हैं?

आइये, अब आगे बढ़ते हैं। संविधान के अनु. 39 में सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन के अधिकार की बात भी कही गयी है। इस सिद्धान्त का दीवालियालापन इसी बात से ज़ाहिर हो जाता है कि संविधान लागू होने के छह दशक बाद भी देश के अलग-अलग हिस्सों में करोड़ों युवा रोज़गार की तलाश में दर-दर भटकते रहते हैं और बेराज़गारी की वजह से निराशा, हताशा और अवसाद के शिकार होते हैं। अनु. 39 में ही स्त्रियों और पुरुषों को समान काम के लिए समान वेतन के अधिकार का प्रावधान है। ज़मीनी हक़ीकत यह है कि स्त्रियों को किसी कारखाने में रखा ही इसलिए जाता है क्योंकि पुरुषों के मुकाबले उनकी श्रम शक्ति की कीमत कम देनी पड़ती है।

अनु. 39 में ही श्रमिकों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न करने की बात कही गयी है और ऐसी परिस्थिति बनाने की बात कही गयी है जिससे आर्थिक आवश्यकता से विवश होकर नागरिकों को ऐसे रोज़गार में न जाना पड़े जो उनकी आयु और शक्ति के अनुकूल न हो। इसके अतिरिक्त इसी अनुच्छेद में बालकों को स्वतन्त्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएँ देने की बात भी कही गयी है। यदि वास्तव में इन सिद्धान्तों का पालन हुआ होता तो निश्चय ही हमारा समाज एक मानवीय समाज होता। परन्तु जब हम भारतीय समाज में व्याप्त बेरोज़गारी और बाल मज़दूरी की परिघटना से रूबरू होते हैं तो ये सिद्धान्त एक क्रूर मज़ाक के समान चुभते हैं।

कहने को तो मज़दूरों के लिए और भी प्रावधान नीति निदेशक सिद्धान्तों के रूप में मौजूद हैं। मसलन, काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं और प्रसूति सहायता का प्रावधान (अनु. 42), निर्वाह मज़दूरी का प्रावधान (अनु. 43) और उद्योगों के प्रबन्ध में मज़दूरों के भाग लेने का प्रावधान (अनु. 43 (क))। परन्तु श्रम के बढ़ते हुए अनौपचारीकरण और ठेकाकरण के इस युग में ये सभी प्रावधान बेमानी हैं। इन प्रावधानों के संविधान में होने या न होने से एक आम मज़दूर की ज़िन्दगी में कोई फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि पूँजी रूपी डायन रोज़ाना उसका खून चूसती ही जा रही है।

एक अन्य अहम नीति निदेशक सिद्धान्त अनु. 47 में मौजूद है जिसके अनुसार राज्य का यह प्राथमिक कर्तव्य है कि वह अपने लोगों के पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने और लोक स्वास्थ्य को सुधारने का प्रयास करेगा। भारतीय राज्य पिछले छह दशकों में अपने इस प्राथमिक कर्तव्य का पालन करने में पूरी तरह से विफ़ल रहा है। यह इसी बात से ज़ाहिर हो जाता है कि अभी भी इस देश में लगभग 47 फ़ीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और आधी से ज़्यादा महिलाएँ कुपोषण की शिकार हैं। जहाँ एक ओर अमीरों के लिए सुपर स्पेशिएलिटी अस्पताल बन रहे हैं जिनमें इलाज करवाने के लिए दुनिया भर से लोगों को मेडिकल टूरिज़्म के नाम पर न्योता दिया जाता है, वहीं ग़रीब और उनके बच्चे हैजा, काला अजार, जापानी बुखार, मलेरिया, डेंगू जैसी बीमारियों से रोज़ाना दम तोड़ते रहते हैं क्योंकि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा जर्जर हो चुकी हैं और दवा कम्पनियों के मुनाफ़े की हवस के चलते दवाइयों के दाम आसमान छूते जा रहे हैं। चिकित्सा सेवा पूरी तरह से एक ऐसे माल में तब्दील हो चुकी है जो आम मेहनतकश जनता की पहुँच से बाहर है। ऐसे में, जब यह दिन के उजाले की तरह साफ़ है कि राज्य अपने प्राथमिक कर्तव्य का पालन कर पाने में पूरी तरह फिसड्डी साबित हुआ है, संविधान भारतीय नागरिकों को क्या उपचार प्रदान करता है? इसका जवाब है – कुछ भी नहीं!

एक अन्य महत्वपूर्ण नीति निदेशक सिद्धान्त अनु. 44 में मौजूद है जिसमें कहा गया है कि राज्य भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा। परन्तु विडम्बना यह है कि पिछले छह दशकों में यह प्रयास शुरू तक नहीं किया गया है। राज्य की इस निष्क्रियता का ख़ामियाजा पिछले छह दशकों से अल्पसंख्यक वर्ग की महिलाओं को भुगतना पड़ रहा है क्योंकि विवाह, तलाक, सम्पत्ति हस्तान्तरण, गोद लेने जैसे मसलों पर अभी भी पर्सनल लॉ के अनुसार निर्णय लिया जाता है जो घोर महिला विरोधी हैं।

कुछ सालों पहले जब छह से चौदह वर्ष की आयु तक के बच्चों की शिक्षा को मूलभूत अधिकार का दर्ज़ा दिया गया था तो शासक वर्ग के नुमाइन्दों ने मीडिया में खूब प्रचारित किया कि वह एक क्रान्तिकारी कदम था और उसके द्वारा उन्होंने राज्य के नीति निदेशक सिद्धान्तों पर अमल किया। परन्तु संविधान के अनु. 45 में राज्य को संविधान लागू होने से दस वर्ष की अवधि के भीतर सभी बालकों को चौदह वर्ष की आयु पूरा होने तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए प्रावधान बनाने की ज़िम्मेदारी दी गयी थी। भारतीय राज्य ने न सिर्फ़ इस ज़िम्मेदारी को पूरा करने में आधी सदी की देरी की बल्कि जब पूरी भी की तो आधे-अधूरे ढंग से क्योंकि नीति निदेशक सिद्धान्तों में चौदह वर्ष तक के सभी बच्चों की शिक्षा की भी बात की गयी जबकि संविधान के संशोधन के द्वारा 6-14 वर्ष तक के बच्चों तक की शिक्षा का ही प्रावधान किया गया है।

इनके अतिरिक्त, नीति निदेशक सिद्धान्तों में कुछ गाँधीवादी सिद्धान्त भी हैं जो गाँधी के ग्राम स्वराज्य के यूटोपिया से प्रेरित हैं। पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों के क़ायम रहते हुए ग्राम स्वराज्य कल्पना की दुनिया से उतरकर जमीनी यथार्थ में तब्दील हो ही नहीं सकता। यह इन सिद्धान्तों के लागू होने की प्रक्रिया से साफ़ समझ में आ जाता है। मसलन अनु. 40 को ही लें जिसमें राज्य को ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठाने के लिए और उनको ऐसी शक्तियाँ और प्राधिकार प्रदान करने के लिए कहा गया है जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हों। संविधान लागू होने के चार दशकों के अन्तराल तक तो गाँधी का यह सपना संविधान के मोटे पोथे में दफ़न ही रहा। 1993 में 73वें संविधान संशोधन के द्वारा इस सपने को पुनर्जीवित करने की क़वायद शुरू की गयी। परन्तु इन चार दशकों में पूँजीवाद की गंगा में काफ़ी पानी बह चुका था क्योंकि तब तक पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्ध स्पष्ट रूप से स्थापित हो चुके थे। ऐसे में यह अचरज की बात नहीं है कि गाँधी का पंचायती राज का सपना भारतीय पूँजीवादी लोकतन्त्र के ढाँचे में श्रम की लूट में ग्रामीण बुर्जुआ और कुलकों की हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए पंचायतों के रूप में एक नये स्तर के निर्माण करने की क़वायद में तब्दील हो चुका है।

राज्य के नीति निदेशक सिद्धान्तों को बाध्यताकारी न बनाने के पीछे संविधान निर्माताओं का तर्क यह था कि जब संविधान बनाया जा रहा था उस वक़्त भारतीय राज्य के पास इतने संसाधन नहीं थे कि वह इन सामाजिक और आर्थिक अधिकारों को सुनिश्चित कर सके। अव्वलन तो यह तर्क अपने आप में युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि आज़ादी के बाद ज़मीदारों, राजे-रजवाड़ों, नवाबों की सम्पत्ति जब्त करके तथा धनिकों पर भारी कर लगाकर संसाधन जुटाये जा सकते थे। परन्तु कुछ देर के लिए यदि इस तर्क को स्वीकार भी कर लिया जाये तो फ़िर अगला तार्किक सवाल यह उठता है राज्य को इतना सक्षम होने में कितना वक़्त लगेगा कि वह इन सिद्धान्तों को लागू कर सके। इस सवाल पर संविधान मौन है। छह दशक से भी ज़्यादा वक़्त गुज़र जाने के बाद आलम यह है कि गाड़ी आगे बढ़ने की बजाय उल्टी दिशा में निकल चुकी है।

दरअसल ये नीति निदेशक सिद्धान्त कल्याणकारी बुर्जुआ राज्य की कीन्सियाई अवधारणा पर आधारित थे और अब जब पूरे विश्व में पूँजीवाद कल्याणकारी राज्य के लबादे से छुटकारा पाना चाह रहा है, तो ऐसे सिद्धान्तों का उनके लिए भी कोई मतलब नहीं रह गया है। हाँ, यह ज़रूर है कि संविधान में इन सिद्धान्तों की मौजूदगी से इस अमानवीय व्यवस्था के वीभत्स रूप पर पर्दा डालने में मदद मिलती है। इन सिद्धान्तों के ज़रिये शासक वर्ग और उसके टुकड़ों पर पलने वाले बुद्धिजीवी, जनता के बीच यह भ्रम पैदा करते हैं कि भले ही आज जनता को तमाम दिक्कतों और तकलीफ़ों का सामना करना पड़ रहा है, लेकिन धीरे-धीरे करके ये सिद्धान्त लागू किये जायेंगे जिनसे जनता की सारी समस्याओं का हल निकल आयेगा। इसलिए, जनता को इन सिद्धान्तों के भ्रमजाल से बाहर निकालना आज के दौर में क्रान्तिकारी आन्दोलन के प्रमुख कार्यभारों में से एक है।

 

मज़दूर बिगुलफरवरी  2013

 


 

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