मारुति मज़दूरों के आन्दोलन को जीत के लिए अपनी ताक़त पर भरोसा करना ही होगा!

अभिनव

आज मारुति सुज़ुकी का हर आन्दोलनरत मज़दूर यह जानता है कि हरियाणा सरकार का हरेक मन्त्री, हरेक नेता और विधायक मारुति सुज़ुकी कम्पनी के दलाल के तौर पर काम कर रहा है। पिछले कुछ महीनों से मारुति सुज़ुकी वर्कर्स यूनियन के नेतृत्व में मज़दूर बिना थके एक दरवाज़े से दूसरे दरवाज़े का चक्कर लगाते रहे हैं। कभी उद्योग मन्त्री रणदीप सुरजेवाला, तो कभी श्रम मन्त्री शिवचरण वर्मा तो कभी खेल मन्त्री और कभी गुड़गांव के डिप्टी कमिश्नर के यहाँ माँगों की सुनवाई के लिए मारुति मज़दूर लगातार जाते रहे। लेकिन क्या हासिल हुआ? कहना चाहिए कि इन नेताओं और नौकरशाहों ने कोई ढंग का आश्वासन तक नहीं दिया। कुछ ने तो साफ़ कह दिया कि हरियाणा के लड़के ज़्यादा टेढ़े हैं, और अब उन्हें हरियाणा में उद्योगों में भर्ती नहीं किया जायेगा! कुछ ने यह कहा कि मुख्यमन्त्री भूपिन्दर हूडा बहुत नाराज़ हो गये हैं और अब तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता। अभी 27 जनवरी को रोहतक में हुए जुटान के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि हूडा भी हमारी माँगों को लेकर सहमत नहीं है। पहले उसने यूनियन के साथियों को 13 फ़रवरी को बात करने का वक़्त दिया। अब उसे आगे खिसकाकर 21 फ़रवरी कर दिया गया है। जाहिर है कि हरियाणा सरकार यह समझ रही है कि मज़दूरों को इन्तज़ार करवा-करवाकर थकाया जा सकता है। हरियाणा सरकार को यह लगता है कि अगर गुड़गांव, रोहतक आदि में मारुति सुज़ुकी के मज़दूर इंसाफ़ के लिए कोई प्रदर्शन या धरना शुरू करते हैं, तो उन्हें वहाँ से उजाड़ दिया जायेगा, और जब तक वे एक नेता के दरवाज़े से दूसरे नेता के दरवाज़े़ तक ‘‘लोकतान्त्रिक तरीक़े से’’ (जैसा कि केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के नेतागण मारुति सुज़ुकी वर्कर्स यूनियन को सलाह देते हैं) चक्कर लगाते रहते हैं, तब तक कोई नुकसान नहीं हैं। हूडा भी जानता है कि एक दिन इस प्रक्रिया में मज़दूर थक जायेंगे।

maruti suzuki workers

मारुति सुज़ुकी वर्कर्स यूनियन का संघर्ष अब जिस मंज़िल पर खड़ा है, उसमें या तो इसे फैसलाकुन तरीक़े से आगे जाना होगा, अन्यथा आन्दोलन में सक्रिय आबादी थकान का शिकार होती जायेगी। पिछले चार महीने से, यानी नवम्बर से मज़दूर हर माह दो से तीन बार कभी यहाँ तो कभी वहाँ एकदिनी प्रदर्शन कर रहे हैं। जाहिर है कि इन प्रदर्शनों से हमें अभी तक कुछ भी हासिल नहीं हो पाया है, और आगे भी ऐसे प्रदर्शनों से अब शायद ही कुछ हासिल हो। ऐसे प्रदर्शनों से कुछ हासिल होना तो दूर, एम.एस.डब्ल्यू.यू. के एक प्रमुख नेता ईमान ख़ान को ऐसे ही एक प्रदर्शन के पहले गुड़गांव के एक केन्द्रीय ट्रेड यूनियन से जुड़ी यूनियन के दफ़्तर से हरियाणा पुलिस ने धोखा देकर गिरफ़्तार कर लिया और उन पर भी वही धाराएँ लगा दीं, जो कि 18 जुलाई की घटना के बाद गिरफ़्तार किये गये मज़दूरों पर लगायी गयी थीं। इसलिए एक बात साफ़ है: हरियाणा की हूडा सरकार ने हरियाणा के भीतर मज़दूरों के ख़िलाफ़ जो आतंक राज क़ायम कर रखा है, उसमें हरियाणा के भीतर वह मारुति सुज़ुकी वर्कर्स यूनियन और आन्दोलनरत मज़दूरों को कोई बड़ा डेरा या जुटान नहीं डालने देगी। वह जानती है कि पूरे हरियाणा और खास तौर पर गुड़गांव-मानेसर-धारूहेड़ा के औद्योगिक बेल्ट में मज़दूर जिन हालात में काम कर रहे हैं और जी रहे हैं, उसमें विद्रोह और आन्दोलन की आग उन तक भी पहुँच सकती हैं। इसलिए हरियाणा का प्रशासन अब हरियाणा में एक मन्त्री से दूसरे मन्त्री के घर चक्कर लगाते हुए थकने की इजाज़त तो देगा, लेकिन अगर मारुति सुज़ुकी के मज़दूर किसी निर्णायक संघर्ष के रास्ते पर उतरकर हरियाणा में कहीं अपना अनिश्चितकालीन धरना या भूख हड़ताल शुरू करते हैं, तो ऐसे किसी भी प्रदर्शन को हटवाने और उजाड़ने के लिए हरियाणा सरकार हर सम्भव कदम उठायेगी। दूसरी बात, जो कि अब हरेक मज़दूर के सामने बिल्कुल साफ़ हो चुकी है, वह यह है कि एक दिन के रस्मी प्रदर्शनों से अब हमारे संघर्ष को कुछ हासिल नहीं हो रहा है, और हम बस थक रहे हैं। यही सरकार भी चाहती है और यही उनकी दलाली करने वाले केन्द्रीय ट्रेड यूनियन वाले भी चाहते हैं। जिस चीज़ को ये केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें बार-बार “तरीक़े से काम करना” कहती हैं, वह यही है कि एक दरवाज़े से दूसरे दरवाज़े पर चक्कर लगाते-लगाते थक जाओ! लेकिन हमें इस “तरीक़े” पर चलने से अब कुछ नहीं मिलने वाला है। तीसरी बात, जो हमारे विचार में स्पष्ट है कि निर्णायक संघर्ष तो अब शुरू करना ही पड़ेगा, अन्यथा अब संघर्ष पीछे जायेगा। हम बार-बार कहते आये हैं कि अब वक़्त आ गया है कि हम किसी एक जगह पर खूँटा गाड़कर बैठ जायें और अपने अनिश्चितकालीन धरने की शुरुआत सामान्य भूख हड़ताल से करते हुए उसे क्रमिक भूख हड़ताल, अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल और फिर अगर ज़रूरत पड़ती है, तो उसे आमरण अनशन या मज़दूर सत्याग्रह तक ले जाया जाये। और हमारा स्पष्ट मानना है कि अगर हम ऐसे किसी कार्यक्रम के ज़रिये सरकार पर दबाव बनाना चाहते हैं, और उसे बातचीत की टेबल पर आने और हमारी माँगों पर विचार करने के लिए मजबूर करना चाहते हैं, तो हमारे इस कार्यक्रम की जगह हरियाणा नहीं बल्कि दिल्ली होनी चाहिए। हरियाणा में अगर हम ऐसा कोई लम्बा और निर्णायक कार्यक्रम शुरू करते हैं, तो सरकार की पहली प्रतिक्रिया उसे उजाड़ने आदि की होगा। लेकिन यह चीज़ दिल्ली में नहीं हो सकती है। दूसरी बात यह कि दिल्ली में अगर मारुति सुज़ुकी के मज़दूर ऐसा कोई कार्यक्रम शुरू करते हैं, तो उसे मीडिया की कवरेज़ ज़्यादा अच्छे तरीक़े से मिलेगी। ऐसा होने पर सरकार पर भारी दबाव पैदा होगा। ऐसे दबाव के ज़रिये ही हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि सरकार को अपनी माँगों पर सोचने के लिए बाध्य किया जाये।

आखि़री बात, जो ग़ौर करने वाली है वह यह है कि, अब वह समय आ गया है जब एम.एस.डब्ल्यू.यू. के नेतृत्व के साथी यूनियन के भीतर एक नया प्राण-संचार करने के लिए यूनियन के भीतर एक जनतान्त्रिक, पारदर्शी और स्पष्ट निर्णय प्रक्रिया को स्थापित करें। अभी संघर्ष की योजना की ज़िम्मेदारी बनाने, उसे लागू करने और तमाम अन्य फैसलों की ज़िम्मेदारी महज़ नेतृत्व के कुछ साथियों को उठानी पड़ती है। इसमें जनरल बॉडी का कोई विशेष योगदान नहीं रहता है। हमें लगता है कि इससे जनरल बॉडी धीरे-धीरे राजनीतिक तौर पर निष्क्रिय और पैस्सिव होती जायेगी। ऐसे में, पूरी जनरल बॉडी को संघर्ष में जैविक तौर पर शामिल करने के लिए यह ज़रूरी है कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में सभी को शामिल किया जाये और उनकी राजनीतिक सक्रियता को फिर से पुनर्जीवित किया जाये। इसके लिए पखवारे पर (15 दिन पर) जनरल बॉडी मीटिंग बुलाकर सभी प्रस्तावों पर विचार करना बेहतर रहता। अब शायद उसके लिए वक़्त न मिले। लेकिन अभी भी संघर्ष के आगे के फैसलों के लिए ऐसी मीटिंग में ही राय-मशविरा हो और फिर निर्णय लिया जाये, इससे बेहतर कोई तरीक़ा नहीं हो सकता। इसका एक कारण और भी है। जिस भी आन्दोलन में नेतृत्व के साथियों पर ही निर्णय लेने और उसे लागू करवाने का सारा बोझ डाल दिया जाता है, उसमें यदि सफलता मिली तो जय-जयकार होती है, और यदि असफलता मिली तो वह महज़ चन्द व्यक्तियों की ज़िम्मेदारी बन जाती है। और उसके बाद दोषारोपण और प्रतिदोषारोपणों का दौर शुरू हो जाता है। ऐसी किसी भी कुरूप प्रक्रिया के शुरू होने से सभी मज़दूर साथियों के बीच एक निराशा फैलती है। संघर्ष के हारे जाने से कभी इतनी निराशा नहीं फैलती जितना कि मज़दूरों के बीच के आपसी संगठन के टूटने से फैलती है। यह आन्तरिक संगठन जो कि एम.एस.डब्ल्यू.यू. ने अब तक प्रशंसनीय रूप से क़ायम रखा है, वह टूटना नहीं चाहिए और इसके लिए ज़रूरी है कि यूनियन के नेतृत्व में चल रहे इस आन्दोलन की समूची राजनीतिक प्रक्रिया को जनवादी और पारदर्शी बना दिया जाये। इससे जीत की ज़िम्मेदारी भी सभी की होगी और हार की ज़िम्मेदारी भी सभी की। नेतृत्व की ज़िम्मेदारी समन्वय, संचालन और मार्गदर्शन करने की होनी चाहिए न कि पीर से लेकर भिश्ती तक सभी कामों को करने की। ऐसे में जनता की पहलकदमी समाप्त हो जाती है, और जीत मिलने पर ‘बल्ले-बल्ले’ होती है और हार मिलने पर ‘थल्ले-थल्ले’। यह एक सही राजनीतिक मज़दूर आन्दोलन की निशानी नहीं होती। ऐसा तो केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के आन्दोलनों में होता है। हमारा मज़दूर आन्दोलन एक प्रगतिशील और क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन है। और इसमें हमारी पूरी प्रक्रिया जनवादी और पारदर्शी होनी चाहिए। आन्दोलन को आगे कैसे चलाना है, इसे कहाँ तक ले जाना है, इसके फैसले में सभी मज़दूरों की भागीदारी होने से ही आगे का रास्ता स्पष्ट होगा और सभी उस पर दृढ़संकल्प होकर आगे बढ़ेंगे। ऐसे फैसले लेते समय सभी सहयोगी संगठनों के प्रतिनिधियों को बुलाकर जनरल बॉडी मीटिंग में उनकी राय और सुझावों को भी सुना जाना चाहिए और उसके बाद यूनियन की जनरल बॉडी को निर्णय लेना चाहिए कि उसे क्या करना है।

अन्त में, हम एक बार फिर इस बात पर ज़ोर देना चाहेंगे कि मारुति सुज़ुकी वर्कर्स यूनियन और सभी आन्दोलनरत साथियों को अपनी ताक़त पर भरोसा करना चाहिए। किसी बड़ी केन्द्रीय ट्रेड यूनियन के नेतृत्व, जिसकी पुलिस अधिकारियों और नेताओं-मन्त्रियों तक पहुँच है, उनके दाँव-पेंच से आज तक कोई भी संघर्ष नहीं जीता गया है। संघर्ष मज़दूरों ने हमेशा अपनी ताक़त पर भरोसा करके जीता है। इस संघर्ष को विद्वान व्यक्तियों द्वारा कानाफूसी करके दी जाने वाली सलाहों से भी नहीं जीता जा सकता है। जिसके पास संघर्ष का वाकई कोई रास्ता होता है, और वह उस पर भरोसा करता है, वह अपनी बात को पूरे ज़ोर के साथ सदन और सभा के बीच कहता है। बन्द कमरों में कानों के भीतर खुसफुसाता नहीं है। इसलिए ऐसे विद्वान लोगों से भी सावधान रहना चाहिए। एम.एस.डब्ल्यू.यू. और इस पूरे आन्दोलन को अपनी ताक़त पर भरोसा करते हुए अपने डेरे के लिए मारुति सुज़ुकी के सभी बर्ख़ास्‍त मज़दूरों और गिरफ़्तार मज़दूरों के परिवारों को गोलबन्द करना चाहिए और एक जगह अंगद की तरह पाँव जमा देना चाहिए। वह जगह कौन-सी हो, हरियाणा या दिल्ली, इसका फैसला भी जनरल बॉडी में जनवादी और पारदर्शी तरीक़े से होना चाहिए। अगर मारुति सुज़ुकी के आन्दोलनरत मज़दूर अपनी ताक़त पर भरोसा करते हुए सही जगह सही वक़्त पर खूँटा गाड़ देंगे, तो केन्द्रीय ट्रेड यूनियन से लेकर सभी ताक़तें खींझकर अन्ततः आपके साथ खड़ी होंगी। आपको यह समझना चाहिए कि वह आपके विरुद्ध नहीं जा सकती हैं, या तो वे तटस्थ होंगी या आपके साथ आयेंगी। अभी भी तो उनकी भूमिका कोई बहुत अलग नहीं है! ऐसे में, अगर आप निर्णायक संघर्ष का रास्ता चुनते हैं और एक जगह डेरा डालकर अपना सत्याग्रह शुरू कर देते हैं, तो इससे आप खोने क्या जा रहे हैं? कुछ भी नहीं! इसलिए अपनी ताक़त पर भरोसा करने की ज़रूरत है और आगे बढ़ने की ज़रूरत है। हमें यह समझना होगा कि रस्म अदायगी करने के लिए हमारे पास बहुत समय नहीं बाकी है। देशव्यापी प्रदर्शनों की बहुत अहमियत होती है क्योंकि वे मज़दूरों में एक हौसला और वर्ग एकता का अहसास पैदा करते हैं। लेकिन उसका भी सही वक़्त होता है। हम कम-से-कम इस समय देशव्यापी प्रदर्शनों के चक्कर में पड़कर मुम्बई, बरेली, के चक्कर काटने के लिए अपने साथियों को नहीं भेज सकते; यह ऊर्जा का अपव्यय होगा। इस समय अपने मुख्य कार्य पर ज़ोर देना चाहिए। अगर हम एक जगह डेरा डालेंगे तो उसके पक्ष में देश भर में प्रदर्शन होने का कोई अर्थ है। लेकिन हम स्वयं अपनी ताक़त पर भरोसा करके एक जगह खूँटा गाड़कर नहीं बैठते, तो फिर देश भर के अलग-अलग शहरों में 50-100 लोगों के इकट्ठा हो जाने से क्या हासिल होगा? इससे भी तभी कुछ हासिल होगा जब हमारी मुख्य शक्ति एक जगह पर अपने सत्याग्रह का डेरा डाल दे। तब देश भर के अलग-अलग हिस्सों में भी प्रदर्शन होने चाहिए और तब इसका भारी फ़ायदा भी संघर्ष को मिलेगा। लेकिन इस मुख्य काम के बिना ऐसे प्रदर्शन भी रस्म अदायगी और कवायद बनकर रह जायेंगे। इसलिए अब इस चीज़ को हम जितनी जल्दी समझेंगे, हमारे संघर्ष का जो भी फैसला होना है, उतनी जल्दी होगा। और अगर हम सही वक़्त पर सही योजना के साथ निर्णायक हो गये, तो कौन जानता है, कि हम अपना संघर्ष जीत ही जायें, या कम-से-कम आंशिक तौर पर जीत जायें। लेकिन इसके लिए बिना देर किये फैसला लेने और अपनी ताक़त पर भरोसा करने की ज़रूरत है, और हम जानते हैं कि एम.एस.डब्ल्यू.यू. इस काम को अंजाम देने में सक्षम है।

 

मज़दूर बिगुलफरवरी  2013

 


 

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