भारतीय न्यायपालिका का जर्जर होता चरित्र
अपूर्व मालवीय
पिछले कुछ सालों के दौरान भारतीय न्यायपालिका के अलग-अलग हिस्सों से विवादित बयान और फ़ैसले लगातार आते रहे हैं। इन विवादित बयानों और फ़ैसलों का चरित्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से बहुत बदला है। इन बयानों में जजों द्वारा सार्वजनिक मंचों से घोर साम्प्रदायिक बयान देने से लेकर, स्त्री-विरोधी पितृसत्तात्मक मूल्यों को स्थापित करने वाले फ़ैसले देना, दंगाइयों-बलात्कारियों को रिहा करना तक शामिल है! वहीं दूसरी तरफ़ इन दस-ग्यारह सालों में सामाजिक-राजनीतिक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को बिना किसी सबूत के वर्षों तक जेल में बन्द रखने का भी कीर्तिमान भारतीय न्यायपालिका द्वारा बनाया गया है।
वैसे तो मोदी के सत्ता में आने से पहले भी जजों द्वारा विवादित बयान और फ़ैसले आते रहे हैं लेकिन उन बयानों और फ़ैसलों का चरित्र साम्प्रदायिक हिन्दुत्ववादी किस्म का शायद ही रहा हो! दूसरे ऐसे बयानों और फ़ैसलों की बारम्बारता इन दस-ग्यारह वर्षों में जैसी बढ़ी है वैसे उसके पहले कभी नहीं थी।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस शेखर यादव विश्व हिन्दू परिषद की लीगल सेल के कार्यक्रम में खुले मंच से यह कहते हैं, “मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि यह भारत है और यह देश यहाँ रहने वाले बहुसंख्यकों की इच्छा से चलेगा।” राजस्थान हाईकोर्ट के जज महेश चन्द्र शर्मा ने अपने एक फ़ैसले में गाय को ‘राष्ट्रीय पशु’ घोषित करने और गो-हत्या के लिए आजीवन कारावास का प्रावधान करने की सिफारिश की! इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज संजय कुमार ने रेप पीड़िता को ही “खुद मुसीबत मोल लेने का ज़िम्मेदार” ठहराते हुए बलात्कारी को ज़मानत दे दी! कर्नाटक हाईकोर्ट के जस्टिस वेदव्यासाचार्य श्रीशानंद एक वीडियो में बेंगलुरु की एक मुस्लिम बहुल इलाके को “पाकिस्तान” कहते नज़र आए! जस्टिस राम मनोहर नारायण मिश्र ने एक फ़ैसले में बच्ची के निजी अंग को पकड़ना और उसके पायजामे के नाडे को तोड़ने को दुष्कर्म की कोशिश न मानते हुए आरोपी को दुष्कर्म के प्रयास की धारा से मुक्त कर दिया! इसी तरह का एक फ़ैसला महाराष्ट्र की एक महिला जज द्वारा आया था कि “जब तक त्वचा का त्वचा से स्पर्श न हो तब तक उसे दुष्कर्म नहीं कहा जा सकता है!” पुणे के जज ने केस की सुनवाई के दौरान एक महिला को सम्बोधित करते हुए कहा, “मैं देख सकता हूँ कि आपने मंगलसूत्र और बिन्दी नहीं पहनी है। अगर आप एक विवाहित महिला की तरह व्यवहार नहीं करती हैं, तो आपका पति आपमें कोई दिलचस्पी क्यों दिखायेगा?” इसी तरह मद्रास और गुवाहाटी उच्च न्यायालयों के कुछ फ़ैसलों में उन पुरुषों को तलाक़ लेने का वाज़िब कारण बताया है जिनकी पत्नियों ने मंगलसूत्र और सिन्दूर जैसे पारम्परिक विवाह के प्रतीक पहनने से इनकार कर दिया था!” ये कुछ चन्द उदाहरण हैं जो भारतीय न्यायपालिका के फ़ैसलों और बयानों के घोर साम्प्रदायिक और स्त्री-विरोधी पितृसत्तात्मक मूल्यों को पुष्ट करते हैं।
दूसरी तरफ़ तमाम बेगुनाह बुद्धिजीवियों, राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं को बिना किसी सबूत के वर्षों तक जेल में रखा गया है। उमर खालिद, गुलफ़िशा फ़ातिमा, शरजील इमाम, आनन्द तेलतुंबडे, फॉदर स्टैन स्वामी के बरक्स राम रहीम, येति नरसिंहानंद, प्रज्ञा ठाकुर, कुलदीप सिंह सेंगर जैसे बलात्कारी-अपराधी बेख़ौफ़ अपराधों को अंजाम दे रहे हैं! सबूत होने के बावजूद बिना किसी सज़ा के या ज़मानत पर खुले आम घूम रहे हैं! जी एन साईंबाबा और फॉदर स्टैन स्वामी के मामले में न्यायपालिका ने अपना बेहद क्रूर चेहरा दिखाया है। अल्जाइमर से पीड़ित 85 वर्ष के स्टैन स्वामी को बीमारी में बेहद बुनियादी सुविधाओं तक से वंचित रखा गया। साईंबाबा को बॉम्बे हाईकोर्ट के दो जजों द्वारा सभी आरोपों से बरी किये जाने के बाद जस्टिस एम आर शाह ने रातोंरात सुनवाई करके उन्हें वापस जेल भिजवा दिया! धारा 370 हटने से लेकर तमाम सबूतों को दरकिनार करते हुए राम जन्मभूमि मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के सभी जजों द्वारा एकराय से लिए गये फ़ैसले ये बताते हैं कि भारतीय न्यायपालिका का चरित्र किस हद तक फ़ासीवादी राज्यसत्ता के वैचारिक-राजनीतिक प्रोजेक्ट के अनुसार ढलता जा रहा है।
न्यायपालिका के चरित्र में आये बदलाव को भारतीय राज्यसत्ता के चरित्र में आये बदलाव से समझा जा सकता है। किसी भी पूँजीवादी व्यवस्था में क़ानून और न्यायालय कुल मिलाकर पूँजीपति वर्ग और व्यवस्था के हितों के अनुरूप ही काम करते हैं। न्यायपालिका व्यवस्था के व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए पूँजीपतियों के आपसी विवाद निपटाती है और कई बार समूचे पूँजीपति वर्ग और उसकी राज्यसत्ता के व्यापक व दूरगामी हितों को देखते हुए किसी एक या कुछ पूँजीपति घरानों को नियन्त्रित करने का भी काम करती है। कई बार ऐसा भी होता है कि व्यापक जन-असन्तोष से सत्ता को बचाने के लिए न्यायपालिका कुछ श्रम अधिकारों एवं जनवादी अधिकारों के पक्ष में भी फैसले देती है। लेकिन श्रम और पूँजी के हर विवाद में, शासक वर्ग और आम जनता के बीच के हर विवाद में उसकी भूमिका मूलतः एक ऐसे “पंच” की होती है जिसकी पक्षधरता हर हमेशा पूँजी के पक्ष में, यानी सत्ताधारी वर्ग और उसकी व्यवस्था के पक्ष में होती है।
किसी भी देश में पूँजीवादी संकट के गहराने के साथ ही जैसे-जैसे पूँजीवादी जनवाद का स्पेस सिकुड़ता चला जाता है, वैसे-वैसे न्यायपालिका की “निष्पक्षता” का नकाब उतरता चला जाता है। बुर्जुआ राज्यसत्ता जब किसी तरह की बोनापार्टिस्ट किस्म की निरंकुश सत्ता, सैनिक तानाशाही या फ़ासीवादी सत्ता का स्वरूप ग्रहण कर लेती है तो न्यायपालिका सीधे-सीधे सरकारों के निर्देशों पर चलती हुई अपनी सापेक्षिक स्वायत्तता को खो देती है और उसका यह चरित्र जनता की नज़रों में भी काफ़ी हद तक साफ़ हो जाता है। लेकिन इस मामले में फ़ासीवादी सत्ता का व्यवहार बुर्जुआ शासन के अन्य किसी भी आपवादिक निरंकुश रूप से भिन्न होता है। फ़ासीवादी शक्तियाँ अत्यन्त व्यवस्थित ढंग से न्यायपालिका के फ़ासीवादीकरण के काम को नीचे से ऊपर तक अंजाम देती हैं और बार एवं बेंच में अपने कुशल सिपहसालारों को घुसाने का काम करती हैं। भारतीय न्यायपालिका में फ़ासीवादी घुसपैठ की बात तो आज तमाम अधिवक्ताओं, विधिवक्ताओं से लेकर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के कई रिटायर्ड जज तक कर रहे हैं।
यूँ तो 1990 के दशक से ही भाजपा शासित राज्यों की निचली अदालतों और उच्च न्यायलयों में हिन्दुत्ववादी विचारों को खुलेआम प्रकट करने वाले और संघी फ़ासीवादियों के पक्ष में फैसले देने वाले घुर-दक्षिणपन्थी न्यायाधीशों के उदाहरण मिलते रहे हैं लेकिन विशेषकर 2014 के बाद से उच्चतम न्यायालय तक के फैसलों और जजों के आचरण से न्यायपालिका की “निष्पक्षता” का मिथक पूरीतरह से ध्वस्त हो गया है और आज जिस न्यायपालिका को हम देख रहे हैं, उसे अगर हिन्दुत्ववादी न्यायपालिका कहा जाये तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2025
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