दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन के पंजीकरण और मन्दी से घबराये मालिकों और दलालों द्वारा यूनियन के ख़िलाफ़ अफ़वाहें फैलाने की मुहिम
हड़ताल के बाद की परिस्थिति और मालिकों और दलालों का यूनियन विरोधी प्रचार अभियान

2015-01-08-Wazirpur-5वज़ीरपुर में विगत 24 दिसम्बर को दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन पंजीकृत हो गयी। मज़दूरों की यूनियन के पंजीकरण को मालिकों और दलालों ने पंजीकृत होने से रोकने की भी ख़ूब कोशिशें कीं। यूनियन को इलाक़े में भी तमाम हमलों का सामना करना पड़ा है। फ़ैक्टरी मालिक और उनके दलालों की वजह से ही लम्बे समय से यूनियन को कार्यालय के लिए इलाक़े में झुग्गी मालिक कमरा देने को तैयार नहीं है। अन्ततः स्वयं मज़दूरों ने ही यूनियन के आधिकारिक कार्यालय का इन्तज़ाम किया। मालिकान द्वारा तमाम बाधाएँ पैदा करने के बावजूद यूनियन पंजीकृत हो गयी है।

नतीजतन, मालिकों ने मज़दूरों में इस बीच तबीयत से अफ़वाह फैलाने का प्रयास किया है। बाज़ार में लम्बे समय से चीन का माल आ रहा है जोकि वज़ीरपुर की स्थानीय फ़ैक्टरियों के लिए चुनौती है। वज़ीरपुर में फ़ैक्टरियाँ एक-दूसरे पर निर्भर हैं। पहले स्टील की लम्बी पत्तियों को कटर छोटे पीस में काटता है जो गर्म रोला मिल में फैलकर चपटी पत्तल बन जाती है। यही पत्तल फिर तेज़ाब की फ़ैक्टरी जाती है। और फिर तेज़ाब से फुड़ाई (ठंडा रोला) की मशीन पर जाती है। इस तरह ही गरम रोला से तेज़ाब, तपाई और फुड़ाई व तैयारी से गुज़रकर स्टील की पत्तल को पॉवर प्रेस और उसके बाद पॉलिश के लिए भेजा जाता है। एक फ़ैक्टरी से दूसरी फ़ैक्टरी में माल ढोने का काम रिक्शा मज़दूर करते हैं। चीन का माल सीधे बड़ी मशीनों से बनकर आता है। यह सीधे पावर प्रेस और पोलिश के लिए इस्तेमाल हो सकता है। यही कारण है कि चीन के माल से वज़ीरपुर की फ़ैक्टरियों के बडे़ हिस्से को प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है।

2015-01-08-Wazirpur-86 जून से हुई मज़दूरों की हड़ताल ने वज़ीरपुर की फ़ैक्टरियों के इस क्रम को तोड़ दिया और गरम रोला की हड़ताल ने सीधे ठंडा, तेज़ाब और तपाई पर असर डाला। इस बीच चीन का माल और बादली की फ़ैक्टरियों से माल जमकर इलाक़े में आता रहा। हड़ताल ख़त्म होने पर मालिकों को उम्मीद थी कि फ़ैक्टरी में तेज़ गति से माल निकलेगा। परन्तु चीन से आ रहा माल इतना सस्ता था कि पावर प्रेस और पोलिश के मालिकों ने चीन का माल वज़ीरपुर के गरम रोला के माल से ज़्यादा फ़ायदेमन्द समझा। यह इलाक़े में मन्दी का सबसे बड़ा कारण है। यह गरम और ठंडा के मालिकों को पहले से ही पता था। क्योंकि ये लोग हड़ताल के पहले से ही सरकार पर दबाव बनवा रहे थे कि सरकार चीन के माल पर आयात कर बढ़ा दे और इस साल के बजट ने मालिकों की सरकार के फ़ायदे का क़दम उठाया और चीनी स्टील के आयात कर में बढ़ोतरी कर दी। परन्तु इतना भी काफ़ी नहीं था, क्योंकि चीनी मालिकों ने बाज़ार में टिके रहने के लिए अपने माल की क़ीमतें और गिरा दीं। मालिक सरकार से गुहार लगाते रहे कि चीन का माल बन्द करवा दिया जाये या उस पर और अधिक कर लगा दिया जाये। ऐसा ही पत्र लेकर वज़ीरपुर के तमाम मालिकों ने अरुण जेटली से भी रहम की भीख माँगी थी। मोदी सरकार मालिकों की सरकार ज़रूर है पर यह बड़े मालिकों की सरकार है। वज़ीरपुर के मालिक छोटे मालिक हैं। मोदी सरकार के लिए अपने देश के बड़े पूँजीपतियों का ख़याल रखना सबसे ज़रूरी है। क्योंकि ऐसी नीति जिसमें सरकार विदेशी माल पर अधिक कर लगाती है, भारत में हो रहे निवेश पर बट्टा लगा सकती है और दुनियाभर में घूम-घूमकर निवेश की माँग कर रहे मोदी ऐसा क़दम कैसे उठा सकते थे? और तो और ख़ुद कई ऐसे बड़े मालिक हैं जिनका माल ख़ुद चीन जाता है। ऐसे में, यदि यहाँ के मालिक चीनी माल पर प्रतिबन्ध लगाने या अधिक कर व शुल्क लगाने की वकालत करते हैं, तो उन्हें इस बात के लिए भी तैयार रहना पड़ेगा कि चीनी व अन्य विदेशी बाज़ारों के दरवाज़े उनके लिए बन्द हो जायेंगे। इसके अलावा, यहाँ के छोटे मालिक न सिर्फ़ विदेशी माल से प्रतिस्पर्द्धा झेल रहे हैं, बल्कि देशी बड़ी पूँजी भी उनके लिए अस्तित्व का संकट पैदा कर रही है। इसलिए वास्तव में मामला देशी और विदेशी पूँजी का नहीं बल्कि बड़ी और छोटी पूँजी का है। दिल्ली का इस्पात उद्योग जिस संकट का शिकार है, वह वही संकट है जोकि छोटी पूँजी को पूँजीवाद के तहत झेलना पड़ता है। निश्चित तौर पर, इस्पात उद्योग बन्द नहीं होगा। लेकिन इसमें ढाँचागत परिवर्तन आ सकते हैं और मालिक वर्ग के संघटन में कुछ बदलाव भी आ सकता है।

मालिकों द्वारा फैलायी जा रही अफ़वाहें

हड़ताल के बाद बदली परिस्थितियों और यूनियन के बढ़ते क़दम को देखते हुए मालिकों ने तमाम क़िस्म की अफ़वाहें फैलायीं। कम चेतना वाले मज़दूरों में इसका एक हद तक असर भी पड़ा। सबसे पहले तो मालिकों ने कहा कि हड़ताल की वजह से चीन का माल वज़ीरपुर आया है और यूनियन भी चीन का माल लाना चाहती है। अगर यह सच है तो जे-के- बंसल (ए-72 का मालिक और मालिकों का नेता) से लेकर वज़ीरपुर के तमाम मालिक क्यों इस देश की सरकार के आगे नतमस्तक हो रहे थे कि वह चीन के माल पर प्रतिबन्ध या कर लगाये? और क्या जूता-चप्पल, छाता, मोबाइल, पानी, झोले, टीवी, रिक्शा, साइकिल से लेकर जो भी चीनी माल भारत में पिछले कई सालों से आ रहा है उसके लिए भी 6 जून 2014 की हड़ताल और उसके बाद बनी यूनियन ज़िम्मेदार है? यूनियन की मज़दूरों में पकड़ के कारण जब ये अफ़वाहें बेअसर-सी दिखायी दीं तो मालिकों ने एक और शिगूफ़ा छोड़ा कि अगर यूनियन चाहे तो इलाक़े में चीन से माल आने को रोक सकती है। मालिकों ने यूनियन के लोगों के सामने यह प्रस्ताव तक रख दिया कि मालिकों और मज़दूरों को चीन के माल के भारतीय बाज़ार में आने के ख़िलाफ़ संयुक्त प्रदर्शन करना चाहिए!

हम मज़दूरों को समझ लेना चाहिए कि वज़ीरपुर का छोटा मालिक जो संकट झेल रहा है, आज की पूँजीवादी व्यवस्था में उससे बचा ही नहीं जा सकता। पूँजीवाद का नियम होता है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है। अगर छोटे मालिक और ठेकेदार पूँजीवादी मुनाफ़े के खेल को खेलने को तैयार हैं, तो अब रो क्यों रहे हैं? वे चाहते हैं कि उनके माल को विदेशी बाज़ार में मुफ्त एण्ट्री मिले, लेकिन उनके अपने बाज़ार में किसी विदेशी माल को न घुसने दिया जाये? वैसे भी अगर वज़ीरपुर के छोटे मालिकों को कोई बड़ी पूँजी वाला ख़रीद लेता है, तो इससे हम मज़दूरों पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला है। हमें चाहे छोटा मालिक लूटे या बड़ा मालिक लूटे, हमें तो लड़ना ही है! हम छोटे मालिक के दुख से क्यों जज़्बाती हों? उसने हमारे लिए क्या किया है? जब हमने मोदी सरकार द्वारा श्रम क़ानूनों में ‘सुधार’ के ख़िलाफ़ जन्तर-मन्तर पर प्रदर्शन किया था, तो क्या वज़ीरपुर का गरम रोला या ठण्डा रोला का मालिक हमारे साथ आया था? जब हम श्रम क़ानूनों को लागू करने की माँग कर रहे थे तो क्या इन मालिकों और ठेकेदारों ने हमारी माँग मानी थी? जब हमारे भाई इनके कारख़ानों में होने वाली दुर्घटनाओं में मरते हैं तो क्या ये हमें क़ानूनी मुआवज़ा देते हैं? क्या हमारी मज़दूरी में से काटा जाने वाला ईएसआई-पीएफ़ हमें दिया जाता है? तो फिर इन छोटे मालिकों और बड़े मालिकों की आपसी प्रतिस्पर्द्धा में हम छोटे मालिकों के मोहरे क्यों बनें? बात जैसे को तैसा की नहीं है बल्कि इसकी वजह यह है कि हमारी बुनियादी माँगों पर ये मालिक हमें नौकरी से निकालने को तैयार रहते हैं और अपने हित साधने के लिए अब हमारी ताक़तवर यूनियन का इस्तेमाल करना चाहते हैं।

जैसाकि हमने दिखलाया है, पूँजीवाद का नियम ही है कि इसमें बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। किसी सेक्टर में मशीनीकरण या आधुनिक मशीनों से लैस फ़ैक्टरियों द्वारा बाज़ार से छोटी मशीनों और छोटे मालिकों को तबाह करना इस व्यवस्था की नैसर्गिक गति है। हालाँकि फ़ौरी तौर पर इससे उथल-पुथल मचती है परन्तु इसके बावजूद यह मज़दूरों की वर्ग चेतना को बढ़ाती है। भले ही काम छोटे कारख़ानों में न होकर जिंदल स्टील में हो, इससे मज़दूरों को कोई नफ़ा-नुक़सान नहीं है। बल्कि, दूरगामी तौर पर यह मज़दूर वर्ग के लिए आगे बढ़ा हुआ क़दम है। अक्सर मशीनीकरण को मज़दूर अपना दुश्मन समझते हैं। मशीनीकरण असल में तो एक मज़दूर के काम को आसान बनाता है। उदाहरण के तौर पर अगर मान लिया जाये कि पहले एक फ़ैक्टरी में 100 मज़दूर 12 घण्टे में 20 टन माल निकालते थे तो मशीनीकरण के बाद उस फ़ैक्टरी में वही 100 मज़दूर 6 घण्टे में 20 टन माल निकालेंगे। परन्तु मुनाफ़े की व्यवस्था में मालिक मज़दूरों की छँटनी कर देता है और 50 मज़दूरों से ही 12 घण्टे काम करवाता है। दोष मशीनों का नहीं है, बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था का है। जिस व्यवस्था के केन्द्र में निजी मुनाफ़ा होगा, उसमें मशीनीकरण से मज़दूरों को सहूलियत और राहत मिलने की बजाय बेकारी मिलती है। जब तक मज़दूरों का राज क़ायम नहीं होता है, तब तक मशीनीकरण से मज़दूर तबाह होगा। परन्तु यही बेकारी मज़दूरों को राजनीतिक तौर पर सचेत बनाती है और उन्हें यह भी समझने में मदद करती है कि हमारा असल दुश्मन एक मालिक नहीं या मशीन नहीं, बल्कि यह मुनाफ़ा-आधारित व्यवस्था है।

 

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2015


 

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