“रामराज्य” में राजस्थान में पसरी भयंकर बेरोज़गारी!

मुनीश मैन्दोला

राजस्थान में बेरोज़गारी की हालत पूरे देश की तरह ही भयानक है। राजस्थान में पिछले 7 सालों में मात्र 2.55 लाख  सरकारी नौकरियाँ निकलीं और इनके लिए 1 करोड़ 8 लाख 23 हज़ार आवेदन किये गये यानी कि हर पद के लिए 44 अभ्यर्थियों के बीच मुकाबला हुआ! राजस्थान में हाल ही में रीट की परीक्षा हुई जिसमें केवल 54 हज़ार पद थे (शुरू में केवल 34 हज़ार पद थे जो कि चुनावी साल होने के कारण चालाकी से बढ़ाये गये) और लगभग 10 लाख नौजवानों ने परीक्षा दी। लेकिन उसमें भी भर्ती अटक गयी क्योंकि राजस्थान सरकार की काहिली के कारण पेपर आउट हो गया। क्लर्क ग्रेड परीक्षा में 6 लाख से अधिक उम्मीदवारों ने परीक्षा दी थी। पुलिस कांस्टेबल 2017 की परीक्षा में 5500 पद थे जिसके लिए 17 लाख आवेदन आये यानी कि एक पद के लिए 310 लोगों ने आवेदन किया। विधानसभा में चपरासी भर्ती परीक्षा के लिए 18 पदों के लिए 18 हज़ार आवेदन आये यानी कि एक पद के लिए 1 हज़ार लोगों ने फ़ार्म भरा। सब इंस्पेक्टर 2016 की परीक्षा में 300 पदों के लिए तीन लाख लोगों ने आवेदन किया था। विश्वविद्यालय सहायक 2015 में हुई भर्ती के लिए महज़ 33 हज़ार पदों के लिए 10 लाख बेरोज़गा़रों ने आवे‍दन किया था। आरटेट 2011 में दोनों स्तरों पर क़रीब 10 लाख 79 हज़ार परीक्षार्थी शामिल हुए। भाजपा सरकार ने इस साल चुनावी वर्ष होने के कारण जनता को बेवक़ूफ़ बनाने के लिए घोषणाओं के पकोड़े तलते हुए बताया कि वह 2018 में एक लाख नौकरियाँ देगी किन्तु हक़ीक़त यह है कि राज्य में अब तक लम्बित 93,000 नौकरियों पर ही इन लोगों ने नियुक्ति नहीं दी हैं और ये पद अब तक लम्बित हैं। पिछले एक दशक से कांग्रेस और भाजपा की पूँजीवादी सरकारों द्वारा सरकारी नौकरियों का निकाला जाना लगभग बन्द किया जा चुका है। प्रदेश में पूर्व सरकार के कार्यकाल में निकली 76 हज़ार भर्तियाँ कब तक लम्बित हैं! जाँच-पड़ताल में सामने आया कि पिछले 5-6 सालों से कई भर्तियाॅा लम्बित हैं और पद ख़ाली पड़े हुए हैं। एलडीसी भर्ती 2013 के 7500 पद ख़ाली हैं। पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार में साल 2013 में निकली ये नियुक्त‍ियाँ आज भी लम्बित हैं। वर्तमान सरकार के कार्यकाल में ही 18 हज़ार भर्तियाँ लम्बित हैं। इसके अलावा पूँजीवादी सरकारें यह बदमाशी भी करती हैं कि भर्ती की घोषणा करके ऐन समय पर भर्ती बन्द करवा देती हैं। राजस्थान अधीनस्थ मन्त्रालयिक एवं सेवा चयन बोर्ड की ओर से कम्प्यूटर ऑपरेटर प्रोग्रामिंग असिस्टेण्ट के 402 पदों के लिए एक लाख 19 हज़ार फॉर्म भरे गये लेकिन परीक्षा की निर्धारित तिथि से 2 दिन पहले भर्ती निरस्त कर दी गयी। पीडब्ल्यूडी में कनिष्ठ अभियन्ता के पद पर 600 पदों पर नियुक्तियाँ निकलीं जिसमें 1 लाख से अधिक आवेदन आये पर परीक्षा तिथि से 4 दिन पहले इसे भी निरस्त कर दिया गया। इसके अलावा कई मामलों में जानबूझकर नियुक्तियाँ नहीं दी जा रही हैं। राजस्थान लोक सेवा आयोग ने 2013 में कनिष्ठ लिपिक के पदों पर 6000 पदों की भर्ती निकाली जिसमें परीक्षा के बाद जि़ला आवण्टन हुआ लेकिन अभी तक नियुक्ति नहीं दी गयी है। पंचायत राज विभाग में कनिष्ठ लिपिक के पदों पर 9200 पदों पर 2013 की भर्ती अटकी हुई है। राजस्थान लोक सेवा आयोग के तहत कई हज़ार पदों पर भर्ती अटकी हुई है।

इसके अलावा राजस्थान सरकार {आरपीएससी (RPSC), राजस्थान अधीनस्थ और मन्त्रालयिक सेवा चयन बोर्ड (RSMSSB), पंचायती विभाग आदि} समय पर सही तरीक़े से परीक्षा नहीं कराने के लिए कुख्यात है। राजस्थान का हर युवा जानता है कि अक़सर इनके पेपर सैटर द्वारा बनाये गये प्रश्नपत्रों पर हाईकोर्ट में रिट लगती रहती है और भर्ती अटक जाती है। 2013 की एलडीसी (LDC), जूनियर अकाउण्टैण्ट की भर्ती अब तक अटकी हुई है!! कई बार प्रश्नपत्र आउट हो जाते हैं। इसलिए उक्त संस्थाओं की जवाबदेही तय की जानी चाहिए, पुराने पेपर सैटरों को हटाकर पारदर्शिता के साथ परीक्षा करवाते हुए, प्रश्नपत्र एनसीईआरटी (NCERT) की पाठ्य पुस्तकों के हिसाब से बनवाये जाने चाहिए, ताकि हर साल प्रश्नों के उत्तर को लेकर अनावश्यक विवाद ना पैदा हो व भर्तियाँ कोर्ट में ना अटकें। आज जैसे समय में नौजवानों की एक मुख्य माँग तो यही बनती है कि तमाम रुकी हुई भर्तियाँ तुरन्त भरी जायें, नये पद सृजित किये, और हर साल लगभग 15 लाख सरकारी नौकरियाँ दी जायें जो कि वसुन्धरा सरकार का वादा भी था। इसके अलावा क्योंकि राजस्थान में कई-कई साल तक भर्ती नहीं निकली है इसलिए आयु सीमा को भी 35 से बढ़ाकर 40 किया जाना चाहिए। उधर कांग्रेस की जनविरोधी नीतियों को आगे बढ़ाते हुए ये सरकार भी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोडवेज़ आदि का सारा काम ठेके पर दे रही है। आँगनबाड़ी कर्मचारी, आशा वर्कर आदि सब ठेके पर हैं। मसलन राजस्थान में सरकारी स्कूलों को ख़त्म करके उनको ”पीपीपी” मोड के नाम पर निजी पूँजीवादी लुटेरों को दिया जा रहा है। ‍शिक्षा में, रोडवेज़ में, अस्पतालों आदि में सारा काम सरकार ठेके पर दे रही है जिससे बेतहाशा महँगाई बढ़ रही है और ये बुनियादी मूलभूत सुविधाएँ जनता की पहुँच से दूर होती जा रही हैं।

इसलिए एक ओर आज के समय में हमें समान शिक्षा-व्यवस्था और गाँव-शहर में रोज़गार की गारण्टी के लिए लड़ना होगा तो दूसरी ओर हमें नियमित किस्म के काम में ठेका प्रथा खत्म करवाने के लिए भी लड़ना होगा। हमें भारत सरकार पर जनदबाव बनाकर ठेका मज़दूरी को पूरी तरह समाप्त करवाने के लिए लड़ना होगा। भारत सरकार ने 1970 के ठेका मज़दूरी (उन्मूलन व विनियमन) अधिनियम में वायदा भी किया था कि वो ठेका प्रथा ख़त्म करेगी पर उल्टे ठेकाकरण बढ़ता गया। श्रम का ठेकाकरण पूरी तरह बन्द होना चाहिए क्योंकि यह मज़दूरों को अरक्षित बनाता है, उन्हें संगठित होने की क्षमता से वंचित करता है, उनकी मज़दूरी को कम करता है, उन्हें गुलामी जैसी कार्य-स्थितियों में धकेलता है और रोज़गार की एक शर्त भी पूरा नहीं करता : न यह रोज़मर्रा के काम की गारण्टी करता है और न किसी प्रकार की आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा देता है। यह मज़दूर वर्ग को आर्थिक और राजनीतिक तौर पर कमजोर करता है और उनसे लड़ने की ताक़त छीनता है। इसलिए ठेका प्रथा को समाप्त करना बेरोज़गार नौजवानों और मज़दूरों की भी एक प्रमुख राजनीतिक माँग बनती है। एक और बात हमें आपस में समझनी होगी कि मौजूदा तमाम चुनावी पार्टियों का मक़सद ही आम जनता को ठगना है। इसलिए हमें इस या उस चुनावी मदारी की पूँछ पकड़ने की बजाय क्रान्तिकारी जनान्दोलनों के द्वारा सरकार पर अपनी माँगों के लिए दवाब बनाना चाहिए। धर्म-जाति-आरक्षण-मन्दिर-मस्जिद-गाय वग़ैरह के नाम पर किये जा रहे बँटवारे की राजनीति को समझकर हमें आपस में फौलादी एकजुटता कायम करके सरकारी अन्याय और पूँजीवादी अन्धेरगर्दी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी होगी।

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2018


 

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