बर्बर ज़ायनवादियों ने ग़ाज़ा में करवाया एक और क़त्लेआम
फ़िलिस्तीनियों‍ ने पेश की बहादुराना प्रतिरोध की एक और मिसाल

आनन्द सिंह

गत 14 मई को यरूशलम में अमेरिकी दूतावास के उद्धाटन के दौरान इज़रायल का रक्तपिपासु प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू जिस समय उस क्षण को ऐतिहासिक क्षण बता रहा था, ठीक उसी समय इज़रायल की सेना ग़ाजा पट्टी की सीमा पर एकत्र फ़िलिस्तीनी प्रदर्शनकारियों पर गोलियाँ बरसा रही थी और ड्रोन के ज़रिये हवाई मार्ग से आँसू गैस के गोले दाग रही थी। इज़रायल के समूचे इतिहास की तरह यह ‘ऐतिहासिक क्षण’ भी निर्दोष फ़िलिस्तीनियों के खून के छींटों से सराबोर हो गया क्योंकि उस दिन इज़रायली गोलीबारी में मासूम बच्चों सहित 60 से ज़्यादा फ़िलिस्तीनी शहीद हो गए और लगभग 3000 लोग ज़ख़्मी हुए। बर्बर ज़ायनवादियों ने जानबूझकर यरूशलम में अमेरिकी दूतावास का उद्धाटन ऐसे दिन करवाया जिसे फ़िलिस्तीन के लोग ‘नक़्बा’ (महाविपदा) के रूप में शोकपूर्वक याद करते हैं क्योंकि 70 साल पहले इसी दिन इज़रायली राष्ट्र का जन्म हुआ और जिसके बाद बड़े पैमाने पर क़त्ले आम हुआ और साढ़े सात लाख फ़िलिस्तीनियों को अपनी ही ज़मीन से बेदख़ल कर दिया गया। उसके बाद से ज़ायनवादियों ने अनगिनत क़त्ले आम अंज़ाम दिए हैं। मौजूदा क़त्ले आम को इसी कड़ी में है। लेकिन अगर ज़ायनवादियों को लगता है कि ऐसे बर्बर क़त्ले आम से वे ग़ाज़ा के बहादुराना प्रतिरोध को कुचल देंगे तो वे भयंकर मुग़ालते में हैं। सच तो यह है कि इस बहादुराना प्रतिरोध को खून में डुबो देने की तमाम साज़िशों के बावजूद यह प्रतिरोध जारी है और उसके पक्ष में दुनिया भर के इंसाफ़पसन्द लोग खड़े हैं।           

इस फ़ि‍लिस्तीनी नौजवान की यह तस्वीर पूरी दुनिया में प्रतिरोध के साहस का प्रतीक बन गयी है। 2008 में इज़रायल की बमबारी में घायल इस नौजवान के दोनों पैर काटने पड़े थे। गाज़ा के विरोध प्रदर्शनों में यह अपनी व्हील चेयर पर ही बैठकर शामिल हुआ था। इस प्रदर्शन के दो दिन इज़रायली सैनिकों ने उसे गोली मार दी।

ग़ौरतलब है कि ग़ाज़ापट्टी की सीमा पर पिछले 30 मार्च से ही ग़ाज़ा के लोग फ़िलिस्तीनी शरणार्थियों की वापसी के लिए, ग़ाज़ा की घेरेबन्दी ख़त्म करने के लिए और इज़रायल में अमेरिकी दूतावास के तेल अवीव से यरूशलम स्थानान्तरित करने के ट्रम्प प्रशासन के फैसले के ख़िलाफ़ ‘ग्रेट मार्च ऑफ़ रिटर्न’ नामक प्रदर्शन कर रहे थे। इस न्यायपूर्ण प्रदर्शन पर किए गए ज़ायनवादी हमलों में अब तक 100 से ज़्यादा प्रदर्शनकारियों की मौत हो चुकी है। 2014 में ग़ाज़ा पर की गई हवाई बमबारी के बाद से यह सबसे भीषण ज़ायनवादी हमला है। लेकिन हमेशा की ही तरह यह कायराना हमला ग़ाज़ा के लोगों की लड़ाकू स्पिरिट का बाल भी बांका नहीं कर सका। अत्याधुनिक हथियारों से लैस इज़रायली सेना का म़ुक़ाबला ग़ाज़ावासियों ने गुलेलों और पत्थरों से किया और इस प्रक्रिया में ज़ायनवादियों की कायरता और ग़ाज़ा की बहादुरी दोनों इतिहास में दर्ज़ हो गई।

पिछले साल के अन्त में ट्रम्प प्रशासन द्वारा यरूशलम को इज़रायल की राजधानी के रूप में मान्यता देने और अमेरिकी दूतावास को तेल अवीव से यरूशलम स्थानान्तरित करने की घोषणा के बाद से अमेरिका व इज़रायल की इस दबंगई के ख़िलाफ़ मुखर विरोध के स्वर पूरी दुनिया में उठे हैं। जहाँ एक ओर इस विरोध का नेतृत्व फ़िलिस्तीन के आम लोग कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर पूरी दुनिया के इंसाफ़पसन्द लोग इस लड़ाई में फ़िलिस्तीनियों के समर्थन में अपने-अपने देशों में रैलियाँ निकाल रहे हैं।

यरूशलम विवाद: इतिहास के आइने में

ग़ौरतलब है कि 1948 में इज़रायल नामक राष्ट्र के जन्मकाल के समय से ही यरूशलम शहर की स्थिति को लेकर चल रहा विवाद फ़िलिस्तीन के प्रश्न का एक अहम पहलू रहा है। 1947 की संयुक्त राष्ट्र की योजना में भी यरूशलम के प्रशासन को एक विशेष अन्तरराष्ट्रीय संस्था के हवाले करने का प्रावधान था जिसे अरब देशों ने खारिज कर दिया था। 1948 में इज़रायल की स्थापना की घोषणा के फ़ौरन बाद इज़रायल और अरब देशों के बीच क़रीब 10 महीने तक युद्ध की स्थिति बनी रही जिसके बाद संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता में युद्धविराम की संधि पर हस्ताक्षर हुए जिसके अनुसार यरूशलम के पश्चिमी हिस्से पर इज़रायल का अधिकार हो गया जबकि पूर्वी यरूशलम जॉर्डन के नियन्त्रण में रहा।

पूर्वी यरूशलम इस्लाम, यहूदी और ईसाई तीनों की धर्मों के अनुयायियों द्वारा अपने-अपने धर्म का पवित्र स्थल माना जाता है। पूर्वी यरूशलम में ही पुराने शहर का वह हिस्सा आता है जिसमें ‘हरम-अल-शरीफ़’ मस्ज़िद स्थित है जो अरब के लोगों के लिए सबसे पवित्र स्थानों में से एक मानी जाती है। यहूदी लोग इस परिसर को ‘टेम्पल माउण्ट’ कहते हैं। इसी परिसर में अल-अक्सा मस्जिद भी स्थित है जिसे इस्लाम की तीसरी सबसे पवित्र मस्जिद के रूप में मान्यता प्राप्त है। 1967 के अरब-इज़रायल युद्ध के बाद पूर्वी यरूशलम का हिस्सा भी इज़रायली क़ब्ज़े में आ गया। हालाँकि इस क़ब्ज़े को अब तक अन्तरराष्ट्रीय मान्यता नहीं मिली है क्योंकि जेनेवा कन्वेंशन के मुताबिक युद्ध के ज़रिये क़ब्ज़ा किये गये भूक्षेत्र की स्थिति सैन्य क़ब्ज़े की होती है। अभी दिसम्बर 2016 में ही संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पारित किया गया था जिसमें यह साफ़ लिखा था कि फ़िलिस्तीन का भूक्षेत्र इज़रायली सैन्य क़ब्ज़े में है। फ़िलिस्तीन के लोगों का पूर्वी यरूशलम से गहरा भावनात्मक लगाव है और वे उसे भविष्य के स्वतन्त्र और एकजुट फ़िलिस्तीन राज्य की राजधानी के रूप में देखते हैं। यरूशलम की विवादित स्थिति के मद्देनज़र ही 1978 के कैम्प डेविड समझौते और 1993 के ओस्लो समझौते में भी यरूशलम की स्थिति को भविष्य में फैसलाकुन बातचीत के लिए टाल दिया गया था। ग़ौरतलब है कि वर्ष 2000 में दूसरे इन्तिफ़ादा की चिंगारी उस समय के इज़रायल के विपक्षी नेता और पूर्व राष्ट्रपति एरियल शैरोन द्वारा ‘टेम्पल माउण्ट’ के परिसर में प्रवेश करने के बाद ही भड़की थी।

 

बौराये हाथी की तरह आचरण करता अमेरिकी साम्राज्यवाद

हाल के समय में ट्रम्प प्रशासन ने एक के बाद एक कुछ ऐसे आक्रामक फैसले लिए हैं जो दिखाते हैं कि अमेरिकी साम्राज्यवाद का हाथी मध्यपूर्व के दलदल में बुरी तरह फँस गया है। ऊपर से आक्रामक दिखने वाले ये फैसले दरअसल अमेरिकी साम्राज्यवाद की बौखलाहट की ही निशानी है। यरूशलम को इज़रायल की राजधानी के रूप में मान्यता देने का फैसला अमेरिकी साम्राज्यवाद की बौखलाहट ही दिखा रहा है। सीरिया में प्रत्यक्ष हमले करने और ईरान से परमाणु करार को तोड़ने के फैसलों को भी इसी रोशनी में देखा जाना चाहिए। इस बौखलाहट का मुख्य कारण यह है कि हाल के समय में समूचे मध्यपूर्व में रूस-ईरान-सीरिया-हिजबुल्ला का पलड़ा अमेरिका-इज़रायल-सऊदी अरब की तुलना में भारी पड़ता नज़र आ रहा है।

ग़ाज़ा नहीं मरेगा

ग़ाज़ा के लोग बरसों से एक खुले कारागार की घुटन भरी फ़िज़ा में जीने को मजबूर हैं। कुछ वर्षों के अन्तराल पर इज़रायल अमेरिका की शह और अपने अत्याधुनिक हथियारों के बूते छोटे-बड़े नरसंहार को अंजाम देता रहता है। इन नरसंहारों के बीच की अवधि में भी ग़ाज़ा में आम जीवन किसी नरक से कम नहीं होता। इज़रायल ने ज़मीन, वायु और समुद्र तीनों ही रास्तों से ग़ाज़ा की नाकेबन्दी कर रखी है जिसकी वजह से भोजन और दवा जैसी बेहद बुनियादी चीज़ें भी वहाँ आसानी से नहीं पहुँच पाती हैं। ग़ाज़ा का 95 प्रतिशत पानी पीने योग्य नहीं है। वहाँ बिजली औसतन केवल 4 घंटे ही आती है। ग़ाज़ा के 45 प्रतिशत युवा बेरोज़गार हैं। वहाँ के लगभग आधे बच्चे में खून की कमी के शिकार हैं और आधे बच्चों में जीने की इच्छा नहीं बची है।

ये वो हालात हैं जो ग़ाज़ा के लोगों को बग़ावत के लिए प्रेरित कर रहे हैं। अत्याधुनिक हथियारों से लैस इज़रायली सेना का मुक़बला ग़ाज़ावासी पत्थरों और गुलेल से कर रहे हैं और इस प्रक्रिया में बहादुराना प्रतिरोध की एक अद्भुत मिसाल पेश कर रहे हैं। इस बहादुराना संघर्ष को दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से समर्थन मिल रहा है। अमेरिका से लेकर यूरोप तक और अफ़्रीका से लेकर अफ़्रीका तक में ग़ाज़ा के समर्थन और इज़रायल के विरोध में रैलियाँ निकल रही हैं और फ़िलिस्तीनियों का संघर्ष स्थानीय न रहकर वैश्विक रूप धारण कर चुका है। कई देशों में इज़रायल के बहिष्कार का आन्दोलन गति पकड़ रहा है। ऐसे में स्पष्ट है कि बर्बर ज़ायनवादी ग़ाज़ा को नेस्तनाबूद करने के लिए जितना ही ज़्यादा बलप्रयोग करेंगे उतनी ही तेज़ी से उनके ख़िलाफ़ जारी मुहिम दुनिया भर में फैलेगी। मध्यपूर्व में जारी अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा में अमेरिकी साम्राज्यवादी खेमे के पलड़े के हल्के होने और अरब देशों के शासकों की फ़िलिस्तीन के मसले पर वायदाख़िलाफ़ी को लेकर वहाँ की जनता में आक्रोश भी फ़िलिस्तीनी संघर्ष के पक्ष को मज़बूत करेगा। इतना तो तय है कि हथियारों के बूते कुछ लोगों का क़त्ले आम तो किया जा सकता है लेकिन गाज़ा की जुझारू स्पिरिट को नहीं ख़त्म किया जा सकता है।  

 

मज़दूर बिगुल, मई 2018


 

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