हिंसा-अहिंसा के मिथक-यथार्थ और संगठित हिंसा के विविध रूप

शशिप्रकाश

समाज में बढ़ती हिंसा का सामाजिक संरचना से क्या रिश्ता है? इसे समझने के लिए हिंसा और अहिंसा के सवाल पर थोड़े व्यापक संदर्भो में चर्चा जरूरी है।
दार्शनिक-वैचारिक स्तर पर हिंसा रक्तपात का समानार्थी शब्द नहीं है। किसी भी प्रकार के दबाव या बल-प्रयोग को हिंसा की श्रेणी में रखा जा सकता है। सत्य का आग्रह (सत्याग्रह) भी यदि हृदय-परिवर्तन या नैतिक विवशता पैदा करने के बजाय भौतिक, विवशता पैदा करता है तो उसमें हिंसा अंतर्निहित है। अंग्रेजों ने भारत नैतिक विवशता या हृदयपरिवर्तन के कारण नहीं, बल्कि ठोस भौतिक विवशता के कारण छोड़ा था, अहिंसा की जो गांधी की अवधारणा थी, स्वयं वे भी उसकी कसौटी पर खरे नहीं उतरते थे। गांधीवादी आंदोलन ने (और साथ ही तमाम जनसंघर्षों ने तथा वस्तुगत परिस्थितियों ने) अंग्रेजों को विवश किया, न कि उनका हृदय-परिवर्तन किया। सभी ऐतिहासिक-सामाजिक परिवर्तनों में, प्रत्यक्ष या परोक्ष हिंसा की, हेराल्ड लास्की के शब्दों में, हिंसा या हिंसा के तथ्य’ की भूमिका रही है। शासक वर्ग ने जनसंघर्ष के दबाव के बिना कभी भी सत्ता नहीं छोड़ी है। पुराण कथाओं में भी तपस्या, वैराग्य और हृदय-परिवर्तन के प्रसंग केवल व्यक्तिगत मुक्ति के संदर्भ में ही आते हैं। सामाजिक स्तर पर न्याय-अन्याय के बीच के फैसले निर्णायक हिंसात्मक संघर्षों से ही होते दिखते हैं।
समस्या तब पैदा होती है, जब व्यक्तिगत हिंसा और भीड़ की हिंसा तथा सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर संगठित हिंसा के बीच फर्क नहीं किया जाता। व्यक्तिगत हिंसा प्रतिक्रियात्मक होती है या रुग्ण सामाजिक परिवेश की देन होती है। भीड़ की हिंसा भी प्राय: अंध प्रतिक्रिया या सामाजिक परिवेश में व्याप्त निराशा-निरुपायता की विस्फोटक अभिव्यक्ति होती है। भीड़ की हिंसा का सुनियोजित-संगठित इस्तेमाल कई बार अपने निहित राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए फासीवादी या अन्य धुर प्रतिक्रियावादी ताकतें करती हैं। सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर संगठित हिंसा एक सर्वथा अलग चीज है और मुख्यतः इसके दो रूप होते हैं।

संरचनागत हिंसा

सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर संगठित हिंसा का सर्वोपरि रूप अपने आप में राज्य सत्ता है। यह शासन करने वाले लोगों की शासितों के खिलाफ हिंसा या बल-प्रयोग का केंद्रीय उपकरण है, शासक वर्ग की हिंसा का मूर्त रूप है। बुर्जुआ राज्य सत्ता इन अर्थों में सर्वाधिक परिष्कृत होती है। अपने सांस्कृतिक-वैचारिक उपकरणों से बुर्जुआ वर्ग जन समुदाय को तैयार करता है कि वह शासन करने के उसके विशेषाधिकार को स्वीकार करे। यही वर्चस्व (हेजेमनी) की राजनीति है। पर जनता के प्रतिरोधों का निर्णायक तौर पर दमन बल-प्रयोग या हिंसा के द्वारा ही किया जाता है। लेकिन राज्य सत्ता की संगठित हिंसा को मात्र यही एक रूप नहीं होता। समाज के तृणमूल स्तर तक राज्य सत्ता के जिन अंगोंउपांगों की पहुंच होती है, उनके नित्य प्रति के कार्य-व्यापार में हिंसा का तथ्य अंतर्निहित होता है। जिलाधिकारी से बी.डी.ओ. तक, पुलिस अधीक्षक से दारोगा तक, पूरी नौकरशाही रोजमरे का काम भय और बल-प्रयोग का सहारा लिये बिना पूरा ही नहीं कर सकती। सरकार से लेकर गांव के प्रधान तक पर भी यही बात लागू होती है। यानी बात केवल जनसंघर्षों के दमन और ‘आर्म्‍ड फोर्सेज (स्पेशल पॉवर्स) एक्ट’ जैसे काले कानूनों की ही नहीं है। बुर्जुआ राज्य-मशीनरी की रोजमरे की कार्रवाई में हिंसा अनिवार्यतः निहित होती है। इसे बुर्जुआ राज्य सत्ता की संरचनागत हिंसा (स्ट्रक्चरल वाइलेंस) कहा जा सकता है। इससे अलग पूंजीवादी सामाजिक-आर्थिक ढांचे की संरचनागत हिंसा की चर्चा भी जरूरी है।
एक अध्ययन के अनुसार भारत की ऊपर की दस प्रतिशत आबादी के पास कुल परिसंपत्ति का 15 प्रतिशत इकट्ठा हो गया है, जबकि नीचे की 60 प्रतिशत आबादी के पास मात्र दो प्रतिशत है। ऊपर की तीन प्रतिशत आबादी और नीचे की 40 प्रतिशत आबादी की आमदनी के बीच का अंतर आज 60 गुना हो चुका है। देश के 0.01 प्रतिशत ऐसे लोग हैं, जिनकी आमदनी पूरे देश की औसत आमदनी से दो सौ गुना अधिक है। दूसरी ओर, अर्जुन सेनगुप्ता कमीशन के अनुसार देश के 77 प्रतिशत लोग रोजाना
20 रुपए से भी कम पर गुजर करते हैं। 11 करोड़ लोग झुग्गियों में रहते हैं और 11 करोड़ फुटपाथों पर सोते हैं। 35 करोड़ लोग अल्पपोषण के शिकार हैं, जिन्हें प्रायः भूखे पेट सोना पड़ता है। 75 प्रतिशत मांओं को भरपेट भोजन नहीं मिलता। आधे भारतीय बच्चे कुपोषण से और 60 प्रतिशत रक्ताल्पता से ग्रस्त हैं। देश की सारी तरक्की का फल 1 अरब 20 करोड़ की आबादी में से ऊपर के 20-25 करोड़ लोगों तक ही पहुंच पाता है। इस विपन्न देश का 75 लाख करोड़ रुपए का काला धन स्विस बैंकों में जमा है। नेताओं के भ्रष्टाचार और विलासिता की कोई सीमा नहीं है। ऐसे तथ्यों से पन्ने के पन्ने रंगे जा सकते हैं। ये सभी तथ्य और आंकड़े पूंजीवादी सामाजिक आर्थिक ढांचे में अंतर्निहित संरचनागत हिंसा की उस प्रक्रिया को दर्शाते हैं, जो दिन-रात निरंतर जारी रहती है।
संरचनागत हिंसा का एक और रूप है, जो सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों-मान्यताओं-संस्थाओं के ताने-बाने में गुंथा-बुना होता है। इसके सर्वाधिक प्रातिनिधिक उदाहरण के तौर पर स्त्री उत्पीड़न और दलित उत्पीड़न को लिया जा सकता है। इन मूल्यों-मान्यताओं-संस्थाओं को किसी आमूलगामी सर्वतोमुखी सामाजिक परिवर्तन का वेगवाही झंझावात ही तबाह कर सकता है। बुर्जुआ राज्य सत्ता जब बलपूर्वक यथास्थिति को बनाए रखती है तो प्रकारांतर से वह इन प्रतिगामी मूल्यों-मान्यताओं-संस्थाओं की संरचनागत हिंसा की निरंतरता को भी बनाए रखती है (भले ही प्रकट तौर पर वह इनके विरोध में कानून बनाती है)।।
अत: कहा जा सकता है, कि संगठित हिंसा का सर्वोच्च रूप, बलप्रयोग का सर्वाधिक संगठित उपकरण बुर्जुआ राज्य सत्ता होता है। जनता को लगातार बताया जाता है कि राजकीय हिंसा, हिंस न भवति’ और राज्य सत्ता की संगठित हिंसा के प्रत्यक्ष एवं संरचनागत रूपों को दृष्टि-ओझल कर दिया जाता है।
राज्य सत्ता की संगठित हिंसा की प्रतिरोधी प्रतिकारी शक्ति क्रांतिकारी संगठित हिंसा होती है। अतीत के दास विद्रोहों और किसान विद्रोहों पर भी यह बात किसी हद तक लागू होती है। अमेरिका और फ्रांस की महान बुर्जुआ जनवादी जनक्रांतियों ने अपनी लक्ष्य प्राप्ति के लिए बड़े पैमाने पर संगठित क्रांतिकारी हिंसा का सहारा लिया था। बीसवीं शताब्दी के सभी राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों में क्रांतिकारी हिंसा या बल-प्रयोग की प्रत्यक्ष या परोक्ष भूमिका थी। बुर्जुआ राज्य सत्ता की संगठित हिंसा इतिहास में सर्वाधिक संगठित है और इसका प्रतिकार जनसमुदाय अपनी सारी शक्तियों को व्यापकतम स्तर पर, कुशलतम ढंग से और सूक्ष्मतम रूपों में संगठित करके ही कर सकता है। जनता द्वारा संगठित क्रांतिकारी, हिंसा या बल प्रयोग का सहारा लेना एक ऐतिहासिक अनिवार्यता होती है। जनता द्वारा बल-प्रयोग राज्य सत्ता द्वारा बल-प्रयोग का प्रतिकार होता है। बल द्वारा स्थापित एवं बल द्वारा संचालित सत्ता को बल द्वारा ही विस्थापित किया जा सकता है। यह गति का ऐतिहासिक नियम है, किसी व्यक्ति की इच्छा नहीं।

पूंजीवादी जनवाद में भी हिंसा

हिंसा की परिभाषा यदि बल-प्रयोग के रूप में करें तो इतिहास में नए युग, नई सामाजिक व्यवस्था और नई सभ्यता-संस्कृति के जन्म की प्रक्रिया में बल की भूमिका हमेशा से प्रसव कराने वाली दाई की और लालन-पालन करने वाले धाय की रही है। यह एक मिथ्या प्रचार है कि क्रांतिकारी हिंसा की बात केवल मार्क्सवादी करते हैं। पूंजीवादी जनवाद के सिद्धांतों को अमेरिका और फ्रांस की महान क्रांतियों सहित यूरोप की जिन क्रांतियों ने मूर्त रूप दिया, वे गृहयुद्धों और बलात् सत्ता-परिवर्तन से भरी हुई थीं। इन क्रांतियों को बुर्जुआ सिद्धांतकार भी महान बतलाते हैं, लेकिन हिंसा की अनिवार्यता पर बल देने का आरोप मार्क्सवादियों पर लगा देते हैं। क्रांतिकारी हिंसा की अनिवार्यता को बुर्जुआ क्रांतियों के महानायकों ने भी समझा था। मार्क्सवाद केवल इतिहास की इस गति का व्यापक संदर्भो में सूत्रीकरण करता है।
समस्या तब खड़ी होती है, जब आतंकवाद और क्रांतिकारी हिंसा के बीच के अंतर को नहीं समझा जाता। मार्क्सवाद के जन्म के पहले से ही, इतिहास में ऐसे क्रांतिकारी मौजूद थे, जिनका विश्वास जन क्रांतियों में नहीं था और जो मानते थे कि थोड़े से चेतना-संपन्न क्रांतिकारी हथियार उठाकरे, षडयंत्र और आतंक के द्वारा, व्यवस्थापरिवर्तन का लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं। फ्रांसीसी क्रांतिकारी और कल्पनावादी कम्युनिस्ट लुई ओग्यूस्त ब्लांकी इस धारा का अग्रणी प्रतिनिधि था। रूसी अराजकतावादी बकूनिन के विचार भी इसी धारा के निकट थे। उन्नीसवीं शताब्दी के नौवें दशक में रूसी नरोदवादी आंदोलन की एक धारा (नरोदनाया वोल्या) ने उदारपंथी सुधारवाद का विरोध करते हुए राजनीतिक संघर्ष की आवश्यकता पर बल दिया, लेकिन अपने मध्यवर्गीय नजरिए के कारण वह षडयंत्र और व्यक्तिगत आतंक को ही राजनीतिक संघर्ष का पर्याय मान बैठी। मार्क्स-एंगेल्स और लेनिन ने जनक्रांतियों में अंतर्निहित संगठित क्रांतिकारी हिंसा के तथ्य को तो स्वीकार किया, लेकिन आतंकवादी हिंसा को उन्होंने हमेशा ही विरोध किया तथा उसे निरर्थक एवं हानिकारक बताया। इसके बावजूद, कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर समय-समय पर कभी सुधारवादी भटकाव, तो कभी आतंकवादी भटकाव विभिन्न रूपों में सिर उठाते रहे हैं। कम्युनिस्ट आंदोलन के भीतर से पैदा होने वाले आतंकवादी भटकाव को ‘वामपंथी दुस्साहसंवाद भी कहा जाता है। | क्रांतिकारी आतंकवाद एक मध्यवर्गीय क्रांतिकारी प्रवृत्ति है। पूंजीवाद के दबाव से त्रस्त मध्यवर्ग का विद्रोही हिस्सा व्यवस्था परिवर्तन तो चाहता है, लेकिन उत्पादनप्रक्रिया से प्रत्यक्ष जुड़ाव नहीं होने के कारण उत्पादक मेहनतकश वर्गों की सामूहिक चेतना की जागृति, लामबंदी और सक्रियता में उसका भरोसा नहीं होता। फलतः वह व्यापक जनसमुदाय को जागृत करने के बजाय, तुरत-फुरत क्रांति कर डालने की उद्विग्नता में गुप्त हथियारबंद दस्तों की सशस्त्र कार्रवाइयों और षडयंत्रों का रास्ता अपनाता है। वह व्यापक जनता की तैयारी के बिना, अपने बूते पर जनमुक्ति की लड़ाई लड़ने निकल पड़ता है। वह सोचता है कि हथियारबंद कार्रवाइयों से उत्साहित होकर जनता उठ खड़ी होगी। क्रांतिकारी आतंकवादी हिंसा भी संगठित हिंसा होती है, पर वह मुट्ठी भर लोगों की हिंसा होती है, न कि व्यापक जनसमुदाय द्वारा संचालित हिंसा। व्यापक जनता जब अपनी आर्थिक मांगों और राजनीतिक अधिकारों के लिए संगठित होकर आंदोलनों में उतरती है, उस समय से ही वह शोषकों के विरुद्ध अपनी सामूहिक शक्ति के दबाव और बल-प्रयोग का इस्तेमाल करती हैं। यानी हिंसा का तथ्य हर जनांदोलन में अंतर्निहित होता है। इन आंदोलनों के विरुद्ध आतंक, मुकदमे, लाठीगोली आदि के रूप में राज्य सत्ता संगठित राजकीय हिंसा का इस्तेमाल करती है। संगठित जनशक्ति इसका विविध रूपों में बल-प्रयोग (धरनाप्रदर्शन, टैक्सबंदी, असहयोग, हड़ताल आदि) द्वारा प्रतिकार करती है। यह इतिहास का स्वयंसिद्ध तथ्य है कि निर्णय वर्ग शक्तियों के खुले-उग्र टकराव के सामरिक संघर्ष में रूपांतरण के बाद ही होता रहा है। इनका रूप गृहयुद्ध और जनविद्रोह का भी होता रहा है और दीर्घकालिक लोकयुद्धों का भी, या फिर दोनों का मिला-जुला भी। कई बार व्यापक जनविद्रोह की आसन्नता को देखते हुए शासकों ने सत्ता छोड़ दी। इस प्रक्रिया में रक्तपात भले न हुआ हो, पर क्रांतिकारी हिंसा या बले-प्रयोग का तथ्य अंतर्निहित है।

आतंकवाद बनाम सशस्त्र जनक्रांति

क्रांतिकारी आतंकवादी हिंसा जनक्रांतियों की संगठित क्रांतिकारी हिंसा से सर्वथा अलग चीज है। फांसी से पहले, जेल में गहन अध्ययन करते हुए भगतसिंह भी क्रांतिकारी आतंकवादी हिंसा की निष्फलता को समझ चुके थे। अपने आखिरी महत्वपूर्ण दस्तावेज में क्रांतिकारी कार्यक्रम का नया मसौदा पेश करते हुए आतंकवाद की आलोचना की थी और सशस्त्र जनक्रांति की ऐतिहासिक अपरिहार्यता को स्वीकार करते हुए इसके लिए मजदूरों-किसानों की व्यापक आबादी को संगठित करने पर बल दिया था।
क्रांतिकारी आतंकवाद के अतिरिक्त प्रतिक्रियावादी, धार्मिक कट्टरपंथी आतंकवाद भी संगठित आतंकवादी हिंसा का एक रूप है। आज ऐसे कई संगठन अमेरिका साम्राज्यवाद का विरोध करते हैं, लेकिन वे सेक्युलरिज्म, जनवाद और समाजवाद के भी उतने ही विरोधी हैं। ये धुर प्रतिक्रियावादी फासिस्ट ताकतें हैं, जो हर स्तर पर विज्ञान और प्रगति का विरोध करती हैं और वर्तमान की पूंजीवादी आपदाओं से निजात पाने के लिए धर्म और अतीत को अपना अंतिम शरण्य बनाती हैं। ये ताकतें वस्तुतः साम्राज्यवाद और पूंजीवाद की ही भस्मासुर हैं। | महत्वपूर्ण बात यह है कि आतंकवाद – अपने क्रांतिकारी और प्रतिक्रियावादी, दोनों ही रूपों में, साम्राज्यवाद और पूंजीवाद की दमनकारी राज्य सत्ताओं की प्रतिक्रिया है। राजकीय आतंकवाद सभी आतंकवादों की जननी होती है। राज्य सत्ता की संगठित और संरचनागत हिंसा ही समाज में अराजक हिंसा (व्यक्तिगत हिंसा और भीड़ की हिंसा) और संगठित आतंकवादी हिंसा के विविध रूपों को जन्म देती है। राज्य सत्ता की संगठित हिंसा का प्रतिकार संगठित जनशक्ति की संगठित क्रांतिकारी हिंसा द्वारा ही किया जा सकता है। आतंकवाद ऐसी किसी जनक्रांति की संगठक शक्ति की अनुपस्थिति, कमजोरी या विफलता के कारण फलता-फूलता है। साथ ही, वह गतिरोध और विपर्याय के अंधकार में निराशा और दिशाहीन विद्रोह की भी एक अभिव्यक्ति होता है।
मार्क्सवाद निरपेक्ष रूप में हिंसा का महिमामंडन कदापि नहीं करता। वह हिंसा की विरुदावली नहीं गाता। अपने अंतिम लक्ष्य के तौर पर वह हिंसा या किसी भी रूप में किसी नागरिक के विरुद्ध बल-प्रयोग का विरोधी है। पर हिंसा या बल-प्रयोग के जरिए कायम सत्ता-संरचना और समाज-संरचना को ध्वस्त करने के लिए वह हिंसा या बलप्रयोग की ऐतिहासिक आवश्यकता को स्वीकार करता है। इस तरह, सामाजिक बदलाव में संगठित क्रांतिकारी हिंसा की भूमिका को वह ऐतिहासिक-दार्शनिक स्तर पर स्वीकार करता है। मार्क्सवाद एक वर्गविभाजित, हिंसा-आधारित सामाजिक ढांचे में न्यायपूर्ण हिंसा और अन्यायपूर्ण हिंसा के बीच, अल्पसंख्यक उत्पीड़कों की दमनकारी हिंसा और बहुसंख्यक उत्पीड़ितों की प्रतिकारी हिंसा के बीच, अंतर करने पर बल देता है। इसलिए, निरपेक्ष अर्थों में यदि कोई मार्क्‍सवादियों को हिंसा का पुजारी’ कहता है तो वह अश्लील ढंग से मार्क्सवाद का विकृतिकरण ही करता है।

लोकमत समाचार, दीपावली विशेषांक 2010 से साभार


 

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